कोरोना काल के बाद मीडिया की बदलती भूमिका पर संगोष्ठी
★ मीडिया को दृष्टिकोण बदलना चाहिए : जगदीश उपासने
महू (इंदौर) । कोरोना के साथ हमें जीने की आदत डालनी होगी. कोरोना ने मीडिया को एकाएक बदल दिया है और मीडिया इस बदलाव के लिए तैयार नहीं था. कोरोना महामारी के लिए विज्ञान तैयार था और यही कारण है कि एक वर्ष के छोटे समय में टीका बन गया.ज् यह बात देश के सुप्रसिद्ध पत्रकार एवं प्रसार भारती भर्ती बोर्ड के अध्यक्ष श्री जगदीश उपासने ने मुख्य अतिथि की आसंदी से 'कोरोना काल के बाद मीडिया की बदलती भूमिका' विषय पर संगोष्ठी को संबोधित कर रहे थे. इस संगोष्ठी का आयोजन डा. बीआर अंबेडकर सामाजिक विज्ञान विश्वविद्यालय, महू ने किया था. श्री उपासने ने पत्रकारिता में प्रशिक्षण के अभाव की चिंता जाहिर करते हुए कहा कि यह दौर अब विशेषज्ञता का है लेकिन इस महामारी के दौर में हमारे पास प्रशिक्षित पत्रकार नहीं हैं और हमने प्रशिक्षण के बारे में सोचा भी नहीं है. उन्होंने कहा कि मीडिया तदर्थवाद पर चल रहा है. आज जो मुद्दे हैं, उस पर बात कर आगे बढ़ जाओ. उन्होंने कहा कि मीडिया की जवाबदारी थी कि वह वेक्सीनेशन के बारे में समाज को जागरूक करता लेकिन ऐसा नहीं होने की वजह से वेक्सीन को लेकर भ्रम की स्थिति बनी रही. मीडिया को अपना दृष्टिकोण बदलना होगा और सकरात्मक खबरों को प्राथमिकता देना होगी.
संगोष्ठी के आरंभ में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. केजी सुरेश ने कहा कि कोरोना काल में मीडिया में व्यापक बदलाव आया है. उन्होंने प्रिंट मीडिया की विश्वसनीयता को रेखांकित करते हुए कहा कि एक बार छपे शब्दों को हटाया नहीं जा सकता है इसलिए अखबार जिम्मेदार हैं जबकि टेलीविजन में सुविधा है कि वह अगले बुलेटिन में पहली खबर को हटा दे. सोशल मीडिया में भी अपनी पोस्ट को हटाने की सुविधा है. उन्होंने फेकन्यूज की चिंता जताते हुए कहा कि मीडिया साक्षरता अभियान चलाना आवश्यक है. आज फेकन्यूज की वजह से ही टीकाकरण बाधित हो रहा है. उन्होंने इस बात पर संतोष जताया कि समाज के सारे प्रोफेशन में मीडिया एकमात्र प्रोफेशन है जो आत्मवलोकन कर स्वयं की गलती को सुधारने की कोशिश करता है. कोरोना काल में मीडिया की भूमिका सकरात्मक रही है. समाज को प्रेरित करना मीडिया का दायित्व है.
यूनिसेफ भोपाल में पदस्थ कम्युनिकेशन फॉर डेवलपमेंट श्री संजय सिंह ने कहा कोरोना के बाद अवेयरनेस बढ़ा है लेकिन व्यवहार में बदलाव नहीं आया है. उन्होंने कहा कि फेक न्यूज सोसायटी के पास तेजी से पहुंच जाता है लेकिन सही खबरें नहीं मिल पाती है. एक उदाहरण देते हुए बताया कि मध्यप्रदेश के आदिवासी इलाके में टीकाकरण को लेकर झूठी खबर को आधार बनाकर लोगों ने टीका लगाने से मना कर दिया. इस व्यवहार को बदलने में मीडिया की भूमिका गंभीर है. सही सूचना समाज के दूरस्थ अंचलों में पहुंचे इसकी जवाबदारी मीडिया की है क्योंकि संवाद में वही एकमात्र प्रभावी स्रोत है. उन्होंने कहा कि इस महामारी में ऐसा कोई नहीं बचा है जिन्होंने अपना कोई ना खोया हो. उन्होंने कहा कि मीडिया के कई प्लेटफार्म हैं जहां लोगों को सूचना प्राप्त करने में सरलता हो रही है.
मध्यप्रदेश शासन की रोजगारपरक प्रकाशन रोजगार निर्माण के संपादक श्री पुष्पेन्द्र पाल सिंह ने कहा कि कोरोना काल में मीडिया ने कई कठिन शब्दों को ना केवल सहज बना दिया बल्कि उसे आम बोलचाल के रूप में ले आए. वह फिर सोशल डिस्टेंसिंग हो, क्वांरेंटीन हो, होम आइसोलेशन हो आदि आदि. उन्होंने कहा कि यह मीडिया का प्रभाव है कि लोगों को जागरूक करने और उनकी सहायता करने में मदद की. उन्होंने कहा कि एक अनुमान है कि अगले 20 वर्षों में जितने वेबपोर्टल बनना था, उतने कोरोनाकाल के 15 महीनों में बन गए. यह बदलाव एक अच्छा संकेत है. टेक्रॉलॉजी के साथ विविधता भी देखने को मिली लेकिन वैल्यू को लेकर एक सवाल समाज के सामने खड़ा हो गया. उन्होंने सोशो-इकॉनामिक संकट की ओर भी ध्यान दिलाया और कहा कि स्वयं पत्रकार भी गहरे आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं. वर्क फ्रॉम होम ने यह बात भी मीडिया में स्थापित कर दी कि अब जिसका सम्पर्क सूत्र मजबूत और विश्वसनीय होगा, उसके लिए अवसर उतने ही उजले होंगे.
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संगोष्ठी को संबोधित करते हुए देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, स्कूल ऑफ जर्नलिज्म की विभागाध्यक्ष डॉ. सोनाली नरगुंदे ने कहा कि कोरोना काल अभी खत्म नहीं हुआ है और यह कब तक चलेगा, इसका अनुमान लगाना भी मुश्किल है. उन्होंने कोरोना काल में वर्ग संघर्ष के संकट की ओर ध्यान खींचते हुए कहा कि पूंजी और निर्धन के बीच खाई गहरा गई है. यह भविष्य के लिए चेतावनी भरा है और यह समस्या वैश्विक ना बने इसकी ओर ध्यान रखना होगा. उन्होंने प्रिंट मीडिया की विश्वसनीयता का उदाहरण देते हुए कहा कि मीडिया के सारे प्लेटफार्म के बाद भी अखबार में सिंगल कॉलम की खबर छप जाए, इसकी कोशिश होती है. उन्होंने कहा कि मीडिया कभी निर्णायक की भूमिका में ना रहे. डॉ. नरगुंदे ने कोरोना काल में लैंगिग असमानता की ओर ध्यान दिलाते हुए कहा कि घरों में झगड़े बढ़े हैं. लोगों में मानसिक तनाव बढ़ा है लेकिन अखबार में खबरें गायब है. उन्होंने कहा कि अधिकांश मीडिया पूंजीपतियों के हाथों में है जिसके चलते कई संकट आते हैं. मीडिया की सकरात्मक भूमिका की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि अखबारों ने नए स्तंभ शुरू कर लोगों के अनुभव प्रकाशित किए जिससे दूसरों को भी प्रेरणा मिली.
संगोष्ठी की अध्यक्ष एवं कुलपति प्रो. आशा शुक्ला ने अपने उद्बोधन में विषय के बारे में जानकारी दी और विश्वविद्यालय की गतिविधियों के बारे में बताया. उन्होंने कहा कि कोरोना काल में मीडिया की भूमिका पर चर्चा करना आवश्यक प्रतीत होता है. उन्होंने विश्वास व्यक्त किया कि इस संगोष्ठी के बाद विशेषज्ञ अपने सुझाव एवं सिफारिश लिखकर भेजेंगे जिसे पुस्तककार में प्रकाशित किया जा सके. उन्होंने अतिथियों का स्वागत करते हुए नेक एवं मीडिया सलाहकार डॉ. सुरेन्द्र पाठक एवं मीडिया प्रभारी मनोज कुमार ब्राउस को इस सुंदर आयोजन के लिए बधाई दी.
संगोष्ठी की अवधारणा विश्वविद्यालय के नेक एवं मीडिया कंसलटेंट डॉ. सुरेन्द्र पाठक एवं मनोज कुमार ने साकार किया. अपने प्रभावी वक्तव्य के साथ गोष्ठी का सफल संचालन किया. डॉ. पाठक ने कहा कि समाज और मीडिया का अंतर्सबंध है. दोनों एक दूसरे के पूरक हैं अत: समाज विज्ञान विश्वविद्यालय के मंच पर यह विषय सामयिक हो जाता है. मीडिया प्रभारी मनोज कुमार ने संगोष्ठी में उपस्थित विद्वानों एवं संचार विशेषज्ञों का आभार व्यक्त किया. उन्होंने स्मरण दिलाया कि कोरोना के पहले दौर के थमने के बाद जब मजदूर घर वापस जा रहे थे तो मजदूर का एक परिवार इंदौर रूका और जमीन से मिट्टी माथे पर लगाई और मध्यप्रदेश का धन्यवाद कहा कि भूखे पेट को भोजन और नंगे पैर को पहनने के लिए जूते यहीं से मिला था. संगोष्ठी के संयोजन में डीन प्रो. डीके वर्मा, रजिस्ट्रार श्री अजय वर्मा एवं विश्वविद्यालय परिवार का सक्रिय सहयोग रहा.
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