वर्तमान के चौखट पर इतिहास का खूबसूरत अफसाना है "गगन दमामा बाज्यो"
साग़र। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली से प्रशिक्षित और हिंदी फिल्म जगत के अलबेले चरित्र अभिनेता पियूष मिश्र बहुआयामी प्रतिभा के धनी हैं. उनकी सृजनात्मकता का एक पक्ष उनका लेखन है. वे अनेक विधाओं में खुद व्यक्त करते रहे हैं, पर उनके लेखन का उत्कर्ष नाटक "गगन दमामा बाज्यो" में देखने को मिला. यह नाटक शहीदे आज़म भगत सिंह के जीवन और विचार पर केन्द्रित है. पर एक बेहद संवादी शिल्प के प्रयोग से इस नाटक को वर्तमान की चौखट अतीत की पुनर्व्याख्या में तब्दील कर दिया गया है. नाटक की लोकप्रियता का आलम यह है कि भारत के लगभग हर नाट्य समूह ने अपने-अपने ढंग से इस नाटक का मंचित किया है.
पियूष मिश्रा द्वारा लिखित "गगन दमामा बाज्यो" एक ऐसा नाटक है जो प्रत्येक समर्थ नाट्य निर्देशक को आमंत्रित करता है कि आओ मेरे सहारे अपनी शक्ति का परीक्षण करो. इस बार इस चुनौती स्वीकार किया आदित्य निर्मलकर ने. डॉक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर के सांस्कृतिक परिषद् और 'रावन फिल्मस' के संस्थापक रिशांक तिवारी के अथक प्रयत्नों से शहीदे आज़म के शहादत दिवस पर स्वर्ण जयंती सभागार में सागर के कलाकारों के साथ इस नाटक को प्रस्तुत किया गया.
'गगन दमामा बाज्यो' नाटक अपनी कथात्मक व्यंजना में वर्तमान की तार्किकता से इतिहास की गुत्थियों को सुलझाने की रचनात्मक प्रयास है. दरअसल भगत सिंह का जीवन और शहादत जितना भारतीय इतिहास में दर्ज है उससे कहीं ज्यादा और चटख रूप में भारतीय जनमानस की चेतना में विराजमान है. भारतीय स्वत्वबोध का वह चिर युवा यौवन, आजादी और बलिदान का अद्वितीय पर्याय बन गया है. यह नाटक भगत सिंह की चिरागी कथा को इतिहास के अधियारे से बाहर निकालकर नए संदर्भों में परखता है.
नाटक का नैरेशन द्विस्तरीय है. नाटकों के लिए अत्यंत सफल माने जाने वाले 'पूर्वदीप्ति' पद्धति के माध्यम से घटनाओं का चित्रण किया गया है. दरअसल यह नाटक भगत सिंह के साथी रहे और बहुत बाद तक जीवित रहे शिव वर्मा के हवाले से बुना गया है. यही इस नाटक की शास्त्रीयता का सफल सूत्र है. वर्तमान से अतीत के बीच लगातार आवाजाही करते कथासूत्रों को निर्देशक आदित्य निर्मलकर ने बड़े सलीके से पिरोया है. यह एक ऐसी युक्ति है जहाँ थोड़ी सी भी असावधानी नाटक के कथ्य को उलझा सकती थी. वर्तमान में शिव वर्मा की आवेगपूर्ण स्मृतियों के दरम्यां अतीत में घटित भगत सिंह की संघर्ष-कथा को दिखाने के लिए लिए निर्देशक ने प्रकाश का रचनात्मक प्रयोग किया है. यही वह निर्देशकीय कौशल है जिसके द्वारा आदित्य निर्मलकर ने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है. यह नाटक १९६५ में शिव वर्मा और मार्कंड त्रिवेदी के बातचीत के माध्यम से आजादी के उस दौर को जिसमें भगत सिंह और उनके साथी अपने ढंग से इतिहास का एक नया मजबून गढ़ने की कोशिश कर रहे थे, उसका आलोचनात्मक मूल्यांकन करता है.
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कथा-विस्तार के अनुकूल नाटक में पात्रों की संख्या को संयोजित किया गया है. सभी पात्र अपनी भूमिका के साथ न्याय करते हैं. चन्द्रशेखर आजाद की भूमिका में बालमुकुन्द अहिरवार, भगत सिंह की भूमिका में विवेकानद सोनी, सुखदेव के रूप में आनन्द अग्रवाल, राजगुरु के रूप में संजय कोरी, शिव वर्मा के रूप में अरविन्द ठाकुर, मार्तंड त्रिवेदी के रूप में अरविन्द गुडेले के साथ अन्य सभी कलाकार प्रभावित करते हैं. असल में ऐतिहासिक कथानक में सबसे बड़ा किरदार 'इतिहास' ही होता है. अभिनय कर रहे कलाकार बस उस इतिहास के अनुषंगी होते हैं. इस नाटक के कलाकारों ने मंच पर अपने अभिनय का सर्वस्व उड़ेल कर भगत सिंह जैसे इतिहस-पुरुष को एक बार फिर वर्तमान का क्रांतिधर्मी नायक में तब्दील कर दिया. मंच पर अभिनय की इस स्वर्ण शिखर को छू लेना किसी भी अभिनेता के लिए बड़ी बात है. पात्रों के अभिनय की सबसे ख़ास बात उनका सामूहिक और सहयोगी प्रयास था.
गगन दमामा बाज्यो नाटक की कथात्मक संरचना निर्देशक के लिए चुनौती की तरह है. जिसमें आदित्य निर्मलकर ने अपनी रचनात्मक हस्तक्षेप से यादगार बना दिया है. नाटक के कथ्य को सफलता के साथ संप्रेषित करने के लिए निर्देशक ने गीत और संगीत का अत्यंत सृजनात्मक उपयोग किया है. यशगोपाल श्रीवास्तव और पार्थो घोष के संगीत और स्वर ने नाटक की व्यंजना को और अधिक सान्द्र कर दिया है. प्रतिभाशाली कलाकार गगन राज के तबले की थाप और शुभम सेन के ढोलक की अनुगूंज ने भारतीय इतिहास के अनसुने स्वरो को एक रोमांचकारी भाषा में बदल दिया था.
एक तरह से देखा जाय तो यह नाटक विशिष्ट उपलब्धियों से भरे सागर के रंगमंचीय परिदृश्य में एक सुनहले पन्ने की तरह है. रावन फिल्मस के रिशांक तिवारी की कोशिश और संकल्प से सागर में पेशेवर रंगमंच की यह एक शानदार शुरुआत है. इसा नाटक को शहीदे आज़म की याद के बहाने स्थानीय प्रतिभाओं के नयी उड़ान के रूप में देखा जाना चाहिए.
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