तो क्या हम अपने घर भी ऐसे पूछ पूछ कर जायेंगें ....
@ ब्रजेश राजपूत /ABP News Live पर ग्राउंड रिपोर्ट
यूं तो हम उस रोज सुबह हबीबगंज स्टेशन पहुंचे थे पनवेल से रेलगाडी आने वाली थी जिसमें मध्यप्रदेश के प्रवासी श्रमिकों को वापस लाया जा रहा था। प्रवासी श्रमिक इन दिनों बडी खबर है जिसमें दुख दर्द और पीडा सब है। मगर सुबह पांच बजे आने वाली रेल दस बजे तक नहीं आयी थी और ये हमारे लिये हैरानी की बात थी कि जब देश में टेन ही नहीं चल रही उस दौरान चलने वाली इक्का दुक्का टेन भी क्यों कई घंटे देरी से चल रहीं थी खैर हमने यहीं कह कर अपने को समझाया कि भारतीय टेन का मतलब ही देरी से चलने वाली रेलगाडियां हैं। श्रमिक स्पेशल टेन अब बारह बजे आने वाली थी ऐसे में चूंकि दफतर बंद है तो दो घंटे क्या किया जाये तो हम निकल पडे भोपाल के बाहर होशंगाबाद की ओर ग्यारह मील की तरफ जहां एक तरफ होशंगाबाद आने वाला राजमार्ग था जो भोपाल के बाहर से होते हुये विदिशा इंदौर और ग्वालियर तरफ निकलता था। दरअसल पूरे देश में प्रवासी श्रमिक अब सडकों पर है। जेट और बुलेट टेन केे जमाने में वो सैकडों किलोमीटर पैदल सफर कर रहे हैं। असंभव सी दूरियां वो अपने हौसले से तय करने निकल पडे हैं। हमने आजादी के बाद का बंटवारा तो नहीं देखा मगर मजदूरों के विस्थापन के दृश्य देखकर कलेजा मुंह को आता है। ये गरीब मजदूर श्रमिक हर सरकार के भापणांे में सबसे उपर होते हैं मगर सच्चाई में ये सरकारों से कितने दूर हैं ये इन दिनों पता चल रहा है।
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कोरोना से पूरा देश मिल जुलकर लड रहा है और आगे भी लडेगा मगर क्या बेहतर नहीं होता कि लाकडाउन एक लाकडाउन दो और लाकडाउन तीन का सरप्राइज देने से पहले सरकार इन मजदूरांे के रोजगार खाना पीना और उनके घर जाने के बारे में भी सोचती। सडकांे पर उतरे ये मजदूर खुशी खुशी घर नहीं जा रहे ना ही इनको अपने घर से बुलावा आया है कि आजा उमर बडी है छोटी अपने घर में भी है रोटी। मजदूरांे के फोटो देखकर ही उस पर कमेंट करने वाले हमेशा यही कहेंगे कि ये गरीब क्यों शहरों से निकल पडे हैं, ये गांव क्यों जा रहे हैं यहंा इनको किसने भगाया अरे इनको इतना भी नहीं मालुम के रेल पटरी पर सोया नही जाता। मगर ये घरों से क्यों निकले हमें सरयू यादव ने बताया। सरयू यानिकि करीब पैंसठ साल की आयु वाले बुजुर्ग जो पांच दूसरे साथियों के साथ मुंबई के बोरीवली से 29 तारीख को निकले हैं इलाहाबाद जाने के लिये और पिछले आठ दिनों से चलते हुये भोपाल के ग्यारह मील वाले बाइपास पर पहंुचे थे। अभी इनका साढे सात सौ किलोमीटर का सफर हुआ है तकरीबन इतना ही इनको और चलना पडेगा अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिये। पैरों में प्लास्टिक चप्पल, तहमत जैसी लपेटी हुयी सफेद धोती, उपर मोदी कट यानिकी बिना बांहों वाला कुर्ता, कंधे पर लटका हुआ एक बडा सा झोला, एक हाथ में कुछ दूर पहले मिला हुआ कुछ खाने का सामान तो दूसरे हाथ में प्लास्टिक की पुरानी से बोतल से पानी को ठंडा रखने की नाकाम कोशिश, सिर पर बाल तकरीबन उड ही गये हैं तो चेहरा धूप में चलने के कारण झुलसा हुआ सा और इन दिनों सबसे जरूरी चेहरे पर आधा लगा आधा गिरता हुआ ढीला सा मैला मास्क जिसके एक ओर कान पर बुझी हुयी बिडी फंसी थी।
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तकरीबन यही हाल इनके साथ चल रहे पांच दूसरे साथियों का भी था। हां ये जरूर है कि इनमें से दो लोगों के पैरों में छाले पड कर फूट चुके थे और उन पर पटिटयां बांधकर घाव को ढके रखने की कोशिश हो रही थी। दादा क्यों चल पडे इतनी दूर इस धूप में क्या भूख प्यास नहीं लग रही वहीं मुंबई में रूके रहते तो क्या बिगड जाता। मेरे मुंह से ये बचकाने से सवाल होते ही। सरजू दादा चलते चलते रूके मेरी आंखों में झांका और बोले हां भैया रूकना तो हम भी वही चाहते थे। पिछले आठ सालों से तो वहां रूके ही थे। खोली में रहते थे हम सब एक साथ, बुनकर हैं हर सात दिन में पगार मिलती थी जिसमें से कुछ खर्च करते, कुछ घर भेजते थे मगर जब पहले हफते काम बंद हुआ तो हमारे मालिक ने हमें पगार दी फिर दूसरे हफते भी बंद रहा तो पगार नहीं दी राशन पानी दिया फिर तीसरे और चौथे हफते भी काम नहीं खुला तो वो भी क्या करे, हमसे खोली करवा कर कह दिया दूसरा ठिकाना तलाशो। अब बताओ भैया हमें रोजगार और खाना पीना रूकना मिलता तो हम क्यों इन तेज धूप भरी सडकों पर पागलों के समान अपने गांव की ओर चलते क्या। सुबह चार बजे से चलना शुरू करते हैं तो बारह एक बजे तक चलते हैं फिर दो तीन घंटे कहीं छांह देखकर रूकते हैं जो रास्ते में मिलता है खाते हैं नहीं मिलता है तो पानी पी पीकर भूख प्यास दोनों मिटाते हैं और रात में जहां सडक किनारे थोडी साफ सुथरी जगह मिल जाती है कुछ घंटे सो जाते हैं। कभी कोई टक वाला बैठा लेता है तो कभी कोई गाडी वाला, इस तरह सफर चल रहा है पिछले आठ दिनों से। हम सबके पास ये छोटा सा मोबाइल है जिससे कभी कभार घर परिवार से बात हो जाती थी मगर चार्ज नहीं हुआ तो बंद पडा है। यही कहानी हम सबकी है निकल पडे हैं तो पहुंच ही जायेगे मगर इस उमर में यूं निकलना हमें भी अच्छा नहीं लग रहा और उस पर भी आप पूछते हो क्यों निकले। इसी सवाल का जबाव पुलिस को देते देते थक गये और अब तुम भी पूछ रहे हो। क्या हम अपने घर भी पूछ पूछ कर जायेगे, ये कहते कहते सरजू भाई की आंखों में आंसू आ गये और वो सुबक सुबक कर रोने लगे,, सरजू भाई के साथ के लोगों ने उनको संभाला और बिना मेरी तरफ देखे वो फिर चल पडे इलाहाबाद की ओर जो यहंा भोपाल से सात सौ किलोमीटर दूर है।
ब्रजेश राजपूत ABP न्यूज़, भोपाल