डर की महामारी या महामारी का डर..!
होम क्वेरेंटाइन में एबीपी न्यूज़ के वीडियो जर्नलिस्ट होमेंद्र देशमुख की कहानी
'डर'…! यह मात्र एक 'शब्द' है । डरिये नही .., बल्कि 'डर' से जीतना है । 'डर' असल मे एक मनोवैज्ञानिक भाषा-कोष का गढ़ा हुआ शब्द है । 'डर' मजे की भी चीज है । अक्सर लोग पैसे खर्च कर के डरावनी फ़िल्म देखने सिनेमाघरों में जाते थे । "डर" का मजा लेते थे । आजकल डराने वाली फिल्में कम आ रही हैं क्योंकि शायद फ़िल्म वाले और जनता समझती है कि अब वो उतने बेवकूफ नही जो पर्दे पर चल रही चलचित्र को डरने के लिए पैसे खर्च करें ।
एक कहानी सुनी है। एक भूत नगर के चौकीदार से बाहर ही टकरा गया । उसने गांव में आने का कारण पूछा । भूत ने कहा आज मुझे पांच सौ लोगों को मारना है । क्योंकि उसको रोकना मुश्किल था । वह नगर के अंदर चला गया । वापस लौटा तो ,चौकीदार ने पूछा तुम पांच सौ लोगों को मारने आए थे और पंद्रह सौ को मार दिया । यह सरासर नाइंसाफी है !
भूत ने कहा- क्या करूँ मैंने तो पांच सौ ही मारे, लेकिन वहां छुप -छुप कर सब देख रहे थे । वो खुद ही मर गए । उनको मैंने नही , उनके 'डर' ने मारा है । मेरा कोई दोष नही ।
'डर' डरने का नही , असल मे मजा लेने की चीज है । डरावनी फिल्मों का मनोविज्ञान यही कहता है । पर अगर मजा नही ले सकते तो उससे बचने को सावधानी भी तो कहते हैं ।
12 मार्च 2020 को यह वैश्विक महामारी घोषित हुआ । पर मीडिया में होने के और लगातार मास्क लगाए लोगों के चेहरे मुझे डराते नही बल्कि हर पल सावधान करते थे । मामला उतना आसान नही था जितना अखबार और टीवी पर दिखते थे । सब को ऐसे खबर बताते समय एक मर्यादा की भाषा अपनानी पड़ती है । और हम सावधानियों को 'डर-किनार' (दरकिनार) करते जाते हैं । क्योंकि हम समझते हैं कि हम उन डरपोकों में नही जो मास्क लगाए घूम रहे हैं । खुद मीडिया के वीडियो जर्नलिस्ट (कैमरामैन) होने के कारण , साथ काम कर रहे , दिल्ली से आए एक पत्रकार को मैंने दस मार्च को मास्क लगाए देखा । मैं तो पहली फुर्सत मिलते ही एक मास्क खरीद लाया । दो तीन दिन और किसी को लगाते नही देखा तो मैंने भी अपना भी 'डर' पोस्टपोंड कर दिया । लेकिन मैंने किसी से भी हाथ मिलाना बंद कर दिया । केवल नमस्कार ! थोड़ा आपसी दूरी की सावधानी बनाने की कोशिश शुरू कर दी । कभी सीएम हाउस के बाहर, कभी शिवराज चौहान हाऊस, कभी बीजेपी और कभी कांग्रेस कार्यालय ,विधानसभा ,होटलें और एयरपोर्ट । सब जगह भीड़ और तेजी से संक्रमण या वाहक बनने का खतरा । कई बार नमस्कार करने पर मेरा मजाक भी उड़ा । पर मुझे क्या..!
यह भी पढ़े:ऐसी वीरानगी देखी नहीं कभी..
ब्रजेश राजपूत/सुबह सवेरे में ग्राउंड रिपोर्ट
पड़ोसियों के घर आना जाना यहां तक कि जाते-आते बातें करना बंद कर दिया क्योंकि 3 बीएचके अपार्टमेंट के दो फ्लैट के दरमियां दूरी एक फ़ीट भी नही थी ।ऐसे मे आमने-सामने बात करने का सवाल ही नही , ऊपर से मप्र की राजनीति और सत्ता-बदल के संग्राम में रोज अलसुबह निकलने और देर रात वापसी की अनियमित थकान भरी दिनचर्या ।
मुझे पता था , पड़ोसियों की नजर में मैं गलत कर रहा हूं ,यह शिकायत किसी दिन आएगी । पर मैं कारण बता कर पैनिक नही फैलाना चाहता था । मैंने गलतफहमी दूर करने की जिम्मेदारी मेरी पत्नि को दे दी पर शायद ही उनसे संतुष्ट हों .. मुझे परवाह भी नही थी क्योंकि लगता था , ज्यादा मेल-मिलाप से मैं ही उन तक वाइरस फैलाने का अपराधी बन सकता था ।
लगातार , तेज होती भीड़भाड़ वाली राजनैतिक गतिविधियों के बीच मीडिया कवरेज के कारण मैंने शायद पंद्रह मार्च को घर मे अपना कमरा और बिस्तर अलग कर लिया । वापस जाकर कपड़े अलग रखना । फिर बाद में रोज खुद साफ करना ,आदत बन गई थी । खैर, एक दिन बाद सेनेटाइजर खरीद कर गाड़ी में रख लिया । पर, बड़े कंजूसी भी करते रहे । मास्क और सेनेटाइजर सील बंद शोभा बढ़ा रहे थे । उन्नीस मार्च को मुख्यमंत्री कमलनाथ के निवास पहुँचते पहुँचते आखिर सेनेटाइजर का बोतल खोल ही लिया । लगा इतने बड़े आदमी को हमारी वजह से कोई खतरा नही होना चाहिए । मैं इतना सतर्क रहा कि सबसे दूर अलग बैठा ,अपने बजाय मेरे क्रम के पहले , जो माइक उनके गिरेबान को छू रही थी उसे बिना निकाले मैंने उसी से अपना भी काम चला लिया ।
सेफ डिस्टेन्स और सेल्फ अवेर्नेस, डर नही ! डर की जीत है । पर अवेर्नेस और सावधानी ही इस महामारी का बचाव है यह पूरी तरह इस दिन तक समझ मे आ चुका था । वापस आफिस आने पर मेरे वरिष्ठ ब्रजेश जी ने मुझे एक मास्क दिया कि उनके किसी शुभचिंतक ने भेजा है । मुफ़्त का मास्क था हमने तो तुरंत पहन लिया ।
दूसरे दिन मुख्यमंत्री निवास में बहुप्रतीक्षित और रहस्य से भरी प्रेसवार्ता थी । पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के निवास मास्क पहन कर पहुँचा मैं अकेला इंसान था ,वहां बगीचे में बैठे लोग मुझे देख कर बुदबुदाने लगे और बाहर से आये उस ग्रुप का लीडर उन्हें आवाज बुलंद कर समझाने लगा कि ये सब वहम है हम गांव के लोगों को डरने की जरूरत नही । बिल्कुल वैसे ही जैसे अंधेरी रात किसी सुनसान गली में हम हनुमान चालीसा पढ़ने लग जाते हैं । असल मे हनुमान चालीसा हमें बचाए न बचाए बल्कि उस सूनेपन में हमे अपने ही आवाज का साथ मिल जाया करता है ।
सायरन बजा हाथ धोने का, कलेक्टर ने की शुरुआत,सागर में हर तीन घण्टे में बजेगा
दिग्विजय सिंह के पीछे पीछे हम मुख्यमंत्री निवास के द्वार पहुचे ,एक पुलिसाधिकारी ने मुझे इशारे से अपनी गाड़ी के पास बुलाया और अपने पीछे आकर हॉउस में प्रवेश करने सब को लेकर आने कहा । मैंने उनसे बात करते उनकी गाड़ी को हाथ लगा दिया उन्होंने तुरंत मुझे दूर हटने कहा और अपने पास से सेनेटाइजर निकाल कर मेरे हथेली पर उड़ेल दिया । और सतर्क रहने कहा । असल मे मैं थोड़ा डर गया ..! पर उसी क्षण फिर सतर्क भी हो गया । मेरे चेहरे पर मास्क लगा ही था । नमस्कार और डिस्टेन्स के साथ जितना सम्भव था , अंदर सबकुछ सावधानी बरतने की कोशिश की ।
इस्तीफे अगले दिन कोई खबर नही थी पर आफिस के लिए एक सेनेटाइजर का बॉटल छोड़ वापस घर आ गया । अगले दिन सवा छः बजे सुबह से रविवार जनता कर्फ्यू से निकल कर दोपहर लौट घर पर घण्टी बजाने का इंतज़ार कर रहे थे । आधे घण्टे पहले ही एक वरिष्ठ पत्रकार के सुपुत्री के इस महामारी के संक्रमण की खबर आ गई । हमारे वरिष्ठ ने मुझे फोन कर आगाह किया । वह उससे बड़ी खबर थी । उस युवती के पिता को भी शक के दायरे में लेकर आइसोलेट कर लिया जो एक पत्रकार हैं और वह सी एम हाऊस के उस बड़ी पत्रकार वार्ता में हम सब के साथ उपस्थित थे ।
हमने ऑफिस को बता दिया ,कहीं बाहर मत निकलो किसी से न मिलो घर मे भी सतर्क रहो । काटो तो खून नही ! इतना सुने और निढाल बैठ गए । अब शंख बजने लगे, पांच बज चुके थे। जिस घण्टी ताली और थाली बजाने को धूमधाम से कवर करने वाले थे वो नाद हमारे अपने मन को झकझोरने लगे । पर असल मे ये नाद सकारात्मक ऊर्जा लिए होते हैं ,उसका फायदा मुझे भी मिला और मैं शांत अकेले, कमरे में जाकर बैठ गया ।
ये मेरे क्वेरेंटाइन का पहला दिन था । मैंने घर के उसी कमरे से सब को बता दिया कि मुझसे और दूर रहें ।
बात क्वेरेन्टाइन की नही बात सम्भावित खतरे की थी । घर मे और ज्यादा डिटेल नही बताया । मैं नही जानता कि मेरी पत्नी ने क्या सोचा, बच्चे ने क्या सोचा । सब टीवी पर चल रहे भोपाल के पहले संक्रमित युवती की ब्रेकिंग न्यूज़ में खो चुके होंगे । अब बाकी सावधानियों के साथ हाल में डिस्टेन्स मेंटेन कर खाना खाना ,मेरी थाली अलग धुलवाना ,जूठन न छोड़ना आदि शुरू हो गया ।
अब तो संदेही पत्रकार के रिपोर्ट का बेसब्री से इंतज़ार था । दिन में दो बार फोन करते, सुबह अख़बारों में ढूंढते ,दोस्तो से पूछते । बेचैनी भरे , उम्मीद के तीन दिन और तीन रातें बीत गए । जबलपुर और इंदौर सहित देश भर के आंकड़े आते तो भोपाल का नाम नही होने पर थोड़ा सुकून पाते । 25 तारीख की सुबह पत्नी ने कमरे के बाहर दस्तक दी ,पड़ोसी अपने से बात नही करने का कारण पूछ रहे , आप दरवाजे के पास आकर बता दीजिए । हां-ना करते मैंने बता ही दिया कि भोपाल की पहली पाज़िटिव लड़की के पिता पत्रकार हैं इसलिए मैं आप सब से डिस्टेन्स मेंटेन कर रहा हूँ । अब बताने को एक सटीक कारण था ।
इसी दिन दोपहर 1 बजे उस इंतज़ार का कड़वा फल आ ही गया । दनादन ब्रेकिंग पटकने लगी वाट्सअप फेसबूक टीवी चैनल सब जगह । मेरे परिसर के पांचों फ्लैट की टीवियों से आवाज गूंजने लगी 'भोपाल में पत्रकार पॉज़िटिव ..!' पत्नी ने अपने डर को छुपाने का बहाना करते बनावटी और कुटिल मुस्कान लेते आकर पूछा – आप भी उस दिन सीएम हाउस में थे ना..!
ये सवाल का जवाब उनको भी पता था ..फिर भी पत्नी ने मुझसे हां करवा ही लिया..!
अब वो फ़्लैश बैक में याद करने लगीं ..धन्यभाग ..! जो आप अलग रह रहे थे ,छोटी मोटी लापरवाही हुई थी लेकिन वो इस वाइरस के सतर्कता की श्रेणी में नही आते थे ।
वरिष्ठ, मित्र ,कंट्रोल रूम और कलेक्टर साहब से बात हुई और हम होम क्वेरेंटाइन के आगे अब हम ऑफिसियली रूम क्वेरेंटाइन में चले गए ।
सेल्फ क्वेरेंटाइन की पहली रात एक बजे तक आई फोन के नोट में लिखे सारी डायरी पर नजर डालते रहे । कब कहाँ किससे मिले क्या सावधानी बरते, कितने समय और कब और किसने मेरे सामने छींक मारी..
जी..! पिछले 19 मार्च से मेरी निजी और सार्वजनिक गतिविधियों का मेरे फोन पर लेखा जोखा था । सब सुरक्षित जानकर लात तान सो गए । बा-मुश्किल एक नींद सोए ही थे कि रात लगभग तीन बजे ही आंख खुल गई ,एक शंका मन मे आई और फोन के नोट्स को फिर चेक करने लगे । क्या पता मुख्यमंत्री निवास के उस प्रसिद्ध पत्रकार-वार्ता में कहीं उन संक्रमित पत्रकार और महामारी के भोपाल से दूसरे पीड़ित से कहीं भीड़ में टकरा ही गए हों । थोड़ी ठंड सी लगने लगी , गला चुभने सा लगा । सांस फूलने सी लगी ..! थर्मामीटर मांगने पत्नी को जगाया , 98.4 डिग्री .. धत्त तेरे की सारा मन का वहम था । पत्नी ने डांटा देख नही रहे बाहर बारिश हो रही .. एक चादर और ले लो और चुपचाप सो जाओ ..!
देर सुबह कानों में आवाज गूंजी ..चाय बनाऊं या और सोओगे ..?
चाय पी , योगा किया और क्वेरेन्टाइन के बाद पहली सुबह पर एक भारी दिन चढ़ने लगा । दोपहर तीन बजे फिर बारिश शुरू हो गई और फिर चुपके से थर्मामीटर दबा कर बैठ गए । अब तो माप 94.7 डिग्री था । शाम की चाय के बाद किसी प्रवचन में 'डर' के भूत की कहानी सुनी और शायद मेरे मन से वह डर का भूत भी भाग गया ..! असल मे हमें उसी 'डर' से जीतना है । कहते हैं 1920 में भी महामारी फैली थी तब भी इसी डर ने लोगों को ज्यादा मारा था । महामारियों में यह 'डर' बड़ा नकारात्मक परिणाम देता है , शब्द ही ऐसा है । अब जो डरावनी फिल्में देखने को जागरूक जनता थियेटर में नही जाती वह इस डर से भला क्यों डरेगा ।
तो आप भी मान लीजिए, आजकल डरने का नही ल डर का मजा ले कर उसे जीतने के दिन हैं ।
वैसे रामसे ब्रदर्स इन दिनों कौन सा फ़िल्म बना रहे आप को पता है क्या..?
(लेखक होमेन्द्र देशमुख,एबीपी न्यूज़ भोपाल के वीडियो जर्नलिस्ट है)