आदिवासियों का परम्परा एवं ज्ञान से विमुख होने के घातक परिणाम आ रहे हैं - प्रो. गौतम क्षत्रिय
#तीन दिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन तथा पारम्परिक चिकित्सा पद्धति शिविर
सागर। डाॅ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (म.प्र.) में स्वदेशी ज्ञान अध्ययन केन्द्र एवं मानव विज्ञान विभाग के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन के प्रभारी प्रो. काशी कैलाश नाथ शर्मा ने बताया कि आज चार तकनीकी सत्रों के अन्तर्गत 24 शोधपत्र पढ़े गये जिनमें प्रो. गौतम क्षत्रिय मानव विज्ञान विभाग, दिल्ली ने अपने शोध पत्र परम्परागत स्वास्थ्य प्रथाओं एवं भारतीय आदिवासियों के स्वास्थ्य में बदलाव विषय पर केन्द्रित शोधपत्र में कहा कि भारत में 703 आदिवासी समुदाय हैं जिनमें 75 अति पिछड़ी जनजातियाँ हैं। 90 हजार ग्रामों में 50 प्रतिशत आदिवासियों की आबादी है। यह मूलधारा से बिलकुल अलग हैं। प्रत्येक की परम्परागत स्वास्थ्य पद्धतियाँ हैं। इनकी एक सामाजिक संरचना है। इनका एक मुखिया होता है जिसके निर्णय को सभी मानते हैं। अंधविश्वासी हैंै। भूतप्रेतों पर विश्वास रखते हैं। ये लोग अपनी बीमारियों का उपचार मूल भावनाओं से जुड़ी जड़ी-बूटियों से करते हैं। इनमें कुपोषण, उदर रोग आज के समय में अत्यधिक हानिकारक सिद्ध हो रही हैं। उन्होंने कहा कि अपनी संस्कृति से हटकर आधुनिकता के प्रभाव में आने के कारण इन्हें हृदय रोग व मोटापा एक चिन्तीय स्थिति उत्पन्न कर रही है। आदिवासियों के परम्परागत स्वास्थ्य उपचार पद्धतियाँ इन बीमारियों को ठीक करने में सक्षम नहीं हैं। उनके स्वास्थ्य सम्बन्धी नये आचरण तथा परम्परा एवं ज्ञान से विमुख होने के घातक परिणाम आ रहे हैं। हमें जरूरत है कि इस पर चिन्तन करें एवं शोध करके उन्हें नई दिशा देंवे।
प्रो. अभिषेक घोष, पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़ ने अपने शोधपत्र में कहा कि आदिवासियों का ज्ञान पौराणिक है। उसे विकसित समाज के लोग उपयोग करके अपना लेते हैं। उनकी धरोहर उपयोग करते वक्त भूल जाते हैं कि यह उनकी देन है। उनके इस ज्ञान को वैज्ञानिक रूप में शोध करके अपनी बौद्धिक सम्पदा लेते हैं जिनमें दवाई कम्पनियाँ एवं मार्केट भी सम्मिलित है। जैसे आदिवासियों की जड़ी-बूटियाँ उनमें पाये जाने वाले तत्व, जिस रोग में वे उपयोग करते हैं, उसे दवा के रूप में विकसित करके अपना टेªडमार्क लगा लेते हैं। तब मूल व्यक्ति जहाँ का तहाँ रह जाता है। उन्होंने कहा कि टेक्सटाइल-कपड़ा, क्रोप, कृषि से जुड़ी खाद्य सामग्रियाँ वनोपज प्रमुख हैं। उन्होंने झारखण्ड के उराॅव, मुण्डा, संथाल, चेरव, असुर, बिहोर जनजातियों के बीच शोध कार्य सम्पन्न किया है जिसमें पाया कि उनके अनाजों में कई तरह के चावल देखने में आये हैं जिनका बोउनी एवं कटनी का समय अलग-अलग है। प्रत्येक का स्वाद अलग-अलग है। जिनकी अलग-अलग खाद्य सामग्रियाँ बनाई जाती थी, आज लुप्त हो रही हैं। कुछ चावल तो बासमती चावल से ज्यादा खुशबूदार देखने को मिले हैं, परन्तु आज बाजार के दबाव में वह आधुनिक बीजों के रोपण करने के कारण विलुप्त होते चले जा रहे हैं। यह एक चिन्तन का विषय है। मानव विज्ञान विभाग के शोधार्थी हर्षदीप सिंह धंजल ने अपने शोधपत्र में बताया कि भारत का स्वदेशी ज्ञान मानव कल्याण के लिए अति महत्वपूर्ण आयाम है। बिडम्बना है कि यह ज्ञान विलोपित होने की कगार पर है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में स्वदेशी ज्ञान के संरक्षण के लिए गहन शोध होने की आवश्यकता है।
इस अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में देश-विदेश के विद्वानों में प्रमुख रूप से प्रो. बी.के. तिवारी, मेघालय, प्रो. के.सी. मल्होत्रा, प्रो. ए. एन. शर्मा, नोएडा, प्रो. सी.एस.एस. ठाकुर, जबलपुर, प्रो. सी. के. तिवारी, प्रो. ए.पी. दास, अरूणाचल प्रदेश, प्रो. ए.के. दास, असम, डाॅ. सर्वेन्द्र यादव, श्रीलंका के पारम्परिक चिकित्सक अशोक करूणारथना एवं ववेला अप्पूहामलेज, युगांडा के डाॅ. यहाया सेकेज्ञा तथा दक्षिण अफ्रीका के हसन ओ. काया उपस्थित थे।
नाड़ी वेद्यो ने किया इलाज
गौर समाधि प्रांगण में पारम्परिक चिकित्सा शिविर में सागर के नागरिकों, विद्यार्थियों एवं शिक्षकों एवं अधिकारियों ने अपना उपचार करवाया, जिनमें आँखों के उपचार हेतु 200 लोगों का पंजीयपन एवं अन्य रोगों पर 450 लोगों ने उपचार करवाया। साथ ही लगभग दो हजार लोगों ने आयुर्वेदिक परम्परागत पद्धतियों का अवलोकन किया और वैद्यों से जड़ी-बूटियों के नुख्से जाने। आयुर्वेद संजीवनी केन्द्र, भोपाल के वैद्य एम.एस. मकरानी व संतोष चैधरी पातालकोट ने भारत की प्राचीन पद्धति अलागूकर्म (लोटा पद्धति) से अनेक लोगों का उपचार करते हुए बताया कि यह परम्परा हमने अपने गुरू शारदा प्रसाद त्रिपाठी, बाबा नागनाथ, जबलपुर से सीखी तथा उन्हें हिमाचल के अनानन्द महाराज जी सिखाई थी। उन्होंने कहा कि बढ़ती उम्र के कारण शरीर में वात बढ़ने से अनेक प्रकार के दर्द आ जाते हैं जिससे साइटिका (ग्रहदसी), संधिवात, शीतवात जैसे रोग आ जाते हैं। इन रोगों के कारण शरीर में दर्द बढ़ जाता है तथा लीवर के बिगड़ने के कारण चर्मरोग प्रकट हो जाते हैं। वे बताते हैं कि यह पद्धति दो भागों में विभाजित है-एक अग्नि पद्धति और दूसरी जल पद्धति। इससे दूषित वायु निकल जाती है तथा दबी हुई नस खुल जाती हैं। साथ ही कुछ आयुर्वेदिक औषधियाँ भी उपचार के रूप में देते हैं, जिनमें साइटिका के लिए केओकंद, वनसिंघाड़ा, अश्वगंधा, विधारामूल, रासना, रासनाबत्ती, समभालू का सम्मिश्रण चूर्ण देने से रोगों से मुक्त हो जाता है। लीवर के बिगड़ने पर भूतवृक्ष की छाल, पुनर्वा, भूआँँवला, पित्तपोपड़ा घास की चूर्ण देते हैं तथा फंगल इंफेक्शन में वैसलीन, मोम देशी, सफेद मिर्च का रस एवं सफेद सुरमा जैसी औषधियों को मिलाकर एक मलहम तैयार करते हैं जिन्हें लगाने से चर्मरोग समाप्त हो जाते हैं। जब लोटा पद्धति से इलाज करते हैं तो उनके निकालने के बाद अरण्डी का तेल, सतअजवाइन, नीलगिरी वृक्ष के फल से बना हुआ तेल लगाते हैं। औजार के रूप में अपने साथ वह ठप्पा (छैनी), हथौड़ी, सारूक वृक्ष की लकड़ी का शूल (रूल) को शरीर पर चलाते हैं तो सभी दर्द से मुक्ति मिलती है। उनका कहना है कि इस वृक्ष की लकड़ी में कुछ ऐसे रासायनिक तत्व हैं जो दर्द का हरण कर लेते हैं। वैद्य लोमश कुमार वच्छ, कोरबा, छत्तीसगढ़ ने नाड़ी के माध्यम से वात रोग, एलर्जी, पथरी, धातु दोष, प्रमेह, मधुमेह जैसे प्रमुख रोगों की चिकित्सा करते देखे गये। उन्होंने उपचार के रूप में सुधा हरिद्रा, श्यामा तुलसी चूर्ण, गिलोय, विदारी कन्द, फेट कन्द, माल कायनी, बिहारी कन्द, कुउ कन्द, कंठ करंज, नागर मौथा, भुईचम्पा, अनन्तमूल, सफेद मूसली, काली मूसली के बने हुए चूर्णों को भी उपचार में दी। वहीं छत्तीसगढ़ के वैद्य तिलकराम केवरते ने रोगों में दमा, मधुमेह, उच्च रक्त चाप, मिर्गी, पथरी, पीलिया, बबासीर, उदर विकार, कैंसर की बीमारियों के लिए भी आयुर्वेदिक दवाओं से उपचार किया। इस प्रकार आँखों, कमर, जोड़ों का दर्द एवं असाध्य बीमारियों के भी उपचार किये। वहीं आँख सम्बन्धी रोगों छत्तीसगढ़ के वैद्य एवं उनके सहायक वैद्यों ने सैकड़ों लोगों ने अपनी आँखों में दवा डलवाकर उपचार किया। साथ ही अन्य वैद्यों में वैद्य श्रीमती कलावती पटेल, वैद्य ईसाक अली हकीम, वैद्य राघवेन्द्र सिंह राय, टीकमगढ़, वैद्य शुक्ला प्रसाद ध्रवे, बिलासपुर, वैद्य विक्रम सिंह झिझोरिया, वैद्य त्रिभुवन सिंह कंवर, वैद्य तिलकराम केवरते ने अपने परम्परागत तरीकों से सागर नगर के सैकड़ों लोगों ने उपचार करवाया।
इस चिकित्सा शिविर में प्रमुख रूप से अधिष्ठाता प्रो. आर. पी. मिश्रा, संयुक्त कुलसचिव संतोष सहगौरा, सहायक कुलसचिव आर. के. पाल, ए. लक्ष्मी, डाॅ. सुखदेव मिश्रा, अजय परमार, बीनू राना एडव्होकेट, उमेश सिंह क्योलारी, मेडिकल आॅफिसर डाॅ. महेश्वरी, डाॅ. वन्दना गुप्ता, डाॅ. सोनिया कौशल, डाॅ. अरिबम बिजयासुन्दरी देवी, डाॅ. सर्वेन्द्र यादव सहित अनेक शोधार्थी एवं विद्यार्थी उपस्थित थे।