Osho : ओशो की अनूठी कहानी, उनके ही अनुज स्वामी शैलेंद्र सरस्वती की जुबानी
तीनबत्ती न्यूज : 25 मई ,2024
सागर : मध्यप्रदेश के सागर में प्रसिद्ध दार्शनिक ओशो आचार्य रजनीश ( Osho Acharya Rajneesh) के भाई डा शैलेंद्र सरस्वती और मां अमृत प्रिया के सानिध्य में बाहर सुख भीतर शांति विषय पर केंद्रित ओशो समारोह बुद्ध पूर्णिमा से चल रहा है। शहरवासियो में इसको लेकर उत्साह बना हुआ है। इस दौरान जिज्ञासुओ के कई तरह के सवाल भी सामने आ रहे है।
आचार्य रजनीश कौन ? परिचय देना कठिन
आज किसी नए जिज्ञासु ने आचार्य रजनीश जी का परिचय पूछा तो उनके छोटे भाई स्वामी शैलेन्द्र सरस्वती ने कहा कि उनका परिचय देना आकाश को मुट्ठी में बांधने जैसा असंभव काम है। कठिनाई यह है कि किस ओशो का परिचय दिया जाए- मृण्मय दीपक का अथवा चिन्मय ज्योति का? चैतन्य की वह लौ तो कागजी शब्द-पेटियों में समाती नहीं, केवल परोक्ष सांकेतिक भाषा में इशारे संभव हैं, जैसे उनकी समाधि पर अंकित ये स्वर्णाक्षर- जिनका न कभी जन्म हुआ और न ही मृत्यु 11 दिसम्बर, 1931 और 19 जनवरी, 1990 के बीच जो इस पृथ्वी ग्रह पर केवल भ्रमण करने आए।
हां, उस अनूठी और प्यारी माटी की देह के संबंध में अवश्य कुछ कहा जा सकता है जिसमें वह अलौकिक ज्योति अवतरित हुई, और 58 वर्षों तक धरती के अनेक भूखंडों पर अपनी ज्ञान-रश्मियां बिखेरती रही। गौतम बुद्ध के ढाई हजार साल बाद धर्म-चक्र-प्रवर्तक के रूप में अस्तित्व ने धरती पर ओशो को भेजा। अपनी ननिहाल कुचवाड़ा, मध्य प्रदेश में उनका जन्म हुआ। नाना ने प्यार से उनका नाम ‘राजा’ रखा। बचपन के स्वर्णिम सात साल उन्होंने नाना-नानी के प्यार की छांव तले बिताए। नानाजी के देहांतोपरांत 1938 में वे अपने माता-पिता के घर गाडरवारा आए। 10 वर्ष की उम्र में पाठशाला में प्रवेश के वक्त नामकरण हुआ- ‘रजनीश चंद्र मोहन जैन’। हाई स्कूल तक की शिक्षा यहीं पर हुई। उनके सौभाग्यशाली पिता स्वामी देवतीर्थ भारती और मां अमृत सरस्वती ने कालांतर में अपने पुत्र का शिष्यत्व ग्रहण किया, एवं परमज्ञान को उपलब्ध हुए।
21 मार्च 1053 में हुआ आत्मज्ञान
कुशाग्र बुद्धि, विद्रोही स्वभाव, असाधारण प्रतिभा एवं विलक्षण वाक्शक्ति के धनी ओशो, विद्यार्थी जीवन में अपने शिक्षकों तथा सहपाठियों के बीच सदा आकर्षण के केन्द्र रहे। इक्कीस वर्ष की आयु में 21 मार्च, 1953 को वे जबलपुर के भंवरताल उद्यान में मौलश्री वृक्ष के नीचे बुद्धत्व अर्थात् आत्मज्ञान को उपलब्ध हुए। उस समय वे डी. एन. जैन कालेज के विद्यार्थी थे। सन 1956 में सागर विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त कर दर्शन शास्त्र में एम. ए. किया। इसी दौरान एक रात्रि ध्यानमग्न अवस्था में वृक्ष से गिरने पर उन्हें शरीर से आत्मा के अलग होने का अभूतपूर्व अनुभव हुआ। सागर में वह स्थली अब ‘ओशो पहाड़ी’ के नाम से विख्यात है। 1957 में वे संस्कृत कालेज रायपुर में लगभग एक वर्ष तक व्याख्याता रहे। सन 1958 से 1966 तक जबलपुर विश्वविद्यालय में दर्शन शास्त्र के प्राध्यापक रहे।
इस अवधि में वे भारत भ्रमण कर व्याख्यान देते रहे, और वर्ष 1964 से ध्यान शिविरों का संचालन भी आरंभ कर दिया। जीवन के विभिन्न पहलुओं पर अपनी मौलिक व क्रांतिकारी दृष्टि प्रस्तुत करने वाले ‘आचार्य रजनीश’ के रूप में उनकी ख्याति सर्वत्र फैलने लगी। वर्ष 1967 से उन्होंने स्वयं को पूरी तरह धर्म-चक्र-प्रवर्तन एवं मनुष्य के आध्यात्मिक पुनरुत्थान के कार्य में संलग्न कर दिया। विभिन्न रमणीक स्थलों पर दस दिवसीय साधना शिविर लेने शुरु किए। अनेक महानगरों में उन्होंने बीस से पचास हजार श्रोताओं वाली विराट सभाओं को संबोधित किया।
जुलाई 1970 में वे मुंबई आ गए और ‘भगवानश्री रजनीश’ के रूप में विश्व विख्यात होने लगे। इसी साल 26 सितंबर को मनाली में उन्होंने नव-संन्यास दीक्षा देनी आरंभ की। हजारों मुमुक्षु घर-परिवार या नौकरी-व्यापार छोड़े बगैर, अपना सहज-सामान्य जीवन जीते हुए, नए नाम के साथ गैरिक वस्त्र व माला धारण कर आध्यात्मिक साधना में डूबने लगे।
सन 1974 की 21 मार्च को ओशो पूना आश्रम में आ बसे, जहां सात साल तक निरंतर, एक-एक माह के लिए उनके क्रमशः हिन्दी व अंग्रेजी में सुबह डेढ़ घंटे प्रवचन चले। योग, भक्ति, झेन, ताओ, सांख्य, सूफी, हसीद आदि पर तथा बुद्ध, महावीर, मीराबाई, लाओत्से, गोरखनाथ, जीसस, जरथुस्त्र जैसे विश्व के तमाम रहस्यदर्शी संतों के वचनों के गूढ़ रहस्य उजागर किए। उनके अमृत प्रवचन करीब 5000 आडियो-वीडियो कैसेट्स एवं 650 किताबों के रूप में उपलब्ध हैं। लगभग 50 भाषाओं में उनके साहित्य का अनुवाद अब तक हो चुका है।
इस अवधि में वे शाम को नियमित रूप से साधकों को संन्यास दीक्षा, ऊर्जा दर्शन व व्यक्तिगत मार्गदर्शन देते रहे। संन्यास नामों की व्याख्या के माध्यम से ओशो ने अनाहत नाद, अंतस-आलोक, दिव्य ऊर्जा, दिव्य रस-गंध-स्वाद एवं दिव्य प्रेम के गुह्य आयामों की चर्चा की, जिनके संकलन दर्शन डायरियों के रूप में प्रकाशित हुए। प्रतिमाह 11 से 20 तारीख तक दस दिवसीय समाधि शिविरों का आयोजन होता रहा।
मार्च 1981 से उनके कार्य का नया आयाम मौन-सत्संग के रूप में प्रारंभ हुआ। मई 1981 में वे अमेरिका प्रस्थान कर गए जहां उनके शिष्यों ने ओरेगॉन के मरुस्थल में रजनीशपुरम नगर नामक हरा-भरा मरुद्यान बसाया। साढ़े तीन वर्ष के मौन के उपरांत अक्टूबर 1984 में ओशो ने पुनः प्रवचन देना शुरु किया। सितम्बर 1985 में ओशो की सचिव अपनी कुछ प्रमुख सहयोगियों सहित अचानक रजनीशपुरम से चली गई और पीछे छोड़ गई अपराधों की एक लंबी सूची। ओशो ने अन्वेषण के लिए अधिकारियों को आमंत्रित किया, किंतु सरकार ने इस परिस्थिति को, कम्यून नष्ट करने के हथकंडे के रूप में इस्तेमाल किया। बिना किसी वारंट के ओशो को गिरफ्तार कर 12 दिनों तक विभिन्न जेलों में रखने के दौरान उन्हें थैलियम नामक धीमा जहर दिया और अंततः उन्हें अमेरिका छोड़ने को बाध्य किया।
नवंबर 1985 से लगभग नौ माह तक विश्व भ्रमण के दौरान, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देने वाले तथाकथित 21 प्रजातांत्रिक देशों ने, ओशो को या तो अपने मुल्क में प्रवेश की अनुमति नहीं दी अथवा कुछ समय के उपरांत निष्कासित कर दिया। इस दौरान भी विभिन्न प्रवचन-शृंखलाएं चलती रहीं। जुलाई 1986 की 29 तारीख को वे मुंबई आए। जनवरी 1987 में पुनः पूना आश्रम पधारे। वर्ष 1989 के आरंभ में उन्होंने अपने नाम से ‘भगवान’ संबोधन हटा दिया और केवल ‘श्री रजनीश’ कहलाने लगे। बाद में उन्होंने ‘रजनीश’ शब्द भी छोड़कर ‘ओशो’ नाम से पुकारा जाना पसंद किया। दिनांक 10 अप्रैल 1989 को उन्होंने अंतिम प्रवचन दिया, तदुपरांत प्रति संध्या मौन सत्संग के माध्यम से अपनी आंतरिक संपदा लुटाते रहे।
जनवरी 1990 की 19 तारीख को ओशो ने अपने शिष्यों के नाम यह संदेश छोड़ते हुए पृथ्वी से प्रयाण किया- ‘मैं अपना स्वप्न तुम्हें सौंपता हूं।’ आज, महापरिनिर्वाण के 34 साल बाद भी ओशो उतने ही विवादास्पद हैं, जितने कि अपने जीवनकाल में रहे। स्पष्ट है कि ओशो की क्रांति-अग्नि आज भी प्रज्वलित है और शायद तब तक जलती रहेगी, जब तक इस जमीन पर एक भी मनुष्य जीवित रहेगा! क्षणभंगुर दीए की संक्षिप्त कथा तो समाप्त हुई किंतु शाश्वत ज्योति की आभा तो फैलती ही रहेगी, और मुमुक्षुओं के जीवन-पथ को आलोकित करती रहेगी।
किताब की बिकी सारी प्रतियां
बुद्ध पूर्णिमा के उपलक्ष में सागर में चल रहे ध्यान शिविर के आयोजक स्वामी आनंद जैन ने बताया कि मंत्री श्री गोविंद सिंह राजपूत ने दो दिन पहले ‘मस्ती भरी जिंदगी’ नामक किताब का विमोचन किया था, उसकी समस्त प्रतियां बिक चुकी हैं। करीब 60 मित्र ओशो के नव संन्यास में दीक्षित हो चुके हैं। 26 तारीख की दोपहर तक शिविर चलेगा।शिविर के दूसरे दिन शहर के कई गणमान्य लोग सद्गुरु स्वामी शैलेंद्र सरस्वती और गुरु मां अमृत प्रिया का आशीर्वाद लेने पहुंचे। इनमें विधानसभा चुनाव में कांग्रेस श प्रत्याशी रही निधि जैन, पूर्व विधायक सुनील जैन, स्वामी विवेकानंद विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. अनिल तिवारी एवं अन्य शामिल रहे।
-प्रस्तुतिः स्वामी शैलेश, स्वामी ऋषि
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