श्री हनुमान चालीसा के दोहे में छिपा है जीवन रहस्य, जाने भावार्थ▪️पंडित अनिल पाण्डेय

श्री हनुमान चालीसा के दोहे में छिपा है जीवन रहस्य, जाने भावार्थ▪️पंडित अनिल पाण्डेय



श्री हनुमान चालीसा के दोहे में छिपा है जीवन रहस्य, जाने भावार्थ

▪️पंडित अनिल पाण्डेय




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हरेक मंगलवार / शनिवार को पढ़ेंगे श्री हनुमान चालीसा के दोहों का भावार्थ
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        💥 हमारे हनुमान जी 💥

तीनबत्ती न्यूज


संकट तें हनुमान छुड़ावै |
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै ||
सब पर राम तपस्वी राजा |
तिन के काज सकल तुम साजा ||

अर्थ – जो भी मन क्रम और वचन से हनुमान जी का ध्यान करता है वो संकटों से बच जाता है।
जो राम स्वयं भगवान हैं उनके भी समस्त कार्यों का संपादन आपके ही द्वारा किया गया।

भावार्थ:-श्री हनुमान जी से संकट के समय में मदद लेने के लिए आवश्यक है कि आपका मन निर्मल हो । आप जो मन में सोचते हों , वही वाणी से बोलते हैं और वही कर्म करते हैं तब आप निश्चल कहे जाओगे और संकट के समय हनुमान जी आपकी मदद करेंगे । 
श्री रामचंद्र  वन में  हैं परंतु अयोध्या के राजा भी हैं । वन के सभी लोग उनको राजा ही मानते हैं इसलिए वे तपस्वी राजा हैं । वे एक ऐसे राजा है जो सभी के ऊपर हैं । तपस्वी राजा  के समस्त कार्य जैसे सीता मां का पता करना लक्ष्मण जी के मूर्छित होने पर संजीवनी बूटी को लाना अहिरावण द्वारा अपहरण किए जाने पर सबको मुक्त कराकर लाना  आदि को आपने संपन्न किया है ।

संदेश- स्थिति कैसी भी हो मन के भाव, कर्म का साथ और वचन को टूटने न दें। यदि आप ऐसा करते हैं तो हर काम में आपको सफलता  जरूर मिलेगी और श्री हनुमान जी का आशीर्वाद भी मिलेगा।

इन चौपाइयों का बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ:-

1-संकट तें हनुमान छुड़ावै | मन क्रम बचन ध्यान जो लावै ||
 इस चौपाई का बार बार पाठ करने से जातक  सभी प्रकार के संकटों से मुक्त रहता है । 

2-सब पर राम तपस्वी राजा | तिन के काज सकल तुम साजा ||
 राजकीय कार्यों मे सफलता के लिए इस चौपाई का बार-बार पाठ करना चाहिए।

विवेचना:-
सबसे पहले हम संकट शब्द पर विचार करते हैं शब्दकोश के अनुसार संकट शब्द का अर्थ होता है विपत्ति या खतरा ।  विपत्ति आपके दुर्भाग्य के कारण हो सकती है । सामूहिक विपत्ति प्रकृति द्वारा दी जा सकती है । खतरा एक मानसिक दशा है क्योंकि आपके मस्तिष्क द्वारा महसूस किया जाता है । जैसे कि आप रात में  सुनसान रास्ते पर जाने पर चोरों या डकैतों का खतरा महसूस कर सकते हैं ।
संकट का एक अर्थ होता है मुश्किल या कठिन समय ।  संकट शब्द का  तात्पर्य है मुसीबत। संकट एक कष्टकारी स्थिती है जिसकी आशा नही की जाती और जिसका निदान पीड़ा (शारिरिक, मानसिक, आर्थिक, अथवा सामाजिक) से मुक्ती के लिये अनिवार्य है। संकट का एक उदाहरण है यूक्रेन के लोग इस समय भारी संकट में है। दूसरा महत्वपूर्ण वाक्यांश मन क्रम वचन है।
रामचरितमानस के उत्तरकांड  में लिखा हुआ है :-
मन क्रम बचन जनित अघ जाई। सुनहिं जे कथा श्रवन मन लाई॥
तीर्थाटन साधन समुदाई। जोग बिराग ग्यान निपुनाई॥
अर्थ :- जो कान और मन लगाकर इस कथा को सुनते हैं, उनके मन, वचन और कर्म (शरीर) से उत्पन्न सब पाप नष्ट हो जाते हैं। तीर्थ यात्रा आदि बहुत से साधन, उपलब्ध हो जाते हैं  । ऐसे लोगों को योग, वैराग्य और ज्ञान में निपुणता अपने आप  प्राप्त हो जाती है ।
मन क्रम वचन का दूसरा उदाहरण भी रामचरितमानस से ही है :-
मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव।
मोहि समेत बिरंचि सिव बस ताकें सब देव॥33॥
भावार्थ :- मन, वचन और कर्म से और कपट छोड़कर जो भूदेव ब्राह्मणों की सेवा करता है, मुझ समेत ब्रह्मा, शिव आदि सब देवता उसके वश में हो जाते हैं॥
इस प्रकार स्पष्ट है कि मन क्रम वचन का अर्थ  पूरी तन्मयता और एकाग्रता से कोई कार्य करना है । किसी कार्य को  करते समय बाकी पूरे संसार को भूल जाना ही मन क्रम वचन से कार्य करना  कहलाता है। इस प्रकार इस चौपाई में तुलसीदास जी कहना चाहते हैं कि आप सभी विपत्तियों से और सभी खतरों से  बच सकते हो अगर आप हनुमान जी में अपना दिल पूरी एकाग्रता के साथ लगाएं । उनका जाप करते समय आपको बाकी सब कुछ भूल जाना चाहिए  । आपका ध्यान सिर्फ और सिर्फ हनुमान जी पर ही हो । ईश्वर की भक्ति 2 तरह से की जाती है । एक अंतर्भक्ति और दूसरा  बहिर्भक्ति  ।  चित्त एकाग्र कर हनुमान जी की मूर्ति के सामने बैठकर , या बगैर मूर्ति के बैठ कर जब हम हनुमान जी को याद करते हैं तो अंतर्भक्ति कहलाती है। इस समय  आप जो जाप करते हैं उसमें आवाज आपके अंतर्मन की होती है । बहिर्भक्ति का अर्थ यह है कि आप मूर्ति के सामने बैठे हुए हैं । शांत दिख रहे हैं और यह भी बाहर से समझ में आ रहा है कि आपका ध्यान इस समय जप में ही है ।
इस चौपाई में अगला महत्वपूर्ण शब्द है "ध्यान" । ध्यान शब्द का अर्थ होता है एक ऐसी क्रिया जिसमें मन कर्म और  वाणी तीनों ही एकाग्र होकर  किसी बिंदु विशेष पर केंद्रित हो जाए । ध्यान दो प्रकार का होता है पहला योगिक ध्यान और दूसरा धार्मिक ध्यान ।  योगिक ध्यान का उदाहरण है योगियों द्वारा या योग क्रियाओं के समय किया जाने वाला ध्यान। इस प्रकार के ध्यान को महर्षि पतंजलि के योग सूत्र में विशेष रूप से बताया गया है । इसमें चित्त को एकाग्र करके किसी वस्तु विशेष पर केंद्रित किया जाता है  । पुराने समय में विशेष रुप से  ऋषि गण भगवान का ध्यान करते थे । ध्यान की अवस्था में ध्यान मग्न व्यक्ति अपने आसपास के वातावरण को और स्वयं को भी भूल जाता है । ध्यान करने से आत्मिक और मानसिक शक्तियों का विकास होता है । अगर कोई व्यक्ति ध्यान मग्न अवस्था में है तो उसे आसपास के वातावरण में होने वाले किसी भी प्रकार के परिवर्तन का असर महसूस नहीं होता है। 
इस प्रकार यह स्पष्ट  है कि अगर आप पूर्णतया  ध्यान मग्न होकर हनुमान जी को बुलाते हैं तो  आपके हर संकट को महावीर हनुमान जी दूर करेंगे  ।  यह बात केवल हनुमान जी के लिए नहीं है । यह बात समस्त महान उर्जा स्रोतो के लिए है जैसे कि अगर आप देवी जी की भक्त हैं और देवी जी को  ध्यान मग्न होकर बुलाएंगे तो वह अवश्य  आकर आपके संकटों को दूर करेंगी ।
धार्मिक ध्यान का  संदर्भ विशेष रुप से बौद्ध धर्म से है । बौद्ध धर्म गुरुओं द्वारा इसे एक विशेष तकनीक द्वारा विकसित किया गया था । बौद्ध मठ के नियम यह कहते हैं इंद्रियों को वश में किया जाए और मस्तिष्क के अंदर घुस कर आंतरिक ध्यान लगाया जाए । हम ऐसा भगवान चाहते हैं जो कि देखता और सुनता हो । जो हमारी परवाह करें । बौद्ध धर्म में भी बोधिसत्व का सिद्धांत कार्य करता है । बौद्ध धर्म में भगवान बुद्ध स्वयं को और दूसरों को आंखें बंद करके मस्तिष्क को सत्य पर केंद्रित करके ध्यान करना सिखाते हैं । जबकि बोधिसत्व स्वयं की आंख और कान खुले रखते हैं  और लोगों को मदद देने के लिए अपने हाथों को आगे बढ़ाते हैं । इस कारण जनमानस शिक्षक बुद्ध के बजाय रक्षक बोधिसत्व पर ज्यादा ध्यान केंद्रित  करता है ।
हिंदू धर्म में हनुमान एक ऐसा स्वरूप बन गए हैं जिनके द्वारा एक परेशान भक्त उम्मीद और ताकत को वापस पा सकता है । हनुमान जी की आराधना करना उनका ध्यान लगाना भक्तों के अंदर शक्ति प्रदान करता है । विपत्ति और संकटों  से लड़ने की शक्ति  यहीं पर प्रारंभ होती है । ध्यान लगाकर हनुमान जी को बुलाने से हनुमान जी द्वारा सभी संकटों का हरण कर लिया जाता है।
अगली पंक्ति है:-
 "सब पर राम तपस्वी राजा, तिन के काज सकल तुम साजा" । 
 इसमें महत्वपूर्ण शब्द है श्रीराम  , तपस्वी , राजा , तिनके काज और साजा ।
सबसे पहले हम तपस्वी शब्द पर ध्यान देते हैं ।
तपस्या करने वाले को तपस्वी कहते हैं । अब प्रश्न उठता है कि तपस्या क्या है । तपस् या तप का मूल अर्थ है प्रकाश अथवा प्रज्वलन जो सूर्य या अग्नि में स्पष्ट होता है।  किंतु धीरे-धीरे उसका एक रूढ़ार्थ विकसित हो गया । किसी उद्देश्य विशेष की प्राप्ति अथवा आत्मिक और शारीरिक अनुशासन के लिए उठाए जानेवाले दैहिक कष्ट को तप कहा जाने लगा। वर्तमान में हम तपस्या  के इसी स्वरूप को मानते हैं । वर्तमान में तपस्या का यही स्वरूप है । साधारण तपस्वी जमीन पर सोता है  ,पीले रंग के कपड़े पहनता हैं ,कम खाना खाता  है ,सर पर जटा जूट धारण करता  है ,नाखून  नहीं काटता है ,। साधारण तपस्वी को वेद पाठी और दयालु भी होना चाहिए । 
उग्र तपस्वी को ग्रीष्म ऋतु में पंचाग्नि, बरसात की रात में आसमान के नीचे रहना, जाड़े में जल निवास , तीन समय स्नान , कंदमूल खाना भिक्षाटन , बस्ती से दूर निवास तथा समस्त प्रकार के सुखों को त्याग करना पड़ता है । 
तीसरे हठयोगी  होते हैं । जो कि उग्र तपस्वी की सभी क्रियाओं को करते हैं । उसके अलावा कोई एक विशेष मुद्रा में जैसे हाथ को उठाए रखना या एक पैर पर खड़े रहना आदि क्रिया भी करते हैं ।
मनुस्मृति  कहता है की आपका कर्म ही आपकी तपस्या है । जैसे कि अगर आपका कार्य पढ़ना है तो पढ़ना ही आपके लिए तपस्या है । अगर आप सैनिक हैं तो शत्रुओं से देश की रक्षा करना आपके लिए तपस्या है ।
भगवत गीता के अनुसार :-श्रीमद् भागवत गीता में तपस्या के बारे में बहुत अच्छी विवेचना उसके 17 अध्याय में श्लोक क्रमांक 14 से 22 तक किया गया है । इसमें उन्होंने तप के कई प्रकार बताए हैं । श्रीमद् भगवत गीता के अनुसार निष्काम कर्म ही सबसे बड़ा तप है ।
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्‌।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते৷৷17.14৷৷
भावार्थ : देवता, ब्राह्मण, गुरु (यहाँ 'गुरु' शब्द से माता, पिता, आचार्य और वृद्ध एवं अपने से जो किसी प्रकार भी बड़े हों, उन सबको समझना चाहिए।) और ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा- यह शरीर- सम्बन्धी तप कहा जाता है ৷৷17.14॥
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते৷৷17.17৷৷
भावार्थ : फल को न चाहने वाले योगी पुरुषों द्वारा परम श्रद्धा से किए हुए उस पूर्वोक्त तीन प्रकार के तप को सात्त्विक कहते हैं ৷৷17.17॥
श्री रामचंद्र जी वन में हैं । एक स्थान पर दूसरे स्थान पर भ्रमण कर रहे हैं । सन्यासी का वस्त्र पहने हुए हैं तथा अपने पिताजी द्वारा दिए गए आदेश का पालन कर रहे हैं । संतो की रक्षा कर रहे हैं तथा उन्हें आवश्यक सुविधाएं भी प्रदान कर रहे हैं । इस प्रकार श्री रामचंद्र जी वन में तपस्वी का सभी कार्य कर रहे हैं । श्री रामचंद्र राजतिलक के तत्काल पहले राज्य छोड़ कर के वन को चल दिए । परंतु उनके बाद भरत जी ने अपना राजतिलक नहीं करवाया । श्री भरत जी ने भी पूर्ण तपस्वी का आचरण किया । वल्कल वस्त्र पहने ,जटा जूट बढ़ाया आदि आदि । श्री भरत जी ने रामचंद्र जी के खड़ाऊ को रख कर के अयोध्या  के शासन को संचालित किया । इस प्रकार अगर तकनीकी रूप से कहा जाए तो अयोध्या के राजा उस समय भी श्री रामचंद्र जी ही थे । अतः तुलसीदास जी ने उनको तपस्वी राजा कहा है । 
रामचंद्र जी भगवान विष्णु के अवतार थे । भगवान विष्णु का स्थान  देव त्रयी मैं सबसे ऊपर है ।इसलिए श्री रामचंद्र  जी सब के ऊपर हैं । अतः यह कहना कि सब पर राम तपस्वी राजा पूर्णतया उचित है ।
जो सबसे ऊपर है, सबसे शक्तिमान है और सबसे ऊर्जावान है उन श्री राम जी का कार्य हनुमान जी ने किया है । अगर हम रामायण को पढ़ें  तो पाते हैं कि  श्री हनुमान जी ने श्री रामचंद्र जी के  अधिकांश कार्यों को संपन्न किया है । जैसे सीता माता का पता लगाना , सुषेण वैद्य को लाना ,जब श्री  लक्ष्मण जी को शक्ति लग गई तो श्री लक्ष्मण जी को मेघनाथ से बचाकर शिविर में लाना , संजीवनी बूटी लाना ,  गरुड़ जी को लाना ,  अहिरावण का वध करना और अहिरावण के यहां से श्री रामचंद्र जी और श्री लक्ष्मण जी को बचाकर लाना आदि आदि । इस प्रकार आसानी से कहा जा सकता है कि श्री हनुमान जी ने श्री रामचंद्र जी के सभी कार्यों को संपन्न किया है । श्री रामचंद्र जी ने जो भी आदेश दिए हैं उनको श्री हनुमान जी ने पूर्ण किया है ।
इस प्रकार हनुमान जी ने तपस्वी राजा श्री रामचंद्र जी के समस्त कार्यों को संपन्न करके श्री रामचंद्र जी को प्रसन्न किया ।
और मनोरथ जो कोई लावै |
सोई अमित जीवन फल पावै ||
चारों जुग परताप तुम्हारा |
है परसिद्ध जगत उजियारा ||

अर्थ :– 
 हे हनुमान जी आप भक्तों के सभी प्रकार के मनोरथ को पूर्ण करते हैं । जिस पर आपकी कृपा हो, वह कोई भी अभिलाषा करें तो उसे ऐसा फल मिलता है जिसकी जीवन में कोई सीमा नहीं होती।
हे हनुमान जी, आपके नाम का प्रताप चारो युगों फैला हुआ है । जगत में आपकी कीर्ति सर्वत्र प्रकाशमान है।

भावार्थ:-
मनोरथ का अर्थ होता है  "मन की इच्छा" । यह अच्छी और बुरी दोनों प्रकार की हो सकती है । अगर हम हनुमान जी के पास ,  मन के अच्छे इच्छाओं को लेकर जाएंगे  तो कहा जाएगा कि हम अच्छे मनोरथ से हनुमान जी से कुछ मांग रहे हैं ।   हनुमान जी हमारी इन इच्छाओं की पूर्ति कर देते हैं । 
चारों युग अर्थात सतयुग त्रेता युग द्वापर युग और कलयुग में परम वीर हनुमान जी का प्रताप फैला हुआ है । हनुमान जी का प्रताप से हर तरफ उजाला हो रहा है । उनकी  कीर्ति पूरे विश्व में फैली हुई है।

संदेश- 
हनुमान जी से अगर हम सच्चे मन से प्रार्थना करते हैं वह प्रार्थना अवश्य पूरी होती है ।

इन चौपाइयों के बार-बार  पाठ करने से होने वाला लाभ:-
1-और मनोरथ जो कोई लावै | सोई अमित जीवन फल पावै ||
2- चारों जुग परताप तुम्हारा | है परसिद्ध जगत उजियारा ||
इन चौपाईयों के  बार-बार पाठ करने से जातक के सभी मनोरथ  सिद्ध होंगे और उसकी  कीर्ति हर तरफ फैलेगी ।

विवेचना:-
ऊपर हमने पहली और दूसरी लाइन का सीधा-साधा अर्थ  बताया है । मनोरथ का अर्थ होता है  इच्छा । परंतु किस की इच्छा ।  मनोरथ का अर्थ केवल  मन की इच्छा नहीं है । अगर हम मनोरथ को परिभाषित करना चाहें तो हम कह सकते हैं की "मन के संकल्प" को मनोरथ कहते हैं । हमारा संकल्प क्योंकि मन के अंदर से निकलता है अतः इसमें किसी प्रकार का रंज और द्वेष नहीं होता है ।  हमारी इच्छा हो सकती है कि हम अपने  दुश्मन का विध्वंस कर दें ।  भले  ही वह सही रास्ते पर हो और हम गलत रास्ते पर हों । परंतु जब हम संकल्प लेंगे और वह संकल्प हमारे दिल के अंदर से निकलेगा तो हम इस तरह की गलत इच्छा हनुमान जी के समक्ष नहीं रख पाएंगे । हनुमान जी के समक्ष इस तरह की इच्छा रखते ही हमारी जबान लड़खड़ा  जाएगी । दुश्मन अगर सही रास्ते पर है तो फिर हम यही कह पाएंगे कि हे बजरंगबली इस दुश्मन से हमारी संधि करा दो । हमें सही मार्ग पर लाओ । हमें कुमार्ग से हटाओ । इस संत-इच्छा पूरी हो इसके लिए हमें हनुमान जी से मन क्रम वचन से ध्यान लगाकर मांग करनी होगी । ऐसा नहीं है कि आप चले जा रहे हैं और आपने हनुमान जी से कहा कि मेरी इच्छा पूरी कर दो और हनुमान जी तत्काल दौड कर आपकी इच्छा को पूरी कर देंगे । इसीलिए इसके पहले की चौपाई में तुलसीदास जी कह चुके हैं "मन क्रम वचन ध्यान जो लावे" । हनुमान जी से कोई मांग करने के पहले आपको उस मांग के बारे में मन में संकल्प करना होगा। संकल्प करने के कारण आपकी मांग आपके मस्तिष्क से ना निकालकर हृदय से निकलेगी । आपके मन से निकलेगी। आदमी के अंदर का मस्तिष्क ही उसके सभी बुराइयों का जड़ है ।  मानवगत बुराइयां मस्तिष्क के अंदर से बाहर आती हैं। आप जो चाहते हो कि पूरी दुनिया का धन आपको मिल जाए यह आपका मस्तिष्क सोचता है ,दिल नहीं । दिल तो खाली यह चाहता है कि आप स्वस्थ रहें । आपको समय समय पर भोजन  मिले । भले ही इस भोजन के लिए आपको कितना ही कठोर परिश्रम करना पड़े ।
मनुष्य के मन का  मनुष्य के जीवन चक्र में बहुत बड़ा स्थान है । मैं एक बहुत छोटा उदाहरण आपको बता रहा हूं । मैं अपने पौत्र को जमीन से उठा रहा था । इतने में मेरे घुटने में कट की आवाज हुई और मेरी स्थिति  खड़े होने लायक नहीं रह गई । मैंने सोचा कि मेरे घुटने की कटोरी में कुछ टूट गया है और मैं काफी परेशान हो गया । हनुमान जी का नाम बार-बार दिमाग में आ रहा था । मेरा लड़का मुझे लेकर डॉक्टर के पास गया । डॉक्टर ने मुझे देखने के बाद एक्सरे कराने के लिए कहा एक्सरे कराने के उपरांत रिजल्ट देखकर डॉक्टर ने कहा कि नहीं कोई भी हड्डी टूटी नहीं है  । लिगामेंट टूटे होंगे । यह सुनने के बाद मन के ऊपर जो एक कर डर बैठ गया था वह समाप्त हो गया । और मैं लड़के का सहारा लेकर चलकर अपनी गाड़ी तक गया । यह मन के अंदर के डर के समाप्त होने का असर था जिसके कारण डॉक्टर को दिखाने के बाद मैं पैदल चल कर गाड़ी तक पहुंचा । एक दूसरा उदाहरण भी लेते हैं । एक दिन में अपने मित्र के नर्सिंग होम में बैठा हुआ था । कुछ लोग एक वृद्ध को स्ट्रेचर पर रखकर  के मेरे मित्र के पास तक आए । उन्होंने बताया कि इनको हार्ट में पेन हो रहा है ।  मेरे मित्र द्वारा जांच की गई तथा फिर ईसीजी लिया गया । इसीजी देखने के उपरांत मेरे मित्र ने पुनः पूछा कि क्या आपको दर्द हो रहा है ? बुजुर्ग महोदय ने कहा हां अभी भी उतना ही दर्द है । मेरे मित्र को यह पुष्टि हो गई कि यह दर्द हृदय रोग का ना हो करके गैस का दर्द है ।जब हमारे मित्र ने यह बात बुजुर्ग वार को बताई तो उसके उपरांत वे बगैर स्ट्रेचर के चलकर अपनी गाड़ी तक गए।  यह मन का आत्म बल ही था जिसके कारण वह बुजुर्ग व्यक्ति अपने पैरों पर चलकर गाड़ी तक पहुंचे । एक बार मन भयभीत हो गया कि हमारी सम्पूर्ण शारीरिक शक्ति व्यर्थ हो जाती है । इसलिए मन का शरीर में असाधारण स्थान है । ऐसा होनेपर भी, भौतिक जीवन जीनेवाले लोग मन की ओर उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं ।  अपने मस्तिष्क को श्रेष्ठ मानते हैं । शरीर के अंदर यह मन क्या है ?   यह आपकी आत्मा है और आत्मा शरीर में कहां निवास करती है यह किसी को नहीं मालूम । आत्मा कभी गलत निर्णय नहीं करती । मन कभी गलत निर्णय नहीं करता । मन के द्वारा किया गया निर्णय हमेशा सही  और उपयुक्त होता है । गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है कि :-
काम, क्रोध, मद, लोभ, सब, नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि, भजहुँ भजहिं जेहि संत।

विभीषणजी रावण को पाप के रास्ते पर आगे बढने से रोकने के लिए समझाते हैं कि काम, क्रोध, अहंकार, लोभ आदि नरक के रास्ते पर ले जाने वाले हैं। काम के वश होकर आपने जो देवी सीता का हरण किया है और आपको जो बल का अहंकार हो रहा है, वह आपके विनाश का रास्ता है। जिस प्रकार साधु लोग सब कुछ त्यागकर भगवान का नाम जपते हैं आप भी राम के हो जाएं। मनुष्य को भी इस लोक में और परलोक में सुख, शांति और उन्नति के लिए इन पाप की ओर ले जाने वाले तत्वों से बचना चाहिए। 
इस प्रकार तुलसीदास जी विभीषण के मुख से रावण को रावण की आत्मा या रावण के मन की बात को स्वीकार करने के लिए कहते हैं ।
रामचरितमानस में तुलसीदास जी यह भी बताते हैं कि संत के अंदर क्या-क्या चीजें नहीं होना चाहिए । इसका अर्थ यह भी है क्या-क्या चीजें आपके मस्तिष्क के अंदर अगर नहीं है तो यह  निश्चित हो जाता है  कि आप मन की बात सुनते हो ।
विभीषणजी रावण को पाप के रास्ते पर आगे बढ़ने से रोकने के लिए समझाते हैं कि काम, क्रोध, अहंकार, लोभ आदि नरक के रास्ते पर ले जाने वाले हैं। काम के वश होकर आपने (रावण) जो देवी सीता का हरण किया है और आपको जो बल का अहंकार हो रहा है, वह आपके विनाश का रास्ता है। जिस प्रकार साधु लोग सब कुछ त्यागकर भगवान का नाम जपते हैं उसी प्रकार आप भी दुर्गुणों को छोड़कर राम के हो जाएं। मनुष्य को  इस लोक और परलोक में सुख, शांति और उन्नति के लिए इन पाप की ओर ले जाने वाले तत्वों से बचना चाहिए।
ऊपर की सभी बातों से स्पष्ट है कि अगर आप काम क्रोध मद लोभ आदि मस्तिष्क के विकारों से दूर होकर के  मन से संकल्प लेंगे और हनुमान जी को एकाग्र ( मन क्रम वचन से ) होकर याद कर उनसे मांगेंगे  तो आपको निश्चित रूप से जीवन फल प्राप्त होगा । परंतु यह जीवन फल क्या है । इसको गोस्वामी तुलसीदास जी ने कवितावली में स्पष्ट किया है।:-

सियराम सरूप अगाध अनूप, विलोचन मीनन को जलु है।
श्रुति रामकथा, मुख राम को नामु, हिये पुनि रामहिं को थलु है।।
मति रामहिं सो, गति रामहिं सो, रति राम सों रामहिं को बलु है।
सबकी न कहै, तुलसी के मते,इतनो जग जीवन को फलु है।।

अर्थात राम में पूरी तरह से रम जाना अमित जीवन फल है । परंतु यह गोस्वामी जी जैसे संतों के लिए है । जनसाधारण का संकल्प कुछ और भी हो सकता है । आप की मांग भी निश्चित रूप से पूर्ण होगी । आपको  किसी और दरवाजे पर जाने की कोई आवश्यकता नहीं है । एक और बात में पुनः स्पष्ट कर दूं कि यहां पर हनुमान जी शब्द से आशय केवल हनुमान जी से नहीं है वरन  सभी ऊर्जा स्रोतों जैसे मां दुर्गा और उनके नौ रूप या कोई भी अन्य देवी देवता या रामचंद्र जी कृष्ण जी आदि  से है ।
 एक तर्क यह भी है कि अपने मन की बातों को हनुमान जी  से कहने की कोई आवश्यकता नहीं है । वे तो सर्वज्ञ हैं । उनको हमारे बारे में सब कुछ मालूम है । वे जानते हैं कि हमारे लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा है। अकबर बीरबल की एक प्रसिद्ध कहानी है जिसमें एक बार अकबर को की उंगली कट गई सभी दरबारियों ने इस पर अफसोस जताया परंतु बीरबल ने कहा चलिए बहुत अच्छा हुआ ज्यादा उंगली नहीं कटी । अकबर इस पर काफी नाराज हुआ और बीरबल को 2 महीने की जेल का हुक्म दे दिया ।   कुछ दिन बाद अकबर जंगल में शिकार खेलने गए ।शिकार खेलते खेलते वे अकेले पड़ गए ।  आदिवासियों के झुंड ने उनको पकड़ लिया । ये आदिवासी बलि चढ़ाने के लिए किसी मनुष्य को ढूंढ रहे थे । अकबर को बलि के स्थान पर लाया गया । बलि देने की तैयारी पूर्ण कर ली गई । अंत में आदिवासियों का ओझा आया और उसने अकबर का पूरा निरीक्षण किया । निरीक्षण के उपरांत उसने पाया कि अकबर की उंगली कटी हुई है । इस पर ओझा ने कहा कि इस मानव की बलि पहले ही कोई ले चुका है । अतः अब इसकी  बलि दोबारा नहीं दी जा सकती है । फिर अकबर को छोड़ दिया गया । राजमहल में आते ही अकबर बीरबल के पास गए और बीरबल से कहा कि तुमने सही कहा था ।अगर यह उंगली कटी नहीं होती जो आज मैं मार डाला जाता ।
 भगवान को यह भी मालूम है कि हमारे साथ आगे क्या क्या होने वाला है । अगर हम एकाग्र होकर हनुमान जी का केवल ध्यान करते हैं तो वे हमारे लिए वह सब कुछ करेंगे जो हमारे आगे की भविष्य के लिए  हितवर्धक हो । उदाहरण के रूप में एक लड़का पढ़ने में अच्छा था । डॉक्टर बनना चाहता था ।  पीएमटी का  टेस्ट दिया जिसमें वह सफल नहीं हो सका ।  वह लड़का हनुमान जी का भक्त भी था और उसने हनुमान जी के लिए उल्टा सीधा बोलना प्रारंभ कर दिया ।  गुस्से में दोबारा मैथमेटिक्स लेकर के  पढ़ना प्रारंभ किया । आगे के वर्षों में उसने इंजीनियरिंग का एग्जाम दिया ।एन आई टी में सिलेक्शन हो गया ।  शिक्षा संपन्न करने के बाद उसने अखिल भारतीय सर्विस का एग्जाम दिया और उसमें सफल हो गया । आईएएस बनने के बाद कलेक्टर के रूप में उसकी पोस्टिंग हुई । तब उसने देखा कि  उस समय जिन लड़कों का पीएमटी में सिलेक्शन हो गया था ,वे आज उसको नमस्ते करते घूम रहे हैं । तब वह लड़का यह समझ पाया बजरंगबली ने पीएमटी के सिलेक्शन में उसकी क्यों मदद नहीं की थी । 
  निष्कर्ष यह है कि आप एकाग्र होकर , मन क्रम वचन से शुद्ध होकर, हनुमान जी का सिर्फ ध्यान करें ,उनसे कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है ,आपको अपने आप जीवन का फल और ऐसा जीवन का फल जो कि अमित होगा, कभी समाप्त नहीं हो सकता होगा हनुमान जी आपको प्रदान करेंगे।
  हनुमान चालीसा की अगली चौपाई "चारों युग परताप तुम्हारा है प्रसिद्ध जगत उजियारा" अपने आप में  पूर्णतया स्पष्ट है । यह चौपाई कहती है कि आपके गुणों के प्रकाश से आपके प्रताप से और आपके प्रभाव से चारों युग में उजाला रहता है ।  यह चार युग हैं सतयुग  त्रेता द्वापर और कलयुग । यहां पर आकर हम में से जिसको भी बुद्धि का और ज्ञान का  अजीर्ण है उनको बहुत अच्छा मौका मिल गया है । हमारे ज्ञानवीर भाइयों का कहना है हनुमान जी  का जन्म त्रेता युग में हुआ है । फिर  सतयुग में वे कैसे हो सकते हैं । इसलिए हनुमान चालीसा से चारों युग परताप तुम्हारा की लाइन को हटा देना चाहिए । इसके स्थान पर तीनों युग परताप तुम्हारा होना चाहिए ।  
हनुमान जी चिरंजीव है । उनकी कभी मृत्यु नहीं हुई है और न उनकी मृत्यु कभी होगी । यह वरदान सीता माता जी ने उनको अशोक वाटिका में दी है ऐसा हमें रामचरितमानस के सुंदरकांड में लिखा हुआ मिलता है :-
अजर अमर गुननिधि सुत होहू।
करहुँ बहुत रघुनायक छोहु।।
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना।
निर्भर प्रेम मगन हनुमान।।"
हर त्रेता युग में एक बार श्री रामचंद्र जन्म लेते हैं और रामायण का  अख्यान पूरा होता है । परंतु हनुमान जी पहले कल्प के पहले मन्वंतर के पहले त्रेता युग में जन्म ले चुके हैं और उसके उपरांत उनकी कभी मृत्यु नहीं हुई है इसलिए वे मौजूद मिलते हैं।  इस प्रकार से चारों युग परताप तुम्हारा कहना उचित लग रहा है । आइए इस संबंध में विशेष रुप से चर्चा करते हैं ।
 ब्रह्मा जी की उम्र 100ब्रह्मा वर्ष के बराबर है । अतः मेरे विचार से ब्रह्मा जी के पहले वर्ष के पहले कल्प   के पहले मन्वंतर  जिसका नाम स्वायम्भुव है के पहले चतुर्युग के पहले सतयुग में हनुमान जी नहीं रहे होंगे । एक मन्वंतर 1000/14 चतुर्युगों के बराबर अर्थात 71.42 चतुर्युगों के बराबर होती है । इस प्रकार एक मन्वंतर में 71 बार सतयुग   आएगा  । अतः पहले  त्रेता युग  मैं हनुमान जी अवतरित हुए होंगे । उसके बाद से सभी त्रेतायुग में हनुमान जी चिरंजीव होने के कारण मौजूद मिले होंगे ।  
  चैत्र नवरात्रि प्रतिपदा रविवार को सतयुग  की उत्पत्ति हुई थी। इसका परिमाण 17,28,000 वर्ष है।     इस युग में मत्स्य, हयग्रीव, कूर्म, वाराह, नृसिंह अवतार हुए जो कि सभी सभी अमानवीय थे। इस युग में शंखासुर का वध एवं वेदों का उद्धार, पृथ्वी का भार हरण, हरिण्याक्ष दैत्य का वध, हिरण्यकश्यपु का वध एवं प्रह्लाद को सुख देने के लिए यह अवतार हुए थे।  इस काल में स्वर्णमय व्यवहारपात्रों की प्रचुरता थी। मनुष्य अत्यंत दीर्घाकृति एवं अतिदीर्घ आयुवाले होते थे।   
  उपरोक्त से स्पष्ट है की पहले कल्प के पहले मन्वंतर के पहले सतयुग में हनुमानजी नहीं थे ।उसके बाद के सभी सतयुग में हनुमान जी रहे हैं ।परंतु प्रकृति के नियमों में बंधे होने के कारण  उन्होंने कोई कार्य नहीं किया है जो कि ग्रंथों में लिखा जा सके।
आइए अब हम हिंदू समय काल के बारे में चर्चा करते हैं ।  
जब हम कोई पूजा पाठ करते हैं तो सबसे पहले हमारे पंडित जी हमसे संकल्प करवाते हैं और निम्न मंत्रों को बोलते हैं ।
 ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: । श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्यैतस्य ब्रह्मणोह्नि द्वितीये परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे युगे कलियुगे कलिप्रथमचरणे भूर्लोके भारतवर्षे जम्बूद्विपे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गतब्रह्मावर्तस्य ............ क्षेत्रे ............ मण्डलान्तरगते ............ नाम्निनगरे (ग्रामे वा) श्रीगड़्गायाः ............ (उत्तरे/दक्षिणे) दिग्भागे देवब्राह्मणानां सन्निधौ श्रीमन्नृपतिवीरविक्रमादित्यसमयतः ......... संख्या -परिमिते प्रवर्त्तमानसंवत्सरे प्रभवादिषष्ठि -संवत्सराणां मध्ये ............ नामसंवत्सरे, ............ अयने, ............ ऋतौ, ............ मासे, ............ पक्षे, ............ तिथौ, ............ वासरे, ............ नक्षत्रे, ............ योगे, ............ करणे, ............ राशिस्थिते चन्द्रे, ............ राशिस्थितेश्रीसूर्ये, ............ देवगुरौ शेषेशु ग्रहेषु यथायथा राशिस्थानस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणविशेषणविशिष्टायां शुभपुण्यतिथौ ............ गोत्रोत्पन्नस्य ............ शर्मण: (वर्मण:, गुप्तस्य वा) सपरिवारस्य ममात्मन: श्रुति-स्मृति-पुराणोक्त-पुण्य-फलावाप्त्यर्थं ममऐश्वर्याभिः वृद्धयर्थं।
संकल्प में पहला शब्द  द्वितीये परार्धे आया है । श्रीमद भगवत पुराण के अनुसार ब्रह्मा जी की आयु 100 वर्ष की है जिसमें से की पूर्व परार्ध अर्थात 50 वर्ष बीत चुके हैं तथा दूसरा परार्ध प्रारंभ हो चुका है। त्रैलोक्य की सृष्टि ब्रह्मा जी के दिन से प्रारंभ होने से होती है और दिन समाप्त होने पर उतनी ही लंबी रात्रि होती है । एक दिन एक कल्प कहलाता है।
यह एक दिन 1. स्वायम्भुव, 2. स्वारोचिष, 3. उत्तम, 4. तामस, 5. रैवत, 6. चाक्षुष, 7. वैवस्वत, 8. सावर्णिक, 9. दक्ष सावर्णिक, 10. ब्रह्म सावर्णिक, 11. धर्म सावर्णिक, 12. रुद्र सावर्णिक, 13. देव सावर्णिक और 14. इन्द्र सावर्णिक- इन 14 मन्वंतरों में विभाजित किया गया है। इनमें से 7वां वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है। 1 मन्वंतर 1000/14 चतुर्युगों के बराबर अर्थात 71.42 चतुर्युगों के बराबर होती है।
यह भिन्न संख्या पृथ्वी के 27.25 डिग्री झुके होने और 365.25 दिन में पृथ्वी की परिक्रमा करने के कारण होती है। दशमलव के बाद के अंक को सिद्धांत के अनुसार नहीं लिया गया है । दो मन्वन्तर के बीच के काल का   परिमाण 4,800 दिव्य वर्ष (सतयुग काल) माना गया है । इस प्रकार मन्वंतरों के बीच का काल=14*71=994 चतुर्युग हुआ।
हम जानते हैं कि कलयुग 432000 वर्ष का होता है इसका दोगुना द्वापर युग , 3 गुना त्रेतायुग एवं चार गुना सतयुग होता है । इस प्रकार एक महायुग 43 लाख 20 हजार वर्ष का होता है ।
71 महायुग मिलकर एक मन्वंतर बनाते हैं जो कि 30 करोड़ 67 लाख 20 हजार वर्ष का हुआ । प्रलयकाल या संधिकाल जो कि हर मन्वंतर के पहले एवं बाद में रहता है 17 लाख 28 हजार वर्ष का होता है। 14 मन्वन्तर मैं 15 प्रलयकाल होंगे अतः प्रलय काल की कुल अवधि 1728000*15=25920000 होगा। 14 मन्वंतर की अवधि 306720000*14=4294080000 होगी और एक कल्प की अवधि इन दोनों का योग 4320000000 होगी। जोकि ब्रह्मा का 1 दिन रात है। ब्रह्मा की कुल आयु (100 वर्ष) =4320000000*360*100=155520000000000=155520अरब वर्ष होगी। यह ब्रह्मांड और उसके पार के ब्रह्मांड का कुल समय होगा । वर्तमान विज्ञान को यह ज्ञात है कि ब्रह्मांड के उस पार भी कुछ है परंतु क्या है यह वर्तमान विज्ञान को अभी ज्ञात नहीं है।
अब हम पुनः एक बार संकल्प को पढ़ते हैं जिसके अनुसार वैवस्वत मन्वन्तर चल रहा है अर्थात 6 मन्वंतर बीत चुके हैं सातवा मन्वंतर  चल रहा है । पिछले गणना से हम जानते हैं की एक मन्वंतर 306720000 वर्ष का होता है। छे मन्वंतर बीत चुके हैं अर्थात 306720000*6=1840320000 वर्ष बीत चुके हैं। इसमें सात प्रलय काल और जोड़े जाने चाहिए अर्थात (1728000*7) 12096000 वर्ष और जुड़ेंगे इस प्रकार कुल योग  (1840320000+12096000) 1852416000 वर्ष होता है। 
हम जानते हैं एक मन्वंतर 71 महायुग का होता है जिसमें से 27 महायुग बीत चुके हैं । एक महायुग 4320000 वर्ष का होता है इस प्रकार 27 महायुग (27*4320000) 116640000 वर्ष के होंगे । इस अवधि को भी हम बीते हुए मन्वंतर काल में जोड़ते हैं ( 1852416000+116640000) तो ज्ञात होता है कि 1969056000 वर्ष बीत चुके हैं।
28 वें महायुग के कलयुग का समय जो बीत चुका है वह (सतयुग के 1728000+ त्रेता युग 1296000+ द्वापर युग 864000 ) = 3888000 वर्ष होता है। इस अवधि को भी हम पिछले बीते हुए समय के साथ जोड़ते हैं  (1969056000+ 3888000 ) और संवत 2079 कलयुग के 5223 वर्ष बीत चुके हैं।
अतः हम बीते गए समय में कलयुग का समय भी जोड़ दें तो कुल योग 1972949223 वर्ष आता है । इस समय को हम 1.973 Ga वर्ष भी कह सकते हैं।
ऊपर हम बता चुके हैं कि आधुनिक विज्ञान के अनुसार पृथ्वी का प्रोटेरोज़ोइक काल 2.5 Ga से 54.2 Ma वर्ष तथा और इसी अवधि में पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति हुई है। इन दोनों के मध्य में भारतीय गणना अनुसार आया हुआ समय 1.973 Ga वर्ष भी आता है । जिससे स्पष्ट है कि भारत के पुरातन वैज्ञानिकों ने पृथ्वी पर जीवन के प्रादुर्भाव की जो गणना की थी वह बिल्कुल सत्य है।
आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार सूर्य 4.603 अरब वर्ष पहले अपने आकार भी आया था । इसी प्रकार पृथ्वी 4.543 अरब वर्ष पहले अपने आकार में आई थी।
हमारी आकाशगंगा 13.51 अरब वर्ष पहले बनी थी । अभी तक ज्ञात सबसे उम्रदराज वर्लपूल गैलेक्सी 40.03 अरब वर्ष पुरानी है । विज्ञान यह भी मानता है कि इसके अलावा और भी गैलेक्सी हैं जिनके बारे में अभी हमें ज्ञात नहीं है। हिंदू ज्योतिष के अनुसार ब्रह्मा जी का की आयु 155520 अरब वर्ष की है जिसमें से आधी बीत चुकी है। यह स्पष्ट होता है कि यह ज्योतिषीय संरचनाएं 77760 अरब वर्ष पहले आकार ली थी और कम से कम इतना ही समय अभी बाकी है। 
ऊपर की विवरण से स्पष्ट है की हनुमान जी चारों युग में थे और उनकी प्रतिष्ठा भी हर समय रही है । एक सुंदर प्रश्न और भी है कि आदमी को यश या प्रतिष्ठा कैसे मिलती है । इस विश्व में बड़े-बड़े योद्धा राजा राष्ट्रपति हुए हैं परंतु लोग उनको एक समय बीतने के बाद भूलते जाते हैं परंतु तुलसीदास जी को नरसी मेहता जी को और भी ऋषि-मुनियों को कोई आज तक नहीं भूल पाया है । यश का सीधा संबंध आदमी के हृदय से है । जिसके हृदय में श्री राम बैठे हुए हैं उसकी प्रतिष्ठा हमेशा रहेगी । उसका यश हमेशा रहेगा । एक राजा की प्रतिष्ठा तभी तक रहती है जब तक वह सत्ता में है । सत्ता से हटते ही उसकी प्रतिष्ठा शुन्य हो जाती है । एक धनवान की प्रतिष्ठा तभी तक रहती है जब तक उसके पास धन है । कभी इस देश में टाटा और बिड़ला की सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा थी , आज अंबानी और अदानी की है । परंतु संतों की प्रतिष्ठा सदैव एक जैसी रहती है । वह कभी समाप्त नहीं होती है । इसी तरह से कुछ और भी हैं जैसे कवि या लेखक, साइंटिस्ट आदि । इन की प्रतिष्ठा हमेशा ही एक जैसी रहती है, क्योंकि इनका किया हुआ कभी समाप्त नहीं होता है ।
हनुमान जी के हृदय में श्री राम जी सदैव बैठे हुए हैं उनकी प्रतिष्ठा कैसे समाप्त हो सकती है । एक भजन है :-
जिनके हृदय श्री राम बसे,
उन और को नाम लियो ना लियो ।
एक दूसरा भजन भी है :-
जिसके ह्रदय में राम नाम बंद है 
उसको हर घडी आनंद ही आनंद है 
लेकर सिर्फ राम नाम का सहारा 
इस दुनिया को करके किनारा 
राम जी की रजा में जो रजामंद है 
उसको हर घडी आनंद ही आनंद है 
अतः जिसके हृदय में श्री राम निवास करते हैं उसको कोई और नाम लेने की आवश्यकता नहीं है। हनुमान जी की प्रभा को करोड़ों सूर्य के बराबर बताया गया है:-
ओम नमों हनुमते रुद्रावताराय 
विश्वरूपाय अमित विक्रमाय 
प्रकटपराक्रमाय महाबलाय 
सूर्य कोटिसमप्रभाय रामदूताय स्वाहा।
इस प्रकार यह सिद्ध हो गया कि इन करोड़ों सूर्य  के प्रकाश के बराबर हनुमान जी का प्रकाश चारों युग में फैल रहा है ।
हनुमान जी की प्रतिष्ठा के बारे में बाल्मीकि रामायण  के युद्ध कांड के प्रथम सर्ग  के द्वितीय श्लोक में श्री रामचंद्र जी ने कहा है कि हनुमान जी ने ऐसा बड़ा काम किया है जिसे पृथ्वी तल पर कोई  नहीं कर सकता है ।  करने की बात तो दूर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है । 
कृतं हनुमता कार्यं सुमहद्भुवि दुर्लभम्।
मनसापि यदन्येन न शक्यं धरणीतले॥ 
(वा रा /युद्ध कांड/1./2)
 और भी तारीफ करने के बाद श्री रामचंद्र जी ने कहा इस समय उनके पास अपना सर्वस्व दान देने के रूप में आलिंगन ही महात्मा हनुमान जी के कार्य के योग्य पुरस्कार है । यह कहने के उपरांत उन्होंने अपने आलिंगन में हनुमान जी को ले लिया ।
 एष सर्वस्वभूते परिष्वङ्गो हनूमतः।
मया कालमिमं प्राप्य दत्तस्तस्य महात्मनः॥ (वाल्मीकि रामायण/युद्ध कांड/1 /13)
 इत्युक्त्वा प्रीतिहृष्टाङ्गो रामस्तं परिषस्वजे।
हनूमन्तं कृतात्मानं कृतकार्यमुपागतम् ॥
(वा रा/युद्ध कांड/ 1/14)
इस प्रकार भगवान श्रीराम ने हनुमान जी को उनकी कृति और यश को हमेशा हमेशा के लिए फैलने का वरदान दिया।
रुद्रावतार पवन पुत्र केसरी नंदन अंजनी कुमार भगवान हनुमान जी की कीर्ति जब से यह संसार बना है और जब तक यह संसार रहेगा  सदैव फैलती रहेगी । उनके प्रकाश से यह जग  प्रकाशित होता रहेगा ।

साधु सन्त के तुम रखवारे |
असुर निकन्दन राम दुलारे ||
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता |
अस बर दीन जानकी माता ||
अर्थ – आप साधु संतों के रखवाले, असुरों का संहार करने वाले और प्रभु श्रीराम के अत्यंत प्रिय हैं।
आप आठों प्रकार के सिद्धियों और नौ निधियों के प्रदाता हैं । आठों सिद्धियां और नौ निधियों को किसी को भी प्रदान कर देने का वरदान आपको जानकी माता ने दिया है।

भावार्थ:-
श्री हनुमान जी राक्षसों को समाप्त करने वाले हैं ।श्री रामचंद्र जी के अत्यंत प्रिय है । साधु संत और सज्जन पुरुषों कि वे रक्षा करते हैं । श्री रामचंद्र जी के इतने प्रिय हैं कि अगर आपको उनसे  कोई बात मनमानी हो तो आप श्रीहनुमानजी को माध्यम बना सकते हैं ।
माता जानकी ने श्री हनुमान जी को अष्ट सिद्धियों और नौ निधियों का वरदान दिया हुआ है ।  इस वरदान के कारण वे किसी को भी अष्ट सिद्धियां और नौ निधियां प्रदान कर सकते हैं ।

संदेश:-
अपनी शक्तियों का सही इस्तेमाल करें और उन्हें उन्हीं को सौंपे, जो इसके असली हकदार हों।

इन चौपाइयों का बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ:-
1-साधु सन्त के तुम रखवारे | असुर निकन्दन राम दुलारे ||
2-अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता | अस बर दीन जानकी माता ||
हनुमान चालीसा की इन चौपाईयों के बार बार पाठ करने से  दुष्टों का नाश होता है , आपकी रक्षा होती है और आपके सभी इच्छाएं पूर्ण होती हैं ।

विवेचना:-
पहली चौपाई में हनुमान जी के लिए कहा गया है कि वे  साधु और संतों के रखवाले हैं । असुरों के संहारक हैं  और रामचंद्र जी के दुलारे हैं।
 इस चौपाई को पढ़ने से कई प्रश्न मस्तिष्क में आते हैं । पहला प्रश्न है कि साधु कौन है और कौन  संत है । इसके अलावा असुर किसको कहेंगे इस पर भी विचार करना होगा ।
साधु, संस्कृत शब्द है जिसका सामान्य अर्थ 'सज्जन व्यक्ति' से है। लघुसिद्धान्तकौमुदी में कहा है:-
 'साध्नोति परकार्यमिति साधुः' (जो दूसरे का कार्य कर देता है, वह साधु है।) । 
 वर्तमान समय में साधु उनको कहते हैं जो सन्यास दीक्षा लेकर गेरुए वस्त्र धारण करते है ।  आज के युग में सामान्यतः भिक्षाटन के ध्येय से लोग अपना सर साफ करके गेरुआ वस्त्र पहन कर के साधु सन्यासी बन जाते हैं । यह चौपाई ऐसे साधुओं के लिए नहीं है । वर्तमान में नकली और ढोंगी साधुओं व बाबाओं ने वातावरण को इतना प्रदूषित कर रखा है कि लोग सच्चे साधुओं व बाबाओं पर भी शंका करते हैं। इसका कारण यह है कि यह पहचानना बहुत मुश्किल हो गया है कि कौन सच्चा साधु है और कौन ढोंगी साधु है। 
 एक विद्वान ने सच्चे साधुओं की ऐसी पहचान बताई है, जिसके द्वारा हम नकली और असली साधु या बाबा में सरलता से भेद कर सकते हैं। इस विद्वान के अनुसार सच्चा साधु तीन बातों से हमेशा दूर रहता है- नमस्कार, चमत्कार और दमस्कार। इनके अर्थ जरा विस्तार से बताना आवश्यक है। नमस्कार का अर्थ है सच्चा साधु  इस बात का इच्छुक नहीं होता है कि कोई उसे प्रणाम करें ।  वह भी अपने से श्रेष्ठ साथियों को ही केवल नमन करता है किसी और को नहीं ।‘  
 ‘चमत्कार’ से दूर रहने का अर्थ है कि सच्चा साधु कभी कोई चमत्कार नहीं दिखाता है । वह जादू टोने के कार्यों से दूर रहता है ‌। जादू टोने का कार्य करने वाले  कोई जादूगर आदि हो सकते हैं सच्चे साधु सन्यासी नहीं । ढोंगी साधु और सन्यासी हमेशा चमत्कार करने की कोशिश करते हैं जिससे जनता उनसे प्रभावित रहे ।  उनको निरंतर द्रव्य प्रदान  करती रहे।
इसी तरह ‘दमस्कार’ से दूर रहने का अर्थ है कि सच्चा साधु कभी अपने लिए धन एकत्र नहीं करता और न किसी से धन की याचना करता है। वह केवल अपनी आवश्यकता की न्यूनतम वस्तुएं मांग सकता है, कोई संग्रह नहीं करता।  आजकल के अधिकतर बाबाओं के पास बड़ी-बड़ी संपत्तियां हैं।
कुछ लोग विशेष साधना करने वाले व्यक्ति को साधु कहते हैं । यह भी कहते हैं ऐसे व्यक्तियों के ज्ञानवान या विद्वान होने की आवश्यकता नहीं है ।परंतु यह परिभाषा  मेरे विचार से सही नहीं है । साधु को ज्ञानवान होना आवश्यक है । उसे विद्वान होना ही चाहिए ।  आप समाज में रहकर भी अगर कोई विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करते हैं या कोई विशेष साधना करते हैं और जप तप नियम संयम का ध्यान रखते हैं तो आप साधु हो सकते हैं । 
 कई बार अच्छे और बुरे व्यक्ति में फर्क करने के लिए भी साधु शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसका कारण यह है कि साधना से व्यक्ति सीधा, सरल और सकारात्मक सोच रखने वाला हो जाता है। साथ ही वह लोगों की मदद करने के लिए हमेशा आगे रहता है। 
 आईये अब हम  साधु शब्द की शब्दकोश के अर्थ की बात करते हैं  । साधु का संस्कृत में अर्थ है सज्जन व्यक्ति ।  इसका एक उत्तम अर्थ यह भी है 6 विकार यानी काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर का त्याग कर देता है। जो इन सबका त्याग कर देता है उसे ही साधु की उपाधि दी जाती है।
साधु वह है जिसकी सोच सरल और सकारात्मक रहे और जो काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि का त्याग कर दे। 
आइए अब हम संत शब्द पर चर्चा करते हैं । इस शब्द  का अर्थ है  सत्य का आचरण करने वाला व्यक्ति । प्राचीन समय में कई सत्यवादी और आत्मज्ञानी लोग संत हुए हैं।  सामान्यत: ‘संत’ शब्द का प्रयोग  बुद्धिमान, पवित्रात्मा, सज्जन, परोपकारी, सदाचारी आदि के लिए  किया जाता है। कभी-कभी साधारण बालेचाल में इसे भक्त, साधु या महात्मा जैसे शब्दों का भी पर्याय समझ लिया जाता है। शांत प्रकृति वाले व्यक्तियों को  संत कह दिया जाता है । संत उस व्यक्ति को कहते हैं, जो सत्य का आचरण करता है और आत्मज्ञानी होता है। जैसे- संत कबीरदास, संत तुलसीदास, संत रविदास। ईश्वर के भक्त या धार्मिक पुरुष को भी संत कहते हैं। 
मेरे विचार से प्रस्तुत चौपाई में साधु और संत शब्द का  उपयोग उन व्यक्तियों के लिए किया गया है जो  सत्य का आचरण करते है सत्य निष्ठा का पालन करते है किसी को दुख नहीं देते हैं ।  उनसे किसी को तकलीफ नहीं होती है । वह लोगों के दुख दूर करने का प्रयास करते हैं तथा जिसकी सोच सरल और सकारात्मक होती है ।  जो काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि का त्याग कर दे वह संत है । 
इस चौपाई में तुलसीदास जी कहते हैं कि  श्री हनुमान जी ऐसे उत्तम पुरुषों के रक्षक हैं । उनको कोई कष्ट नहीं होने देते हैं । उनके हर दुखों को दूर करते हैं । यह दुख दैहिक दैविक या भौतिक किसी भी प्रकार का हो सकता है । संत और साधु पुरुषों को अपना काम करना चाहिए । उनकी तकलीफों को दूर करने का कार्य तो हनुमान जी कर ही रहे हैं । एक प्रकार से ऐसे पुरुषों के माध्यम से हनुमान जी यह चाहते हैं कि जगत का कल्याण हो । जगत के लोग सही रास्ते पर चलें और किसी को किसी प्रकार की तकलीफ ना रहे । 
यह चौपाई बहुत लोगों को सन्मार्ग पर लाने का एक साधन भी है । इसके कारण बहुत सारे दुष्ट लोग भी संत बनने की तरफ प्रेरित हो सकते हैं ।
श्री हनुमान जी अगर साधु संतों की रक्षा करते हैं तो दुष्टों को दंड देने का कार्य भी वे करते हैं । जिस प्रकार की पुलिस की ड्यूटी होती है कि वह सज्जन लोगों की रक्षा करें । उसी प्रकार से चोर बदमाश डकैत आदि को दंड देना भी पुलिस की ही जवाबदारी है  । हालांकि वर्तमान में भारतीय पुलिस कई स्थानों पर इसका उल्टा भी करती है ।
आइए अब हम असुर पर विचार करें। हम कह सकते हैं की जो सुर नहीं है  वह असुर है। प्राचीन पौराणिक ग्रंथों में असुर दैत्य और राक्षस की तीन श्रेणियां है । यह सभी देवताओं का विरोध करते हैं । अब अगर हम रामायण या रामचरितमानस को देखें और पढ़ें तो पाएंगे कि हनुमान जी ने राक्षसों का वध सुंदरकांड से प्रारंभ किया है और   युद्ध कांड या लंका कांड में लगातार करते चले गए हैं।  इन्हीं राक्षसों को गोस्वामी तुलसीदास जी ने असुर कहकर संबोधित किया है। हनुमान जी के पराक्रम का विवरण गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस एवं महर्षि वाल्मीकि रचित बाल्मीकि रामायण में मिलता है । दोनों स्थानों पर यह विस्तृत रूप से बताया गया है कि हनुमान जी ने किन-किन राक्षसों का संहार किया है । हनुमान जी का श्री रामचंद्र जी से मिलन किष्किंधा कांड में होता है । उसके उपरांत सुंदरकांड और युद्ध कांड / लंका कांड में हनुमान जी द्वारा मारे गए एक एक राक्षस के बारे में बताया गया है।
सबसे पहले हम सुंदरकांड में हनुमान जी द्वारा मारे गए राक्षसों की चर्चा करते हैं ।
1-सिंहिका वध -जब श्री हनुमान जी माता   सीता का पता लगाने के लिए समुद्र  के ऊपर से जा रहे थे तब सिंहिका  राक्षसी ने हनुमान जी को रोकने का प्रयास किया था । उसने हनुमान जी को खा जाने की चेष्टा की थी। सिंहिका राक्षसी समुद्र के ऊपर उड़ने वाले पक्षियों की छाया को देखकर छाया पकड़ लेती थी ।  जिससे कि उस पक्षी की गति रुक जाती थी । इसके उपरांत वह उस पक्षी को खा जाती थी । हनुमान जी जब समुद्र के ऊपर से   लंका की तरफ जा रहे थे तो सिंहिका ने हनुमान जी की छाया को पकड़ लिया । हनुमान जी की गति रुक गई ।  गति रुकने के बारे में पता करने के लिए हनुमान जी ने चारों तरफ देखा परंतु पाया कि चारों तरफ किसी प्रकार का कोई अवरोध नहीं है । इसके उपरांत उन्होंने नीचे का देखा तब समझ में आया की सिंहिका ने उनकी छाया को पकड़ रखा है। इसके आगे का विवरण वाल्मीकि रामायण ,श्रीरामचरितमानस  और हनुमत पुराण में अलग-अलग है ।
हनुमत पुराण के अनुसार हनुमान जी वेग पूर्वक सिंहिका के ऊपर कूद पड़े । भूधराकार , महा तेजस्वी महाशक्तिशाली पवन पुत्र के भार से सिंहिका  पिसकर चूर चूर हो गई ।
वाल्मीकि रामायण के सुंदरकांड के प्रथम सर्ग के श्लोक क्रमांक 192 से 195 के बीच में इसका पूरा विवरण दिया गया है ।  इसके अनुसार हनुमानजी उसको देखते ही लघु आकार के हो गए और तुरंत उसके मुंह में प्रवेश कर गए। उन्होंने अपने नाखूनों से उसके मर्मस्थलों को विदीर्ण कर उसका वध किया और फ़िर सहसा उसके मुख से बाहर निकल आए।
ततस्तस्या नखैस्तीक्ष्णैर्मर्माण्युत्कृत्य वानरः।
उत्पपाताथ वेगेन मनः सम्पातविक्रमः।। 
(वाल्मीकि रामायण /सुंदरकांड /प्रथम सर्ग/194)
रामचरितमानस में सिर्फ इतना लिखा हुआ है कि समुद्र में एक निशिचर रहता था । यह  आकाश में उड़ते हुए जीव-जंतुओं को मारकर खा जाता था ।हनुमान जी को भी उसने खाने का भी उसने प्रयास किया । परंतु पवनसुत ने उसको मार कर के स्वयं समुद्र के उस पार पहुंच गए । 
किंकर राक्षसों का वध -
देवी सीता से वार्तालाप करने के उपरांत हनुमान जी ने सोचा थोड़ी अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया जाए । वे अशोक वाटिका को पूर्णतया विध्वंस करने लगे । उनको रोकने के लिए कींकर  राक्षसों का समूह आया। वे सब के सब एक साथ हनुमानजी पर टूट पड़े। हनुमान जी ने उन सभी को समाप्त कर दिया । जो कुछ थोड़े बहुत बच गये वे इस घटना के बारे में बताने के लिए रावण के पास गए।
स तं परिघमादाय जघान रजनीचरान्।
स पन्नगमिवादाय स्फुरन्तं विनतासुतः।।
(वाल्मीकि रामायण /सुंदरकांड /42 /40)
विचचाराम्बरे वीरः परिगृह्य च मारुतिः।
स हत्वा राक्षसान्वीरान्किङ्करान्मारुतात्मजः।।
युद्धाकाङ्क्षी पुनर्वीरस्तोरणं समुपाश्रितः।
(वाल्मीकि रामायण /सुंदरकांड/42/41 -42)
रामचरितमानस में भी इस घटना का इसी प्रकार का विवरण है।
चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा।
फल खाएसि तरु तोरैं लागा॥
रहे तहाँ बहु भट रखवारे।
कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥
इन लोगों ने जाकर जब रावण से इस घटना के बारे में बताया तब रावण ने कुछ और विशेष बलशाली राक्षसों को भेजा :-
सुनि रावन पठए भट नाना।
तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना॥
सब रजनीचर कपि संघारे।
गए पुकारत कछु अधमारे॥
भावार्थ —यह बात सुनकर रावण ने बहुत सुभट पठाये (राक्षस योद्धा भेजे)। उनको देखकर युद्धके उत्साह से हनुमानजी ने भारी गर्जना की।
हनुमानजीने उसी समय तमाम राक्षसों को मार डाला। जो कुछ अधमरे रह गए थे वे वहां से पुकारते हुए भागकर गए॥
चैत्य प्रसाद के सामने राक्षसों की हत्या:-
अशोक वाटिका को नष्ट करने के उपरांत हनुमान जी रावण के महल चैत्य प्रसाद चढ गये । एक खंभा उखाड़ कर वहां पर उपस्थित सभी राक्षसों को मारने लगे । वाल्मीकि रामायण में इसको यों कहा गया है :-
दह्यमानं ततो दृष्ट्वा प्रासादं हरियूथपः।
स राक्षसशतं हत्त्वा वज्रेणेन्द्र इवासुरान्।। 
(वाल्मीकि रामायण/ सुंदरकांड/43/19)
जम्बुमाली वध -
इसके बाद रावण ने अपने पौत्र जम्बुमाली को युद्ध करने भेजा। दोनों में कुछ देर तक अच्छा युद्ध हुआ। इसके बाद हनुमानजी ने एक परिघ को उठाकर उसकी छाती पर प्रहार किया। इस वार से रावण का पौत्र धाराशाई हो कर पृथ्वी पर गिर पड़ा तथा मृत्यु को प्राप्त हुआ। 
जम्बुमालिं च निहतं किङ्करांश्च महाबलान्।
चुक्रोध रावणश्शुत्वा कोपसंरक्तलोचनः।।
स रोषसंवर्तितताम्रलोचनः प्रहस्तपुत्त्रे निहते महाबले।
अमात्यपुत्त्रानतिवीर्यविक्रमान् समादिदेशाशु निशाचरेश्वरः।।
(वाल्मीकि रामायण /सुंदरकांड/44/19-20)
प्रहस्त पुत्र महाबली जम्बुमाली और 10 सहस्त्र महाबली किंकर राक्षसों के मारे जाने का संवाद सुन रावण ने अत्यंत पराक्रमी और बलवान मंत्री पुत्रों को युद्ध करने के लिए तुरंत जाने की आज्ञा दी।
परमवीर महावीर हनुमान जी ने इस दौरान कुछ और विशेष राक्षसों का वध किया जिनके नाम निम्न वक्त हैं।
1-रावण के सात मंत्रियों के पुत्रों का वध -
2-रावण के पाँच सेनापतियों का वध -
इसके बाद रावण ने विरूपाक्ष, यूपाक्ष, दुर्धर, प्रघस और भासकर्ण ये पांच सेनापति हनुमानजी के पास भेजे। यह सभी  हनुमान जी द्वारा मारे गए।
3-रावणपुत्र अक्षकुमार का वध -
स भग्नबाहूरुकटीशिरोधरः क्षरन्नसृङिनर्मथितास्थिलोचनः।
सम्भग्नसन्धि: प्रविकीर्णबन्धनो हतः क्षितौ वायुसुतेन राक्षसः।।
(वाल्मीकि रामायण /सुंदरकांड/47/36)
नीचे गिरते ही उसकी भुजा, जाँघ, कमर और छातीके टुकड़े-टुकड़े हो गये, खूनकी धारा बहने लगी, शरीरकी हड्डियाँ चूर-चूर हो गयीं, आँखें बाहर निकल आयीं, अस्थियोंके जोड़ टूट गये और नस-नाड़ियोंके बन्धन शिथिल हो गये। इस तरह वह राक्षस पवनकुमार हनुमान्जीके हाथसे मारा गया॥ 
4-लंका दहन 
5-धूम्राक्ष का वध 
5-अकम्पन का वध 
6-रावणपुत्र देवान्तक और त्रिशिरा का वध -
7-निकुम्भ का वध 
8-अहिरावण का वध
महाबली हनुमान जी ने पंचमुखी हनुमान जी का रूप धारण कर अहिरावण का वध कर राम और लक्ष्मण जी को पाताल लोक से वापस लेकर के आए थे।
इनके अलावा युद्ध के दौरान महाबली हनुमान ने सहस्त्र और राक्षसों का वध किया ।
 अशोक वाटिका में सीता जी ने भी हनुमान जी को रघुनाथ जी का सबसे ज्यादा प्रिय होने का वरदान दिया है । यह वरदान सीता माता जी ने उनको अशोक वाटिका में दिया है । ऐसा हमें रामचरितमानस के सुंदरकांड में लिखा हुआ मिलता है :-
अजर अमर गुननिधि सुत होहू।
करहुँ बहुत रघुनायक छोहु।।
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना।
निर्भर प्रेम मगन हनुमान।।"
पुत्र! तुम अजर (बुढ़ापे से रहित), अमर और गुणों के खजाने होओ। श्री रघुनाथजी तुम पर बहुत कृपा करें। 'प्रभु कृपा करें' ऐसा कानों से सुनते ही हनुमान जी पूर्ण प्रेम में मग्न हो गए॥2॥
इस प्रकार असुरों को समाप्त करके  हनुमान जी रामचंद्र जी के प्रिय हो गए । रामचंद्र जी ने इसके उपरांत हनुमान जी को कई वरदान दिये ।
 अगली चौपाई तुलसीदास जी लिखते हैं :-
 "अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता ,
 अस बर दीन जानकी माता" 
 मां जानकी ने हनुमान जी को वरदान दिया है  कि वे अष्ट सिद्धि और नवनिधि का वरदान किसी को भी दे सकते हैं । इसका अर्थ है हनुमान जी के पास पहले से ही अष्ट सिद्धियां और नौ निधियां  थीं  परंतु इनको वे  किसी को दे नहीं सकते थे । माता सीता ने हनुमान जी को यह वरदान दिया है कि वे अपनी इन  सिद्धियों निधियों को दूसरों को भी दे सकते हैं ।
 भारतीय दर्शन में अष्ट सिद्धियों की और 9  निधियों की बहुत महत्व है । अष्ट सिद्धियों के बारे में निम्न श्लोक है।
 
अणिमा महिमा चैव लघिमा गरिमा तथा ।
प्राप्तिः प्राकाम्यमीशित्वं वशित्वं चाष्ट सिद्धयः ।।
अर्थ - अणिमा , महिमा, लघिमा, गरिमा तथा प्राप्ति प्राकाम्य इशित्व और वशित्व ये सिद्धियां "अष्टसिद्धि" कहलाती हैं।
ऐसी पारलौकिक और आत्मिक शक्तियां जो तप और साधना से प्राप्त होती हैं सिद्धियां कहलाती हैं । ये कई प्रकार की होती हैं। इनमें से अष्ट सिद्धियां जिनके नाम हैं अणिमा , महिमा, लघिमा, गरिमा  प्राप्ति प्राकाम्य इशित्व और वशित्व  ज्यादा प्रसिद्ध हैं।

1-अणिमा - अपने शरीर को एक अणु के समान छोटा कर लेने की क्षमता। इस सिद्धि को प्राप्त करने के उपरांत व्यक्ति छोटे से छोटा आकार धारण कर सकता है और वह इतना छोटा हो सकता है कि वह किसी को दिखाई ना दे । हनुमान जी जब श्री लंका गए थे तो वहां पर सीता मां का पता लगाने के लिए उन्होंने अत्यंत लघु रूप धारण किया था । यह उनकी अणिमा सिद्धि का ही चमत्कार है।
 2. महिमा - शरीर का आकार अत्यन्त बड़ा करने की क्षमता। इस सिद्धि को प्राप्त करने के उपरांत व्यक्ति अपना  आकार असीमित रूप से बढ़ा सकता है । सुरसा ने जब हनुमान जी को पकड़ने के लिए अपने मुंह को बढ़ाया था तो हनुमान जी ने भी उस समय अपने शरीर का आकार बढा लिया था । यह चमत्कार हनुमान जी अपनी महिमा शक्ति के कारण कर पाए थे ।
 3. गरिमा - शरीर को अत्यन्त भारी बना देने की क्षमता। गरिमा सिद्धि में व्यक्ति की शरीर का आकार वही रहता है परंतु व्यक्ति का भार वढ़ जाता है । यह  व्यक्ति के शरीर के अंगो का घनत्व बढ़ जाने के कारण होता है । महाभारत काल में ,भीम के घमंड को तोड़ने के लिए भगवान कृष्ण के , आदेश पर हनुमान जी भीम के रास्ते में सो गए थे । भीम के रास्ते में हनुमान जी की पूंछ आ रही थी । भीम ने उनको अपनी पूछ हटाने के लिए कहा परंतु हनुमान जी ने कहा कि मैं वृद्ध हो गया हूं  । उठ नहीं पाता हूं । आप हटा दीजिए ।  भीम जी ने इस बात की काफी कोशिश की कि हनुमान जी की पूंछ को हटा सकें परंतु वे पूंछ को हटा नहीं पाए । इस प्रकार भीम जी का  अत्यंत बलशाली होने का घमंड टूट गया ।
 4. लघिमा - शरीर को भार रहित करने की क्षमता। यह सिद्धि गरिमा की प्रतिकूल सिद्धि है । इसमें शरीर  का माप वही रहता है परंतु उसका भार अत्यंत कम हो जाता है । इस सिद्धि में शरीर का घनत्व कम हो जाता है। इस सिद्धि के रखने वाले पुरुष  पानी को सीधे चल कर पार कर सकते हैं । 
5. प्राप्ति - बिना रोक टोक के किसी भी  स्थान पर कुछ भी प्राप्त कर लेने की क्षमता  । प्राप्ति सिद्धि वाला व्यक्ति किसी भी स्थान पर बगैर रोक-टोक के कुछ भी प्राप्त कर सकता है । एक पुस्तक है Living with Himalayan masters . इस पुस्तक के लेखक नाम श्रीराम है । इस पुस्तक में लेखक ने लिखा है कि उनको हिमालय पर कुछ ऐसे संत मिले  जिनसे कुछ भी खाने पीने की कोई भी चीज मांगो वह तत्काल प्रस्तुत कर देते थे । मेरी मुलाकात भी 1989 में सिवनी , मध्यप्रदेश में मध्य प्रदेश  विद्युत  मंडल के कार्यपालन यंत्री श्री एमडी दुबे साहब से हुई थी  । उनके पास भी इस प्रकार की सिद्धि है । इसके कारण वे कहीं से भी कोई भी सामग्री   तत्काल बुला देते थे । मुझको उन्होंने एक शिवलिंग   बुलाकर दिया था। वर्तमान में  वे मुख्य अभियंता के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद जबलपुर में निवास करते हैं । मुझे बताया गया है कि अभी करीब 3 महीने पहले श्रीसत्यनारायण कथा के दौरान श्रीसत्यनारायण कथा के वाचक श्री हिमांशु तिवारी द्वारा श्री यंत्र मांगे जाने पर उनको तत्काल श्री यंत्र अर्पण किया था ।
 6. प्राकाम्य - इस सिद्धि में व्यक्ति जमीन के अलावा नदी पर भी चल सकता है हवा में भी उड सकता है । कई लोगों ने वाराणसी में  गंगा नदी  को चलकर के पार किया है।
 7. ईशित्व - प्रत्येक वस्तु और प्राणी पर पूर्ण अधिकार की क्षमता। ईशित्व सिद्धि वाले व्यक्ति अगर चाहे तो पूरे संसार को अपने बस में कर सकता है । अगर वह  चाहे तो उसके सामने वाले साधारण व्यक्ति को ना चाहते हुए भी उसकी बात माननी ही पड़ेगी। 
 8. वशित्व - प्रत्येक प्राणी को वश में करने की क्षमता। इस सिद्धि को रखने वाला व्यक्ति किसी को भी अपने वश में कर सकता है । हम यह कह सकते हैं सम्मोहन विद्या जानने वाले व्यक्ति के पास वशित्व की  सिद्धि होती है ।
  अष्ट सिद्धियां वे सिद्धियाँ हैं, जिन्हें प्राप्त कर व्यक्ति किसी भी रूप और देह में वास करने में सक्षम हो सकता है। वह सूक्ष्मता की सीमा पार कर सूक्ष्म से सूक्ष्म तथा जितना चाहे विशालकाय हो सकता है।
परमात्मा के आशीर्वाद के बिना सिद्धि नहीं पायी जा सकती । अर्थात साधक पर भगवान की कृपा होनी चाहिए  । भगवान हमारे ऊपर कृपा करें इसके लिए हमारे अंदर भी कुछ गुण होना चाहिए। हमारा जीवन ऐसा होना चाहिए कि उसे देखकर भगवान प्रसन्न हो जाएं ।  एकबार आप भगवान के बन गये तो फिर साधक को सिद्धि और संपत्ति का मोह नहीं रहता । उसका लक्ष्य केवल भगवद् प्राप्ति होती है । 
कुछ लोग सिद्धि प्राप्त करने के चक्कर में अपना संपूर्ण जीवन समाप्त कर देते है । एक बार तुकाराम महाराज को नदी पार करनी थी । उन्होने नाविक को दो पैसे दिये और नदी पार की । उन्होने भगवान पांडुरंग के दर्शन किये । थोडी देर के बाद वहाँ एक हठयोगी आया उसने नांव में न बैठकर पानी के ऊपर चलकर नदी पार की। उसके बाद उसने तुकाराम महाराज से पूछा, ‘क्या तुमने मेरी शक्ति देखी?’
तुकाराम महाराज ने कहा हाँ, तुम्हारी योग शक्ति मैने देखी । मगर उसकी कीमत केवल दो पैसे हैै। यह सुनकर हठयोगी गुस्सेमें आ गया । उसने कहा, तुम मेरी योग शक्ति की कीमत केवल दो पैसे गिनते हो? तब तुकाराम महाराज ने कहा, हाँ मुझे नदी पार करनी थी । मैने नाविक को दो पैसे दिये और उसने नदी पार करा दी । जो काम दो पैसे से होता है वही काम की सिद्धि के लिए तुमने इतने वर्ष बरबाद किये इसलिए उसकी कीमत दो पैसे मैने कही । कहने का तात्पर्य हमारा लक्ष्य भगवद्प्राप्ति का होना चाहिए । उसके लिए प्रयत्न करना चाहिए ।
 हमारा मन काम-वासना से गीला रहता है । गीले मन पर भक्ति का रंग नहीं चढता । मकान की दिवाले गीली होती है, तो उनपर रंग-सफेदी आदि नहीं की जाती । ऐसे ही मन का भी है । गीली लडकी जलाई जाती है तो धुआँ उडाकर दूसरे की आँखाें में आँसु निकालती है । इसलिए मन में से वासना-लालसा निकालकर उसे शुष्क करना पडेगा तभी उसमें भक्ति का रंग खिलेगा और भगवान उसे स्वीकार करेंगे।
 आइए अब हम नव निधियों के बारे में बात करते हैं ।

1-पद्म निधि, 2. महापद्म निधि, 3. नील निधि, 4. मुकुंद निधि, 5. नंद निधि, 6. मकर निधि, 7. कच्छप निधि, 8. शंख निधि और 9. खर्व या मिश्र निधि। माना जाता है कि नव निधियों में केवल खर्व निधि को छोड़कर शेष 8 निधियां पद्मिनी नामक विद्या के सिद्ध होने पर प्राप्त हो जाती हैं, लेकिन इन्हें प्राप्त करना इतना भी सरल नहीं है।
पद्म निधि:-
पद्म निधि के लक्षणों से संपन्न मनुष्य सात्विक गुण युक्त होता है ।  उसकी कमाई गई संपदा भी सात्विक होती है । सात्विक तरीके से कमाई गई संपदा से कई पीढ़ियों को धन-धान्य की कमी नहीं रहती है। ये लोग  उदारता से दान भी करते हैं। 
महापद्म निधि:-
महापद्म निधि भी पद्म निधि की तरह सात्विक है। हालांकि इसका प्रभाव 7 पीढ़ियों के बाद नहीं रहता। इस निधि से संपन्न व्यक्ति भी दानी होता है । वह और उसकी 7 पीढियों तक सुख ऐश्वर्य भोगा जाता है।
नील निधि:-
नील निधि उनके पास होती है जो कि धन सत्व और रज गुण दोनों ही से अर्जित करते हैं । सामान्यतया ऐसी निधि व्यापार द्वारा ही प्राप्त होती है । इसलिए इस निधि से संपन्न व्यक्ति में दोनों ही गुणों की प्रधानता रहती है। इस निधि का प्रभाव तीन पीढ़ियों तक ही रहता है।

मुकुंद निधि:-
मुकुंद निधि में रजोगुण की प्रधानता रहती है ।इसलिए इसे राजसी स्वभाव वाली निधि कहा गया है। इस निधि से संपन्न व्यक्ति या साधक का मन भोगादि में लगा रहता है।  ऐसे व्यक्ति स्वयं निधि अर्जित करते हैं और स्वयं उसको खा पीकर समाप्त कर देते हैं । इसका एक उदाहरण नोएडा के पास रहने वाले मेरे मित्र के भाई साहब । भाई साहब किसान हैं और उनके पास बहुत ज्यादा जमीन है । इस जमीन को  शासन ने एक्वायर की थी। उसके उपरांत  मुआवजा दिया था  । उस समय के हिसाब से मुआवजा की रकम काफी बड़ी थी । भाई साहब ने जमीन का मुआवजा पाने के उपरांत 10 साल तक लगातार ु के साथ पार्टी करने में व्यस्त रहे । उनका लिवर खराब हो गया जो कुछ बचा था वह दवा में खर्च हो गया और अंत में पूरी निधि समाप्त हो गई । मुकुंद  निधि पहली पीढ़ी बाद खत्म हो जाती है।

नंद निधि:-
नंद निधि में रज और तम गुणों का मिश्रण होता है। माना जाता है कि यह निधि साधक को लंबी आयु व निरंतर तरक्की प्रदान करती है। ऐसी निधि से संपन्न व्यक्ति अपनी प्रशंसा की सुनना चाहता है । अगर आप उसको उसकी  अवगुणों के बारे में बताएं तो वह अत्यंत नाराज हो जाएगा । ऐसे व्यक्ति  आपके आसपास काफी मात्रा में मिलेंगे जैसे कि आपके अपने अधिकारी । उनको अपने पिछले जन्म में किए गए कार्यों के कारण  अधिकार मिले ।  इस जन्म में वे इस अधिकार में इतने गरूर में आ गए कि अगर उनको कोई उनकी बुराई बताएं तो वे अत्यंत नाराज हो जाएंगे।

मकर निधि:-
मकर निधि को तामसी निधि कहा गया है। तमस हम अंधकार को कहते हैं । राक्षस और निशाचर तामसिक वृत्ति के होते हैं । इस निधि से संपन्न साधक अस्त्र और शस्त्र को संग्रह करने वाला होता है। आज के बाहुबली राजनीतिज्ञ इसी निधि के उदाहरण है । ऐसे व्यक्ति का राज्य और शासन में दखल होता है। वह शत्रुओं पर भारी पड़ता है और मारपीट के लिए तैयार रहता है। । इनकी मृत्यु भी अस्त्र-शस्त्र या दुर्घटना में होती है। आतंकी घुसपैठिए  मकर निधि के स्वामी होते हैं । डाकू भी इसी निधि के वाहक होते हैं।

शंख निधि:-
शंख निधि को प्राप्त व्यक्ति स्वयं की ही चिंता और स्वयं के ही भोग की इच्छा करता है। वह कमाता तो बहुत है, लेकिन उसके परिवार और यहां तक की अपने पत्नी और बच्चों को भी नहीं देता है ।  शंख निधि के परिवार वाले  भी गरीबी में ही जीते हैं। ऐसा व्यक्ति धन का उपयोग स्वयं के सुख-भोग के लिए करता है,।  उसका परिवार गरीबी में जीवन गुजारता है।

कच्छप निधि:-
कच्छप निधि का साधक अपनी संपत्ति को छुपाकर रखता है। न तो स्वयं उसका उपयोग करता है, न करने देता है। वह सांप की तरह उसकी रक्षा करता है। जिस प्रकार एक कछुआ अपने सभी अंगों को अपने अंदर समेट लेता है ,और उसके ऊपर एक काफी मजबूत कवच रहता है ,ऐसे ही कच्छप निधि वाले व्यक्ति धन होते हुए भी उसका उपभोग नहीं कर करते हैं और ना किसी को करने देते हैं । आप बहुत सारे ऐसे भिखारी देखोगे जिनके पास पैसा तो बहुत रहा है परंतु उन्होंने कुछ भी सुख नहीं होगा और उनके मरने के बाद उनके सामान में से लाखों रुपए बरामद हुए ।

खर्व निधि:-
खर्व निधि को मिश्रत निधि कहते हैं। नाम के अनुरुप ही इस निधि से संपन्न व्यक्ति में अन्य आठों निधियों का सम्मिश्रण होती है। इस निधि से संपन्न व्यक्ति को मिश्रित स्वभाव का कहा गया है। उसके कार्यों और स्वभाव के बारे में भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। माना जाता है कि इस निधि को प्राप्त व्यक्ति  घमंडी भी होता हैं,।  यह मौके मिलने पर दूसरों का पैसा छीन सकता है।  इसके पास तामसिक वृत्ति ज्यादा होती है ।
अब इनमें से आप जो भी सिद्धि और निधि चाहते हो उसको देने के लिए हमारे  आराध्य  श्री हनुमान जी समर्थ है । आपको  मन क्रम वचन को एकाग्र करके  शुद्ध सात्विक मन से केवल स्मरण करना है ।  आपके लिए जो भी उपयुक्त होगा वह वे स्वयं प्रदान कर देंगे।
जय श्री राम 
जय हनुमान



राम रसायन तुम्हरे पासा, सदा रहो रघुपति के दासा॥

अर्थ- आप निरंतर श्री रघुनाथ जी की शरण में रहते है, जिससे आपके पास बुढ़ापा और असाध्य रोगों के नाश के लिए राम नाम औषधि है।

भावार्थ:-
यहां पर रसायन शब्द का अर्थ दवा है । गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि हनुमान जी के पास में राम नाम का रसायन है । इसका अर्थ हुआ हनुमान जी के पास राम नाम रूपी दवा है ।  आप श्री रामचंद्र जी के सेवक हैं इसलिए आपके पास नामरूपी  दवा है । इस दवा का उपयोग हर प्रकार के रोग में किया जा सकता है । सभी रोग इस दवा से ठीक हो जाते हैं ।

संदेश:-
ताकतवर होने के बावजूद आपको सहनशील होना चाहिए।

हनुमान चालीसा की इस चौपाई के बार बार पाठ करने से होने वाले लाभ:-
1-राम रसायन तुम्हरे पासा, सदा रहो रघुपति के दासा॥
 इस चौपाई का बार बार पाठ करने से  रहस्यों की प्राप्ति होती है ।

विवेचना:-
मेरा यह परम विश्वास है कि अगर आप बजरंगबली के सानिध्य में हैं ,बजरंगबली के ध्यान में है तो किसी भी तरह की व्याधि और, विपत्ति आपका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकती हैं ।  क्योंकि बजरंगबली के पास राम नाम का रसायन है । अज्ञेय कवि ने कहा है:-
क्यों डरूँ मैं मृत्यु से या क्षुद्रता के शाप से भी? 
क्यों डरूँ मैं क्षीण-पुण्या अवनि के संताप से भी? व्यर्थ जिसको मापने में हैं विधाता की भुजाएँ— वह पुरुष मैं, मर्त्य हूँ पर अमरता के मान में हूँ! 
मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ! 

मैं हनुमान जी के ध्यान में हूं तो मैं मृत्यु से भी क्यों डरूं । मैं अपने आप को छोटा क्यों समझूं । हमारे हनुमान जी के पास तो राम नाम का रसायन है । 
यह राम नाम का रसायन क्या है । पहले इस चौपाई के  एक एक शब्द की चर्चा करते हैं ।
राम शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है रम् + घम । रम् का अर्थ है रमना या निहित होना । घम का अर्थ है ब्रह्मांड का खाली स्थान । इस प्रकार राम शब्द का अर्थ हुआ जो पूरे ब्रह्मांड में रम रहा है वह राम है । अर्थात जो पूरे ब्रह्मांड में जो हर जगह है वह राम है ।
 राम हमारे आराध्य के आराध्य का नाम भी है । पहले हम यह विचार लेते हैं कि हम श्री राम को अपने आराध्य का आराध्य क्यों कहते हैं । हमारे आराध्य हनुमान जी हैं और हनुमान जी के आराध्य श्री राम जी हैं ।  इसलिए श्री राम जी हमारे आराध्य के आराध्य हैं ।  हनुमान जी स्वयं को , अपने आप को श्री राम का दास कहते हैं । यह भी सत्य है कि सीता जी ने भी हनुमान जी को श्री राम जी के दास के रूप में स्वीकार किया है ।:-
कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास॥13॥
(रामचरितमानस/ सुंदरकांड/ दोहा क्र 13)
अर्थ:-हनुमान जी के प्रेमयक्त वचन सुनकर सीताजी के मन में विश्वास उत्पन्न हो गया, उन्होंने जान लिया कि यह मन, वचन और कर्म से कृपासागर श्री रघुनाथजी का दास है॥

हनुमान जी के सभी भक्तों को यह ज्ञात है श्री राम जी हनुमान जी की आराध्य हैं । फिर भी हनुमानजी के भक्त सीधे श्री राम जी के भक्त बनना क्यों नहीं पसंद करते हैं ।
बुद्धिमान लोग इसके बहुत सारे कारण बताएंगे परंतु हम ज्ञानहीन लोगों के पास ज्ञान की कमी है ।इसके कारण हम बुद्धिमान लोगों की बातों को कम समझ पाते हैं । मैं तो सीधी साधी बात जानता हूं । हम सभी हनुमान जी के पुत्र समान है और हनुमान जी अपने आप को रामचंद्र जी के पुत्र के बराबर मानते हैं । इस प्रकार हम सभी श्री राम  जी के पौत्र हुए । यह  बात जगत  विख्यात है कि मूल से ज्यादा सूद प्यारा होता है या यह कहें पुत्र से ज्यादा पौत्र प्यारा होता है । इस प्रकार हनुमान जी के भक्तों को श्री रामचंद्र जी अपने भक्तों से ज्यादा चाहते हैं । इसलिए ज्यादातर लोग पहले हनुमान जी से  लगन लगाना ज्यादा पसंद करते हैं ।
हम पुर्व में बता चुके हैं श्रीराम का अर्थ है सकल ब्रह्मांड में  रमा हुआ तत्व यानी चराचर में विराजमान स्वयं परमब्रह्म ।
शास्त्रों में लिखा है, “रमन्ते योगिनः अस्मिन सा रामं उच्यते” अर्थात, योगी ध्यान में जिस शून्य में रमते हैं उसे राम कहते हैं।
भारतीय समाज में राम शब्द का एक और उपयोग है । जब हम किसी से मिलते हैं तो आपस में  अभिवादन करते हैं । कुछ लोग नमस्कार करतें हैं । कुछ लोग प्रणाम करतें हैं और कुछ लोग राम-राम कहते हैं। यहां पर दो बार राम नाम का उच्चारण होता है जबकि नमस्कार या प्रणाम का उच्चारण एक ही बार किया जाता है । हमारे वैदिक ऋषि-मुनियों ने जो भी क्रियाकलाप तय किया उसमें एक विशेष साइंस छुपा हुआ है । राम राम शब्द में भी एक विज्ञान है । आइए  राम शब्द को दो बार बोलने पर चर्चा करते हैं ।
एक सामान्य व्यक्ति 1 मिनट में 15 बार सांस लेता  छोड़ता है । इस प्रकार 24 घंटे में वह 21600 बार सांस लेगा और छोड़ेगा । इसमें से अगर हम ज्योतिष के अनुसार रात्रि मान के औसत 12 घंटे का तो दिनमान के 12 घंटों में वाह 10800 बार सांस लेगा और छोड़ेगा । क्योंकि किसी देवता का नाम पूरे दिन में 10800 बार लेना संभव नहीं है ।इसलिए अंत के दो  शुन्य हम काट देते हैं । इस तरह से यह संख्या 108 आती है । इसीलिए सभी तरह के जाप के लिए माला में मनको की संख्या 108 रखी जाती है । यही 108 वैदिक दृष्टिकोण के अनुसार पूर्ण ब्रह्म का मात्रिक गुणांक भी है। हिंदी वर्णमाला में क से गिनने पर र अक्षर 27 वें नंबर पर आता है । आ की मात्रा दूसरा अक्षर है और   "म" अक्षर 25 वें  नंबर पर आएगा। इस प्रकार राम शब्द का महत्व 27+2+25=54 होता है अगर हम राम राम दो बार कहेंगे तो यह 108 का अंक हो जाता है  जो कि परम ब्रह्म परमात्मा का अंक है । इस प्रकार दो बार राम राम कहने से हम ईश्वर को 108 बार याद कर लेते हैं,।
 मेरे जैसा तुच्छ व्यक्ति राम नाम की महिमा का गुणगान कहां कर पाएगा । गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है :-
करऊँ कहा लगि नाम बड़ाई।
राम न सकहि नाम गुण गाई ।।
स्वयं राम भी 'राम' शब्द की विवेचना नहीं कर सकते । 'राम' विश्व संस्कृति के  नायक है। वे सभी सद्गुणों से युक्त है। अगर सामाजिक जीवन में देखें तो- राम आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श मित्र, आदर्श पति, आदर्श शिष्य के रूप में प्रस्तुत किए गए हैं। अर्थात् समस्त आदर्शों के एक मात्र न्यायादर्श 'राम' है। 
क्योंकि राम शब्द की पूर्ण विवेचना करना मेरे जैसे   तुच्छ व्यक्ति के  सामर्थ्य के बाहर है अतः इस कार्य को यहीं विराम दिया जाता है।
इस चौपाई का अगला शब्द  रसायन जिसका शाब्दिक अर्थ कई हैं। जैसे :-
1.पदार्थ का तत्व-गत ज्ञान
2.लोहा से सोना बनाने का एक  योग
3.जरा व्याधिनाशक औषधि। वैद्यक के अनुसार वह औषध जो मनुष्य को सदा स्वस्थ और पुष्ट बनाये रखती है ।
अगर हम रसायन शब्द का इस्तेमाल पदार्थ के तत्व ज्ञान के बारे में करते हैं यह कह सकते हैं के हनुमान जी के पास  राम नाम का पूरा ज्ञान है। पूर्ण ज्ञान होने के कारण हनुमान जी रामचंद्र जी के पास पहुंचने के एक सुगम सोपान है । अगर आपने हनुमान जी को पकड़ लिया तो रामजी तक पहुंचना आपके लिए काफी आसान हो जाएगा ।अगर आप सीधे रामजी के पास पहुंचना चाहोगे यह काफी मुश्किल कार्य होगा ।  अगर हम लोकाचार की बात करें तो यह उसी प्रकार है जिस प्रकार प्रधानमंत्री से मिलने के लिए हमें किसी सांसद का सहारा लेना चाहिए । मां पार्वती से मिलने के लिए गणेश जी का सहारा , गणेश जी की अनुमति लेना चाहिए । इस चौपाई से तुलसीदास जी कहना चाहते हैं रामजी तक आसानी से पहुंचने के लिए हमें पहले हनुमान जी के पास तक पहुंचना पड़ेगा ।
अर्थ क्रमांक 2 में बताया गया है लोहा से सोना बनाने का जो योग होता है उसको भी रसायन कहा जाता है । अब यहां लोहा कौन है ? हम साधारण प्राणी लोहा हैं  और अगर हमारे ऊपर पवन पुत्र हनुमान जी की कृपा हो जाए तो हम सोने में बदल जाएंगे ।  हनुमान जी के पास रामचंद जी का दिया हुआ लोहे को सोना बनाने वाला रसायन है । 
अब हम तीसरे बिंदू पर आते हैं । भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद के अनुसार  किसी भी रोग , ताप , व्याधि को नष्ट करने के लिए विभिन्न रसायनों का प्रयोग किया जाता है । इन रसायनों का पूरा स्टॉक हमारे महाबली हनुमान जी के पास राम जी की कृपा से है । अगर हनुमान जी की कृपा हमारे ऊपर रही तो हमें कभी भी रोग या व्याधि से परेशान नहीं होना पड़ेगा । हमारा शरीर और मन सदैव स्वस्थ  रहेगा । मन के स्वस्थ रहने के कारण हमारे ऊपर पवन पुत्र की और श्री रामचंद्र जी की कृपा बढ़ती ही जाएगी ।
यहां पर यह ध्यान देने वाली बात है कि ब्याधि का अर्थ केवल शारीरिक बीमारी नहीं है। बरन मानसिक परेशानियां  भी व्याधि के अंतर्गत आती है । यह संस्कृत का शब्द है और यह साहित्य में एक  भाव भी है । किसी भी प्रकार के   कष्ट पहुंचाने वाली वस्तु को भी व्याधि कहते हैं ।
आयुर्वेद में इन सभी प्रकार की व्याधियों को दूर करने के लिए रसायनों का प्रयोग होता है । इसके अलावा आयुर्वेद के  अनुसार वह औषध जो जरा और व्याधि का नाश करनेवाली हो । वह दवा जिसके खाने से आदमी बुड़ढ़ा या बीमार न हो उसको भी हम रसायन कहेंगे । ऐसी औषधों से शरीर का बल, आँखों की ज्योति और वीर्य आदि बढ़ता है । इनके खाने का विधान युवावस्था के आरंभ और अंत में है । कुछ प्रसिद्ध रसायनों के नाम इस प्रकार है । - विड़ग रसायन, ब्राह्मी रसायन, हरीतकी रसायन, नागवला रसायन, आमलक रसायन आदि । प्रत्येक रसायन में कोई एक मुख्य ओषधि होता है ; और उसके साथ दूसरी अनेक ओषधियाँ मिली हुई होती हैं ।
परंतु राम रसायन  एक ऐसी औषधि है जिनमें हर प्रकार की व्याधियों को दूर करने की क्षमता है ।  यह राम रसायन हमारे पवन पुत्र के पास है । 
इस चौपाई का अगला वाक्यांश है "सदा रहो रघुपति के दासा"।  जिसका सीधा साधा अर्थ भी है की हनुमान जी सदैव रामचंद्र जी के सेवा मैं प्रस्तुत रहे । रघुनाथ जी के शरण में रहे । हनुमान जी ने सदैव  मनसा वाचा कर्मणा श्री रामचंद्र की सेवा की और और इसी बात का श्री रामचंद्र जी से आशीर्वाद भी मांगा ।
बचपन में एक बार परमवीर हनुमान जी ने भगवान शिव के साथ अयोध्या के राजमहल में भगवान श्री राम को देखा था ।  बाद में सीता हरण के उपरांत जब श्री रामचंद्र जी ऋषिमुक पर्वत के पास  पहुंचे  तब वहां पर हनुमान जी  सुग्रीव जी के आदेश से ब्राम्हण रुप में श्रीरामचंद्र जी के पास गये ।  हनुमान जी श्री रामचंद्र जी को  पहचान नहीं पाए । बाद में  श्री राम जी द्वारा बताने पर वे श्री रामचंद्र जी को पहचान गये। उन्होंने श्री रामचंद्र जी को अपना प्रभु बताते हुए कहा मैं मूर्ख  वानर हूं । अज्ञानता बस आपको पहचान नहीं पाया परंतु आप तो तीन लोक के स्वामी हैं आप तो मुझे पहचान सकते थे।
पुनि धीरजु धरि अस्तुति कीन्ही। हरष हृदयँ निज नाथहि चीन्ही॥
मोर न्याउ मैं पूछा साईं। तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं॥ (रामचरितमानस /किष्किंधा कांड/1/4)

अर्थ:-फिर धीरज धर कर स्तुति की। अपने नाथ को पहचान लेने से उनके हृदय में हर्ष हो रहा है। (फिर हनुमान्‌जी ने कहा-) हे स्वामी! मैंने जो पूछा वह मेरा पूछना तो न्याय था, (वर्षों के बाद आपको देखा, वह भी तपस्वी के वेष में । मेरी वानरी बुद्धि इससे मैं तो आपको पहचान न सका ।  अपनी परिस्थिति के अनुसार मैंने आपसे पूछा), परंतु आप मनुष्य की तरह कैसे पूछ रहे हैं?॥4॥
जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें। सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें॥
नाथ जीव तव मायाँ मोहा। सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा॥
 (रामचरितमानस/ किष्किंधा कांड/ 2/1)
अर्थ:-हे नाथ! यद्यपि मुझ में बहुत से अवगुण हैं, तथापि सेवक स्वामी की विस्मृति में न पड़े । (आप उसे न भूल जाएँ)। हे नाथ! जीव आपकी माया से मोहित है। वह आप ही की कृपा से निस्तार पा सकता है॥1॥
ता पर मैं रघुबीर दोहाई। जानउँ नहिं कछु भजन उपाई॥
सेवक सुत पति मातु भरोसें। रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें॥
(रामचरितमानस /किष्किंधा कांड/2/2)
अर्थ:-उस पर हे रघुवीर! मैं आपकी दुहाई (शपथ) करके कहता हूँ कि मैं भजन-साधन कुछ नहीं जानता। सेवक स्वामी के और पुत्र माता के भरोसे निश्चिंत रहता है। प्रभु को सेवक का पालन-पोषण करते ही बनता है (करना ही पड़ता है)॥
श्री रामचंद्र जी का अयोध्या में राजतिलक हो चुका था । रामराज्य अयोध्या में आ गया था  । रामचंद्र जी ने तय किया  पुराने साथियों को उनके घर जाने दिया जाए । पहली मुलाकात के बाद से ही सुग्रीव ,जामवंत ,हनुमान जी ,अंगद जी ,विभीषण जी ,सभी उनके साथ अब तक लगातार थे । अब आवश्यक हो गया था कि इन लोगों को घर जाने की अनुमति दी जाए । जिससे यह सभी लोग अपने परिवार जनों के साथ मिल सकें । विभीषण और सुग्रीव जी अपने-अपने राज्य में जाकर रामराज लाने का प्रयास करें । वहां की शासन व्यवस्था को ठीक करें  ।  जाते समय श्री रामचंद्र जी सभी लोगों को कुछ ना कुछ उपहार दे रहे थे । जब सभी लोगों को श्री रामचंद्र जी ने विदा कर दिया उसके बाद हनुमान  जी से पूछा कि उनको क्या उपहार दिया जाए । हनुमान जी ने कहा कि आपने सभी को कुछ ना कुछ पद दिया है । मुझे भी एक पद दे दीजिए । उसके उपरांत उन्होंने श्री रामचंद्र जी के पैर पकड़ लिए। 
अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ़ नेम।
सदा सर्बगत सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम॥16॥
(रामचरितमानस /उत्तरकांड /दोहा क्रमांक 16)
अर्थ:-हे सखागण! अब सब लोग घर जाओ, वहाँ दृढ़ नियम से मुझे भजते रहना। मुझे सदा सर्वव्यापक और सबका हित करने वाला जानकर अत्यंत प्रेम करना॥
हनुमान जी द्वारा वाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमानजी श्रीराम से याचना करते हैं-
यावद् रामकथा वीर चरिष्यति महीतले। 
तावच्छरीरे वत्स्युन्तु प्राणामम न संशय:।।
(वाल्मीकि रामायण /उत्तरकांड 40 / 17)
अर्थ : - 'हे वीर श्रीराम! इस पृथ्वी पर जब तक रामकथा प्रचलित रहे, तब तक निस्संदेह मेरे प्राण इस शरीर में बसे रहें।'
जिसके बाद श्रीराम उन्हें आशीर्वाद देते हैं-
'एवमेतत् कपिश्रेष्ठ भविता नात्र संशय:।
चरिष्यति कथा यावदेषा लोके च मामिका
तावत् ते भविता कीर्ति: शरीरे प्यवस्तथा।
लोकाहि यावत्स्थास्यन्ति तावत् स्थास्यन्ति में कथा।।'
(बाल्मीकि रामायण /उत्तरकांड/40/21-22)
अर्थात् : 'हे कपिश्रेष्ठ, ऐसा ही होगा, इसमें संदेह नहीं है। संसार में मेरी कथा जब तक प्रचलित रहेगी, तब तक तुम्हारी कीर्ति अमिट रहेगी और तुम्हारे शरीर में प्राण रहेंगे। जब तक ये लोक बने रहेंगे, तब तक मेरी कथाएं भी स्थिर रहेंगी। 
एक दिन, विभीषण जी ने समुद्र की दी हुई एक उत्तम कोटि का अति सुंदर माला सीता मां को भेंट की । सीता मां ने माला  ग्रहण करने के उपरांत श्री राम जी की तरफ देखा । रामजी ने कहा कि तुम यह माला उसको दो जिस पर तुम्हारी सबसे ज्यादा अनुकंपा है । सीता मैया ने हनुमान जी को मोतीयों की यह माला भेट दी । हनुमान जी ने माला को बड़े प्रेम से ग्रहण किया । उसके उपरांत हनुमान जी एक एक मोती को दांतोसे तोड़ कर कान के पास ले जाते और फिर फेंक देते । अपने भेंट की इस प्रकार बेइज्जती होते देख विभीषण जी काफी कुपित हो गए । उन्होंने हनुमान जी से पूछा कि आपने यह माला तोड़ कर क्यों फेंक दी । इस पर हनुमान जी ने कहा  कि हे विभीषण जी मैं तो इस माला की मणियों में सीताराम नाम ढूंढ रहा हूं । परंतु वह नाम इनमें नहीं है । अतः मेरे लिए यह माला पत्थर का एक टुकड़ा है ।  इस पर किसी राजा ने कहा कि आप हर समय आप हर जगह सीताराम को ढूंढते हो । आप ने जो यह शरीर धारण किए हैं क्या उसमें भी सीता राम हैं और उनकी आवाज आती है । इतना सुनते ही हनुमान जी ने पहले अपना एक  बाल तोड़ा और उसे उन्हीं राजा के कान में लगाया । बाल से  सीताराम की आवाज आ रही थी । उसके बाद उन्होंने अपनी छाती चीर डाली । उनके ह्रदय में श्रीराम और सीता की छवि दिखाई पडी  साथ ही  वहां से भी सीताराम की आवाज आ रही थी ।
अपनी अनन्य भक्ति के कारण हनुमान जी के हृदय में श्रीराम और सीता के अलावा संसार की किसी भी वस्तु की अभिलाषा नहीं थी । 
इस प्रकार यह स्पष्ट है की हनुमान जी सदैव ही श्री राम जी के दास रहे और श्री रामचंद्र जी सदैव ही हनुमान जी के प्रभु रहे ।
तुम्हरे भजन राम को पावै, 
जनम जनम के दुख बिसरावै॥
अन्त काल रघुबर पुर जाई |
जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई ||

अर्थ :–
आपका भजन करने से श्री राम जी प्राप्त होते है और जन्म जन्मांतर के दुख दूर होते है।
अपने अंतिम समय में आपकी शरण में जो जाता है वह मृत्यु के बाद भगवान श्री राम के धाम यानि बैकुंठ को जाता है और हरी भक्त कहलाता है। इसलिए सभी सुखों के द्वार केवल आपके नाम जपने से ही खुल जाते है।

भावार्थ:-
भजन का अर्थ होता है ईश्वर की स्तुति करना । भजन सकाम भी हो सकता है और निष्काम भी। हनुमान जी और उन के माध्यम से श्री रामचंद्र जी को प्राप्त करने के लिए निष्काम भक्ति आवश्यक है ।  भजन कामनाओं से परे होना चाहिए । अगर आप कामनाओं से रहित निस्वार्थ रह कर हनुमान जी  या श्री रामचंद्र जी  का भजन करेंगे तो वे  आपको निश्चित रूप से प्राप्त होंगे । 
अगर आप उपरोक्त अनुसार भजन करेंगे मृत्यु के उपरांत रघुवर पुर अर्थात बैकुंठ  या अयोध्या पहुंचेंगे और वहां पर आपको हरि भक्त कहा जाएगा । यहां पर गोस्वामी जी ने रघुवरपुर कहां है यह नहीं बताया है । रघुवरपुर बैकुंठ भी हो सकता है और अयोध्या भी । दोनों स्थलों में से किसी जगह पर मृत्यु के बाद पहुंचना एक वरदान है ।

संदेश:-
 जीवन में अच्छे कर्म करो, अच्छी चीजों को स्मरण करों। इससे व्यक्ति का अंतिम समय आने पर उसे किसी भी बात का पछतावा नहीं रहता है और उसे  रघुनाथ जी के धाम में शरण मिलती है।

इन चौपाइयों के बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ :-
1-तुम्हरे भजन राम को पावै, जनम जनम के दुख बिसरावै॥
2-अन्त काल रघुबर पुर जाई | जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई ||
इन चौपाईयों के बार बार पाठ करने से हनुमत कृपा प्राप्त होती है । यह सभी दुखों का नाश करती है और  आपका बुढ़ापा और परलोक दोनो सुधारती है ।

विवेचना:-
पहली चौपाई है "तुम्हारे भजन राम को पावै ,जनम जनम के दुख विसरावें" ।। 
इस चौपाई का अर्थ है आपका भजन करने से श्रीरामजी प्राप्त होते हैं  और  जन्म जन्म के दुख समाप्त हो जाते हैं । पहली बात तो यह है की भजन क्या होता है और दूसरी बात यह है कि हनुमान जी का  भजन कैसे  किया जाए जिससे हमें श्री राम चंद्र जी प्राप्त हो जाए ।
भजन संगीत की एक विशेष विधा है । इस समय दो तरह के संगीत भारत में प्रचलित है । पहला पश्चिमी संगीत और दूसरा भारतीय संगीत । सनातन धर्म के भजन भारतीय संगीत के अंतर्गत आते हैं । भारतीय संगीत के तीन मुख्य भेद हैं शास्त्रीय संगीत ,सुगम संगीत और लोक संगीत  ।भजन का आधार इन तीनों में से कोई एक हो सकता है । देवी और देवताओं को प्रसन्न करने के लिए गाए जाने वाले  गीतों को भजन कहते हैं । 
 अगर संगीत बहुत अच्छा है तो सामान्यतः उसको अच्छा भजन कहेंगे । परंतु भगवान के लिए इस संगीत का महत्व नहीं है । उनके लिए संगीत से ज्यादा आपके भाव महत्वपूर्ण हैं । संगीत, वादन, स्वर इनका जो माधुर्य होगा उससे श्रोता व गायक खुश होंगे, भगवान खुश नहीं होंगे ।
श्रीमद्भागवतमहापुराण  सप्तम स्कन्ध – छठे अध्याय  के पहले श्लोक में प्रहलाद जी द्वारा असुर बालकों को उपदेश दिया गया है:-
प्रह्लाद उवाच
कौमार आचरेत्प्राज्ञो धर्मान् भागवतानिह ।
दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यध्रुवमर्थदम् ॥ १ ॥
प्रह्लादजीने कहा—मित्रो ! इस संसार में मनुष्य-जन्म बड़ा दुर्लभ है। इसके द्वारा अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है। 
इस प्रकार समस्त योनियों में से केवल मानव योनि ही ऐसी है  जोकि परमात्मा के पास पहुंच सकती है । यह योनि अत्यंत दुर्लभ है । 
परमात्मा तक पहुंचने के लिए नियम संयम और भजन का उपयोग करना पड़ता है । आपका जीवन पवित्र होना चाहिए । पवित्र का अर्थ स्वच्छता नहीं है । मानव जीवन का मूल आत्मा है । आत्मा ने इस शरीर को धारण किया हुआ है ।  यह शरीर कितना साफ सुथरा है इससे   आत्मा की पवित्रता पर कोई असर नहीं पड़ता है । अगर कोई भी  व्यभिचारी दुराचारी साफ-सुथरे कपड़े पहन ले तो उसको हम स्वच्छ नहीं कहेंगे । हमारी मां के कपड़े अगर घर के काम करते समय गंदे भी हैं तो  भी वे  कपड़े हमारे लिए सबसे ज्यादा साफ कपड़े हैं । किसी भी दुराचारी के कपड़ों से ज्यादा साफ है । मां के कपड़ों में हमारी श्रद्धा है । हम उस कपड़ों को सहेज कर रखेंगे । मां के बच्चे के लिए यह कपड़ा पवित्र है । भगवान की दृष्टि में यह जीव पवित्र कब बनेगा? जीव जब धर्म के मार्ग पर चलेगा और निष्काम भक्ति रखेगा   तब वह भगवान की दृष्टि से मैं पवित्र होगा।
संगीत के सात सुर हैं। सा रे ग म प ध नि सा इन्हीं सात सुरों पर पूरा संगीत टिका हुआ है । सा और रे यानी स्रोत  ।  ग से अर्थ है हमारा गांव । अर्थात सा रे गा संगीत के तीन स्वर गांव की निश्चल धरती पर ही पाए जाएंगे । शहर की भीड़ भाड़ में जहां पर पैसे की दुकान चल रही है वहां पर संगीत के निश्चल स्वर हमें प्राप्त नहीं होंगे ।
इन तीन सुरों के बाद अगला सुर "म" है। "म" का अर्थ है मानव । अब हम मनुष्य हो गए । गांव की निश्चल धरती पर संगीत के स्वर प्राप्त करने लायक हो गए । परंतु अब हमें "प" यानी पवित्र और पराक्रमी बनना है । पवित्र होने के बाद हम अब अपने देवता हनुमान जी को जानने के लायक हो गए । अगर आप  "ध" धन के चक्कर में फंसे  तो आप फंस गए । आप गांव के निश्चल मानव नहीं रहे । आपको तो  कोई भी खरीद सकता है । थोड़ा सा वेतन , थोड़ी ज्यादा लालच देकर कोई भी आपके हृदय में परिवर्तन कर सकता है । अगर आपको ऋषियों के  दिखाए हुए मार्ग से चलकर पवित्र बनना है तो आपको धन से बचना है  और दूसरे "ध" यानी धर्म को अपनाना है। आपको अपना धर्म और जीवात्मा का धर्म दोनों धर्म को निभाना है । आपका अपना धर्म जैसे कि अगर आप पुत्र हैं तो पिता की आज्ञा को मानना ,अगर आप सैनिक हैं तो अपने कमांडर की बात को मानना आपका धर्म है । आपके जीवात्मा का धर्म है पवित्र रास्ते पर चलकर परमात्मा से एकाकार होना ।
परंतु यह कैसे होगा । आपको पवित्र रास्ते पर चलने के "नि" अर्थात नियमों को मानना पड़ेगा । पवित्र रास्ते के अंत में हमारा हनुमान बैठा हुआ है । अब हम अपने हनुमान से "सा" साक्षात्कार कर सकते हैं।
हे  पवन पुत्र  अब मैं आपका हूं ।  मैं आपके साथ जुडा हुआ हूँ ।  आपका हूँ अतः  माँगना हो तो आप से ही माँगूँगा। अगर परिवार का कोई भी व्यक्ति  पडोसी के पास माँगने जाता है तो पातकी   कहलाता है और  घर की बेआबरु होती है ।  आप तो सीताराम के दास हैं । अब श्रीराम से कुछ भी मांगना आपका काम है । मुझे कुछ भी  दिलाना आपका काम है ।   इस प्रकार अपने को और हनुमान जी को पहचानकर जीव सब बंधनों से मुक्त होता है ।  इसीलिए तुलसीदासजी ने लिखा है :-
 ‘तुम्हरे भजन राम को पावै, 
 जनम जनम के दु:ख बिसरावै।’ 
 पवित्र संगीत की एक बहुत अच्छी कहानी है । अकबर के दरबार में  तानसेन जो एक महान संगीतज्ञ थे ,रहा करते थे । एक बार उन्होंने अकबर को एक बहुत सुंदर तान सुनाई । इस तान को सुनकर अकबर अत्यंत प्रसन्न हो गया ।  उसने कहा तानसेन जी आप विश्व के सबसे बड़े संगीतज्ञ हो ।  तानसेन ने उत्तर दिया कि जी नहीं , मेरे गुरु जी मुझसे अत्यंत उच्च कोटि के संगीतकार हैं । अकबर इस बात को मानने को तैयार नहीं था ।अकबर ने कहा अपने गुरु जी को मेरे पास बुलाओ  । तानसेन ने जवाब दिया यह संभव नहीं है । मेरे गुरु जी अपने कुटिया को छोड़कर और कहीं नहीं जाते हैं । अगर आपको उनका  संगीत सुनना है तो उनके पास जाना पड़ेगा और इस बात का इंतजार करना होगा कि कब उनकी इच्छा संगीत सुनाने को होती है । अकबर तैयार हो गया ।
अकबर और तानसेन दोनो वेष बदलकर गए । वहां पर जाकर इस बात की प्रतीक्षा करने लगे कि गुरुदेव कब अपना संगीत सुनाते हैं ।  एक दिन प्रात:काल के समय सूर्य भगवान का उदय हो रहा था ।  सूर्य भगवान अपनी लालीमा बिखेर रहे थे ।  पक्षियों की  किलबिलाहट चल रही थी और गुरुजी भगवान गोपालकृष्ण के मंदिर में, भगवान को रिझाने के लिए तान छेड  दिए थे । शुद्ध आध्यात्मिक संगीत बज रहा था । तानसेन और अकबर दोनो छुपकर गुरुजी के संगीत का आनंद लिया । बादशहा अकबर गुरुजी का संगीत सुनकर मंत्रमुग्ध हो गया । उसने तानसेन से कहा कि आप बिल्कुल सही कह रहे थे । गुरुदेव का संगीत सुनने के उपरांत आपका संगीत थोड़ा कच्चा लग रहा है । अकबर ने तानसेन से पूछा इतना अच्छा गुरु मिलने के बाद भी आपके संगीत में कमी क्यों है ।
तानसेन ने जो जबाब दिया वह सुनने लायक है ।  उसने कहा बादशाह , "मेरा जो संगीत है वह दिल्ली के बादशहा को खुश करने के लिए है, और गुरुदेव का जो संगीत है वह इस जगत के बादशाह (भगवान ) को प्रसन्न करने के लिए है  । इसीलिए यह फर्क है ।"  अतः भजन सामने बैठी जनता की प्रसन्नता के लिए नहीं गाना चाहिए ।अगर आपको हनुमान जी से लो लगाना है तो आप को पवित्र होकर हनुमान जी को प्रसन्न करने के लिए भजन  गाना चाहिए ।
इसके बाद इस चौपाई के  आखरी कुछ शब्द हैं "जनम जनम के दुख विसरावें" जन्म जन्म को पुनर्जन्म भी कहते हैं।
पुनर्जन्म एक भारतीय सिद्धांत है जिसमें जीवात्मा के वर्तमान शरीर के समाप्त होने के बाद उसके  पुनः जन्म लेने की बात की जाती है । इसमें मृत्यु के बाद पुनर्जन्म की मान्यता को स्थापित किया गया है। विश्व के सब से प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद से लेकर वेद, दर्शनशास्त्र, पुराण, गीता, योग आदि ग्रंथों में पूर्वजन्म की मान्यता का प्रतिपादन किया गया है। इस सिद्धांत के अनुसार शरीर का मृत्यु ही जीवन का अंत नहीं है परंतु जन्म जन्मांतर की श्रृंखला है। 84 लाख या 84 लाख प्रकार की योनियों में जीवात्मा जन्म लेता है और अपने कर्मों को भोगता है। आत्मज्ञान होने के बाद जन्म की श्रृंखला रुकती है; फिर भी आत्मा स्वयं के निर्णय, लोकसेवा, संसारी जीवों को मुक्त कराने की उदात्त भावना से भी जन्म धारण करता है। इन ग्रंथों में ईश्वर के अवतारों का भी वर्णन किया गया है। पुराण से लेकर आधुनिक समय में भी पुनर्जन्म के विविध प्रसंगों का उल्लेख मिलता है।

श्रीमद्भगवद्गीता के कर्म योग में भगवान श्री कृष्ण भगवान ने  पूर्व जन्म के संबंध में विस्तृत विवेचना की है । कर्म योग का ज्ञान देते समय भगवान श्री कृष्ण ने ,अर्जुन से कहा , "तुमसे पहले यह ज्ञान मैंने  सृष्टि के प्रारंभ में केवल सूर्य को  दिया है और आज तुम्हें दे रहा हूं।"  अर्जुन आश्चर्यचकित रह गए । उन्होंने कहा कि आपका जन्म अभी कुछ वर्ष पहले हुआ है । सूर्य देव तो सृष्टि के प्रारंभ से हैं । आप उस समय जब पैदा ही नहीं हुए थे तो सूर्य देव को यह ज्ञान कैसे दे सकते हैं । कृष्ण ने कहा कि, 'तेरे और मेरे अनेक जन्म हो चुके हैं, तुम भूल चुके हो किन्तु मुझे याद है। गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन से यह कहा :-
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥ ५ ॥
अर्थात-श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन ! मेरे और तेरे अनेक जन्म हो चुके हैं; उन सबको मैं जानता हूँ, किंतु हे परंतप ! तू (उन्हें) नहीं जानता।

गीता का यह श्लोक तो निश्चित रूप से आप सभी को मालूम ही होगा :-
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय ,नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। 
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा- न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
 -श्रीभगवद्गीता 2.22
जैसे मनुष्य जगत में पुराने जीर्ण वस्त्रों को त्याग कर अन्य नवीन वस्त्रों को ग्रहण करते हैं, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को छोड़कर नवीन शरीरों को प्राप्त करती है।
अब हम इस जन्म में जो कुछ भोग रहे हैं वह केवल आपकी इसी जन्म के कर्मों का फल नहीं है । आत्मा ने जो पिछले जन्म में कर्म किए हैं उनकी फल भी इस जन्म में भी आत्मा को प्राप्त होते हैं । हम यह देखते हैं कि कुछ लोग अत्यंत निंदनीय कार्य करते हैं परंतु उनको फल बहुत अच्छे अच्छे मिलते हैं । इसका क्या कारण है । ज्योतिष में इसको राजयोग बोला जाता है । यह भी देखा गया है किसी व्यक्ति को कुछ भी ज्ञान नहीं है । वह कई कॉलेजों के गवर्निंग बॉडी में चेयरमैन । जिस को विज्ञान के बारे में कुछ भी नहीं है वह विज्ञान के संस्थानों का नियंत्रक होता है । यह क्या है ? इसी को पूर्व जन्म का का फल कहते हैं। अब अगर आप यह चाहते हैं कि पूर्व जन्मों मैं आप द्वारा किए गए  कुकर्मों का फल आपको इस जन्म में ना मिले तो आपको शुद्ध चित्त से महावीर दयालु हनुमान जी का भजन करना होगा । इस भजन के लिए आपके कंठ का बहुत अच्छा होना आवश्यक नहीं है । भाषा का अद्भुत ज्ञान होना आवश्यक नहीं है । आवश्यक है तो  तो सिर्फ यह कि आप पूरे एकाग्र होकर मन वचन ध्यान से हनुमान जी  का भजन गाएं । हनुमान जी और राम जी की कृपा आप पर हो और पूर्व जन्म के पाप से आप बच सके ।
अगली लाइन में गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है  "अन्त काल रघुबर पुर जाई | जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई ||"
यह लाइन पूरी तरह से इसके पहले की लाइन तुम्हारे भजन राम को पावै जनम जनम के दुख विसरावें" से जुड़ी हुई है । 
अगर कोई व्यक्ति एकाग्र होकर मन क्रम वचन से हनुमान जी की आराधना करेगा तो उस व्यक्ति के जनम जनम के दुख समाप्त हो जाएंगे । इसके ही आगे हैं की अंत में वह रघुवर पुर में पहुंचेगा वहां उसको हरि का भक्त कहा जाएगा । इस प्रकार मानव का मुख्य कार्य हनुमान जी का एकाग्र होकर भजन करना है । तभी उसके दुख समाप्त होंगे  ।जन्मों का बंधन समाप्त होगा । अंत काल में रघुवरपुर  पहुंचेंगा और वहां पर उनको हरि भक्त का दर्जा मिलेगा । यहां पर समझने लायक बात यह है  रघुवरपुर  और हरिभक्त का पद क्या है । 
अक्सर लोग इस बात को कहते हैं कि मैं यह काम नहीं कर पाऊंगा क्योंकि मुझे ऊपर जाकर जवाब देना होगा । ऊपर जाकर जवाब देने वाली बात क्या है ? हिंदू धर्म के अनुसार तो आप जो भी गलत या सही करते हैं उसका पूरा हिसाब होता है  ।   आपकी आत्मा  जब यमलोक पहुंचती है तो वहां पर आपके कर्मों का हिसाब किताब होता है ।  मृत्यु के 13 दिन  के उपरांत आप पुनः कोई दूसरा शरीर पाते हैं या हरिपद मिलता है। आप के जितने  अच्छे   काम या खराब काम  होते हैं उसके हिसाब से आपको पृथ्वी पर नए शरीर में प्रवेश मिलता है। अगर आपके कार्य अत्यधिक अच्छे हैं ,जैसा कि पुराने ऋषि मुनियों का है ,तो आपको गोलोक या रघुवरपुर में हरिपद मिलेगा । हमारे यहां ऊपर जाकर आपको जवाब नहीं देना है ।  रघुवर पुर को तुलसीदास जी ने स्पष्ट नहीं किया है । रघुवर पुर बैकुंठ लोक को भी कहा जा सकता और अयोध्या को भी । इस प्रकार गोस्वामी तुलसीदास जी ने बैकुंठ और अयोध्या जी  दोनों को प्रतिष्ठित माना है  ।
रामचरितमानस में अयोध्या जी का वर्णन करते हुए कहा गया है:-
बंदउ अवधपुरी अति पावनि, सरजू सरि कलि कलुष नसावनि ।
यद्यपि सब बैकुंठ बखाना, वेद-पुराण विदित जग जाना ।।
इस प्रकार अयोध्या जी को वैकुंठ से श्रेष्ठ कहा गया है ।
अगले स्थान पर अयोध्या जी में रहने वालों को भी सर्वश्रेष्ठ बताया गया है।
अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ, यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ ।
अति प्रिय मोहि इहां के बासी, मम धामदा पुरी सुख रासी ।।
भगवान श्रीराम भी कहते हैं कि अवधपुरी के समान मुझे अन्य कोई भी नगरी प्रिय नहीं है। यहां के वासी मुझे अति प्रिय हैं।
इस प्रकार रामचंद्र जी ने अयोध्या जी को बैकुंठ से भी श्रेष्ठ बताया है । अतः राम भक्तों के लिए मृत्यु के बाद अयोध्या में वापस जन्म लेना और हरि भक्त कहलाना सबसे बड़ा वरदान है।
अब्राहम धर्म जिसमें ईसाई धर्म और मुस्लिम धर्म आदि आते हैं इनमें मृत्यु के बाद शव को  जमीन के अंदर कब्र में दफन किया जाता है । ईसाई धर्म के धर्मगुरु कहते हैं की Last Judgment Day  के दिन God हर किसी से उसके द्वारा किए गए गलत कामों का उत्तर मांगेगा । इसी प्रकार मुस्लिम धर्मगुरु कहते हैं कि कयामत के दिन यह सभी मुर्दे कब्र के बाहर आएंगे और उनसे अल्लाह मियां उनके द्वारा किए गए कामों का कारण पूछेगा । 
बाइबल के अनुसार Last Judgment Day या
आखिरी दिन सभी मरे हुए ज़िंदा किए जाएँगे।  उनकी आत्माएं फिर से उन्हीं शरीरों से मिल जाएंगी जो मरने से पहले उनके पास थीं। बुरा काम करने वालों को खराब शरीर दिया जाएगा और अच्छे काम करने वालों को अच्छे शरीर दिए जाएंगे । अच्छे काम करने वालों की उस दिन तारीफ होगी और बुरे काम करने वालों  को दंड मिलेगा।
  लेकिन हिंदू धर्म में स्थिति भिन्न है । मृत्यु के 13 दिन बाद आत्मा दूसरे शरीर को धारण करती है । यह शरीर उसको उसके पहले के जन्म में किए गए कार्यों के आधार पर मिलता है । जैसे कि उसने अच्छा काम किया है उसको सुंदर शरीर जिसने खराब काम किया है उसको बदसूरत शरीर जिसने अच्छा काम किया है उसको अमीर शरीर जिसने खराब काम किया है उसको गरीब शरीर आदि आदि।
इस प्रकार यह सब कुछ आप पर निर्भर है ।  आप इस जन्म में कितनी एकाग्रता के साथ मन क्रम वचन से हनुमान जी की विनती करते हैं, उनका भजन करते हैं ,उनका पूजन करते हैं । उसी हिसाब से आपका अगला जन्म निर्धारित होगा।

और देवता चित्त न धरई |
हनुमत सेइ सर्ब सुख करई ||
संकट कटै मिटै सब पीरा |
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ||

अर्थ :– 
किसी और देवता की पूजा न करते हुए भी सिर्फ हनुमान जी की कृपा से ही सभी प्रकार के फलों की प्राप्ति हो जाती है।
जो भी व्यक्ति हनुमान जी का ध्यान करता है उसके सब प्रकार के संकट और पीड़ा मिट जाते हैं।

भावार्थ :- 
उपरोक्त दोनों चौपाइयों में एक ही बात कही गई है । आप को एकाग्र होकर के हनुमान जी को अपने चित्त में धारण करना है । आप अगर ऐसा कर लेते हैं तो कोई भी  व्यक्ति ,विपत्ति, संकट पीड़ा ,व्याधि  आदि आपको  सता नहीं सकता है। हम सभी श्री हनुमान जी से अष्ट सिद्धि और नव निधि के अलावा मोक्ष भी प्राप्त कर सकते हैं । श्री हनुमान जी की सेवा करके हम सभी प्रकार के सुख अर्थात आंतरिक और बाएं दोनों प्रकार के सुख प्राप्त कर सकते हैं। 
आपको चाहिए कि आप अपने आपको मनसा वाचा कर्मणा हनुमान जी के हवाले कर दें । जिससे आप जन्मों के बंधन से मुक्त हो सकें ।

संदेश :- 
अपने स्वभाव को श्री हनुमान जी की भांति नरम रखें और दयावान बनें।

इन चौपाईयों के बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ  :- 
1-और देवता चित्त न धरई | हनुमत सेइ सर्ब सुख करई ||
2-संकट कटै मिटै सब पीरा | जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ||
जब भी आप कभी किसी संकट में पड़े इन दोनों चौपाइयों का 11 माला  प्रीतिदिन का पाठ करें ।साथ ही संकट को दूर करने का स्वयं भी प्रयास करें । हनुमान जी की कृपा से आपका संकट दूर हो जायेगा । 

विवेचना :-
उपरोक्त दोनों चौपाइयों में मुख्य रूप से एक ही बात कही गई है अगर आपको सभी संकटों से सभी व्याधियों से सभी बीमारियों से सभी खतरों से बचना है तो आप को हनुमान जी को समझना होगा । पहली पंक्ति में कहा गया है :-
"और देवता चित्त न धरई |  हनुमत सेइ सर्व सुख करई || "
इस चौपाई को सुनने से ऐसा प्रतीत होता है की कवि तुलसीदास जी कह रहे हैं कि आपको और किसी देवता को अपने चित्त में धारण करने की आवश्यकता नहीं है । आपको केवल हनुमान जी की वंदना करनी है । जबकि तुलसीदास जी ने ही रामचरितमानस में भगवान शिवजी , भगवान ब्रह्मा जी , भगवान विष्णुजी , भगवान श्री रामचंद्र जी और हनुमान जी सब के गुण गाए हैं । फिर   उन्होंने हनुमान चालीसा में केवल हनुमान जी की वंदना के लिए क्यों कहा है । आइए इसको समझने का प्रयास करते हैं।
हनुमान चालीसा के पहले और दूसरे दोहे की विवेचना लिखते समय मैंने  हनुमान चालीसा लिखते समय तुलसीदास जी की उम्र का पता लगाने का प्रयास किया है ।  अंत में हमारे द्वारा यह नतीजा निकाला गया की हनुमान चालीसा लिखते समय गोस्वामी तुलसीदास जी 10 से 15 वर्ष के रहे होंगे । गांव में कई प्रकार के देवता होते हैं ।  मेरे अपने गांव में हमारे ग्राम देवता बेउर बाबा और सती माई हैं । हमारी कुलदेवी बाराही जी हैं । ग्राम में जहां सब बच्चे खेलते थे वहां पर एक छोटा सा मंदिर है जिसमें हनुमान जी की प्रतिमा और शिवलिंग विराजमान है । दुष्ट शक्तियों से रक्षा के लिए गांव की एक कोने में काली माई हैं । अब इन सभी मंदिरों में कोई व्यक्ति प्रतिदिन नहीं जा सकता है । क्योंकि सभी मंदिरों में प्रतिदिन जाने में काफी समय लगेगा । होता यह है विशेष अवसरों पर छोड़कर हर व्यक्ति अपना एक आराध्य ढूढ़ लेता है । कोई व्यक्ति बेउर बाबा के मंदिर पर प्रतिदिन जाता है । कुछ परिवार के लोग काली माई के मंदिर पर प्रतिदिन जाते हैं । और कुछ लोग गांव के बीच में बने हुए भगवान शिव और हनुमान जी के मंदिर में प्रतिदिन जाते हैं । आइए यह भी देखें कि इस का चुनाव किस तरह से होता है । मैं जब छोटा था तो मैं प्रतिदिन अपने बाबू जी के साथ गंगा स्नान को जाता था । बाबूजी गंगा स्नान कर लौटते समय अपने लोटे में गंगा जल भर लेते थे । रास्ते में बेउर बाबा का मंदिर पडता था । वहां पर रुक कर के हम थोड़ा सा जल बेउर बाबा और सती माई पर चाढ़ाते थे । हमारे घर के पास में शिव जी और हनुमान जी का मंदिर था । ध्यान रखें शिव लिंग और हनुमान जी की प्रतिमा दोनों एक साथ एक ही कमरे में थी ।  यहां पर हम लोग शिवलिंग के ऊपर गंगाजल डालकर शिवजी का अभिषेक करते थे और हनुमान जी के पैर छूते थे । इसके बाद घर आ जाते थे । काली जी के मंदिर में हम किसी विशेष दिन ही जाते थे ।  काली जी का मंदिर जिनके घर के पास था वह लोग प्रतिदिन काली जी के मंदिर जाते थे । इस प्रकार हर व्यक्ति ने अपना अपना देवी या देवता चुन लिया था । देवी और देवता चुनने में घर के नजदीक होना ही एकमात्र मापदंड था । किसी के दिमाग में यह नहीं था कि फला देवता बड़े हैं या फला देवता छोटे हैं। परंतु फिर भी ज्यादातर बच्चों के आराध्य हनुमान जी हुआ करते थे । मैं  अब जब इसके बारे में सोचता हूं  तो मुझे ऐसा समझ में आता है इसमें बहुत बड़ा रोल जन स्रुतियों का और हनुमान चालीसा का है । बच्चों के बीच में एक विचार काफी तेजी से फैला था कि जब भी रात में बड़े बाग में जाना हो तो हनुमान चालीसा का जाप करना चाहिए । अगर हनुमान चालीसा याद नहीं है तो हनुमान जी हनुमान जी कहते हुए जाना चाहिए । बड़े बाग में रात में जाने की आवश्यकता के कारण हम सभी बच्चों को हनुमान चालीसा कंठस्थ हो गई थी ।  बचपन में हनुमान जी से लगी लौ  आज भी  ज्यों की त्यों विद्यमान है । 
तुलसीदास जी ने भी हनुमान चालीसा अपने बाल्यकाल में लिखी है । उनको भी रात्रि में छत पर जाना पड़ता था । हम बालकों की तरह से वह भी रात में छत पर जाने से डरते थे । इसलिए उन्होंने भी हनुमान जी का सहारा लिया । 
मूल बात यह है कि आपको एक ऊर्जा स्रोत का सहारा लेना चाहिए । ऊर्जा स्रोत के अलावा इधर-उधर देखना आपके चित्त को भ्रमित करेगा । इसीलिए तुलसीदास जी ने लिखा कि हमें केवल हनुमान जी को ही अपने चित्त में धारण करना है ।और अगर हनुमान जी की सेवा करेंगे तो हमें सभी प्रकार के सुख में प्राप्त होंगे । 
महिम्न स्तोत्र में पुष्पदंत कवि कहते हैं- 
‘‘रुचीनां वैचित्‍​र्याऋजु कुटिल नानापथजुषां’’ 
लोगों के रुचि-वैचित्‍​र्य के कारण ही वे भिन्न-भिन्न देवताओंका पूजन करते हैं । लोगों की प्रकृति में अंतर होने के कारण उनकी ईश-कल्पना में भी अन्तर रहेगा ही ।  इसलिए किस आकार में, किस स्वरुपमें ईश्वरका पूजन करना चाहिए इस सम्बन्ध में शास्त्रकारोंने कोई आग्रह नहीं रखा ।  दो भिन्न-भिन्न देवताओं के मानने वालों के बीच में  अज्ञान के कारण  झगडा होता है । इस झगडे को मिटाने के लिए भगवान कहते हैं कि-
यो यो यां यां तनु भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धा तामेव विद्धाम्यहम् ।।
सतया श्रद्धय युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च तत: कामान्मयैव विहितान्हितान् ।।
‘‘जो व्यक्ति जिस देव का भक्त होकर श्रद्धा से उसका पूजन करने की इच्छा करता है उस व्यक्ति की उस देव के प्रति श्रद्धा को मैं दृढ करता हूँ’’  ‘‘श्रद्धा दृढ होने पर वह व्यक्ति उस देव का पूजन  करता है और मेरे द्वारा निर्धारित उस व्यक्ति की वांछित कामनाएँ  उसे प्राप्त होती है ।’’ इस दृष्टि से देखने पर मूर्ति को परम्परा का समर्थन प्राप्त है ऐसी हमारे आराध्य देव की मूर्ति में ही चित्त सरलता से एकार्ग हो सकता है ।
तुलसीदास जी इसके पहले लिख चुके हैं की मन क्रम वचन से एकाग्र होकर के हनुमान जी का ध्यान करना चाहिए । अब अगर हनुमान जी की  हम ध्यान लगाते हैं तो सबसे पहले हमें हनुमान जी के हाथ में गदा दिखती है । जिससे वे शत्रुओं का संहार करते हैं । उसके बाद उनका वज्र समान मुख मंडल दिखता है । फिर उनका मजबूत शरीर  और उनका आभामंडल दिखाई पड़ता है। 
हम सभी जानते हैं कि उपासना में अनन्यता की आवश्यकता है ।   इस चौपाई द्वारा तुलसीदास जी शास्त्रीय मूर्तिपूजा का महत्व समझाते हैं ।   मूर्ति पूजा भारतीय  ऋषि मुनियों द्वारा   मानव सभ्यता को दी गई एक बहुत बड़ी भेंट है। मूर्ति पूजा के कारण हम आसानी से अपने इष्ट का ध्यान लगा सकते हैं । मूर्तिपूजा एक पूर्ण शास्त्र है । मानव अपने विकाराें को परख ले, उन्हे क्रमश: कम करे, शुद्ध करें, उदात्त करें और अन्त में विचार और विकार रहित स्थिति में आ जाए जिसके लिए मूर्ति पूजा अत्यंत आवश्यक है । मूर्ति पूजा मनुष्य को शुन्य से अनंत की ओर ले जाती है । मूर्ति पूजा की शक्ति अद्भुत है ।  यह मानव को अनंत से मिलाने का रास्ता बनाती है।
पूजा  कर्मकांड नहीं है वरन कर्मकांड पूजा में व्यक्ति को व्यस्त करने का एक तरीका है। सर्व व्यापी परमात्मा को एक मूर्ति में बांध देना कहां तक उचित है । मूर्ति पूजा के विरोधी अक्सर यह बात कहते हैं । परंतु यह भी सत्य है चित्त को एकाग्र करने के लिए मूर्ति पूजा अत्यंत आवश्यक है ।  
जीवन में मन काफी महत्वपुर्ण है ।  मन है तो सुनना है, मन है तो बोलना है, मन है तो सब कुछ है। मन को शांत करने पर ही नींद आती है ।   इसलिए जीवन की प्रत्येक क्रिया में मन आवश्यक है ।  भोगार्थ भी मन है और मुक्ति के लिए भी मन है । मन ही मूर्ति का आकार लेता है तब उसे ही एकाग्रता कहते हैं ।  ऐसी एकाग्रता अधिक समय तक टिकनी चाहिए ।  
इस प्रकार मन को यदि भगवान जैसा बनाना हो तो भगवान का ध्यान करना जरुरी है ।  भगवान ने मूर्तिपूजा का महत्व (सगुण साकार भक्ति का महत्व ) गीता के बारहवे अध्याय में बहुत ही अच्छी तरह समझाया है ।
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मता: ।।
(गीता 12-2)
जो मुझमें मन लगाकर और सदा समान चित्तवाले रहकर परम श्रद्धा से मेरी उपासना करता है, वह मेरी दृष्टि से सबसे श्रेष्ठ योगी है ।
मन को एकाग्र करना कितना कठिन है यह बात गीता में अर्जुन ने भगवान श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय के 34 में श्लोक में कही है । 
चंचल हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।।
 (गीता 6-34)
अर्थ:-हे कृष्ण! मन बलवान, चंचल, बलपुर्वक खींचनेवाला और आसानी से वंश में नहीं हो सकता। इसलिए मन को नियंत्रण में रखना वायु को रोकने के बराबर है।’’ 
अर्जुन के इस प्रश्न का जवाब देते हुए भगवान  कहते हैं ।
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृहते ।।
(गीता 6-33)
हे महाबाहु अर्जून! सचमुच मन चंचल है एव निग्रह करने में कठीन है ।  फिर भी सतत अभ्यास एवं वैराग्य से हे कुन्तीपुत्र! उसे वश में किया जा सकता है ।  
मन को एकाग्र करने के  अभ्यास योग में पाँच बातें अपेक्षित है- 1) आदरबुद्धि 2) दृढता 3) सातत्य 4) एकाकीभाव और 5) आशारहितता
इस प्रकार मेरे विचार से स्पष्ट हो गया की गोस्वामी तुलसीदास जी ने यह कहना चाहा है कि आप हनुमान जी या कोई भी  ऊर्जा पुंज को   अपने दिल में धारण करें और वही ऊर्जा पुंज (हनुमान जी) आपको सभी कुछ प्रदान करेंगे । आपको इधर उधर  नहीं भागना चाहिए । 
 आपके ऊपर अगर कोई संकट आएगा विपत्ति आएगी व्याधि आएगी तो सब कुछ हनुमानजी मिटा कर समाप्त कर देंगे । बस आपको हनुमान जी की एकाग्र भक्ति करनी है।
 
जय जय जय हनुमान गोसाईं |
कृपा करहु गुरुदेव की नाईं ||
जो सत बार पाठ कर कोई |
छूटहि बन्दि महा सुख होई ||


अर्थ :– 
हे हनुमान गोसाईं आपकी जय हो। आप मुझ पर गुरुदेव के समान कृपा करें।
जो इस हनुमान चालीसा का सौ बार पाठ करता है उसके सारे कष्ट दूर हो जाते हैं और  महान सुख की प्राप्ति होती है ।

भावार्थ :- 
हे स्वामी हनुमान जी! आपकी जय हो, जय हो, जय हो!  श्री हनुमान जी आप अपने भक्‍तों के रक्षक हैं, आपकी बारंबार जय हो। एक गुरु की तरह आपने मुझ पर ज्ञान की वर्षा की है।आप मुझ पर  श्री गुरु जी के समान कृपा कीजिए।
जो कोई इस हनुमान चालीसा का सौ बार पाठ करेगा वह सब बंधनों से छूट जाएगा ।  उसे परमानन्द मिलेगा । उसे महासुख और मोक्ष की प्राप्ति होगी । आपकी कृपा से मेरे सारे कष्ट दूर हो जाएंगे। 

संदेश:- 
अपने गुरु के दिए हुए ज्ञान का अनुसरण करें, इससे आप जीवन में सुख अर्जित कर पाएंगे।

हनुमान चालीसा की इन चौपाइयों  के बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ :-
1-जय जय जय हनुमान गोसाईं | कृपा करहु गुरुदेव की नाईं ||
2-जो सत बार पाठ कर कोई | छूटहि बन्दि महा सुख होई ||
 ज्ञान  और मोक्ष की प्राप्ति के लिए इन चौपाइयों का बार-बार पाठ करना चाहिए । 

विवेचना:-
हनुमान चालीसा की पहली चौपाई का प्रारंभ जय हनुमान शब्द से होता है ।  इस चौपाई में जय शब्द तीन बार आया है । इसके अलावा  हनुमान जी के साथ अतिरिक्त रूप गोसाई शब्द का  इस्तेमाल किया गया  है । गोसाई शब्द गोस्वामी का  अपभ्रंश है । इस चौपाई के रचयिता का नाम भी गोस्वामी तुलसीदास है । इस प्रकार यह चौपाई एक बहुत महत्वपूर्ण चौपाई हो गई है । इस चौपाई में पहली बार तुलसीदास जी हनुमान जी से कुछ मांग रहे हैं । इसके पहले की चौपाइयों में हनुमान जी की प्रशंसा की गई है । हर चौपाई में उनकी तारीफ की गई है । परंतु कुछ मांगा नहीं गया है। इस इस प्रकार इस चौपाई में दूसरे चौपाइयों से तीन बातें अधिक है।
1-एक ही शब्द का तीन बार प्रयोग
2-हनुमान जी के नाम के साथ तुलसीदास जी ने गोसाई शब्द का प्रयोग किया।
3-इस चौपाई में हनुमान जी से मांग की गई है।
एक-एक कर तीनों बिंदुओं पर चर्चा करते हैं।
जय शब्द का तीन बार  प्रयोग किया गया है । जय शब्द का उपयोग कई अर्थों में किया जाता है  । सबसे सामान्य अर्थ है आप की विजय हो । यह एक प्रकार की प्रशंसा करने जैसा शब्द है । बगैर किसी लड़ाई या प्रतियोगिता के किसी को विजयी बना दिया जाता है । हमारे देश में भजन कीर्तन में राजनीतिक नारों में किसी  नेता के आने पर इस शब्द का खूब इस्तेमाल होता है । इस शब्द में एक भावना भी छुपी हुई है कि आपकी किसी भी लड़ाई में ,किसी भी प्रतियोगिता में   विजय हो । एक प्रकार की शुभकामना भी है । इस शब्द का प्रयोग करते समय  याचना का भाव भी रहता है । इस तरह से जय शब्द का प्रयोग कर गोस्वामी तुलसीदास जी  हनुमान जी को बताना चाहते हैं कि मैं अब आपसे याचना करने वाला हूं । आपसे अब मैं कुछ मांगूंगा । अब तक मैंने आपकी प्रशंसा की है । अब मैं उस प्रशंसा का फल लेने का प्रयास  करने जा रहा हूं । 
अब इसके बाद प्रश्न उठता है कि इस शब्द का तीन बार प्रयोग क्यों किया गया है । आज समाज में  मान्यता है कि अगर किसी शब्द का तीन बार प्रयोग किया जाए तो वह सत्य हो जाता है । जैसे कि अगर हम किसी से वादा करते हैं और उस वादे को तीन बार दोहराते हैं तो यह माना जाता है कि हम इस वादे पर कायम रहेंगे । इसी प्रकार अगर हम किसी से कोई मांग कर रहे हैं और उस मांग को तीन बार दोहरा रहे हैं  तो यह माना जाएगा कि हमें इस चीज की अत्यंत आवश्यकता है । 
हमारी सभी बाधाएं, समस्याएं और व्यथाएं तीन स्त्रोतों से उत्पन्न होती है :-
1) आधिदैविक - उन अदृश्य , दैवी शक्तिओ के कारण जिन पर हमारा बहुत कम और बिल्कुल नियंत्रण नहीं होता।  जैसे भूकंप , बाढ़  , ज्वालामुखी इत्यादि।
2) आधिभौतिक -  हमारे आस - पास के कुछ ज्ञात कारणों से जैसे दुर्घटना , मानवीय संपर्क , प्रदूषण , अपराध  इत्यादि।  
3) आध्यात्मिक - हमारी शारीरिक और मानसिक समस्याएं जैसे रोग , क्रोध , निराशा   इत्यादि।  
मंत्रोचार के दौरान जब हम किसी शब्द का तीन बार प्रयोग करते हैं जैसे संकल्प देते समय विष्णु शब्द का तीन बार प्रयोग किया जाता है तो इसका अर्थ होता है कि हम सच्चे मन से प्रार्थना कर रहे हैं । शांति पाठ के दौरान भी  शांति शब्द का तीन बार प्रयोग किया जाता है । पहली बार उच्च स्वर में जिसमें हम दैवीय शक्तियों को संबोधित करते हैं । दूसरी बार कुछ धीमे स्वर में इस बार हम अपने पास के वातावरण को संबोधित करते हैं और तीसरी बार अत्यंत धीमे स्वर में जब हम अपने आप को संबोधित करते हैं ।
उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट हो रहा है कि  अपनी बात पर आध्यात्मिक रूप से बल देने के लिए गोस्वामी जी ने जय शब्द का तीन बार प्रयोग किया है। 
अगला बिंदु है हनुमान जी के साथ गोसाईं शब्द का इस्तेमाल क्यों किया गया है । गोसाई शब्द एक उपाधि के रूप में हनुमान जी के नाम के साथ में उपयोग की गई है । गोसाई शब्द के कई अर्थ हैं । जिसमें से एक अर्थ है ऐसा व्यक्ति जिसने इंद्रियों को वश में कर लिया हूं अर्थात जितेंद्रीय । 
अध्यात्मिक गुरु श्री प्रभुपाद जी ने अपनी पुस्तक "भगवत गीता यथारूप" में बताया है कि:-
  जो इन छह वस्तुओं - वाणी, मन, क्रोध, जीभ, पेट और जननांगों को नियंत्रित कर सकता है, उसे स्वामी या गोस्वामी कहा जाता है। गोस्वामी का अर्थ है गो, या इंद्रियों का स्वामी । जब कोई संन्यास  को स्वीकार करता है, तो वह स्वत: ही स्वामी की उपाधि धारण कर लेता है।
इसके अलावा गो शब्द का एक अर्थ   वेद भी होता है । वेद की स्वामी को भी गोस्वामी कहा जाता है । सनातन धर्म में वेद को वेद भगवान कहा जाता है ।इस प्रकार जो वेद भगवान की भी ऊपर है उनको गोस्वामी कहा जाएगा।  सनातन धर्म में गोस्वामी के लिए मान्यता है कि यह सब के गुरु होते हैं । गोस्वामीयों के गुरु भगवान शिव को माना जाता है । हनुमान जी क्योंकि रूद्र के अवतार हैं अतः उनसे बड़े भगवान शिव हुए जोकि गोस्वामीयों के गुरु हैं ।  तभी तो यह कहावत प्रचलित है कि :-
" जगत गुरू ब्राह्मण, ब्राह्मण गुरू संन्यासी और संन्यासी गुरू अविनाशी।"  
अर्थात इस संसार का गुरू ब्राह्मण है, ब्राह्मण का गुरू संन्यासी है और संन्यासी का गुरू अविनाशी ( शिव ) है।  कहने का मतलब यह है कि संन्यासी ( गोस्वामी ) का कोई गुरू नहीं होता और यदि होता भी है तो वह गुरू कोई इंसान नहीं बल्कि स्वयं भगवान शिव हैं । 
यह भी संभव है गोस्वामी तुलसीदास जी ने हनुमान जी से अपना जुड़ाव बताने के लिए भी हनुमान जी के  के साथ गोस्वामी शब्द का प्रयोग किया हो ।
 मेरा व्यक्तिगत मत है कि तुलसीदास जी ने  हनुमान जी के लिए  गोस्वामी शब्द का प्रयोग उनके जितेंद्रीय होने और भगवान शिव का अंश होने के कारण किया है ।
 अब अगला पद है "कृपा करहु गुरुदेव की नाईं "
 अर्थात आप हमारे ऊपर गुरुदेव जैसी कृपा करें ।
 यहां पर गोस्वामी तुलसीदास  जी पहली बार पवन पुत्र हनुमान जी से कृपा करने की याचना कर रहे हैं। साथ में हनुमान जी को यह भी बता रहे हैं कि आप हमारे ऊपर गुरुदेव की तरह से कृपा करें । यहां पर तो पहला प्रश्न है यही है कि कृपा गुरुदेव जैसी क्यों होनी चाहिए ? क्या माता-पिता की कृपा , बड़े भाई -भाभी की कृपा या अपने बड़े बुजुर्गों की कृपा क्या गुरुदेव की कृपा से कम है ? तुलसीदास जी ने गुरु की कृपा को इन सभी की कृपा से ऊपर माना है । 
 इसका एक कारण यह हो सकता है कि गोस्वामी तुलसीदास जी को माता और पिता का प्यार और दुलार नहीं मिला । उनके जन्म के दूसरे दिन ही मां का निधन हो गया । पिताजी ने चुनियाँ नाम की एक दासी को इस नवजात बालक को सौंप दिया । गोस्वामी तुलसीदास जी ने जन्म के समय ही राम-राम शब्द का उच्चारण किया था । अतः उनका नाम की रामबोला रख दिया गया था। जब रामबोला साढे पाँच वर्ष का हुआ तो चुनियाँ भी नहीं रही। वह गली-गली भटकता हुआ अनाथों की तरह जीवन जीने को विवश हो गया।
 इस प्रकार गोस्वामी तुलसीदास जी को माता पिता और यहां तक की उनको पालने वाली महिला का प्यार भी पूरी तरह से नहीं मिल पाया ।  उनके गुरु श्री नरहरि बाबा ने भगवान शंकर की  प्रेरणा से रामबोला को ढूंढ निकाला। श्री नरहरि बाबा ने ही उनका नाम विधिवत रूप से राम बोला से तुलसीदास रखा । उसके उपरांत वे तुलसीदास जी को लेकर अयोध्या गए । वहाँ संवत्‌ 1561 माघ शुक्ला पंचमी (शुक्रवार) को उनका यज्ञोपवीत-संस्कार सम्पन्न कराया। संस्कार के समय भी बिना सिखाये ही बालक तुलसीदास जी ने गायत्री-मन्त्र का स्पष्ठ उच्चारण किया ।  इसको देखकर सब लोग चकित हो गये।  बाद में नरहरि बाबा ने वैष्णवों के पाँच संस्कार करके बालक को राम-मन्त्र की दीक्षा दी और अयोध्या में ही रहकर उसे विद्याध्ययन कराया।  
 तुलसीदास जी ने 14 से 15 साल की उम्र तक सनातन धर्म, संस्कृत, व्याकरण, हिन्दू साहित्य, वेद दर्शन, छः वेदांग, ज्योतिष शास्त्र आदि की शिक्षा प्राप्त की।
 इस प्रकार हम देखते हैं कि बालक तुलसीदास को माता पिता या अपने अन्य स्वजन का प्यार और कृपा नहीं मिल पाई । तुलसीदास जी को यह प्यार और कृपा  उनको अपने  गुरुदेव श्री नरहरि बाबा से ही मिली । अतः यह संभव है कि बालक तुलसीदास के मन में गुरुदेव का स्थान सबसे ऊपर आ गया हो । तुलसीदास जी के इस विचार को हमने पुस्तक आरंभ करते समय पहले दोहे में ही बताया भी है । इसलिए उन्होंने यहां भी हनुमान जी से गुरुदेव जैसी कृपा की मांग की होगी ।
 कुछ लोग दूसरी बात कहते हैं उनका कहना है कि माता-पिता और अन्य स्वजनों की कृपा में एक स्वार्थ भी होता है । माता-पिता को इस बात की उम्मीद होती है कि हमारा पुत्र बड़ा होने के बाद हमारी सेवा करेगा । अर्थात की गई कृपा के प्रतिफल की चाहत होती है । परंतु गुरुदेव के अंदर इस प्रकार की किसी प्रतिफल की कोई उम्मीद नहीं होती है । गुरु से शिक्षा लेने के बाद शिष्य वहां से चला जाता है । कई बार तो दोबारा लौटकर भी नहीं आता है ।  परंतु इस बात से गुरुदेव के अंदर किसी तरह की कोई भी विकार नहीं आता है । इस प्रकार हम कह सकते हैं की कृपा निस्वार्थ होती है । अतः यह कृपा माता-पिता की कृपा से श्रेष्ठ है ।
 गुरुदेव की कृपा के बारे में संस्कृत का श्लोक अत्यंत उपयुक्त है :-
 गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
 गुरुः साक्षात परब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवे नमः।।

अर्थात, गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है। गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरुदेव को मैं प्रणाम करता हूँ।
गुरुदेव के प्रकाश के बारे में विभिन्न संतो ने बहुत कुछ लिखा है। सभी ने बताया है कि गुरुदेव की महिमा अपरंपार है । गुरु शब्द में "गु " का अर्थ है अंधकार और "रू" का अर्थ है उसको हटाने वाला । इस प्रकार गुरु शब्द का अर्थ हुआ ,जो हमारे अंदर से अंधकार को हटा दें अर्थात प्रकाश ले आए  । हमको अंधकार से प्रकाश की तरफ ले जाने वाले को गुरुदेव कहते हैं।
सभी संतो ने एवं सभी ग्रंथों में गुरुदेव की महिमा का बखान किया गया है । कबीरदास जी लिखते हैं कि :-
गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपणे, गोबिंद दियो मिलाय।।
अर्थात, गुरु और गोविन्द (भगवान) एक साथ खड़े हों तो किसे प्रणाम करना चाहिए, गुरु को अथवा गोबिन्द को? ऐसी स्थिति में गुरु के श्रीचरणों में शीश झुकाना उत्तम है, जिनकी कृपा रूपी प्रसाद से गोविन्द का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
संत कबीर  ने यह भी लिखा है :-
सतगुरु सम कोई नहीं, सात दीप नौ खण्ड।
तीन लोक न पाइये, अरु इकइस ब्रह्मणड।।
अर्थात, सात द्वीप, नौ खण्ड, तीन लोक, इक्कीस ब्रहाण्डों में सद्गुरु के समान हितकारी आप किसी को नहीं पायेंगे।
संत शिरोमणि तुलसीदास ने भी गुरु को भगवान से भी श्रेष्ठ माना है। वे अपनी कालजयी रचना रामचरितमानस में लिखते हैं:-
गुरु बिनु भवनिधि तरइ न कोई।
जों बिरंचि संकर सम होई।।
अर्थात, भले ही कोई ब्रह्मा, शंकर के समान क्यों न हो, वह गुरु के बिना भव सागर पार नहीं कर सकता।
संत तुलसीदास जी तो गुरू को मनुष्य रूप में नारायण यानी भगवान ही मानते हैं। वे रामचरितमानस में लिखते हैं:
बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबिकर निकर।।
अर्थात्, गुरु मनुष्य रूप में नारायण ही हैं। मैं उनके चरण कमलों की वन्दना करता हूँ। जैसे सूर्य के निकलने पर अन्धेरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही उनके वचनों से मोहरूपी अन्धकार का नाश हो जाता है।

गुरु हमारे सदैव हितैषी व सच्चे मार्गदर्शक होते हैं। वे हमेशा हमारे कल्याण के बारे में सोचते हैं और एक अच्छे मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं। वे हमें सच्चा मानव बनाना चाहते हैं और इसके लिए कभी-कभी वे दंड का भी उपयोग करते हैं ।  इस सन्दर्भ में संत कबीर ने लाजवाब अन्दाज में कहा है:
गुरु कुम्हार शिष कुम्भ है, गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।
अर्थात, गुरु एक कुम्हार के समान है और शिष्य एक घड़े के समान होता है। जिस प्रकार कुम्हार कच्चे घड़े के अन्दर हाथ डालकर, उसे अन्दर से सहारा देते हुए हल्की-हल्की चोट मारते हुए उसे आकर्षक रूप देता है, उसी प्रकार एक गुरु अपने शिष्य को एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व में तब्दील करता है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं गुरुदेव का पद ब्रह्मांड में सबसे ऊंचा है इसलिए  संत तुलसीदास जी ने हनुमान जी से प्रार्थना की है कि वे उनके ऊपर गुरुदेव जैसी कृपा करें ।
अगला प्रश्न क्या है कि गुरुदेव किसके ? हनुमान जी के गुरुदेव जैसी या  हमारे अपने गुरुदेव जैसी कृपा चाहिए है । हनुमान जी के गुरुदेव भगवान सूर्य हैं ।  हनुमान जी को शास्त्रों का पूरा ज्ञान भगवान भुवन भास्कर ने ही दिया है । परंतु संभवत गोस्वामी तुलसीदास जी सूर्य देव को हनुमान जी का गुरु नहीं मानना चाहते हैं । इसलिए उन्होंने हनुमान जी के साथ गोसाई शब्द का इस्तेमाल किया है । मैं अभी बता चुका हूं कि गोसाई लोगों के गुरु भगवान शिव या परमपिता परमात्मा ही होते हैं । संभवत वे कहना चाहते हैं कि परम वीर हनुमान जी के गुरु भगवान शिव  हैं। तुलसीदास जी हनुमान जी से यह मांग रहे हैं कि जिस तरह से हनुमान जी के गुरुदेव भगवान शिव उनके ऊपर कृपा दृष्टि रखते हैं उसी प्रकार हनुमान जी तुलसीदास जी के ऊपर कृपा दृष्टि करें ।
तुलसीदास जी के ऊपर उनके गुरुदेव की कृपा का वर्णन हम ऊपर कर चुके हैं ।  गुरुदेव नरहरी बाबा ने भी तुलसीदास जी के ऊपर यह कृपा भगवान शिव की आज्ञा अनुसार ही करी थी । इस प्रकार चाहे हनुमान जी के गुरुदेव भगवान शिव हो या तुलसीदास जी के गुरुदेव नरहरि बाबा हों दोनों की कृपा अद्भुत है । इस प्रकार थोड़ी ही शब्दों में गुरुदेव की कृपा मांग कर पूरी दुनिया का सुख तुलसीदास जी ने हनुमान जी से मांग लिया ।
कोई भी याचक देखने में छोटी सी प्रार्थना करता है परंतु अक्सर वह प्रार्थना अत्यंत बड़ी होती है । इस प्रकार इस चौपाई में तुलसीदास जी ने हनुमान जी से पूरे ब्रह्मांड का सुख मांग लिया है । उन्होंने तीन बार हनुमान जी से प्रार्थना भी कर ली है । जिससे कि हनुमान जी इस प्रार्थना को प्रदान करने के लिए विवश हो जाएं।
अगली चौपाई और भी अद्भुत है । तुलसीदास जी कहते हैं :-
 "जो सत बार पाठ कर कोई |  छूटहि बन्दि महा सुख होई ||" 
 इसका साधारण अर्थ भी  हम आपको पहले बता चुके हैं । महा सुख प्राप्त करने का कितना आसान तरीका महाकवि तुलसीदास जी ने बताया है । आप हनुमान चालीसा को शत बार या सत बार पढ़े आपको महा सुख की प्राप्ति होगी । वास्तव में सत शब्द से सत्य ,7 या सौ  तीनो का आभास होता है । इस पर हम चर्चा थोड़ी देर बाद करेंगे कि  "सत्य" सही है या "7" सही है या "100" सही है । महा सुख प्राप्त करने का कितना आसान तरीका है । आपको कोई मेहनत नहीं करना है, कोई परिश्रम नहीं करना है और सब कुछ प्राप्त हो जाना है । परंतु अगर आप पूरी हनुमान चालीसा को पढ़ते  और गुनते हुए इस चौपाई पर पहुंचेंगे तब आपको समझ में आएगा यह कितना कठिन कार्य है ।
पहली बात यह है की हनुमान चालीसा को पढ़ना नहीं है पाठ करना है ।  हिंदू धर्म में पाठ करना और पढ़ना दोनों अलग-अलग प्रकार से होते हैं । किस ग्रंथ को पढ़ने में उसको एक तरफ से पढ़ा जाता है और पन्ने पलट कर के हम पढ़ते हुए अंतिम पन्ने पर पहुंच जाते हैं । परंतु पाठ करते समय हमको अपने चित्त को एकाग्र करना होता है । हमारे मन में उस पुस्तक के प्रति आदर का भाव होना चाहिए । और यह आदर हमारे वचन में दिखना चाहिए । अर्थात जब हम हनुमान चालीसा का पाठ करें तब हमारा मन पाठ करने वाली जगह  और हनुमान चालीसा की लाइनों पर होना चाहिए । जिस समय हम हनुमान चालीसा का पाठ कर रहे हैं उस समय हमारा ध्यान अपने खेत पर या अन्यत्र नहीं होना चाहिए । हमारा ध्यान केवल उस लाइन पर ही होना चाहिए जिसको हम पढ़ रहे हैं । पवित्र पुस्तकों के पाठ प्रारंभ करने के कुछ नियम है जैसे पुस्तक को माथे पर लगाना । उसकी आरती करना । दीपक जलाना । भरा हुआ कलश रखना ।  दीपक ,कलश, भूमि, गणेश जी और पुस्तक सब की पूजा करना । गणेश जी तथा ग्रंथ के देवता को आवाहन करना   । इन सबके बाद ही हमको ग्रंथ का पाठ प्रारंभ करना चाहिए । इसी तरह से जब हम ग्रंथ का पाठ समाप्त करते हैं तब भी कुछ क्रियाएं करनी पड़ती है । ग्रंथ का पाठ करने में ग्रंथ और उस ग्रंथ के देवता के प्रति  हमारी श्रद्धा आवश्यक है। आइए अब  सत बार पाठ करने  के अर्थ की विवेचना करते हैं ।
जैसा कि मैंने पूर्व में बताया है सत शब्द का प्रयोग यहां पर तीन प्रकार से हो सकता है । सत शब्द सत्य शब्द का अपभ्रंश हो सकता है । यह  शत अर्थात 100 का भी  अपभ्रंश हो सकता है । इसके अलावा सत शब्द से 7 का भी आभास मिलता है। 
कुछ लोग जिन को आसान कार्य पसंद है वे कहेंगे कि सत शब्द का अर्थ यहां पर 7 से है । 100 बार पाठ करने से 7 बार पाठ करना अत्यंत आसान है । हनुमान चालीसा का  100 बार पाठ करना एक कठिन कार्य है और इस कार्य में काफी समय भी लगना स्वाभाविक है । जो थोड़ा कट्टर लोग हैं शब्द का अर्थ 100 बार ही निकालेंगे । उनका कहना होगा की आसान तरीका पकड़ लेने से कार्य सफल नहीं होते हैं । सफलता का रास्ता हमेशा कठिन ही होता है । शॉर्टकट से कभी सफलता प्राप्त नहीं होती है। हनुमान चालीसा के बार बार पाठ करने से मिलने वाली सफलता के बारे में दैनिक जागरण के डिजिटल एडिशन में  तलवार दंपत्ति के बारे में  खबर पढ़ने योग्य है ।
दैनिक जागरण के   14 अक्टूबर 2017 के 3:56 पीएम ,  डिजीटल एडिशन  जिसे 15 अक्टूबर को प्रातः काल को अपडेट किया गया  था उसमें एक समाचार है । समाचार यह है कि मशहूर तलवार दंपति को बचाने में जितना हाथ गवाहों और वकीलों का है  उससे ज्यादा हनुमान चालीसा का है।
जेल के सूत्रों के मुताबिक तलवार दंपत्ति को जेल में जब भी समय मिलता वह हनुमान चालीसा का जाप करने लगते । 12 अक्टूबर 2017 को जब न्यायालय का फैसला आया तो डॉक्टर तलवार ने कहा कि हनुमान जी ने हमें बचा लिया । डॉ तलवार ने जेल में  और लोगों को भी हनुमान चालीसा पढ़ने की सलाह दिया था।
आइए  अब तीसरे अर्थ की बात करते हैं सत का अर्थ यहां पर सत्य को माना गया है  और बार का अर्थ आवृत्ति (फ्रीक्वेंसी) से है। जो व्यक्ति सत्य की आवृत्ति होने तक इसका पाठ करता है अर्थात सत्य की प्राप्ति होने तक इसका पाठ करता है, वह भवबन्धन से पार होकर महासुख को प्राप्त करता है। यहाँ सुख नही बल्कि महासुख मिल रहा है। 
मेरी विचार से सत बार पाठ करने का अर्थ है कि हनुमान चालीसा का पूरी श्रद्धा और नियम के साथ  बार बार प्रतिदिन पाठ करें । प्रतिदिन पाठ करने से आपको एक ना एक दिन सत्य की प्राप्ति अवश्य हो जावेगी  । जब आपको सत्य की प्राप्ति हो जाएगी  तब महासुख आपके पास अपने आप आ जाएगा । 
आईये अब हम पाठ के नियमों की बात करते हैं । पाठ के नियम सामान्य कर्मकांड के नियम होते हैं । 
परंतु अगर किसी विशेष कारणों से आप किसी नियम को पूर्ण नहीं कर पाते हैं तो उसको पूरा करने कोई आवश्यकता नहीं है । सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है आपकी श्रद्धा और एकाग्रता। 
इस चौपाई में एक महत्वपूर्ण शब्द है "छूटहि बन्दि" । तुलसीदास जी के कथनानुसार जब आपके बंधन टूट जाएंगे तब आपको महा सुख की प्राप्ति होगी ।  अब हमको यह भी विचार करना पड़ेगा कौन से बंध टूटने हैं महासुख क्या है ?
पहले हम बंधनों के टूटने की बात करते हैं । कौन से बंधन है जिन का टूटना आवश्यक है । हर व्यक्ति की अलग-अलग वैचारिक मान्यताएं होती हैं । ये वैचारिक मान्यताएं उसके देश-काल   ,परिस्थितियां ,पारिवारिक संस्कार , शिक्षा दीक्षा आदि  से बनती हैं। कोई भी व्यक्ति इन्हीं अपनी मान्यताओं के आधार पर कार्य करता है । दो व्यक्ति भले ही एक जैसे शारीरिक रूप के हों परंतु उनकी मान्यताएं अलग अलग हो सकती हैं । यही मान्यताएं व्यक्ति को पाप -पुण्य , अच्छा -बुरा , ऊंच -नीच ,गरीब -अमीर आदि के बंधनों में बांध कर कुछ ऐसे कार्य करवाती हैं जिससे हमें दुख पहुंचता है । उदाहरण के रूप में एक गरीब व्यक्ति धनवान के धन को देख कर के ईर्ष्या करता और उस ईर्ष्या के कारण दुखी होता है । अगर हम अपनी वैचारिक बंधनो से मुक्त हो जायें तो हम इस संसार को और इस संसार चलाने वाली परम सत्ता को समझ और देख पाएंगे । परम सत्ता को समझने के बाद  हम सदा आनंदित रह सकते है ।  अब हमारे दुखों का मूल ही समाप्त हो गया तो दुख कैसा ।
ईश्वर तो आनंद स्वरूप है । उसको हम  तभी अनुभव कर पाते है जब हम आनंद मे रहते हैं । बच्चे  वैचारिक रूप से के किसी बंधन से नहीं बधें होते हैं इसलिए वे सदा आनंदित रहते हैं । इसलिए बच्चों को ईश्वर का रूप कहा गया है।
 व्यावहारिक जीवन में  मुक्ति यानी दु:ख, दैन्य व दारिद्रय से मुक्ति । प्रत्येक व्यक्ति परेशान है ।  दु:ख से मुक्ति का अर्थ दु:ख आयेंगे ही नहीं ऐसा नहीं है । दु:ख से आपको पीड़ा नहीं होगी   । दु:ख आना अलग बात है और पीड़ा होना  अलग बात है । जीवन का दृष्टिकोण (Out look) बदलेगा तो दु:ख आयेगा पर पीड़ा नहीं होगी । 
 अब आइए हम महासुख की चर्चा करते हैं । सुख आपके सोच  की  अवस्था है । एक व्यक्ति महल में रहकर के भी दुखी हो सकता है और दूसरा अपनी कुटी में रह कर के भी सुखी रहता है । ऐसा क्यों होता है ? इस बात के कई उदाहरण आपके आस-पास ही मिल जाएंगे । मैं एक कहानी आपको सुना रहा हूं । मुंबई के एक शानदार टावर में एक परिवार रहता है । बहुत अच्छी आमदनी और परिवार के सभी लोग स्वस्थ । इसी टावर के सामने एक छोटा सा मकान था । टावर में रहने वाली गृहणी प्रति दिन देखती थी कि सामने के छोटे मकान में रहने वाले पति पत्नी शाम को 7 बजे से रात के 10 बजे तक निरंतर आपस में किलोल करते रहते थे । टावर में रहने वाली गृहणी का पति प्रातः काल 6 बजे घर से निकल जाता था और रात के 10 बजे के आसपास घर लौटता था । लौटने के बाद भी पति काफी तनाव में रहता था ।पत्नी से ठीक से बात नहीं कर पाता था । सुबह फिर अपने काम पर निकल जाता था । टावर में रहने वाली धनाढ्य यही सोचती थी कि हमसे अच्छी तो यह सामने वाली गरीब औरत है जो अपने पति के साथ शाम के 7 बजे से रात के 10 बजे तक लगातार मस्ती मारती  है।  आपको ऐसी कई कहानियां मिल जायेंगी। सुख की हर व्यक्ति की परिभाषा अलग-अलग होती है । यह परिभाषा उस व्यक्ति के परिस्थितियों और विचारों पर निर्भर करती है। आइए अब हम समझते हैं कि महासुख क्या है ? 
हनुमान चालीसा’ पढकर  मनुष्य मे निर्भयता  , भावमयता, . ज्ञान, अस्मिता आदि गुण आना चाहिए । अगर ये  आप में नहीं आए तो यह माना जाएगा कि आपने हनुमान चालीसा का पाठ नहीं किया है । आपकी बुद्धि अगर कामना ग्रस्त है तो आपकी बुद्धि में प्रकाश नहीं घुस सकता । कामना रहित बुद्धि में प्रकाश आता है । वास्तव में महासुख ‘नही चाहिए’ का सुख यानी पाश (बंधन) से मुक्त होने का सुख है ।
 व्यक्ति अपने विचारों से परिवर्तित होता है अगर उसके विचार उत्तम हो जाएंगे तो व्यक्ति उत्तम कोटि का हो जाएगा । विचार शब्दों में व्यक्त होते हैं और शब्दों में असीमित शक्ति है । इसलिए शब्दों को ब्रह्म भी कहा गया है । मैं आपको एक छोटी सी कहानी सुनाता हूं :-
एक राजा था ।  उसके दरबार में एक कवि आया करता था और राजा को कविता सुनाता था ।  उस कवि का छोटा भाई भी कवि था ।  एक दिन कवि को बाहर गाँव जाना पडा ।  उसने अपने छोटे भाई को राजदरबार में जाने को कहा । जब छोटा भाई दरबार में गया । उसने राजा को अपना परिचय दिया और कविता पढ़ने की आज्ञा चाही । राजा ने कविता पढ़ने की आज्ञा दे दी । कविता पढ़ने के पहले कवि ने शर्त लगाई कि आप पहले अपना हाथ धो कर  बैठिए । राजा आश्चर्यचकित हो गया ।  राजा ने पूछा क्यों ?  नए कवि ने कहा कि मैं वीर रस का कवि हूं । मेरे बड़े भाई श्रृंगार रस के कवि हैं । बड़े भाई की कविताएं सुन सुन कर के आपका हाथ इधर-उधर लगा होगा ।  मेरी कविता सुनने के बाद  आपका हाथ अपनी मूंछ पर जाएगा  । मैं चाहता हूं कि आपका हाथ मूंछ पर जब जाए तब वह पूर्णतया  स्वच्छ हो ।
राजाने कहा, ‘तेरी कविता  सुनने के बाद यदि मेरा हाथ मूँछोंपर नही गया तो?’ ‘मेरी गर्दन उडा देना’ कविने कहा ।
ऐसा स्वीकृत होने पर राजा ने हाथ धोये । उसको लगा कि इस घमण्डी पण्डित का घमण्ड उतारना चाहिए ।  ऐसा निश्चय करके राजाने अपने हाथ पीछे रखे, जिससे भूल से भी हाथ मूँछोंपर न जाएँ ।  उसके बाद कविने काव्य पाठ प्रारंभ किया । कवि ने वीर रस प्रकट करनेवाले कविताओं  का गायन किया । राजा राजपूत था ।  पाँच मिनट में ही वह कवि के काव्य में तल्लीन हो गया ।  यकायक राजा का हाथ मूँछपर गया ।  राजा को इसका भान ही न रहा ।  वह कवि पर खुश हुआ और उसको इनाम दिया । कहने का तात्पर्य यह है कि शब्द में शक्ति है, वाणी में सामथ्‍​र्य है ।  
कहने का अर्थ है अगर आप का हनुमान चालीसा का पाठ नियमित, एकाग्र चित्त और उत्तम कोटि का होगा तो आपके शब्दों में अद्भुत ताकत आ जाएगी ।  आपके शब्दों से आपको और आपके आसपास के लोगों को महा सुख प्राप्त होगा ।
हम कई बार लोगों से बातचीत में कहते हैं कि मैंने तुमको सौ बार कहा था कि तुम यह काम कर लो ,मगर तुमने नहीं किया ।  पिता-पुत्र से बोलता है कि मैंने तुम को सौ बार पढ़ने के लिए  बोला , मगर तुम नहीं पढ़े । अंत में तुम फेल हो गए ।  इन दोनों उदाहरणों में सौ बार का अर्थ है कि मैंने तुमको बार-बार कहा है । इसी प्रकार तुलसीदास जी हम लोगों से कह रहे हैं ,सत बार पाठ करो ,सौ बार पाठ करो अर्थात बार बार पाठ करो । अगर आप बार-बार पाठ करोगे तो आप हनुमान जी जो शिव के अवतार हैं गोस्वामी हैं उनकी आप पर कृपा होगी ।  आपके सभी बंधन टूट जाएंगे ।आपको महा सुख प्राप्त होगा।
‘हनुमान चालीसा’ मे छुपे हुए गूढ अर्थ को समझनेका प्रयत्न करना चाहिए ।  हनुमत चरित्र पर बार बार चिन्तन करना चाहिए ।  तथा उसके अनुरुप जीवन को बदलने का प्रयत्न करना चाहिए ।  तो ही हमे सब बंधनों से मुक्ति मिलकर परम आनन्द की प्राप्ति होगी ।  इसीलिए तुलसदासजीने लिखा है, ‘जो शत बार पाठ कर कोई, छुटहि बंदि महा सुख होई।’
जय श्री राम
जय हनुमान।

जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा |
होय सिद्धि साखी गौरीसा ||
तुलसीदास सदा हरि चेरा |
कीजै नाथ हृदय महँ डेरा ||

अर्थ:-
हनुमान चालीसा के पाठ करने वालों को निश्चित रूप से सिद्धि मिलती है। भगवान शिव इसके गवाह हैं।
तुलसीदास जी कहते हैं कि वे प्रभु के भक्त हैं ।अतः प्रभु उनके हृदय में निवास करें।

भावार्थ:-
तुलसीदास जी भगवान शिव को साक्षी बनाकर कह रहे हैं कि जो भी व्यक्ति इस हनुमान चालीसा का पाठ करेगा उसको  निश्चित रूप से सिद्धियां प्राप्त होगी । तुलसीदास जी ने हनुमान चालीसा की रचना भगवान शिव की प्रेरणा से की है ।अतः वे उन्ही को साक्षी बता रहे हैं ।
अंतिम मांग के रूप में तुलसीदास जी कह रहे हैं की वे हरि के भक्त। हरि शब्द का संबोधन भगवान विष्णु और उनके अवतारों के लिए किया जाता है । अतः यहां पर यह श्रीराम के लिए लिया गया है । इस प्रकार गोस्वामी तुलसीदास जी हनुमान जी पर दबाव डालकर  मांग कर रहे हैं की वे हमेशा तुलसीदास जी के हृदय में निवास करें।

संदेश:-
सुख-शांति प्राप्त करने के लिए भक्ति के मार्ग पर चलना चाहिए।

चौपाई को बार-बार पढ़ने से होने वाला लाभ:-
1-जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा ...........
हनुमान चालीसा की इस चौपाई से शिव पार्वती की कृपा होती है
2-तुलसीदास सदा हरि चेरा................
इस चौपाई का पाठ निरंतर करने से प्रभु  श्री राम और हनुमान जी की कृपा प्राप्त होती है ।

विवेचना:-
जब कोई ग्रंथ आपके सामने आता है तो उसको पढ़ने के लिए आपके अंदर एक धनात्मक प्रोत्साहन होना चाहिए । यह प्रोत्साहन ग्रंथ के अंदर जो विषय है उस विषय के प्रति आपकी रूचि हो सकती है जैसे जंगल के ज्ञान की पुस्तकें। यह भी हो सकता है उसके ग्रंथ में कुछ ऐसा ज्ञान दिया हो जिससे आपको भौतिक लाभ हो सकता हो,  जैसे ही योग की पुस्तकें। हो सकता है कि वह ग्रंथ आपको धन कमाने के रास्ते बताएं जैसे इकोनामिक टाइम्स आदि । अगर ग्रंथ में कोई ऐसी बात नहीं होगी जो आपको उस ग्रंथ को पढ़ने के लिए प्रेरित करें तो आप उस ग्रंथ को नहीं  पढ़ेंगे। 
पहली चौपाई  "जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा | होय सिद्धि साखी गौरीसा ||"  में गोस्वामी तुलसीदास जी ने  इसी प्रोत्साहन को देने की कोशिश की है । जिससे आप हनुमान चालीसा को पढ़ें और उसका पाठ कर  लाभ प्राप्त कर सकें । इसके पहले की चौपाई में मैंने हनुमान चालीसा से डॉ तलवार को प्राप्त होने वाले लाभ के बारे में बताया था । अगर मैं किसी और लाभ के बारे में बताता तो संभवत हमारे बुद्धिमान लोगों को आलोचना करने का मौका मिल जाता । इसलिए मैंने एक ऐसे प्रकरण का उल्लेख किया है जो सब को ज्ञात है तथा दैनिक जागरण जैसे प्रतिष्ठित अखबार ने प्रकाशित किया था । जेल के अधिकारियों ने दैनिक जागरण को बताया था डॉ तलवार स्वयं प्रतिदिन  जब भी उनको समय मिलता था वे हनुमान चालीसा का पाठ करते थे । इसके अलावा जेल के अन्य लोगों को भी  हनुमान चालीसा पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते रहते थे । जब डा तलवार हाईकोर्ट से  बरी हुए तब उन्होंने सबको बताया की  यह हनुमान जी की कृपा से संभव हुआ है। प्रकरण कुछ यूं है :-
26 नवम्बर 2013 को विशेष सीबीआई अदालत ने आरुषि-हेमराज के दोहरे हत्याकाण्ड में राजेश एवं नूपुर तलवार को आईपीसी की धारा 302/34 के तहत उम्रक़ैद की सजा सुनाई। दोनों को धारा 201 के अन्तर्गत 5-5 साल और धारा 203 के अन्तर्गत केवल राजेश तलवार को एक साल की सजा सुनायी। इसके अतिरिक्त कोर्ट ने दोनों अभियुक्तों पर जुर्माना भी लगाया । सारी सजायें एक साथ चलेंगी और उम्रक़ैद के लिये दोनों को ता उम्र जेल में रहना होगा। 
इस आदेश के विरोध में दोनों लोगों ने हाईकोर्ट में याचिका लगाई। 12 अक्टूबर 2017 को इलाहाबाद हाइकोर्ट द्वारा आरुषि के माता-पिता को निर्दोष करार दे दिया गया और वे जेल से रिहा हो गये।
हनुमान चालीसा की और हनुमान जी की कृपा की का एक और प्रत्यक्ष उदाहरण छतरपुर जिले के बागेश्वर धाम के पंडित धीरेंद्र शास्त्री और भिंड जिला के रावतपुरा सरकार सिद्ध क्षेत्र के श्री रविशंकर जी महाराज का प्रकरण है। दोनों के ऊपर उनके इष्ट की महान कृपा कभी भी देखी जा सकती है । इनके अलावा ईशान महेश जी जो कि एक लेखक है उन्होंने वृंदावन  के श्री चिरंजीलाल   चौधरी जी का नाम बताया है जिनके ऊपर भी पवन पुत्र की कृपा है । चौथा उदाहरण श्री एम डी दुबे साहब का है जो संजीवनी नगर जबलपुर में निवास करते हैं।
इस प्रकार हम ने चार उदाहरण  बताएं हैं । ये सभी  वर्तमान समय में जीवित हैं  और जिनके ऊपर हनुमत कृपा है। मैंने  वर्तमान के उदाहरण ही लिए हैं। इसका कारण यह है अगर कोई परीक्षण करना  चाहे तो कर सकता है ।
इस चौपाई के माध्यम से तुलसीदास जी कह रहे हैं कि जो व्यक्ति इस हनुमान चालीसा का पाठ करेगा  उसको सिद्धि प्राप्त हो जाएगी । यहां प्रमुख बात यह है की पाठ करने का अर्थ पढ़ना नहीं है । पाठ करने की अर्थ को हम पहले की चौपाइयों की विवेचना में विस्तृत रूप से बता चुके हैं । संक्षेप में मन क्रम वचन से एकाग्र होकर बार-बार बार-बार पढ़ने को पाठ करना कहते हैं। तुलसीदास जी ने इसी चौपाई में कहा है कि इसके साक्षी गौरीसा  अर्थात गौरी के  ईश भगवान शिव स्वयं हैं । 
हम सभी जानते हैं कि तुलसीदास जी को गोस्वामी तुलसीदास भी कहा जाता है ।  गोस्वामी का अपभ्रंश गोसाई है ।  गोसाई समुदाय के गुरु भगवान शिव  होते हैं । तुलसीदास जी ने इस पुस्तक को अपने गुरु को  समक्ष  मानते हुए लिखा है । अतः उन्होंने कहा है कि इस पुस्तक में लिखी गई हर बात के साक्षी उनके गुरु हैं ।   गोसाई के गुरु भगवान शिव होते हैं अतः भगवान शिव साक्षी हुए । हनुमान चालीसा में हनुमत चरित्र पर पूर्ण रुप से प्रकाश डाला गया है । 
इस चौपाई से गोस्वामी तुलसीदास जी यह भी कहना चाहते हैं   श्री हनुमान जी का जो हनुमान चालीसा में चरित्र चित्रण किया गया है उसका बार-बार पाठ करना चाहिए । एकाग्रता से पाठ करने पर आपकी वाणी पवित्र होगी । इसके अलावा आपके जीवन का दृष्टिकोण बदलेगा । जीवन का दृष्टिकोण बदलने से आपको सभी बंधनों से मुक्ति मिल जाएगी । जो ग्रंथ पढना है उसके प्रति आत्मीयता और आदर होना चाहिए तभी आप में संस्कार आएगा  ।  हनुमान चालीसा पढते समय हनुमानजी कैसे हैं? हनुमानजी के विविध गुणों को जानकर-पहचानकर सभी बंधनों से हम मुक्त हो सकते हैं ।  
हनुमान चालीसा पढ़ने से आप सिद्ध हो जाएंगे इसकी गारंटी स्वयं भगवान शिव दे रहे हैं । आइए हम इस पर विचार करते हैं कि सिद्ध होना क्या है ।
यह एक संस्कृत भाषा का शब्द है । इसका शाब्दिक अर्थ है जिसने सिद्धि प्राप्त कर ली हो । सिद्धि का शाब्दिक अर्थ है महान शारीरिक मानसिक या आध्यात्मिक उपलब्धि प्राप्त करने से है । जैन दर्शन में सिद्ध शब्द का प्रयोग उन आत्माओं के लिए किया जाता है जो संसार चक्र से मुक्त हो गयीं हों।
ज्योतीरीश्वर ठाकुर जो बिहार के एक विद्वान हुए हैं उनके  द्वारा सन १५०६ में मैथिली में रचित वर्णरत्नाकर में ८४ सिद्धों के नामों का उल्लेख है। इसकी विशेष बात यह है कि इस सूची में सर्वाधिक पूज्य नाथों और बौद्ध सिद्धाचार्यों के नाम  सम्मिलित किए गये हैं। 
अतः इस चौपाई का आशय है कि आप मन क्रम वचन की एकाग्रता के साथ हनुमान चालीसा का पाठ करें । बार बार पाठ करें । आपको सिद्धि मिलेगी । इस बात की गवाही भगवान शिव भी स्वयं देते हैं। 
हनुमान चालीसा की चौपाई श्रेणी की अंतिम पंक्ति है "तुलसीदास सदा हरि चेरा | कीजै नाथ हृदय महँ डेरा ||" इस पंक्ति में तुलसीदास जी ने पुनः हनुमान जी से मांग की है । इस चौपाई के पहले खंड में तुलसीदास जी ने अपना परिचय दिया है उन्होंने बताया है कि मैं हमेशा हरि याने  श्री राम चंद्र जी का सेवक  हूं । अब यहां पर तीन बातें 
प्रमुखता से आती हैं । पहली बात है कि इस चौपाई  में तुलसीदास जी ने अपना नाम क्यों दिया ? दूसरी बात उन्हों ने अपने आपको  हरि का दास क्यों बताया ? तीसरी बात है की उन्होंने अपने आपको  श्री हनुमान जी का दास क्यों नहीं बताया ? ये प्रश्न संभवत आपके दिमाग में भी आ रहे होंगे ।  आपने इनका उत्तर भी सोचा होगा । हो सकता है मेरा और आपका जवाब आपस में ना मिले । आपसे अनुरोध है कि आप मेरे ईमेल पर  अपने विचार अवश्य भेजें ।  मेरे ईमेल का पता है :-
akpandey0001@gmail.com 
बहुत पहले पुस्तके ताड़ पत्र पर लिखी जाती थी । लिखने में समय बहुत लगता था तथा ज्यादा प्रतियां लिखी नहीं जा पाती थी । अतः उस समय  मौखिक साहित्य  ज्यादा रहता था । इसे मौखिक  परंपरा का काव्य कहते थे । साहित्य जब लिखित रूप में होता हैं तो उस पर लेखक या कवि का नाम भी होता है । मौखिक परंपरा में कवि का नाम बताना भी आवश्यक था । इस आवश्यकता की  पूर्ति कवि कविता के अंत में अपने नाम को लिखकर , कर देता था । इसे कवि का हस्ताक्षर भी कहते हैं । संभवत तुलसीदास जी ने इसी कारणवश हनुमान चालीसा के अंत में अपने हस्ताक्षर किए हैं। मगर यहां पर एक दूसरा कारण और भी है । तुलसीदास जी ने इस पंक्ति के माध्यम से अपना मांग पत्र भी प्रस्तुत किया है ।
हमारा दूसरा प्रश्न है  तुलसीदास जी ने अपने आप को श्री रामचंद्र जी का दास क्यों कहा है । 
 भक्तों के कई प्रकार होते हैं । कुछ लोग अपने आपको अपने इष्ट का दास कहते हैं  । जैसे तुलसीदास जी हनुमान जी आदि ।
 कुछ लोग अपने को अपने इष्ट का मित्र बताते हैं । इसे सांख्य भाव भी कहते हैं । इसमें भक्त अपने आपको अपने इष्ट का मित्र बताते हैं और मित्रवत व्यवहार करने की मांग भी करते हैं । जैसे की गोपियां भगवान कृष्ण को अपना मित्र मानती थी।
 कुछ लोग अपने इष्ट को अपना पति मानते हैं । जैसे श्री राधा जी भगवान  कृष्ण को अपना पति मानती  थीं ।
 यह सभी सगुण भक्ति की धाराएं  हैं ।कोई भी भक्त एक या एक  से अधिक प्रकार से ईश्वर  से प्रेम कर सकता है  ।  मीराबाई भगवान कृष्ण की भक्त थीं । वे कृष्ण को अपना प्रियतम, पति और रक्षक मानती थीं। वे स्वयं को भगवान कृष्ण की दासी बताते हुए कहती हैं-.
 "दासी मीरा लाल गिरधर, 
 हरो म्हारी पीर."
 गीता में भगवान श्रीकृष्ण चार प्रकार के  भक्तों का वर्णन करते हैं । वे कहते हैं:-
चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन। 
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।। (७।१६)
 (श्रीमद्भगवत गीता/अध्याय 7/श्लोक 16)
अर्थात , हे अर्जुन! आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी- ये चार प्रकार के भक्त मेरा भजन किया करते हैं। इनमें से सबसे निम्न श्रेणी का भक्त अर्थार्थी है। उससे श्रेष्ठ आर्त, आर्त से श्रेष्ठ जिज्ञासु, और जिज्ञासु से भी श्रेष्ठ ज्ञानी है। इन भक्तों का विवरण निम्नानुसार है।
1-आर्त :- आर्त भक्त वह है जो  कष्ट आ जाने पर या  अपना दु:ख दूर करने के लिए भगवान को पुकारता है।  हर युग में इस तरह के भक्तों की अधिकता रही है ।
2-अर्थार्थी :- अर्थार्थी भक्त वह है जो भोग, ऐश्वर्य और सुख प्राप्त करने के लिए भगवान का भजन करता है। उसके लिए भोगपदार्थ व धन मुख्य होता है और भगवान का भजन गौण।
3-जिज्ञासु :- जिज्ञासु भक्त  संसार को अनित्य जानकर भगवान का तत्व जानने और उन्हें पाने के लिए भजन करता है।
4-ज्ञानी :- ज्ञानी भक्त सदैव निष्काम होता है। ज्ञानी भक्त भगवान को छोड़कर और कुछ नहीं चाहता है। ज्ञानी भक्त के योगक्षेम का वहन भगवान स्वयं करते हैं। 
अब प्रश्न उठ रहा है की सर्वश्रेष्ठ भक्त कौन है?
इसका उत्तर भगवान ने स्वयं गीता ने दिया है:-
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः।।17।।
श्री कृष्ण जी कहते हैं कि जो परम ज्ञानी है और शुद्ध भक्ति भाव से ईश्वर की भक्ति में लगा रहता है, वहीं सर्वश्रेष्ठ  भक्त है। इसलिए क्योंकि उस भक्तों के लिए मैं  प्रिय  हूं और मेरे लिए वह भक्त प्रिय है। इन चार वर्गों में से जो भक्त ज्ञानी है और साथ ही भक्ति में लगा रहता है, वह सर्वश्रेष्ठ है।
भक्तों के तरह से  भक्ति भी कई प्रकार की होती है । भक्ति का वर्गीकरण भी कई प्रकार से किया गया है। भक्तों के वर्गीकरण का एक तरीका नवधा भक्ति भी है । कहां गया है :-
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
श्रवण (परीक्षित), कीर्तन (शुकदेव), स्मरण (प्रह्लाद), पादसेवन (लक्ष्मी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूर), दास्य (हनुमान), सख्य (अर्जुन) और आत्मनिवेदन (बलि राजा) – इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं।
श्रवण : ईश्वर की लीलाओं को सुनना, ध्यान पूर्वक सुनना और निरंतर सुनना ।
कीर्तन : ईश्वर के गुण, और लीलाओं को ध्यान मग्न होकर निरंतर गाना ।
स्मरण : निरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का स्मरण करना, 
अर्थार्थी :- अर्थार्थी भक्त वह है जो भोग, ऐश्वर्य और सुख प्राप्त करने के लिए भगवान का भजन करता है। उसके लिए भोगपदार्थ व धन मुख्य होता है और भगवान का भजन गौण।
पाद सेवन : ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्य समझना।
अर्चन : मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना।
वंदन : भगवान की मूर्ति को , भगवान के भक्तजनों को, आचार्य, ब्राह्मण, गुरूजन, माता-पिता आदि को परम आदर सत्कार के साथ पवित्र भाव से  सेवा करना।
दास्य : ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना।
साख्य : ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पण कर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना।
आत्म निवेदन : अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। यह भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई हैं।
इस प्रकार हम कह सकते हैं की तुलसीदास जी के भक्ति दास भक्ति का एक उदाहरण है । तुलसीदास जी भगवान कृष्ण की गीता में दिए गए  उपदेश के अनुसार ज्ञान भक्तों के भी उदाहरण हैं।  इसके अलावा नवधा भक्ति में आत्म निवेदन की अवस्था में है जो की भक्ति का सबसे अच्छा उदाहरण है । इन्हीं सब कारणों से तुलसीदास जी ने अपने आप को श्री राम का दास कहा है ।
अगला प्रश्न है कि हनुमान चालीसा हनुमान जी के ऊपर केंद्रित है ।  फिर इस ग्रंथ में गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने आपको श्री राम का दास क्यों कहा है ?  हनुमान जी का दास क्यों नहीं का कहा। ? 
बाल्मीकि रामायण में श्री रामचंद्र जी के अवतारी पुरुष होने की चर्चा है । इस ग्रंथ में महावीर हनुमान जी के पराक्रम की भी चर्चा है । लेकिन श्री हनुमान जी के ईश्वरी सत्ता के बारे में रामायण में अत्यंत अल्प लिखा गया है। वाल्मीकि के हनुमान बुद्धिमान हैं, बलवान हैं, चतुर सुजान हैं, लेकिन वो भगवान नहीं हैं ।
तुलसीदास जी ने वाल्मीकि जी के इस अधूरे कार्य को भी पूरा कर दिया हैं । गोस्वामी तुलसी जी के श्री हनुमान जी एकादश रुद्र हैं।  तुलसी के हनुमान जी एक महान ईश्वरीय सत्ता हैं जिनका जन्म राम काज के लिए हुआ है । रामचरितमानस में इस बात को कई जगह लिखा गया है । एक उदाहरण यह भी है :-
“राम काज लगि तव अवतारा , सुनतहिं भयउ परबतकारा”
गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में तो हनुमान जी की ईश्वरीय सत्ता का वर्णन किया ही है, साथ में उन्होंने हनुमान चालीसा , बजरंग बाण, हनुमान बाहुक आदि की रचना कर हनुमान जी की अलौकिक सत्ता को स्थापित किया है । 
इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए  हमें गोस्वामी तुलसीदास जी के जीवन चरित्र पर जाना पड़ेगा । 
तुलसीदास जी ने हनुमान चालीसा अपने बाल्यकाल में लिखी थी ।  केवल अपने लिए लिखी थी । उस समय हनुमान चालीसा जन-जन के पास नहीं पहुंच पाई होगी । बाद में  तुलसीदास जी ने रामचरितमानस लिखा । रामचरितमानस का विरोध काशी के ब्राह्मणों ने किया । इस विरोध के कारण रामचरितमानस को प्रसिद्धि मिली । कहा जाता है की भगवान विश्वनाथ जी ने भी रामचरितमानस की पवित्रता के ऊपर अपनी मुहर लगाई । रामचरितमानस लिखने के दौरान तुलसीदास जी पूरी तरह से राममय में हो गए थे । इसके बाद   उन्होंने अपने पुराने  सबसे पुराने ग्रंथ हनुमान चालीसा को फिर से लिखा । हो सकता है कि पुनर्लेखन में  इस लाइन को बदला हो । इस लाइन को बदलना भी उचित था क्योंकि श्रीराम तो सबके प्रभु है । हनुमान जी के भी प्रभु हैं । तुलसीदास जी के भी प्रभु हैं । परंतु हनुमान जी श्री रामचंद्र जी के प्रभु नहीं हैं । वे  उनके भाई हैं सखा हैं और सेवक हैं । 
आइए थोड़ी सी चर्चा तुलसीदास जी के राम भक्त बनने के कारणों के ऊपर करते हैं ।
इसी पुस्तक में पहले मैं आपको बता चुका हूं कि तुलसीदास जी का बाल्यकाल कितनी परेशानियों से गुजरा । गुरु  नरहरीदास जी उनको भगवान शिव की आज्ञा अनुसार अपने गुरुकुल में ले गए थे।
गुरुकुल से अपनी शिक्षा पूर्ण कर गोस्वामी तुलसीदास जी अपने गांव आ गए । वे आसपास के गांव में राम कथा कहने लगे । अब वे काम करने लगे थे तो उनकी उनका विवाह पास के गांव के रत्नावली जी से हो गया । 
तुलसी दास अपनी पत्नी से अगाध प्रेम करते थे। एक बार जब रत्नावली अपने मायके में थी तब तुलसी उनके वियोग में इस कदर व्याकुल हुए कि रात के समय भयंकर बाढ़ में यमुना में बहे जा रहे एक शव को पेड़ का तना समझकर उसी के सहारे अपनी ससुराल पंहुच गए।
ससुराल में सभी सो रहे थे । तुलसीदास जी एक रस्सी को पकड़कर अपनी पत्नी के कमरे में पहुंच गए । उनकी पत्नी का कमरा ऊपर की मंजिल पर था । सुबह मालूम चला कि जिसको वे रस्सी पकड़े थे वह वास्तव में सांप था । रत्नावली जी को यह बात अच्छी नहीं लगी । रत्नावली को लगा जब दूसरे लोगों को पता चलेगा सभी मिलकर मेरी कितनी हंसी  उड़ाएंगे। उन्होंने तुलसी को झिड़कते हुए डांट लगाई और कहा :-
अस्थि चर्म मय देह मम तामे ऐसी प्रीत, 
ऐसी जो श्री राम मह होत न तव भव भीति।।
रत्ना जी की इन शब्दों में तुलसीदास जी को  तरह जागृत कर दिया । यह जागृति उसी प्रकार की थी जैसा  कि जामवंत जी ने  समुद्र पार जाने के लिए हनुमान जी को जागृत किया था। अब तुलसीदास जी को सिर्फ रामचंद्र जी ही दिख रहे थे। 
इस प्रकार तुलसी दास जी को भगवान राम की भक्ति की प्रेरणा अपनी पत्नी रत्नावली से प्राप्त हुई थी।
 अपने ससुराल से निराश हो तुलसी एक बार फिर राजापुर लौट आए। राजापुर में तुलसी जब शौच को जाते तो लौटते समय लोटे में बचा पानी रास्ते में पड़ने वाले एक बबूल के पेड़ में डाल देते। इस पेड़ में एक आत्मा रहती थी । आत्मा को जब रोज पानी मिलने लगा तो आत्मा तृप्ति होकर तुलसीदास जी पर प्रसन्न हो गई । वह आत्मा तुलसीदास जी के सामने प्रकट हुई । उसने पूछा कि आपकी मनोकामना क्या है ? आप क्यों मुझे रोज पानी दे रहे हो ? इस प्रश्न के उत्तर में तुलसीदास जी ने राम जी के दर्शन की अभिलाषा  प्रगट की ।
 यह सुनने के बाद उसने कहा कि श्री रामचंद्र जी के दर्शन के पहले आपको हनुमान जी के दर्शन करने होंगे । हनुमान जी आपका दर्शन आसानी से श्रीराम से करा सकते हैं । उन दिनों राजापुर में तुलसीदास जी की कथा चल रही थी । आत्मा ने स्पष्ट किया कि  कथा में जो सबसे पहले आए और सबसे बाद में जाए , सबसे पीछे बैठे और उसके शरीर में  कोढ़ हो  तो वही श्री हनुमान जी होंगे । आप उनके पैर पकड़ लीजिएगा। गोस्वामी जी ने यही किया और कोढ़ी जी के पैर पकड़ लिए । बार-बार मना करने पर भी उन्होंने पैर नहीं छोड़ा । अंत में हनुमान जी प्रकट हुए ।
 श्री हनुमान जी ने तुलसीदास जी से कहा कि आप चित्रकूट जाकर वही निवास करें । चित्रकूट के घाट पर अपने इष्ट के दर्शन की प्रतीक्षा करें । तुलसीदास जी ने अपना अगला ठिकाना चित्रकूट बनाया । तुलसी चित्रकूट में मन्दाकिनी तट में बैठ प्रवचन करते हुए  राम के इन्तजार में समय बिताने लगे।  परंतु उनको श्री राम जी के दर्शन नहीं हुए । उन्होंने फिर से हनुमान जी को याद किया । हनुमान जी ने प्रकट होकर  कहा श्री राम जी आए थे । आपने उनको तिलक भी लगाया था । परंतु संभवत आप उनको पहचान नहीं पाए ।
तुलसीदास जी पछताने लगे कि वह अपने प्रभु को पहचान नहीं पाए। तुलसीदास जी को दुःखी देखकर हनुमान जी ने सांत्वना दिया कि कल सुबह आपको फिर राम लक्ष्मण के दर्शन होंगे। 
प्रातः काल स्नान ध्यान करने के बाद तुलसी दास जी जब घाट पर लोगों को चंदन लगा रहे थे तभी बालक के रूप में भगवान राम इनके पास आए और कहने लगे कि "बाबा हमें चंदन लगा दो"।
हनुमान जी को लगा कि तुलसीदास जी इस बार भी भूल न कर बैठें इसलिए तोते का रूप धारण कर गाने लगे:-
 'चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन की भीर। तुलसीदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुबीर॥' 
 तुलसीदास जी श्री रामचंद्र  जी को देखने के बाद अपनी सुध बुध खो बैठे ।  फिर रामचंद्र ने स्वयं ही तुलसीदास जी का हाथ पकड़कर  अपने माथे पर चंदन लगाया । इसके बाद उन्होंने तुलसीदास जी के माथे पर तिलक किया ।  इसके बाद श्री रामचंद्र अंतर्ध्यान हो गए ।
 इस घटना के उपरांत तुलसीदास जी ने   अन्य ग्रंथ जैसे कवितावली दोहावली विनय पत्रिका और  श्रीरामचरितमानस आदि ग्रंथों की रचना की । श्रीरामचरितमानस मैं उन्होंने श्री रामचंद्र जी के विभिन्न गुणों का बखान किया है जैसे कि तुलसी के राम पापी से पापी व्यक्ति को अपना लेते हैं। उनकी शरण में कोई भी आ सकता है  :–
प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि ।
गएं सरन प्रभु राखिहें तव अपराध बिसारि ।।
हिंदुओं में शैव और  वैष्णव संप्रदाय के बीच की  एकता के लिए  गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है कि:-
 शिव द्रोही मम दास कहावा सो नर मोहि सपनेहुं नहीं पावा ।।
अर्थात : “जो भगवान शिव के द्रोही हैं वो मुझे सपने में भी प्राप्त नहीं कर सकते हैं।” 
श्रीराम जी पुनः कहते है – 
शंकर प्रिय मम द्रोही, शिव द्रोही मम दास ।
तेहि नर करें कलप भरि ,घोर नरक में वास ।।
 अर्थात : “जो शंकर के प्रिय हैं और मेरे द्रोही हैं या फिर जो शिव जी के द्रोही है और मेरे दास हैं वो नर हमेशा नरक में वास करते हैं ।
 उपरोक्त घटना से यह स्पष्ट होता है कि तुलसीदास जी श्री रामचंद्र जी के अनन्य भक्त  थे ।   
 आइए अब हम इस चौपाई के अंतिम  शब्दों की चर्चा करते हैं।  इस चौपाई में के अंत में लिखा है "कीजै नाथ हृदय महं डेरा" । इस पद का अर्थ बिल्कुल साफ है । तुलसीदास जी ने चौपाई क्रमांक 1 से 39 तक हनुमान जी की विभिन्न गुणों बखान किया है । अब तुलसीदास जी अपने इस किए गए कार्य का प्रतिफल की प्रार्थना कर रहे हैं । यह प्रार्थना उनके द्वारा लिखी गई इस चौपाई के अंत में है । यहां पर उन्होंने डेरा शब्द का उपयोग किया है । डेरा सामान्यतया उस स्थान को कहते हैं  जहां पर सेना ने एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के बीच में अस्थाई रूप से रुकती हैं और पडाव डालती । तुलसीदास जी ने यहां पर सेना के अस्थाई रूप से रुकने वाले स्थान का जिक्र किया है । यह संभवत उस समय की परिस्थितियों के कारण है । उस समय मुसलमान आक्रन्ता हिंदुओं के गांव पर हमला करते थे और उनको परेशान करते हैं । इस परेशानी को हल करने का एक ही जरिया गोस्वामी तुलसीदास जी के दिमाग में आया । उनका कहना है हनुमान जी आकर उनके हृदय में अपना डेरा जमा ले तो कोई मुसलमान आक्रन्ता उन को तंग नहीं कर पाएगा। हो सकता है ऐसा उन्होंने अकबर द्वारा तंग किए जाने के कारण कहां हो । तुलसीदास जी अकबर से डरकर उसके कहे अनुसार कार्य नहीं करना चाहते थे । इसलिए उन्होंने हनुमान जी से प्रार्थना की हनुमान जी आप मेरे दिल में आकर के रहो जिससे मैं  अकबर का विरोध कर सकूं ।  हुआ भी वही । कहते हैं कि श्री तुलसीदास जी जब तक अकबर के यहां जेल में रहे तब बंदरों की फौज ने आकर आगरा में डेरा डाल दिया । इस फौज ने अकबर और उसके दरबारियों को बेरहमी के साथ परेशान किया ।  इसी परेशानी के कारण अकबर को तुलसीदास जी को छोड़ना पड़ा। इस प्रकार हनुमान जी ने डेरा डाल कर के हमारे तुलसीदास जी को बचाया । इस प्रकार तुलसीदास जी की प्रार्थना सफल हुई ।
 इस प्रकार अंतिम 40वीं चौपाई में तुलसीदास जी चाहते हैं की वे हनुमान जी जिन्होंने सदैव तुलसीदास जी की मदद की है , जिन के कारण श्री तुलसीदास जी को श्री रामचंद्र जी के दर्शन हुए , जिन के कारण श्री रामचंद्र जी ने वरदान स्वरूप तुलसीदास जी को तिलक किया वे  हनुमान जी श्री तुलसीदास जी के हृदय में निवास करें।

 
पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप॥

अर्थ:-
 हे हनुमान जी आप पवन पुत्र हैं । सभी संकटों को दूर करने वाले हैं ।  आप अपने भक्तों का उपकार करने वाले हैं । हे सभी देवताओं के स्वामी ,आप श्री राम, माता सीता और श्री लक्ष्‍मण सहित हमारे हृदय में बस जाएं।
 
भावार्थ:-
यह हनुमान चालीसा का अंतिम दोहा है । इसमें गोस्वामी तुलसीदास जी एक बार फिर हनुमान जी से अपनी मांग दोहरा रहे । इसके पहले उन्होंने हनुमान जी से प्रार्थना की थी कि श्रीराम चंद्र जी उनके हृदय में आ कर रहे । परंतु इस बार वह कह रहे हैं  देवताओं के राजा आप श्री रामचंद्र जी माता सीता और लक्ष्मण जी के साथ मेरे हृदय में आकर निवास करें । इस दोहे में तुलसीदास जी ने हनुमान जी को सभी का मंगल करने वाला , पवन पुत्र तथा  सभी प्रकार के संकट दूर करने वाला भी बताया  है।

संदेश- 
अपने हृदय में हमेशा अपने आराध्य और गुरु को बसा कर रखें। इससे आपको जीवन में हमेशा सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलेगी। 

इस दोहे को बार-बार पढ़ने से होने वाला लाभ:-
दोहा:-पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।
     राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप॥
हनुमान चालीसा का यह दोहा जीवन मे मंगलदायक है और सभी संकटों से मुक्ति दिलाता है । 

विवेचना:-
सबसे पहले हम इस दोहे के पहली पंक्ति पहले पद का अन्विक्षण और चिंतन करते हैं ।  पद है "पवन तनय संकट हरण" ।  इस पद के आधे हिस्से में पवन तनय कहा गया है और आधे हिस्से में संकट हरण कहा गया है । यहां पर हनुमान जी को वायुपुत्र के रूप में संबोधित किया गया है ।  इन शब्दों के माध्यम से तुलसीदास जी ने यह बताने की कोशिश की है जिस प्रकार वायु बादलों को तेजी के साथ हटा करके वातावरण को साफ कर देती है  उसी प्रकार हनुमान जी भी संकट के बादलों को हटाकर  आपको संकटों से मुक्त कर सकते हैं । 
हनुमान जी को पवन तनय कहने के संबंध में पूरी विवेचना हम इसी पुस्तक में पहले कर चुके हैं। फिर से इस बात की दोबारा विवेचना करना उचित नहीं होगा । इसलिए इस शब्द की विवेचना यहां पर छोड़ देते हैं।
 दूसरा पद है संकट हरण । हनुमान जी को हम सभी संकट मोचक भी कहते हैं । हनुमान जी ने कई बार श्री रामचंद्र जी और वानर सेना को संकटों से मुक्त किया है । इन्होंने तुलसीदास जी को भी संकटों से मुक्त किया है । इसके अलावा हनुमान जी ने  संकट  मोचन के बहुत सारे कार्य किए । कुछ को हम   बता रहे हैं :-
 1- सुग्रीव को राजपद दिलाने के लिए रामचंद जी से मुलाकात करवाई ।    
 2- सीता जी की खोज की ।
 3-रामचंद्र जी और लक्ष्मण जी को नागपाश से मुक्त करवाया।
 4-लक्ष्मण जी के लिए संजीवनी बूटी लाए।
 5- भरत जी को श्री रामचंद्र जी के लौटने की खबर दी।
 आदि ,आदि
 अगला पद है "मंगल मूरति रूप "
 हनुमान जी सबका मंगल करने वाले हैं । तुलसीदास जी ऐसा कह कर के बताना चाहते हैं कि हनुमान जी का उनके ऊपर असीम कृपा है और वे  उनका हर तरफ से अच्छा करेंगे । हनुमान जी तुलसीदास जी के ऊपर आए हुए सभी संकटों को दूर करेंगे । जब भक्त का भगवान के ऊपर संपूर्ण विश्वास होता है,उसके समस्त ज्ञान चक्षु खुल जाते हैं ,तब भक्त  के सामने ऐसी स्थिति आती है कि उसे सब मंगल  लगता है । भगवान भी भक्तों को मंगल रूप लगते हैं ।:-
 मंगला मंगल यद् यद् करोतीति ईश्वरो ही मे ।
तत्सर्वं  मंगलायेति  विश्वास: सख्यलक्षणम्  ।।

मंगल या अमंगल, प्रभु जो कुछ करेंगे वह मेरे मंगल के लिए ही होगा ।  ऐसा विश्वास होना चाहिए ।  मुझे क्षणिक जो मंगल लगता है वह कदाचित् मेरा मंगल नहीं भी होगा । उसी प्रकार जो मुझे क्षणिक अमंगल लगता है वह मेरे मंगल के लिए भी हो सकता है ।  ऐसा विश्वास होना चाहिए ।   इसलिए तुलसीदासजी भगवान को मंगल मूरति रुप कहते है ।  
हृदय में हनुमान जी को रखने के लिए हमें अपना हृदय खुला रखना पड़ेगा । हृदय के अंदर हमें देखना पड़ेगा कि भगवान जी बैठे हैं या नहीं । कबीर दास जी ने लिखा है कि:-

नयनोंकी की करि कोठरी  पुतली पलंग बिछाय ।
पलकों की चिक डारि के  पिय को लिया रिझाय ।।

हमें भी ऐसे ही अनुभव लेना चाहिए । 
श्री भगवत गीता के 15वें अध्याय के 15वें श्लोक  में श्री भगवान ने कहा है कि:-
‘स्‍​र्वस्व चाहं हृदि संन्निविष्ट:’
 अर्थात  वे कहते हैं मैं तेरे हृदय में आकर बैठा हूँ इसलिए तेरा जीवन चलता है ।
हमें अपने अंदर से "मैं अर्थात अपने अहंकार "  को निकालना पड़ेगा । हमें अपनी सोच में परिवर्तन करना होगा । हमें सोचना होगा की ‘मै आपका हूँ आपका कार्य करता हूँ, आपके लिए करता हूँ ।   मेरा कुछ नही, मै भी अपना नही हूँ यह भक्त की भूमिका है ।
भगवान! सब कुछ आपका है-
विष्णु पत्नीं क्षमां देवींं माधवीं माधवप्रियाम् ।
लक्ष्मीं प्रियं सखीं देवीं नमाम्यच्युत वल्लभाम्  ।।
हे भगवान! वित्त आपका! आपकी लक्ष्मी मेरे पास है, परन्तु वह आपकी धरोहर है । यह भागवत का दर्शन है ।  अत: भक्ति में तीन बातें पक्की करनी है, ‘मुझे मालूम नहीं है’,‘मै नही करता’ ‘मेरा कुछ नहीं है’ ।  जिसके जीवनमें ये तीन बातें पक्की हो गयी वह भक्त है ।  भक्त बनने के लिए वृत्ति बदलने का प्रयत्न चाहिए ।  मानव को लगना चाहिए, ‘कुछ नहीं बनना है’ की अपेक्षा वैष्णव बनना है, मुझे कुछ बनना है ।  मुझे हनुमानजी जैसा भक्त बनना है ऐसी हमारे जीवन में ,अभिलाषा का निर्माण हो । इसीलिए गोस्वामीजी हनुमानजी को अपने हृदय में निवास करने के लिए प्रार्थना करते है । 
तुलसीदास जी ने दोहा की अगली पंक्ति में लिखा है :-
राम लखन सीता सहित हृदय बसहुं सुर भूप ।।

रामजी शांत रस के परिचायक हैं उनको कभी-कभी क्रोध आता है । लक्ष्मण जी वीर रस के परिचायक हैं इनको वीरोचित क्रोध हमेशा आता है । माता जानकी करुण रस की परिचायक है । इन तीनों रस जब आपस में मिल जाते हैं तब हनुमान जी का निर्माण होता है । हनुमान जी के अंदर शांति भी है ,क्रोध भी है ,करुणा भी है और  वे रुद्र भी हैं।
  हनुमान जी की मूर्ति कई प्रकार की प्रतिष्ठित है ।एक मूर्ति में हनुमान जी बैठ कर के भजन गा रहे दिखाई देते हैं । यह उनके शांति रूप की प्रतीक है । इस मूर्ति को घर में लगाने से घर में प्रतिष्ठा रहती घर संपन्ना रहता है किसी तरह की कोई विपत्ति नहीं आती है ।
  श्री हनुमान जी की एक दूसरी मूर्ति दिखाई पड़ती है । इसमें हनुमान जी उड़ते दिखाई पड़ते  हैं ।  उनके दाहिने हाथ पर  संजीवनी बूटी का  पहाड़ रहता है । यह मूर्ति उस समय की है  जब श्री लक्ष्मण जी को शक्ति लगी थी ।  वे मूर्छित हो गए थे । हनुमान जी द्रोणागिरी पर्वत तक संजीवनी बूटी लाने के लिए गए थे । वहां पर उनको संजीवनी बूटी समझ में नहीं आई । उन्होंने पूरा पहाड़ उठा लिया और चल दिए । रास्ते में भरत जी ने उनको कोई राक्षस समझकर वाण मारकर   घायल कर दिया था ।  वाण लगने के बाद वे फिर  घायल अवस्था में ही चल दिए थे । यह मूर्ति करुण रस का प्रतीक है ।
  हनुमान जी की तीसरी मूर्ति वीर रस की प्रतीक है । इसमें हनुमान जी उड़ते हुए पुंछ में लगी आग से लंका को जला रहे होते हैं । उस समय के सबसे  बड़े महाबली रावण के राजधानी में घुसकर अकेले के दम पर  पूरे शहर में ही आग लगा देना बहुत वीरता का कार्य है ।   इस प्रकार यह मूर्ति वीर रस की मूर्ति है ।
  हनुमान जी की चौथी मूर्ति पंचमुखी हनुमान की मिलती है । इसे हम रुद्रावतार भगवान हनुमान जी का रौद्र रूप कह सकते हैं । 
 हनुमान जी के पंचमुखी रूप एक की कहानी है । राम और रावण के  युद्ध के समय रावण के सबसे बड़े पुत्र अहिरावण ने अपनी मायवी शक्ति से स्वयं भगवान श्री राम और लक्ष्मण को मूर्क्षित कर पाताल लोक लेकर चला गया था। अहिरावण देवी का भक्त था और उसने राम और लक्ष्मण को देवी जी की मूर्ति के सामने बलि देने के लिए रख दिया । बलि देने के दौरान उसने पांच दीपक जलाए  और देवी को आमंत्रित किया । उसने यह दीपक मंत्र शक्ति से अभिमंत्रित किए थे ।  देवी की शक्ति के कारण जब तक इन पांचों दीपकों को एक साथ में नहीं बुझाया जाता है तब तक अहिरावण का कोई अंत नहीं कर सकता था । अहिरावण की इसी माया को सामाप्त करने के लिए हनुमान जी ने पांच दिशाओं में मुख किए पंचमुखी हनुमान का अवतार लिया ।  पांचों दीपक को एक साथ बुझाकर अहिरावण का वध किया। इसके फलस्वरूप भगवान राम और लक्ष्मण उसके बंधन से मुक्त हुए। फिर श्री रामचंद्र जी और श्री लक्ष्मण जी को अपने दोनों कंधों पर बैठा कर हनुमान जी वापस अपने सैन्य शिविर में ले आए ।
  मैं आपको  एक बार  पुनः लंका दहन के समय ले चलता हूं ।हनुमान जी लंका दहन के उपरांत  अपने पूंछ कि तीव्र गर्मी से व्याकुल तथा पूँछ की आग को शांत करने हेतु  समुद्र में कूद पड़े थे । उस समय उनके पसीने की एक बूँद जल में टपकी जिसे एक मछली ने पी लिया । पसीने की एक बूंद के कारण वह गर्भवती हो गई। इसी मछली से मकरध्वज उत्पन्न हुआ, जो हनुमान के समान ही महान् पराक्रमी और तेजस्वी था। वह मछली तैरती हुई अहिरावण के पाताल लोक के पास पहुंची ।  वहां पर वह  अहिरावण की सेवकों द्वारा फेंके गए मछली पकड़ने के जाल में फंस गई । उस मछली के  पेट को काटने पर महा प्रतापी मकरध्वज निकले । मकरध्वज को पाताल के राजा अहिरावण ने पातालपुरी का रक्षक  नियुक्त कर दिया था । पातालपुरी जाते समय हनुमान जी को मकरध्वज ने रोका । पिता और पुत्र में युद्ध हुआ और हनुमान जी ने मकरध्वज को मूर्छित कर अपनी पूंछ में बांध लिया । जब श्री राम और श्री लक्ष्मण को लेकर लौट रहे थे तब श्री रामचंद्र जी ने पूछा कि  तुम्हारे  पूंछ में बंधा हुआ यह कौन वानर है। परम प्रतापी हनुमान जी ने पूरी कहानी  बताई । रामचंद्र जी ने मकरध्वज को आजाद कर पातालपुरी का राजा नियुक्त कर दिया । अगर भारत के दक्षिण क्षेत्र से कोई सुरंग इस प्रकार  खोदी जाए कि  वह पृथ्वी के दूसरे तरफ निकले तो वह उत्तरी अमेरिका और दक्षिण अमेरिका के बीच में बसे होंडुरस नामक देश में पहुंचेगी । 
हाल ही में वैज्ञानिकों ने मध्य अमेरिका महाद्वीप के होंडुरास में सियूदाद ब्लांका नाम के एक गुम प्राचीन शहर की खोज की है। वैज्ञानिकों ने इस शहर को आधुनिक लाइडर तकनीक से खोज निकाला है।
इस शहर के वानर देवता की मूर्ति भारतवर्ष के घुटनों के बल बैठे महावीर हनुमान की मूर्ति से मिलती है । यहां के भी वानर देवता की मूर्ति के हाथ में एक गदा है ।
यही वह शहर है जिसे हम अहिरावण का पाताल लोक कहते हैं । इस बात को मानने के पीछे कई कारण हैं जिसमें प्रमुख हैं :-
1-यह सभी जगह अखंड भारत के ठीक नीचे हैं अखंड भारत से अगर कोई लाइन कोई सुरंग खोदी जाए तो वह उत्तरी अमेरिका के इन्हीं देशों के आसपास कहीं निकलेगी ।
2-इन्हीं जगहों पर  वक्त की हजारों साल पुरानी परतों में दफन सियुदाद ब्लांका में ठीक राम भक्त हनुमान के जैसे वानर देवता की मूर्तियां मिली हैं। अहिरावण  को मारने के उपरांत वहां की राजगद्दी परम वीर हनुमान जी के पुत्र महाबली मकरध्वज जी को दी गई थी । इस प्रकार पाताल लोक जो की इस समय होंडुरास कहलाता है में वानर राज प्रारंभ हुआ । और वहां पर हनुमान जी की मूर्तियां भारी मात्रा में मिलती हैं ।
3- वहां के इतिहासकारों का कहना है की प्राचीन शहर सियुदाद ब्लांका के लोग एक विशालकाय वानर देवता की मूर्ति की पूजा करते थे। यह मूर्ति तत्कालीन शासक मकरध्वज के पिता महाप्रतापी हनुमान जी की है ।
इस प्रकार यह पुष्ट हुआ है कि अहिरावण के पाताल लोक को आज हम हौण्डुरस के नाम से जानते हैं । हौन्डुरस मध्य अमेरिका में स्थित देश है। पूर्व में ब्रिटिश हौन्डुरस (अब बेलीज़) से अलग पहचान के लिए इसे स्पेनी हौन्डुरस के नाम से जाना जाता था। देश की सीमा पश्चिम में ग्वाटेमाला, दक्षिण पश्चिम में अल साल्वाडोर, दक्षिणपूर्व में निकारागुआ, दक्षिण में प्रशांत महासागर से फोंसेका की खाड़ी और उत्तर में हॉण्डुरास की खाडी से कैरेबियन सागर से मिलती है। इसकी राजधानी टेगुसिगलपा है।
हनुमान जी के पंचमुखी स्वरूप की भी चर्चा कर लेते हैं । बजरंगबली के पंचमुखी स्वरूप में उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिंह मुख, पश्चिम में गरुड़ मुख, पूर्व में हनुमान मुख और आकाश की तरफ हयग्रीव मुख है । 
जीवन के प्रवाह में शांत रस ,वीर रस ,करुण रस और रौद्र रस सभी की आवश्यकता पड़ती है । जब सामान्य समय है आप शांत रूप में रह सकते हैं । जब कोई विपत्ति पड़ती है तब अपने आप आपके अंदर से  करुण रस बाहर आता है । इस विपत्ति के समय  पर विजय पाने के लिए आपको वीर बनना पड़ता है । फिर आपको वीर रस की आवश्यकता होती है । जब किसी कारण बस आप अत्यंत क्रोध में होते हैं तब आपका रौद्र रूप  सामने आता है । 
इस प्रकार जीवन के उठापटक में सभी को चारों तरह के गुणों की आवश्यकता पड़ती है ।  हनुमान चालीसा के अंत में तुलसीदास जी हनुमान जी से यही मांग कर रहे हैं कि आप चारों उनके हृदय में निवास करें ।
जय श्री राम
जय हनुमान।


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