ओशो की दस आज्ञाओं पर केंद्रित शिविर का समापन
सागर ,7 अप्रैल 2023 : ओशो की दस आज्ञा पर केंद्रित ध्यान शिविर राईट माइंड फुल नैश कार्य क्रम में आज अंतिम सत्र में सद्गुरुदेव स्वामी शैलेन्द्र सरस्वती जी और सद्गुरु मां जी ने साधकों को समझाते हुए कहा हम जो हैं उसको स्वीकार न कर कुछ और होने की दौड़ में शामिल होकर अशांत और तनाव ग्रस्त हो उठते हैं। आज 100लोगों ने माला दीक्षा लेकर ओशो के नव संन्यास में प्रवेश लिया। सदगुरु देव ने आगे कहा कि सत्य को खोजें नहीं। खोजने में अहंकार, ईगो है। और अहंकार ही तो बाधा है। अपने को खो दें। मिट जाएं। जब ‘मैं’ शून्य होता है, तब उसके दर्शन होते हैं, जो कि वस्तुत: मैं हूं।’ मैं— भाव ‘मिटता है, तब ‘मैं—सत्ता’ मिलती है। अपने को खोकर ही ‘स्व’ को पाना होता है। जैसे बीज जब अपने को तोड़ देता है और मिटा देता है, तभी उसमें नव—जीवन अंकुरित होता है। वैसे ही ‘मैं’ बीज है, वह आत्मा का बाह्य आवरण और खोल है, वह तब मिट जाता है जब अमृत जीवन के अंकुर का जन्म होता है।
इस सूत्र को स्मरण रखें पाना है तो मिटना होता है। मृत्यु के मूल्य पर अमृत मिलता है। बूंद जब स्वयं को सागर में खो देती है, तो वह सागर हो जाती है।
मैं आत्मा हूं पर अपने में खोजूं तो सिवाय वासना के और कुछ भी नहीं मिलता है। हमारा पूरा जीवन ही वासना है। वासना यानी कुछ होने की— कुछ पाने की अभीप्सा। प्रत्येक कुछ होना चाहता है— कुछ पाना चाहता है। प्रतिक्षण यह दौड़ चल रही है। जो जहां है, वहां नहीं होना चाहता है। और जो जहां नहीं है, वहां होना चाहता है। वासना यानी ‘ जो है ‘ उससे एक अंधी अतृप्ति और ‘ जो नहीं है’ उसकी अंधी आकांक्षा।
इस दौड़ का कोई अंत नहीं है, क्योंकि जैसे ही ‘जो उपलब्ध होगा’ वह व्यर्थ हो जाएगा, और आकांक्षा पुन: अनुपलब्ध पर केंद्रित हो जाएगी। वह सदा ही अनुपलब्ध के लिए है।
वासना आकाश—क्षितिज की भांति है— आप जितने उसके निकट पहुंचें, वह ठीक उतना ही पुन: आपसे दूर हो जाता है। यह इसलिए ही संभव है, क्योंकि वह है ही नहीं। वह केवल प्रतीति, एपियरेंस है, भ्रांति है, सत्य नहीं है। सत्य हो तो आपको उसके पास जाने से वह निकट होता है। असत्य हो तो मिट जाता है। न सत्य हो, न असत्य हो, भ्रांति हो, स्वप्न हो, माया हो, कल्पना हो, तो आप उसके कितने ही निकट जाएं, उसकी दूरी वही बनी रहती है।
असत्य, सत्य का विरोध है। भ्रांति, माया—विरोध नहीं, आवरण है। वासना आत्मा का विरोध नहीं, आवरण है, वह कुहासा है, धुआं है जिसमें हमारी सत्ता छिपी है।
हम ‘जो नहीं हैं ‘उसके लिए दौड़ते रहते हैं और इसलिए ‘जो है’ उसे नहीं देख पाते हैं। वासना आत्मा पर पर्दा है और उसके कारण आत्मा का दर्शन नहीं हो पाता है। मैं कुछ होना चाहता हूं और इसलिए उसे देखता ही नहीं, ‘जो मैं हूं।’ एक क्षण को भी, यह होने की दौड़ और अभीप्सा न हो, तो ‘जो है ‘ वह प्रकट हो जाता है। एक क्षण को भी आकाश में बदलिया न हों, तो सूरज प्रकट हो जाता है। मैं इस ‘होने की दौड़ के अभाव’ को ही ध्यान कहता हूं। सभी कार्यक्रमों में श्रीमती निधि जैन सुनील जैन आनंद जैन कैलाश सिंघाई मनोज जैन दीप्ति जैन राजश्री जैन प्रमुख रूप से उपस्थित रहे।: कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए सभी का आनंद जैन ने आभार भी व्यक्त किया कार्यक्रम में नीरज जैन ऋषि सिंघाई आदि मोजूद रहे।
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एडिटर: विनोद आर्य
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+91 94244 37885
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