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श्री हनुमान चालीसा के दोहे में छिपा है जीवन रहस्य, जाने भावार्थ▪️पंडित अनिल पाण्डेय

श्री हनुमान चालीसा के दोहे में छिपा है जीवन रहस्य, जाने भावार्थ

▪️पंडित अनिल पाण्डेय




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हरेक मंगलवार / शनिवार को पढ़ेंगे श्री हनुमान चालीसा के दोहों का भावार्थ
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        💥 हमारे हनुमान जी 💥

4 मार्च 2023,तीनबत्ती न्यूज,

तुम उपकार सुग्रीवहि कीन्हा, 
राम मिलाय राजपद दीन्हा॥
तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना |
लंकेस्वर भए सब जग जाना ||

अर्थ –
आपने सुग्रीव जी को श्रीराम से मिलाकर उपकार किया, जिसके कारण वे राजा बने।
आपके सलाह को मानकर विभीषण लंकेश्वर हुए ।यह बात सारा संसार जानता है ।

भावार्थ:-
सुग्रीव जी के भाई  बालि ने उनको अपने राज्य से बाहर कर दिया था । बालि ने उनकी पत्नी तारा को भी उनसे छीन लिया था । इस प्रकार वालि ने सुग्रीव का सर्वस्व हरण कर लिया था । हनुमान जी ने सुग्रीव और श्री राम जी का मिलन कराया । बाद में श्री रामचंद्र जी द्वारा बालि का वध हुआ और सुप्रीम को उनका राज्य वापस मिला।
श्री हनुमान जी के द्वारा लंका में विभीषण को दी गई सलाह को उन्होंने  मान लिया  ।  रावण द्वारा लंका से भगाया जाने के बाद विभीषण  श्री रामचंद्र जी के शरणागत हो गए ।  श्री रामचंद्र जी ने तत्काल उनका राज्याभिषेक कर दिया और लंका का राजा बना दिया।

संदेश- किसी के साथ अन्याय होता दिखे तो चुप बैठने की जगह श्री हनुमान जी की तरह उसकी सहायता करना ही मानवता है।
हमको  सदैव अच्छे एवं नीतिज्ञ  व्यक्ति का साथ देना चाहिए।  अगर कोई अन्यायी दुराचारी सत्ता पर बैठा हो  तो चुप बैठने की जगह श्री हनुमान जी की तरह उसको हटाने का कार्य करना ही वीर व्यक्ति का लक्षण है । 

इन चौपाइयों के बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ :-
1-तुम उपकार सुग्रीवहि कीन्हा, राम मिलाय राजपद दीन्हा॥
2-तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना | लंकेस्वर भए सब जग जाना ||
हनुमान चालीसा की ये चौपाइयां राजकीय मान सम्मान दिलाती है ।  हनुमतकृपा पर विश्वास आपको चतुर्दिक  सफलता दिलाएगा । 

विवेचना:-
पहली चौपाई में महात्मा तुलसीदास बताते हैं कि हनुमान जी ने सुग्रीव जी को श्री रामचंद्र जी से मिलाकर सुग्रीव जी पर उपकार किया । श्री राम चन्द्र जी द्वारा उन्हें किष्किंधा का राजा बना दिया गया । अगर श्री रामचंद्र जी और सुग्रीव की मुलाकात नहीं होती और दोनों की आपस में मित्रता की संधि नहीं होती तो सुग्रीव कभी भी बालि को परास्त कर किष्किंधा की राजा नहीं हो पाते। 
संकटमोचन हनुमान अष्टम मैं भी इस बात का वर्णन है:-
बालि की त्रास कपीस बसै गिरि जात महाप्रभु पंथ निहारो |
चौंकि महा मुनि साप दियो तब चाहिय कौन बिचार बिचारो ||
कै द्विज रूप लिवाय महाप्रभु सो तुम दास के सोक निवारो | को० – 2 ||
इसका अर्थ है कि बालि के डर से सुग्रीव ऋष्यमूक पर्वत पर रहते थे। एक दिन सुग्रीव ने जब श्री राम जी और श्री लक्ष्मण जी को आते देखा तो उन्हें बालि का भेजा हुआ योद्धा समझ कर भयभीत हो गए। तब श्री हनुमान जी ने ही ब्राह्मण का वेश बनाकर प्रभु श्रीराम का भेद जाना और सुग्रीव से उनकी मित्रता कराई। यह पूरा प्रसंग रामचरितमानस तथा अन्य सभी रामायणों  में भी मिलता है। प्रसंग निम्नानुसार है:-


 सुग्रीव बाली से डरकर ऋषिमुक पर्वत पर अपने मंत्रियों और मित्रों के साथ निवास कर रहे थे । बालि को इस बात का  श्राप था कि अगर वह  ऋषिमुक पर्वत पर जाएगा तो उसकी मृत्यु हो जाएगी । इस डर के कारण बालि इस पर्वत पर नहीं आता था । परंतु इस बात की पूरी संभावना थी कि वह अपने दूतों को  सुग्रीव को मारने के लिए भेज सकता था। सुग्रीव ने  एक दिन दो वनवासी योद्धा युवकों को तीर धनुष के साथ देखा ऋषिमुक पर्वत पर आते हुए देखा ।
 आगें चले बहुरि रघुराया।
  रिष्यमूक पर्बत निअराया॥
तहँ रह सचिव सहित सुग्रीवा। 
आवत देखि अतुल बल सींवा॥1॥
(रामचरितमानस/ किष्किंधा कांड)
सुग्रीव के यह समझ में आया कि ये दोनों  योद्धा बालि के द्वारा भेजे गए  दूत हैं।  सुग्रीव जी यह देखकर अत्यंत भयभीत हो गए ।  उनके साथ रह रहे लोगों में हनुमान जी सबसे बुद्धिमान एवं बलशाली थे । अतः उन्होंने श्री हनुमान जी से कहा तुम  ब्राह्मण भेष में जाकर यह पता करो यह लोग कौन है।
अति सभीत कह सुनु हनुमाना। 
पुरुष जुगल बल रूप निधाना॥
धरि बटु रूप देखु तैं जाई। 
कहेसु जानि जियँ सयन बुझाई॥2॥
(रामचरितमानस/ किष्किंधा कांड)
सुग्रीव इतना डरा हुआ था कि उसने कहा कि अगर यह लोग बाली  के द्वारा भेजे गए हैं तो वह तुरंत ही  वह इस स्थान को छोड़ देगा । यह सुनने के उपरांत हनुमान जी तत्काल  ब्राह्मण वेश में युवकों से मिलने के लिए  चल दिए। हनुमान जी ने उन दोनो युवकों से उनके बारे में पूछा । 
यहां यह बताना आवश्यक है कि इसके पहले   हनुमान जी श्री रामचंद्र जी के बाल्यकाल में उनको एक बार देख चुके थे । परंतु बाल अवस्था और युवा काल में शरीर में बड़ा अंतर आ जाता है । अतः उनको वे तत्काल  पहचान नहीं सके । 
पठए बालि होहिं मन मैला। 
भागौं तुरत तजौं यह सैला॥
बिप्र रूप धरि कपि तहँ गयऊ। 
माथ नाइ पूछत अस भयऊ॥3।।
को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा। 
छत्री रूप फिरहु बन बीरा ॥
कठिन भूमि कोमल पद गामी। 
कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी॥4।।
(रामचरितमानस/ किष्किंधा कांड)
हनुमान जी द्वारा पूछे जाने पर श्री रामचंद्र ने अपना परिचय दिया और परिचय प्राप्त करने के बाद हनुमान जी उनको तत्काल पहचान गए तथा उनके चरणों पर गिर गये ।
प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना। 
सो सुख उमा जाइ नहिं बरना॥
पुलकित तन मुख आव न बचना। 
देखत रुचिर बेष कै रचना॥3॥
हनुमान जी को इस बात की ग्लानि हुई कि वे भगवान को  पहचान नहीं पाए और तत्काल उन्होंने भगवान से पूछा कि मैं तो एक साधारण वानर हूं आप भगवान होकर मुझे क्यों नहीं पहचान पाए।
पुनि धीरजु धरि अस्तुति कीन्ही।
 हरष हृदयँ निज नाथहि चीन्ही॥
मोर न्याउ मैं पूछा साईं। 
तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं॥
तव माया बस फिरउँ भुलाना। 
ताते मैं नहिं प्रभु पहिचाना॥
(रामचरितमानस/ किष्किंधा कांड)
 इस प्रकार हनुमान जी ने श्री रामचंद्र जी और श्री लक्ष्मण जी को अपना पुराना परिचय याद दिला कर  सुग्रीव के लिए एक रास्ता बनाया । सुग्रीव को एक सशक्त साथी की आवश्यकता थी जो बालि को हराकर सुग्रीव को राजपद दिला सकने में समर्थ हो । हनुमान जी को मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की शक्ति के बारे में पता था । अतः उन्होंने श्री रामचंद्र जी और श्री लक्ष्मण जी को सुग्रीव के पास चलने के लिए प्रेरित किया ।
देखि पवनसुत पति अनुकूला। हृदयँ हरष बीती सब सूला॥
नाथ सैल पर कपिपति रहई। सो सुग्रीव दास तव अहई॥1॥
(रामचरितमानस/ किष्किंधा कांड)
अर्थ:-श्रीरामचंद्र जी को अनुकूल (प्रसन्न) देखकर पवन कुमार हनुमान्‌जी के हृदय में हर्ष छा गया और उनके सब दुःख जाते रहे। (उन्होंने कहा-) हे नाथ! इस पर्वत पर वानरराज सुग्रीव रहते हैं, वह आपका दास है॥1॥
 तेहि सन नाथ मयत्री कीजे। दीन जानि तेहि अभय करीजे॥
सो सीता कर खोज कराइहि। जहँ तहँ मरकट कोटि पठाइहि॥2॥
(रामचरितमानस/ किष्किंधा कांड)
अर्थ:-हे नाथ! उससे मित्रता कीजिए और उसे दीन जानकर निर्भय कर दीजिए। वह सीताजी की खोज करवाएगा और जहाँ-तहाँ करोड़ों वानरों को भेजेगा॥2॥
 इसके उपरांत श्री रामचंद्र जी और श्री लक्ष्मण जी को हनुमान जी लेकर सुग्रीव के पास पहुंचे और दोनों के बीच में मित्रता कराई।
तब हनुमंत उभय दिसि की सब कथा सुनाइ।
पावक साखी देइ करि जोरी प्रीति दृढ़ाइ॥4॥
(रामचरितमानस/ किष्किंधा कांड)
अर्थ:-तब हनुमान्‌जी ने दोनों ओर की सब कथा सुनाकर अग्नि को साक्षी देकर परस्पर दृढ़ करके प्रीति जोड़ दी (अर्थात्‌ अग्नि की साक्षी देकर प्रतिज्ञापूर्वक उनकी मैत्री करवा दी)॥4॥
इसी प्रकार का विवरण बाल्मीकि रामायण में भी है ।
काष्ठयोस्स्वेन रूपेण जनयामास पावकम्।
दीप्यमानं ततो वह्निं ह्निं पुष्पैरभ्यर्च्य सत्कृतम् ।
तयोर्मध्येऽथ सुप्रीतो निदधे सुसमाहितः।
ततोऽग्निं दीप्यमानं तौ चक्रतुश्च प्रदक्षिणम्।।
सुग्रीवो राघवश्चैव वयस्यत्वमुपागतौ।
ततस्सुप्रीतमनसौ तावुभौ हरिराघवौ।।
(बाल्मीकि रामायण/किष्किंधा कांड/5/15,16,17)
हनुमान जी ने सुग्रीव जी और श्रीरामचंद्र जी के बीच में वार्तालाप होने के बाद अग्नि देव को जलाया । उनका पुष्प आदि से पूजन किया । इसके उपरांत श्री रामचंद्र जी और सुग्रीव के बीच में अग्नि को रखा गया ।  दोनों ने अग्नि की परिक्रमा की । इस प्रकार सुग्रीव और श्री राम जी की मैत्री हो गई। दोनों एक दूसरे को मैत्री भाव से देखने लगे।
इस  मैत्री के उपरांत बाली को मारने की योजना बनी  । फिर सुग्रीव को राज्य पद प्राप्त हुआ ।
इस प्रकार अगर हनुमान जी पूरी योजना बनाकर क्रियान्वित नहीं करवाते तो  सुग्रीव को किष्किंधा का राज्य नहीं प्राप्त हो सकता था। हनुमान जी ने यह सब किसी स्वार्थ बस नहीं किया वरन महाराज बालि द्वारा किए जा रहे अन्याय को समाप्त करने का उपाय किया।
इसी प्रकार की दूसरी घटना श्रीलंका की है ।जहां पर दुराचारी अत्याचारी निरंकुश शासक रावण राज्य करता था । रावण का दूसरा भाई विभीषण धार्मिक, सज्जन और ईश्वर को मानने वाला था ।परंतु शारीरिक शक्ति में वह  रावण से कमजोर था । हनुमान जी ने उसको श्री रामचंद्र जी के पास  पहुंचने की सलाह दी ।  श्री विभीषण ने बाद में इस सलाह का उपयोग किया और  वह श्री लंका का राजा भी बना। 
हनुमान जी द्वारा  विभीषण को सलाह देने की पूरी कहानी पर अगर हम ध्यान दें ,तो हम पाते हैं कि  सीता जी की खोज में लंका भ्रमण के दौरान विभीषण का मकान हनुमान जी को एकाएक दिखा था । विभीषण के भवन  के बाहर धनुष बाण  के प्रतीक बने हुए थे । घर के बाहर लगी तुलसी के पौधे और  धनुष बाण के इन्हीं प्रतीकों ने महावीर हनुमान जी को आकर्षित किया  ।
रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।
नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराई ॥
(रामचरितमानस/सुंदरकांड/दोहा क्रमांक 5)
अर्थ — वह महल राम के आयुध (धनुष-बाण) के चिह्नों से अंकित था, उसकी शोभा वर्णन नहीं की जा सकती। वहाँ नवीन-नवीन तुलसी के वृक्ष-समूहों को देखकर कपिराज हनुमान हर्षित हुए।
हनुमान जी इस भवन को देखकर हर्षित हो गए । उनके मन में यह उम्मीद जगी कि यहां से उनको सहायता मिल सकती है। इसके बाद की घटना और भी  आकर्षक है ।
हनुमान जी ने  मन ही मन में कहा और तर्क करने लगे :-
लंका निसिचर निकर निवासा।
इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥
मन महुँ तरक करैं कपि लागा।
तेहीं समय बिभीषनु जागा॥
और हनुमान जी ने सोचा की यह लंका नगरी तो राक्षसों के कुल की निवास भूमि है। यहाँ सत्पुरुषों के रहने का क्या काम ?  इस तरह हनुमानजी मन ही मन में विचार करने लगे। इतने में विभीषण की आँख खुली। 
कहानी अब साफ होती है :-

राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा।
हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥
एहि सन सठि करिहउँ पहिचानी।
साधु ते होइ न कारज हानी॥
विभीषण जी ने जागते ही  ‘राम! राम!’ का स्मरण किया, तो हनुमानजी ने जाना की यह कोई सत्पुरुष है। इस बात से हनुमानजी को बड़ा आनंद हुआ। हनुमानजी ने विचार किया कि इनसे जरूर पहचान करनी चहिये, क्योंकि सत्पुरुषों के हाथ कभी कार्य की हानि नहीं होती। उसके उपरांत हनुमान जी ब्राह्मण के  वेश में विभीषण के सामने पहुंचे ।  विभीषण जी ने उनको अच्छा आदमी समझ कर अपने पास बुलाया और चर्चा की । तब  हनुमान जी ने पूरा वृतांत सुनाया।
तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम ।।
(रामचरितमानस/ सुंदरकांड/ दोहा 6)
विभिषण के ये वचन सुनकर हनुमानजी ने रामचन्द्रजी की सब कथा विभीषण से कही और अपना नाम बताया। परस्पर एक दूसरे की बातें सुनते ही दोनों के शरीर रोमांचित हो गए । श्री रामचन्द्रजी का स्मरण आ जाने से दोनों आनंदमग्न हो गए । 
हनुमान जी की विभीषण से दूसरी मुलाकात लंकापति रावण के दरबार में हुई । परंतु वहां पर हनुमान जी और विभीषण के बीच में कोई वार्तालाप नहीं हुआ। लंकापति रावण हनुमान जी को मृत्युदंड देना चाहता था जिसको विभीषण ने पूंछ में आग लगाने में परिवर्तित करवा दिया था। इस प्रकार यहां पर विभीषण जी ने हनुमान जी की मदद की। 
विभीषण जी से हनुमान जी की तीसरी  मुलाकात श्री रामचंद्र जी के सैन्य शिविर में हुई । जहां पर शरण लेने के लिए विभीषण जी पहुंचे थे। रामचंद्र जी के द्वारा  सुग्रीव जी से यह पूछने पर श्री सुग्रीव ने कहा की यह  दुष्ट हमारी जानकारी लेने के लिए आया है अतः इसको बांध के बंदी गृह में रख देना चाहिए । महावीर हनुमान जी भी वहीं बैठे थे ।  उन्होंने कोई राय नहीं दी । श्री रामचंद्र समझ गए कि हनुमान जी की राय सुग्रीव जी की राय के विपरीत है । तब श्री रामचंद्र जी ने कहा कि नहीं  शरणागत को शरण देना चाहिए । यह सुनकर हनुमान जी अत्यंत प्रसन्न हो गए।
सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना।
सरनागत बच्छल भगवाना॥ 
( रामचरितमानस /सुंदरकांड)
अर्थात श्रीरामचन्द्रजी के वचन सुनकर हनुमानजी को बड़ा आनंद हुआ कि भगवान् सच्चे शरणागत वत्सल हैं (शरण में आए हुए पर पिता की भाँति प्रेम करनेवाले)॥
विभीषण जी से श्री लंका में पहली मुलाकात के समय हनुमान जी ने श्री रामचंद्र जी की प्रशंसा में कुछ बातें विभीषण जी को बताई थीं। उन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए आज विभीषण जी  श्री राम जी की शरण में आए थे।  विभीषण जी ने इस बात को यो कहा :-
श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर ॥
(रामचरितमानस /सुंदरकांड/ दोहा संख्या 45)
विभीषण जी ने कहा हे प्रभु! हे भय और संकट मिटानेवाले  ! मै कानोंसे आपका सुयश सुनकर आपके शरण आया हूँ। सो हे आर्ति (दुःख) हरण हारे! हे शरणागतों को सुख देनेवाले प्रभु! मेरी रक्षा करो, रक्षा करो।  विभीषण ने इस समय श्री रामचंद्र जी की प्रशंसा में बहुत सारी बातें कहीं । अंत में श्री रामचंद्र जी ने समुद्र के जल से विभीषण जी का लंका के राजा के रूप में राजतिलक  कर दिया ।
जदपि सखा तव इच्छा नहीं।
मोर दरसु अमोघ जग माहीं॥
अस कहि राम तिलक तेहि सारा।
सुमन बृष्टि नभ भई अपारा।।
(रामचरितमानस /सुंदरकांड)
श्री राम चंद्र जी ने कहा  कि हे सखा! यद्यपि आपको किसी बात की इच्छा नहीं है तथापि जगत्‌ में मेरा दर्शन अमोघ है । अर्थात् निष्फल नही है। ऐसे कहकर प्रभु ने बिभीषण के राजतिलक कर दिया । उस समय आकाश में से अपार पुष्पों की वर्षा हुई।
इस प्रकार हम पाते हैं कि सुग्रीव जी और विभीषण जी दोनों के राज्य पाने में श्री हनुमान जी सहायक हुए हैं। हनुमान जी ने सदैव ही अच्छे और सज्जन व्यक्ति का साथ दिया है। अगर किसी अन्यायी या दुराचारी ने अन्याय पूर्वक सत्ता पर कब्जा कर लिया हो तो हनुमान जी उसको सत्ता से हटा देने का कार्य करते हैं ।
जय हनुमान


जुग सहस्र जोजन पर भानू |
लील्यो ताहि मधुर फल जानू ||
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं |
जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं ||
दुर्गम काज जगत के जेते |
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ||

अर्थ – हे हनुमान जी आपने बाल्यावस्था में ही हजारों योजन दूर स्थित सूर्य को मीठा फल जानकर खा लिया था।
आपने भगवान राम की अंगूठी अपने मुख में रखकर विशाल समुद्र को लाँघ गए थे तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं।
संसार में जितने भी दुर्गम कार्य हैं वे आपकी कृपा से सरल हो जाते हैं।

भावार्थ:-
इन चौपाइयों में हनुमान जी की शक्ति के बारे में बताया गया है । सबसे पहले यह बताया गया है कि जन्म के कुछ दिन बाद ही हनुमान जी ने  1000 युग-योजन की दूरी पर स्थित  सूर्य देव को अच्छा फल समझकर खा लिया था । 
हनुमान जी को समस्त शक्तियां प्राप्त हैं । उनके ह्रदय में प्रभु विराजमान है ।  समस्त शक्तियां उनके पास है इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि प्रभु की मुद्रिका को मुंह में रखकर उन्होंने समुद्र को पार कर लिया था।
दुनिया में जितने भी दुर्गम कार्य हैं वे  दूसरों के लिए कठिन हैं राम कृपा से तथा हनुमान जी की कृपा से आसान हो जाते हैं।

संदेश- श्री हनुमान जी जैसी दृढ़ता सभी के अंदर होनी चाहिए । अगर आपके अंदर इतनी दृढ़ता होगी तब ही सूर्य को निगलने अर्थात कठिन से कठिन कार्य को करने की क्षमता आपके अंदर आ पाएगी।
मन में अगर किसी कार्य को करने का भाव हो तो वह कितना ही मुश्किल हो पूरा हो ही जाता है।

इन चौपाइयों के बार-बार पाठ करने से होने वाला लाभ :-
 1-जुग सहस्र जोजन पर भानू | लील्यो ताहि मधुर फल जानू ||
 2-प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं | जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं ||
 3-दुर्गम काज जगत के जेते | सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ||
 हनुमान चालीसा की इन चौपाईयों से सूर्यकृपा  विद्या, ज्ञान और प्रतिष्ठा मिलती है । दूसरी और तीसरी चौपाई के बार-बार वाचन से महान से महान संकट से मुक्ति मिलती है और सभी समस्याओं का अंत होता है।

विवेचना:-
पहली दो चौपाइयों में हनुमान जी के बलशाली और कार्य कुशल होने के बारे में बताया गया है ।तीसरी चौपाई में यह कहा गया है कि इस जगत में जितने भी कठिन से कठिन कार्य हैं वे सभी भी आपके लिए अत्यंत आसान हैं । इस प्रकार उदाहरण दे कर के हनुमान जी को सभी कार्यों के करने योग्य बताया गया है। संकटमोचन हनुमान अष्टक में कहा भी गया है :-
कौन सो संकट मोर गरीब को जो तुमसे नहीं जात  है टारो । (संकटमोचन हनुमान अष्टक)
इसका भी अर्थ  यही है की है हनुमान जी आप समस्त कार्यों को करने में समर्थ है । ईश्वर की जिसपर कृपा होती है सभी कार्यों को करने में समर्थ रहता है।  भगवान श्री राम की कृपा हमारे बजरंगबली पर थी । इसलिए हमारे बजरंगबली सभी कार्यों को करने में समर्थ है।
मूकं करोति वाचालं पङ्गुं लङ्घयते गिरिं ।
 यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम् ॥
 कुछ इसी तरह का श्रीरामचरितमानस के बालकांड में भी लिखा हुआ है:-
 मूक होइ बाचाल पंगु चढइ गिरिबर गहन।
जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन।।2।।
(रामचरितमानस /बालकांड/सोरठा क्रमांक 2)
रामचंद्र जी की कृपा से गूँगा बहुत सुंदर बोलने वाला हो जाता है और लँगड़ा-लूला दुर्गम पहाड़ पर चढ़ जाता है,।   कलियुग के सब पापों को जला डालने वाले दयालु भगवान मुझ पर द्रवित हों (दया करें)॥2॥
अब हम इस विवेचना की पहली चौपाई या यूं कहें तो हनुमान चालीसा के  अट्ठारहवीं  चौपाई  पर आते हैं। चौपाई है :-
जुग सहस्र जोजन पर भानू | लील्यो ताहि मधुर फल जानू ||
यहां पर सबसे पहले गोस्वामी तुलसीदास जी ने सूर्य लोक से पृथ्वी की दूरी के बारे में  बताया है । उनका कहना है कि सूर्य से पृथ्वी एक युग सहस्त्र योजन दूरी पर है । सूर्य से पृथ्वी की दूरी विश्व में सबसे पहले बाराहमिहीर नामक भारतीय वैज्ञानिक ने  बताईथी । यह खोज उनके द्वारा 505 ईसवी में की गई थी । उन्होंने अपनी किताब सूर्यसिद्धांत में यह दूरी बताई है । वर्तमान में यह मूल पुस्तक उपलब्ध नहीं है परंतु उसको अन्य विद्वानों ने 800 ईसवी तक लिखा है ।
वराहमिहिर ईसा की पाँचवीं-छठी शताब्दी के भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ थे। वाराहमिहिर ने ही अपने पंचसिद्धान्तिका में सबसे पहले बताया कि अयनांश का मान 50.32 सेकेण्ड के बराबर है। यह चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे। उज्जैन में उनके द्वारा विकसित गणितीय विज्ञान का गुरुकुल सात सौ वर्षों तक अद्वितीय रहा।
 हनुमान चालीसा में दिए गए सूर्य की दूरी का अर्थ  निम्नवत है ।
सूर्य सिद्धांत के अनुसार एक योजन' का मतलब 8 मील से होता है (1 मील में 1.6 किमी होते हैं)। अब अगर 1 योजन को युग और सहस्त्र से गुणा कर दिया जाए तो 8 x 1.6 x 12000 x 1000=15,36,00000 (15 करोड़ 36 लाख किमी), 
bbc.com के अनुसार सूर्य की औसत दूरी 15 करोड़ किलोमीटर है ।
इस घटना का उल्लेख संकटमोचन हनुमान अष्टक में भी मिलता है ।संकटमोचन हनुमान अष्टक का पाठ बजरंगबली के भक्तों में अत्यंत लोकप्रिय है। इसमें लिखा है :-
बाल समय रबि भक्षि लियो तब तीनहूँ लोक भयो अँधियारो |
ताहि सों त्रास भयो जग को यह संकट काहु सों जात न टारो ||
देवन आनि करी बिनती तब छाँड़ि दियो रबि कष्ट निवारो |
को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो || 1 ||
हनुमान जी द्वारा सूर्य को निगल जाने की घटना को हनुमत पुराण के पृष्ठ क्रमांक 23 और 24 पर दिया गया है । इस ग्रंथ में लिखा है कि  माता अंजना अपने प्रिय पुत्र हनुमान जी का लालन-पालन बड़े ही मनोयोग पूर्वक करती थी । एक बार की बात है कि  वानर राज केसरी और माता अंजना दोनों ही राजमहल में  नहीं थे । बालक हनुमान पालने में झूल रहे थे । इसी बीच उनको भूख लगी और उनकी दृष्टि प्राची के क्षितिज पर गई । अरुणोदय हो रहा था । उन्होंने सूर्यदेव को लाल रंग का फल समझा। बालक हनुमान ,शंकर भगवान के 11 वें रुद्र के अवतार थे । रुद्रावतार होने के कारण  उनके में अकूत बल था । वे पवन देव के पुत्र थे अतः उनको पवनदेव ने पहले ही उड़ने की शक्ति प्रदान कर दी थी । हनुमान जी ने छलांग लगाई और अत्यंत वेग से आकाश में उड़ने लगे । पवन पुत्र रुद्रावतार हनुमान जी सूर्य को निगलने के लिए चले जा रहे थे । पवन देव ने जब यह दृश्य देखा तो हनुमान जी की रक्षा हेतु पीछे-पीछे चल दिए । हवा के झोंकों से पवन देव हनुमान जी को शीतलता प्रदान कर रहे थे । दूसरी तरफ जब सूर्य भगवान ने देखा की  पवनपुत्र उनकी तरफ आ रहे हैं तो उन्होंने भी अपने को शीतल कर लिया । हनुमान जी सूर्य देव के पास पहुंचे और  वहां पर सूर्य देव के साथ क्रीड़ा करने लगे ।
उस दिन ग्रहण का दिन था । राहु सूर्य देव को अपना ग्रास बनाने के लिए पहुंचा । उसने पाया कि  भुवन भास्कर के रथ पर भुवन भास्कर के साथ एक बालक बैठा हुआ है । राहु बालक की चिंता ना कर सूर्य भगवान को ग्रास करने के लिए आगे बढ़ा ही था कि हनुमान जी ने उसे पकड़ लिया । बालक हनुमान की मुट्ठी में राहु दबने लगा । वह किसी तरह से अपने प्राण बचाकर भागा । उन्होंने इस बात की शिकायत इंद्रदेव जी की से की । इंद्रदेव ने नाराज होकर हनुमान जी के ऊपर बज्र का  प्रहार किया जो हनुमान जी की बाईं ढोड़ी पर लगा । जिससे उनकी हनु टूट गयी । इस चोट के कारण हनुमान जी मूर्छित हो गए । हनुमान जी को मूर्छित देख वायुदेव अत्यंत कुपित हो गए । वे अपने पुत्र को अंक में लेकर पर्वत की गुफा में प्रविष्ट हो गए । 
 वायु देव के बंद होने से सभी जीव धारियों के प्राण संकट में पड़ गए ।  सभी देवता गंधर्व नाग आदि जीवन रक्षा के लिए ब्रह्मा जी के पास पहुंचे । ब्रह्मा जी सब को लेकर वायुदेव जिस गुफा में थे उस गुफा पर पहुंचे । ब्रह्मा जी ने प्यार के साथ हनुमान जी को स्पर्श किया और हनुमान जी की मुर्छा टूट गई ।  अपने पुत्र को जीवित देख कर के पवन देव पहले की तरह से  प्राणवायु को बहाने लगे। 
इस समय सभी देवता उपस्थित थे ।  सभी ने अपनी अपनी तरफ से हनुमान जी को वर दिया ।जैसे कि ब्रह्मा जी ने कहा कि उनके ऊपर ब्रह्मास्त्र का असर नहीं होगा । इंद्रदेव ने कहा कि हनुमान जी के ऊपर उनके वज्र का असर नहीं होगा आदि, आदि। 
इस प्रकार ब्रह्मा जी के नेतृत्व में सभी देवताओं ने मिलकर  हनुमान जी को बहुत सारे आशीर्वाद एवं वरदान दिए।
वाल्मीकि रामायण में भी इस घटना का वर्णन है ।किष्किंधा कांड के 66वें सर्ग समुद्र पार करने के लिए जामवंत जी हनुमान जी को उत्साहित करते हैं । इस उत्साह बढ़ाने के दौरान वे हनुमान जी द्वारा सूर्य को सूर्य लोक में जाने की बात को बताते हैं ।
तावदापपत स्तूर्णमन्तरिक्षं महाकपे।
क्षिप्तमिन्द्रेण ते वज्रं कोपाविष्टेन धीमता।।
(वा रा /कि का/66/.23 )
तदा शैलाग्रशिखरे वामो हनुरभज्यत।
ततो हि नामधेयं ते हनुमानिति कीर्त्यते।।
(वा रा /कि का/66/.23 )
अर्थ -एक दिन प्रातः काल के समय सूर्य भगवान को उदय हुआ देख तुमने उन्हें कोई फल समझा ।  उस फल को लेने की इच्छा से तुम कूदकर आकाश में पहुंचे और 300 योजन ऊपर चले गए । वहां सूर्य की किरणों के ताप से भी तुम नहीं घबराए । हे ! महाकपि उस समय तुम को आकाश में जाते देख इंद्र ने  क्रोध कर तुम्हारे ऊपर बज्र मारा । तब तुम पर्वत के शिखर पर आकर गिरे ।  तुम्हारी बायीं और की ठोड़ी टूट गई ।
इसके बाद का वर्णन वाल्मीकि रामायण में भी वैसा ही है जैसा कि हनुमत पुराण में है । इस वर्णन  को हम आपको बता चुके हैं।
अर्थात वाल्मीकि रामायण से यह प्रतीत होता है हनुमान जी पृथ्वी से 300 योजन ऊपर तक पहुंच गए थे  । वहां पर इंद्र ने उनके ऊपर बज्र प्रहार किया । ऐसा प्रतीत होता है इंद्रदेव की प्रवृत्ति अमेरिका जैसी ही थी जिस तरह से अमेरिका किसी दूसरे देश को आगे नहीं बढ़ने देता है वैसे ही इंद्रदेव ने बालक हनुमान  को सूर्य तक नहीं पहुंचने देना चाहते थे । परंतु इस समय पवन देव ने अपनी शक्ति  दिखाई । जिसके कारण  भगवान ब्रह्मा ने बीच-बचाव कर शांति की प्रक्रिया को स्थापित किया।
अब हम चर्चा करेंगे वर्तमान समय के बुद्धिमान लोग इस घटना के बारे में क्या कहते हैं और उसका उत्तर क्या है ।
वर्तमान समय के अति बुद्धिमान प्राणी कहते हैं पृथ्वी से सूर्य 109 गुना बड़ा है । पृथ्वी पर रहने वाला कोई प्राणी पृथ्वी से बड़ा नहीं हो सकता है अतः यह कैसे संभव है कि पृथ्वी पर रहने वाला कोई प्राणी सूर्य को अपने मुंह में कैद कर ले । इसका उत्तर हनुमत पुराण में अत्यंत स्पष्ट रूप से है । हनुमत पुराण पढ़ने से यह प्रतीत होता है हनुमान जी ने बाल अवस्था में ही पवन और सूर्य देव की सहायता  से सूर्यलोक पर कब्जा कर लिया था ।  भगवान सूर्य के साथ जो उस समय  सूर्यलोक के स्वामी थे मित्रवत व्यवहार बना लिया था । यह बात राहु और इंद्र को बुरी लगी । इंद्र के पास अति भयानक अस्त्र था जिसे वज्र कहते हैं ।उससे उन्होंने हनुमान जी पर आक्रमण किया । इस आक्रमण को हनुमान जी बर्दाश्त नहीं कर सके । हनुमान जी के पिता पवन देव ने फिर अपने बल का इस्तेमाल कर पूरे ब्रह्मांड को विवश कर दिया कि वह हनुमान जी के सामने नतमस्तक हो । ब्रह्मांड के सभी बड़े देवता आये और उन्होंने अपनी अपनी तरफ से वरदान दिया ।  जैसे भगवान ब्रह्मा और इंद्र देव ने  अपने  हथियार ब्रह्मास्त्र और  वज्र का उन पर असर ना होने का वरदान दिया। यह भी कहा जा सकता है कि भगवान ब्रह्मा और इंद्र देव ने हनुमान जी के ऊपर कभी भी ब्रह्मास्त्र और वज्र को का इस्तेमाल न करने का आश्वासन दिया।
रामचरितमानस काव्य है काव्य में कवि अपनी भाषा-शैली के अनुसार विभिन्न अलंकार आदि का प्रयोग करते हैं रामचरितमानस में भी इन सब का प्रयोग किया गया है । बाल्मीकि रामायण उस समय का ग्रंथ है जिस समय रामचंद्र जी अयोध्या में पैदा हुए तथा राज किया । इस प्रकार हम बाल्मीकि रामायण को शत प्रतिशत सही मान सकते हैं ।

श्री हनुमान चालीसा  की अगली चौपाई है :- 
"प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं | 
जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं ||"
इस चौपाई में तुलसीदास जी कहते हैं कि हनुमान जी ने प्रभु द्वारा दी गई मुद्रिका को अपने मुख में रख लिया और समुद्र को पार कर गए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है । 
अब प्रश्न उठता है कि महावीर हनुमान जी ने लंका जाते समय मुद्रिका को अपने मुंह में क्यों रखा ।मुद्रिका उनके पास पहले जिस स्थान पर थी उसी स्थान पर क्यों नहीं रहने दिया । आइए हम इस प्रश्न के उत्तर को खोजने का प्रयास करते हैं।
 हनुमत पुराण के पेज क्रमांक 73 पर लिखा हुआ है कि  सीता जी की खोज के लिए निकलते समय श्री राम जी ने हनुमान जी से कहा "वीरवर तुम्हारा उद्योग , धैर्य एवं पराक्रम और सुग्रीव का संदेश इन सब बातों से लगता है कि निश्चय ही तुमसे मेरे कार्य की सिद्धि होगी । तुम मेरी यह अंगूठी ले जाओ ।इस पर मेरे नामाक्षर खुदे हुए हैं । इसे अपने परिचय के लिए तुम एकांत में सीता को देना । कपिश्रेष्ठ इस कार्य में तुम ही समर्थ हो । मैं तुम्हारा बुध्दिबल अच्छी तरह से जानता हूं । अच्छा जाओ तुम्हारा  कल्याण  हो ।

इसके उपरांत पवन कुमार ने प्रभु की मुद्रिका अत्यंत आदर पूर्वक अपने पास रख ली । और उनके चरण कमलों में अपना मस्तक रख दिया ।इसका अर्थ स्पष्ट है कि महावीर हनुमान जी के पास उस अंगूठी को रखने के लिए मुंह के अलावा कोई और स्थान भी हो सकता है । हो सकता है कि उन्होंने अपने वस्त्र में उस अंगूठी को बांध लिया हो। 
रामचरितमानस में भी यह प्रसंग किष्किंधा कांड में मिलता है । किष्किंधा कांड के  22वें दोहे के बाद एक से सात चौपाई तक इस बात का वर्णन है ।

पाछें पवन तनय सिरु नावा। 
जानि काज प्रभु निकट बोलावा॥
परसा सीस सरोरुह पानी। 
करमुद्रिका दीन्हि जन जानी॥5॥
बहु प्रकार सीतहि समुझाएहु। 
कहि बल बिरह बेगि तुम्ह आएहु॥
हनुमत जन्म सुफल करि माना। 
चलेउ हृदयँ धरि कृपानिधाना॥6॥

भावार्थ:-सबके पीछे पवनसुत श्री हनुमान्‌जी ने सिर नवाया। कार्य का विचार करके प्रभु ने उन्हें अपने पास बुलाया। उन्होंने अपने करकमल से उनके सिर का स्पर्श किया तथा अपना सेवक जानकर उन्हें अपने हाथ की अँगूठी उतारकर दी और कहा कि बहुत प्रकार से सीता को समझाना और मेरा बल तथा विरह (प्रेम) कहकर तुम शीघ्र लौट आना। हनुमान्‌जी ने अपना जन्म सफल समझा और कृपानिधान प्रभु को हृदय में धारण करके वे चल दिए ॥6॥
बाल्मीकि बाल्मीकि रामायण में भी इस घटना को ज्यों का त्यों लिखा गया है । यह घटना वाल्मीकि रामायण किष्किंधा कांड के 44वें  सर्ग के श्लोक क्रमांक 12 13 14 एवं 15 में  वर्णित है:-
ददौ तस्य ततः प्रीतस्स्वनामाङ्कोपशोभितम्।
अङ्गुलीयमभिज्ञानं राजपुत्र्याः परन्तपः।।
अनेन त्वां हरिश्रेष्ठ चिह्नेन जनकात्मजा।
मत्सकाशादनुप्राप्तमनुद्विग्नाऽनुपश्यति।।
व्यवसायश्च ते वीर सत्त्वयुक्तश्च विक्रमः।
सुग्रीवस्य च सन्देशस्सिद्धिं कथयतीव मे।।
स तद्गृह्य हरिश्रेष्ठः स्थाप्य मूर्ध्नि कृताञ्जलिः।
वन्दित्वा चरणौ चैव प्रस्थितः प्लवगोत्तमः।।
(वा रा/ कि का/44./12,13,14,15)
यहां भी वर्णन बिल्कुल रामचरितमानस जैसा ही है । पन्द्रहवें श्लोक में लिखा है की वानर श्रेष्ठ हनुमान जी ने उस अंगूठी को माथे पर चढ़ाया ।   श्री रामचंद्र जी के चरणों को हाथ जोड़कर प्रणाम करके महावीर हनुमान जी चल दिए । 
तीनों ग्रंथों में कहीं पर यह नहीं लिखा है की हनुमानजी ने  श्री रामचंद्र जी से अंगूठी लेने के उपरांत उसको कहां पर रखा । यह स्पष्ट है कि उन्होंने अंगूठी को अपने पास रखा अर्थात अपने वस्त्रों में उसको सुरक्षित किया । 
हनुमान जी जब समुद्र को पार करने लगे तो सभी ग्रंथों में यह लिखा है कि उन्होंने वायु मार्ग से समुद्र को पार किया हनुमान जी के पास इस बात की शक्ति थी कि वह हवाई मार्ग से गमन कर सकते थे । जब वे बाल काल में धरती से सूर्य तक की दूरी उड़ कर जा सकते थे तो समुद्र के किनारे से लंका तक जाने की दूरी तो अत्यंत कम ही थी । इतनी लंबी उड़ान उस समय धरती पर लंकापति रावण पक्षीराज जटायु और संपाती ही कर सकते थे । वायु मार्ग से उड़ते समय इस बात का डर था की वायु के घर्षण के कारण अंगूठी वस्त्रों से निकल सकती है । अंगूठी को बचाने के लिए उन्होंने सबसे सुरक्षित स्थान अपने मुख में अंगूठी को रख लिया । हनुमान जी ने अपने वस्त्रों से उस अंगूठी को निकालकर मुंह में सिर्फ सुरक्षा के कारणों से रखा था ।
हनुमानजी को योग की अष्ट सिद्धियां प्राप्त थी। इन आठ सिद्धियों के नाम है:- अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्रकाम्य, इशीता, वशीकरण। उपरोक्त शक्ति में से लघिमा ऐसी शक्ति है जिसके माध्यम से उड़ा जा सकता है। हनुमानजी महिमा और लघिमा शक्ति के बल पर समुद्र पार कर गए थे।
 विमान को संचालित करने के लिए गुरुत्वाकर्षण विरोधी (anti-gravitational) शक्ति की आवश्यकता होती है और 'लघिमा' की (anti-gravitational) शक्ति प्रणाली अनुरूप होती है। लघिमा (laghima) को संस्कृत में लघिमा सिद्धि कहते हैं और इंग्लिश में इसे लेविटेशन (levitation) कहा जाता है। लघिमा योग के अनुसार आठ सिद्धियों में से एक सिद्धि है।
दैनिक भास्कर के डिजिटल एडिशन में आज से 8 वर्ष पुराना एक लेख है । जिसमें बताया गया है कि वाराणसी के चौका घाट पर मुछों वाले हनुमान जी का मंदिर है । इस मंदिर के बनने की कहानी भी हनुमान जी के शक्ति को बयान करती है । 18 वीं शताब्दी में वाराणसी का डीएम हेनरी नाम  का अंग्रेज था । वाराणसी के वरुणा नदी के किनारे रामलीला होती थी । हेनरी वहां पहुंचा । उसने रामलीला को बंद कराने का प्रयास किया । जिसका कि वहां के निवासियों ने विरोध किया ।हेनरी ने चैलेंज किया कि आप लोग कहते हैं कि हनुमान जी ने समुद्र को छलांग लगाकर पार कर लिया था । अगर आपका हनुमान इस नदी को छलांग लगाकर पार कर ले तो मैं मान लूंगा यह रामलीला का उत्सव सही है । लोगों ने इस तरह का टेस्ट ना लेने की बात की परंतु वह टेस्ट लेने पर अड़ा रहा ।  हनुमान बने  पात्र को आखिर कूदना पड़ा । कूदने के लिए जब उन्होंने श्री रामचंद्र जी बने पात्र से आज्ञा मांगी तो उन्होंने  कहा ठीक है ।तुम कूद करके नदी पार कर लो । परंतु पीछे मुड़कर मत देखना । हनुमान बने पात्र ने नदी कूदने का प्रयास किया । परंतु जब दूसरी तरफ पहुंच गया तो उसने पीछे मुड़कर देख लिया और वही पत्थर की तरह से जम गया । आज उस स्थान पर मूछों वाले हनुमान जी का मंदिर बना हुआ है।
महाबली हनुमान जी धरती से  सूर्यलोक तक जाने के लिए समर्थ है। अतः यह सोचना कि समुद्र के किनारे से लंका तक समुद्र को पार करके नहीं जा सकते हैं मूर्खता की पराकाष्ठा होगी। अतः उनका समुद्र को पार करके जाना कोई आश्चर्य का विषय नहीं है ।

हनुमान चालीसा की अगली चौपाई है :-
"दुर्गम काज जगत के जेते | 
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते " 
इसका शाब्दिक अर्थ दो तरह से कहा जा सकता है  । पहला अर्थ है जगत के बाकी लोगों के लिए जो कार्य दुर्गम होते हैं आपके लिए अत्यंत आसान होते हैं । इसका दूसरा अर्थ भी है संसार के दुर्गम कार्य भी आपकी कृपा से आसान हो जाते हैं । मुझे दूसरा अर्थ ज्यादा सही लग रहा है । अगर हनुमान जी की आप पर कृपा है तो आप मुश्किल से मुश्किल कार्य भी आसानी से कर सकते हैं । जैसे कि अभी ऊपर रामलीला के प्रसंग में मैंने बताया कि रामलीला के एक साधारण  से पात्र पर जब हनुमान जी की कृपा हो गई तो उसने वरुणा नदी को पार कर लिया । आपकी कृपा जिस व्यक्ति पर है वह किसी भी कार्य को बगैर किसी परेशानी के आराम से कर सकता है । चौपाई के माध्यम से तुलसीदास जी कह रहे हैं कि कोई भी कार्य को करने के लिए आपको प्रयास तो करना पड़ेगा । चाहे वह काम आसान हो और चाहे कठिन । परंतु केवल प्रयास करने से कार्य नहीं हो जाएगा । काम होने के लिए ईश्वर की कृपा आवश्यक है । अगर हनुमान जी की कृपा आप पर है तो कार्य को होने से कोई भी रोक नहीं सकता है । अगर आप इस घमंड में हैं कि आप बहुत शक्तिशाली हैं आपका रसूख समाज में बहुत ज्यादा है और आप किसी भी कार्य को करने में समर्थ हैं तो यह आपकी भूल है । हो सकता है आप कार्य करने को आगे बढ़े और जहां आपको कार्य करना है उस जगह तक जाने का संसाधन ही आपको ना मिल पाए । ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जिसमें विद्यार्थी को सब कुछ आ रहा होता है परंतु भ्रम वश वह पास होने लायक प्रश्न भी हल नहीं कर पाता है।  
एक लड़का था । मान लेते हैं कि लड़के का नाम विजय था । देश के प्रमुख 10 इंजीनियरिंग कॉलेजों में से एक से उसने बी ई की परीक्षा दी और अपने गांव चला गया । गांव पर ही उसको अपने एक साथी का पत्र मिला जिसमें उसने बताया था कि 16 तारीख तक एक अच्छे संस्थान में ग्रैजुएट ट्रेनी के लिए वैकेंसी आई है ।  यह पत्र उसको 13 तारीख को प्राप्त हुआ था । विजय ने यह मानते हुए की अब अगर लिखित परीक्षा का फार्म आ भी  जाए तो कोई फायदा नहीं है । लिखित परीक्षा के फार्म हेतु उसने  आवेदन दे दिया। लिखित परीक्षा का आवेदन फार्म 20 तारीख के आसपास आ गया । उसके साथ यह भी लिखा था कि  इस फॉर्म को आप 30 तारीख तक भर सकते हैं ।  विजय ने तत्काल फार्म भरा और भेजा । लिखित परीक्षा और इंटरव्यू के उपरांत प्रथम नंबर पर आया और हनुमान जी की कृपा से ही अंत में विजय को उस  संस्थान के उच्चतम पद पर पहुंचने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैं यह भी कहना चाहता हूं यह कहानी बिल्कुल सच्ची है संभवत आप लोगों के आसपास भी ऐसी कई घटनाएं घटित हुई होंगी।
अगर आपके पेट में खाना पच जाता है उसका शरीर में खून बनता है मांस बनता है और मांसपेशियां बनती है । आपके दिन भर का कार्य उस खाने पचने की वजह से हो जाता है । अगर यह खाना न पचे तो आप बीमार हो जाएंगे और किसी कार्य के काबिल नहीं रहेंगे । इसी प्रकार अगर आप की सफलताएं पच जाएं अर्थात आपको सफलताओं का अहंकार ना हो तो आप जिंदगी में आगे बढ़ते चले जाएंगे । अगर आप यह माने यह सब प्रभु की कृपा से हुआ है तो आपके अंदर अहंकार नहीं आएगा । अगर आपको अपनी सफलता नहीं पचेगी तो आपके अंदर अहंकार आ जाएगा ।  किसी न किसी दिन यह अहंकार आपको जमीन पर ला देगा । उसी के लिए पुराने जमाने के लोग कहते थे कि सफलता मिले तो भगवान को नमस्कार करो, अहंकार न बढे उसके लिए वह परहेज है। लोग कहते हैं कि तुम्हे सफलता मिली है वह वृद्धो के आशीर्वाद से मिली है, अत: वृद्धों को प्रणाम करो । 
कुछ लोग कह सकते हैं कि वृद्धो के आशीर्वाद से सफलता मिली वह सत्य नहीं है, गलत बात है। आशीर्वाद से क्या होता है? जो सफलता मिलती है वह परिश्रम से मिलती है । लडका एम.बी.बी.एस. की परीक्षा में प्रथम श्रेणी मे उत्तीर्ण हुआ । इतना होने पर भी उसका बाप कहता है कि वृद्धों के आशीर्वाद से तूं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ, उन्हे नमस्कार कर । परंतु ऐसे लोग यह नहीं जानते हैं कि आपके अंदर सफलता का अहंकार ना आ जाए इसलिए बड़ों को प्रणाम करने के लिए कहा जा रहा है ।
जीवन में यदि हमें अपने लक्ष्य तक   पहुँचना है, सफलताएं प्राप्त करना है तो उसमें पुरुषार्थ के साथ भगवान पर अटूट विश्वास का होना भी आवश्यक है । भगवान की सहायता के बिना हमारा कल्याण नहीं होगा, इसलिए जीवन उन्नत करने के लिए हम प्रयत्न अवश्य करेंगे, फिर भी भगवान की सहायता की जरुरत है । उनकी सहायता से ही हम आगे बढ सकेंगे । अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकेंगे ।
अगर हम हनुमान जी के   शरणागत हो जाएं और प्रयास करें तो हमारी सभी इच्छाओं की पूर्ति हो सकती है । अंत में:-
मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये॥

हे मनोहर, वायुवेग से चलने वाले, इन्द्रियों को वश में करने वाले, बुद्धिमानो में सर्वश्रेष्ठ। हे वायु पुत्र, हे वानर सेनापति, श्री रामदूत हम सभी आपके शरणागत है॥
जय हनुमान।


राम दुआरे तुम रखवारे |
होत न आज्ञा बिनु पैसारे ||
अर्थ – 
भगवान राम के द्वारपाल आप ही हैं आपकी आज्ञा के बिना उनके दरबार में प्रवेश नहीं मिलता है ।

भावार्थ:-
संसार में मनुष्य के बहुत सारी कामनाएं होती हैं परंतु अंतिम कामना होती है मोक्ष की ।  हनुमान जी राम जी के दरबार में बैठे हुए हैं  ।  विभिन्न प्रकार की कामनाओं को लेकर आने वाले पहले हनुमान जी के पास जाते हैं । उसके बाद आगे श्री रामचंद्र जी के पास जाते हैं । हनुमान जी लोगों की   मोक्ष को छोड़कर सभी तरह की कामनाओं की पूर्ति  कर देते हैं  ।  परंतु मोक्ष प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को श्री राम चंद्र जी के पास जाना पड़ता है । श्री रामचंद्र जी के पास जाने के लिए श्री हनुमान जी के पास से होकर जाना पड़ता है । इसीलिए कहा गया है हनुमान जी की आज्ञा के बगैर कोई भी रामचंद्र जी के पास नहीं जा सकता है ।

संदेश- अगर आप ईश्वर में श्रद्धा रखते हैं तो किसी भी स्थिति में आपको डरने की आवश्यकता नहीं है।

इस चौपाई को बार बार पाठ करने  से होने वाला लाभ:-
1-राम दुआरे तुम रखवारे | होत न आज्ञा बिनु पैसारे ||
ईश्वर की कृपा प्राप्त करने के लिए इस चौपाई का बार बार पाठ करना चाहिए ।

विवेचना:-
 अगर हम इसका जनसाधारण में फैला हुआ अर्थ   माने  तो इस चौपाई का अर्थ है कि आप रामचंद्र जी के द्वार के रखवाले  हैं । आपकी आज्ञा के बिना रामचंद्र जी से मिलना संभव नहीं है । परन्तु क्या यह विचार सही है । 
कहा गया है कि ईश्वर अनंत है और उनकी कथा भी अनंत प्रकार से कही गई है। :-
हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥
(रामचरितमानस/बालकांड)
हरि अनंत हैं (उनका कोई पार नहीं पा सकता) और उनकी कथा भी अनंत है। सब संत लोग उसे बहुत प्रकार से कहते-सुनते हैं। रामचंद्र के सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते हैं।
 एक तरफ तो कहते हैं पूरा ब्रह्मांड ही भगवान का घर है । दूसरी तरफ तुलसीदास जी कह रहे हैं  श्री हनुमान जी रामचंद्र जी के महल के दरवाजे के रखवाले हैं । क्या रामचंद्र जी का अगर कोई घर है तो उसमें दरवाजा भी है ।  आइए हम इस पर चर्चा करते हैं । 
 कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि अगर ईश्वर को प्रसन्न करना है तो पहले संतो को , गुरु को , शास्त्रों के  लिखने वालों को ,अच्छे लोगों को प्रसन्न करो । अगर नई नवेली बहू को अपने पति को प्रसन्न करना है तो पहले सास-ससुर, जेठ-जेठानी को प्रसन्न करना पड़ेगा । 
 नए समय में कोई भी नवेली बहू सास ससुर जेठ जेठानी के चक्कर में नहीं पड़ती है । इसी प्रकार इस घोर कलयुग में अच्छे लोग या संत आदि का मिल पाना भी अत्यंत कठिन है । किसी ने इस पर पूरा गाना भी बना डाला :-
 पार न लगोगे श्रीराम के बिना,
राम न मिलेगे हनुमान के बिना |
परंतु क्या हनुमान जी की हैसियत द्वारपाल जैसी है । श्रीरामचंद्र जी जिनको अपना सखा , भरत जैसा भाई कहते हैं, क्या वे द्वारपाल हैं। क्या रुद्रावतार को हम द्वारपाल कह सकते हैं । क्या पवन पुत्र को हम दरवाजे का रखवाला कहेंगे । ऊपर में बता भी चुका हूं कि हनुमान जी की उत्पत्ति उसी खीर से हुई है जिस खीर को खाने से कौशल्या माता जी के गर्भ से श्री राम जी पैदा हुए हैं। यह सत्य है की हनुमान जी ने हमेशा अपने को श्री राम जी का दास कहा है ,परंतु श्री राम जी ने कभी भी उनको अपना दास नहीं माना है ।अपना भाई माना है ,सखा माना है या संकटमोचक माना है । कहीं भी चाहे वह बाल्मीकि रामायण हो , रामचरितमानस हो या अन्य कोई रामायण हो किसी में भी श्रीरामचंद्र जी ने हनुमान जी को अपना दास नहीं कहा है । अब अगर श्री रामचंद्र जी ने को अपना दास नहीं माना है तो हम कलयुग के लोग हनुमान जी को द्वारपाल कैसे बना सकते हैं। 
वास्तविकता यह है यहां पर द्वारपाल का अर्थ द्वारपाल नहीं है वरन लक्ष्य तक पहुंचने का एक सोपान है । अगर हमें किसी ऊंचाई पर आसानी से पहुंचना है तो हमें सीढ़ी या सोपान का उपयोग करना पड़ता है ।  हनुमान जी श्रीरामचंद्र जी तक पहुंचने की वहीं सीढ़ी या सोपान है । जिस प्रकार हम ब्रह्म तक पहुंचने के लिए पहले किसी देवता की मूर्ति पर ध्यान लगाते हैं । बाद में हम इसके काबिल हो जाते हैं कि हम बगैर मूर्ति के भी ब्रह्म के ध्यान में मग्न हो सकें । उसी प्रकार रामचंद्र जी का ध्यान लगाने के पहले आवश्यक है कि हनुमान जी का ध्यान लगाया जाये । हनुमान जी का ध्यान लगाना आसान है । हनुमानजी एक जीवंत देवता है ।आज भी वह इस विश्व में निवास कर रहे हैं । उनकी मृत्यु नहीं हुई है । 
सही बात तो यह है कि  श्रीरामचंद्र जी की कल्पना बगैर हनुमान जी के संभव नहीं है। आप को श्री रामचंद्र जी  के साथ नीचे बैठे हुए हनुमान जी अवश्य दिखाई देंगे । संभवत इसीलिए  महर्षि तुलसीदास ने लिखा है "राम दुआरे तुम रखवारे" ।

आइए अब हम इसका एक दूसरा विश्लेषण भी करते हैं ।
राम पूर्वतापिन्युपनिषद में कहा गया है-
रमन्ते योगिनोअनन्ते नित्यानंदे चिदात्मनि।
इति रामपदेनासौ परंब्रह्मभिधीयते।
श्रीराम नाम के दो अक्षरों में 'रा' तथा 'म' ताली की आवाज की तरह हैं, जो संदेह के पंछियों को हमसे दूर ले जाती हैं। ये हमें देवत्व शक्ति के प्रति विश्वास से ओत-प्रोत करते हैं। इस प्रकार वेदांत वैद्य जिस अनंत सच्चिदानंद तत्व में योगिवृंद रमण करते हैं उसी को परम ब्रह्म श्रीराम कहते हैं ।
स्वयं गोस्वामी जी ने रामचरितमानस में राम ग्रंथों के विस्तार का वर्णन किया है-
नाना भांति राम अवतारा।
रामायण सत कोटि अपारा॥
मनुष्य के जीवन में आने वाले सभी संबंधों को पूर्ण तथा उत्तम रूप से निभाने की शिक्षा देने वाले प्रभु श्री रामचन्द्रजी के समान दूसरा कोई चरित्र नहीं है। श्रीराम सदैव कर्तव्यनिष्ठा के प्रति आस्थावान रहे हैं। उन्होंने कभी भी लोक-मर्यादा के प्रति दौर्बल्य प्रकट नहीं होने दिया। इस प्रकार मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में श्रीराम सर्वत्र व्याप्त हैं। कहा गया है-
एक राम दशरथ का बेटा,
एक राम घट-घट में लेटा।
एक राम का सकल पसारा,
एक राम है सबसे न्यारा।
अब आप बताइए कि जो राम घाट घाट में लेटा हुआ है, जो राम सब जगह फैला हुआ है उसके पास दरवाजा कहां होगा ।
एक और वाणी है:-
हममें, तुममें, खड्ग, खंभ में,
घट, घट व्यापत राम।।
इसे भक्त पहलाद  ने अपने पिता हिरण्यकश्यप  से कहा था । इसका  साफ-साफ अर्थ है की श्री राम हर जगह  उपस्थित हैं । अतः यहां दरवाजा बनाने की आवश्यकता नहीं है । जब हर व्यक्ति के हृदय में श्री राम मौजूद हैं तो बीच में कोई और कैसे आ सकता है ।
विभीषण जी की पहली मुलाकात हनुमान जी से श्रीलंका में हुई थी ।  विभीषण जी ने हनुमान जी को संत माना और कहा कि यह श्री रामचंद्र जी की कृपा है कि उनको हनुमान जी के दर्शन हुए ।  इसका अर्थ तो यह है की विभीषण जी मानते हैं अगर हनुमान जी का दर्शन होना है तो श्रीरामचंद्र जी की कृपा होनी चाहिए ।
तामस तनु कछु साधन नाहीं । प्रीति न पद सरोज मन माहीं ॥
अब मोहि भा भरोस हनुमंता । बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता ॥ २ ॥
(रामचरितमानस / सुंदरकांड /दोहा नंबर 6/ चौपाई नंबर दो)
मेरा तामसी (राक्षस) शरीर होने से साधन तो कुछ बनता नहीं और न मन में श्री रामचंद्रजी के चरणकमलों में प्रेम ही है। परन्तु हे हनुमान्‌! अब मुझे विश्वास हो गया कि श्री रामजी की मुझ पर कृपा है; क्योंकि हरि की कृपा के बिना संत नहीं मिलते॥२॥
जिस समय नल और नील समुद्र पर सेतु  बना रहे थे उस समय वे हर पत्थर पर राम नाम लिखकर के समुद्र पर  छोड़ देते थे । राम नाम लिखा हुआ पत्थर  समुद्र पर तैरने लगता था । रामचंद्र जी ने भी एक पत्थर रखा परंतु वह डूब गया । रामचंद्र जी ने जब इसका कारण नल और नील से पूछा ।उन्होंने जवाब दिया कि हम  पत्थर पर आपका नाम लिख करके समुद्र मे छोड़ देते हैं । आपके नाम की महिमा से पत्थर तैरने लगता है । इस पत्थर आपका नाम नहीं लिखा इसलिए वह पत्थर डूब गया है ।
बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥
बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥ (रामचरितमानस/ सुंदरकांड)
भावार्थ:- मैं श्रीरघुनाथ जी के "राम" नाम की वंदना करता हूँ, जो कि अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा को प्रकाशित करने वाला है। "राम" नाम ब्रह्मा, विष्णु, महेश और समस्त वेदों का प्राण स्वरूप है, जो कि प्रकृति के तीनों गुणों से परे दिव्य गुणों का भंडार है।
महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥
महिमा जासु जान गनराऊ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥ 
भावार्थ:- "राम" नाम वह महामंत्र है जिसे श्रीशंकर जी निरन्तर जपते रहते हैं, जो कि जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होने के लिये सबसे आसान ज्ञान है। "राम" नाम की महिमा को श्रीगणेश जी जानते हैं, जो कि इस नाम के प्रभाव के कारण ही सर्वप्रथम पूजित होते हैं।
किसी ने यह भी कहा है की:-
राम से बड़ा राम का नाम।
राम नाम की महिमा अपरंपार है और यह वह महामंत्र है जो कि किसी को भी मुक्ति दिला सकता है ।  अतः यह कहना कि बगैर हनुमान जी को प्रसन्न किए हुए रामजी को  प्रसन्न नहीं किया जा सकता है ,सही नहीं होगा। 
अब प्रश्न यह उठता है की हनुमान चालीसा में "राम दुआरे तुम रखवारे | होत न आज्ञा बिनु पैसारे " क्यों लिखा गया है । 
किसी भी परिवार में एक मुखिया होता है । यह मुखिया पिता भी हो सकता है घर का बड़ा भाई भी हो सकता है कई घरों में माता भी मुखिया का कार्य करती हैं । घर के बाकी सभी सदस्य अपने अपने कार्य के लिए स्वतंत्र होते हैं और वह आवश्यकता पड़ने पर मुखिया के अधिकार का भी इस्तेमाल कर लेते हैं । 
दुआरे  अवधी बोली का शब्द है जो की मूल हिंदी शब्द द्वारे  का अपभ्रंश है । द्वारे शब्द के तीन अर्थ होते हैं - दरवाज़े पर, दर तक, पास । 
इसी प्रकार रखवारे शब्द का अर्थ होता है चौकीदार या रखने वाला ।
यहां पर हम दोनों शब्दों के  कम प्रचलित अर्थ को लेते हैं । जैसे कि द्वारे का अर्थ पास और रखवारे का अर्थ रखने वाला । अब अगर "राम दुआरे तुम रखवारे" का अर्थ लिया जाए तो कहा जायेगा कि  तुमने अपने पास रामचंद्र जी को रखा हुआ है । अर्थात तुम्हारे हृदय में राम हैं ।  यह सत्य भी है  । इस संबंध में  यहां पर  यह घटना का जिक्र करना उपयुक्त होगा ।
लक्ष्मण जी को इस बात का ही अभिमान हो गया था कि वे श्री रामचंद्र जी के सबसे बड़े भक्त हैं । अकेले वे ही जो कि श्री रामचंद्र जी के साथ 14 वर्ष बन में रहे हैं । हर दुख और तकलीफ में उन्होंने श्री राम जी का साथ दिया है । श्री राम जी को लक्ष्मण जी के अभिमान का आभास हो गया । और इसके उपरांत ही एक घटना घटी । घटना यू है :-
राम दरबार सजा हुआ था । चारों भाई ,सीता जी हनुमान जी ,गुरु वशिष्ट जी और सभी लोग अपने अपने आसनों पर विराजमान थे । श्री राम के राज्याभिषेक होने की  प्रसन्नता में सीता मैया ने सभी को कुछ ना कुछ  उपहार दिया । जिसमें श्री हनुमान जी को उन्होंने एक बहुमूल्य रत्नों की माला दी । हनुमान जी ने माला लेने के उपरांत उसके एक-एक मनके को तोड़कर के देखने लगे । फिर उन्होंने पूरी माला को तोड़ने के उपरांत  फेंक  दी ।
सीता मैया के उपहार के  अपमान को देखकर श्री लक्ष्मण जी बहुत क्रोधित हो गए । उन्होंने श्री हनुमान जी से पूछा कि आपको इन रत्नों के मूल्य के बारे में नहीं पता है । यह रत्न कितने कीमती हैं ।इस पर हनुमानजी ने कहा, ' मैंने यह हार अमूल्य समझ कर लिया था। परंतु बाद में मैनें पाया कि इसमें कहीं भी राम- नाम नहीं है। मैं समझता हूं। कि कोई भी अमूल्य वस्तु राम के नाम के बिना अमूल्य नहीं हो सकती। अतः उसे त्याग देना चाहिए।' लक्ष्मण जी ने पुनः हनुमान जी से कहा कि आपके बदन पर भी कहीं राम नाम नहीं लिखा है तो आपको अपना बदन भी तोड़ देना चाहिए ।
लक्ष्मण की बात सुनकर हनुमानजी ने अपना वक्षस्थल तेज नाखूनों से फाड़ दिया और उसे लक्ष्मण को दिखाया।
हनुमान जी के फटे हुए वक्षस्थल में श्रीराम दिखाई दे रहे थे। लक्ष्मण जी इस बात को देखकर आश्चर्यचकित रह गए, और उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ।
यह कहानी एक दूसरे प्रकार से भी मिलती है । इसमें विभीषण एक रत्नों की माला मां सीता को भेंट की ।  उन्होंने यह माला अत्यंत मूल्यवान समझकर माता जानकी को भेंट की थी । उन्होंने यह भी सोचा था कि दूसरा कोई भी इतनी मूल्यवान माला मां को भेंट नहीं कर सकता है । श्री विभीषण जी के इस घमंड को माता सीता ने समझ लिया । माला पाने के उपरांत माता सीता ने श्री रामचंद्र जी से पूछा कि इस   बहुमूल्य माला को  मैं किसको दूं । श्री रामचंद्र जी ने कहा कि तुम सबसे ज्यादा जिसको मानती हो उसको यह माला दे दो । माता जानकी ने वह माला हनुमान जी को दे दी । इसके आगे की कहानी एक जैसी ही है । 
इस प्रकार यह स्पष्ट श्री राम जी सदैव श्री हनुमान के साथ में रहते हैं अतः यह कहना कि श्री हनुमान जी ने अपने पास  श्री राम जी को रख लिया है । हनुमान जी के ह्रदय के श्री रामचंद्र जी की मूर्ति से बगैर हनुमान जी की आज्ञा के मिल पाना असंभव है । अगर आपको हनुमान जी के हृदय में स्थित श्री राम  जी से मिलना है तो आपको श्री हनुमान जी की आज्ञा लेनी पड़ेगी । अगर आपके अंदर वह सामर्थ्य है कि आप अपने हृदय के अंदर स्थित रामचंद्र जी को महसूस कर पा रहे हैं तो आप सीधे श्री रामचंद्र जी के पास पहुंच सकते हैं ।
जय हनुमान।



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एडिटर: विनोद आर्य
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