सब सुख लहै तुम्हारी सरना |
तुम रच्छक काहू को डर ना ||
आपन तेज सम्हारो आपै |
तीनों लोक हाँक तें काँपै ||
अर्थ – आपकी शरण में आए हुए को सब सुख मिल जाते हैं। आप जिसके रक्षक हैं उसे किसी का डर नहीं।
हे महावीर जी अपने तेज को स्वयं आप ही संभाल सकते हैं। आपकी एक हुंकार से तीनो लोक कांपते हैं।
भावार्थ:-
आप सुखों की खान है ,सुख निधान हैं , आप अपने भक्तों को सुख प्रदान करने वाले हैं । आपकी कृपा से सभी प्रकार के सुख सलभ हैं । आप की शरण में जाने से सभी सुख सुलभ हो जाते हैं । शाश्वत शांति प्राप्त होती है । अगर तुम हमारे रक्षक हो तो सभी प्रकार के दैहिक , दैविक और भौतिक भय समाप्त हो जाते हैं । आपके भक्तों के सभी प्रकार के डर से दूर हो जाते हैं और उनको किसी प्रकार का भय नहीं सताता है ।
आप की तीव्रता , आपका ओज और आपकी ऊर्जा केवल आप ही संभाल सकते हैं । दूसरा कोई इसको रोक नहीं सकता है । अर्थात आप के बराबर किसी के भी पास तीव्रता, ओज , ऊर्जा और तेज नहीं है। आपके हुंकार से तीनो लोक में भय फैल जाता है ।
संदेश-
अगर आप ईश्वर में श्रद्धा रखते हैं तो किसी भी स्थिति में आपको डरने की आवश्यकता नहीं है ।
इन चौपाइयों का बार-बार पाठ करने से होने वाला लाभ:-
1-सब सुख लहै तुम्हारी सरना | तुम रच्छक काहू को डर ना ||
अगर आपको कोई डराने की कोशिश कर रहा है या आपके सुख में कमी आ रही है तो आपको इन चौपाइयों का बार बार पाठ करना चाहिए ।
2-आपन तेज सम्हारो आपै | तीनों लोक हाँक तें काँपै ||
अगर आप ओज कीर्ति तथा अपना प्रभाव लोगों के बीच में जमाना चाहते हैं तो आप को इन चौपाइयों का बार-बार पाठ करना चाहिए ।
विवेचना:-
पहली चौपाई में तुलसीदासजी भगवान की शरणमें जाने के लिए कह रहें। शरणागति एक महान साधन है। किसी की शरण जाओ, किसी का बन जाओ। उसके बिना जीवन में आनंद नहीं है। भगवान आधार है। गलतियों को कहने का स्थान अर्थात् भगवान। शरणं यानी गति। भगवान हमारी गति हैं। दूसरे किसकी शरण जायँ ? एक कवि ने कहा है :-
जीवन नैया डगमग डोले तू है तारनहार, कन्हैया तेरा ही आधार ।
शरणागति’ याने मेरा कुछ नहीं है, सब तुम्हारा है। मन बुद्धि और अहम् भी मेरे नहीं है। भक्त जो मन, बुद्धि, अहम् भाव से दे देता है, उसे समर्पण कहते है। ‘भगवान ! मन, बुद्धि, अहम् ये सब मेरे नहीं है, आपके हैं और आप मेरे हैं। अत: संपूर्ण विश्व मेरा है।’ मेरा कुछ नहीं है यह प्रथम बात है और आप मेरे हैं, अत: संपूर्ण विश्व मेरा है ऐसी स्थिति आती है, तब उसे हम ‘शरणागति’ कहते हैं।
प्रारब्ध, भाग्य, भविष्य, देखनेवाले लोग भी अहंकारी है। अर्थात् प्रारब्ध भाग्य नहीं होता है ।ऐसा मैं नहीं कहता हूँ मगर उससे अहंकार आता है। भगवान का प्रसाद मानकर चलेंगे तो उसमें अलौकिक आनंद है।
प्रारब्ध का अर्थ क्या है? गत जन्म में कुछ कर्म किये, उससे जो जमा हुआ होगा उसीका नाम प्रारब्ध है। अन्तमें भाग्य का अहंकार आता हैं।
हमारे पूर्वजों को पता था कि, भाग्य मानकर भी अहंकार आता है। इसीलिए पैसा मिलने पर वे कहते थे कि, बडों के आशीर्वाद से पैसे मिले। बडों के पुण्य से, आशीर्वाद से धन मिला, ऐसा बोलने से कर्म या भाग्य का अहंकार नहीं आता है, । इसी वजह से अहंकार कम होता है। हम जब अपना अहंकार समाप्त करेंगे तभी हम शरणागत हो सकते हैं । ईश्वर की कृपा हमारे ऊपर तभी हो पाएगी ।
महावीर हनुमान जी द्वारा शरणागत की रक्षा के कई उदाहरण हैं। जैसे कि उन्होंने सुग्रीव की रक्षा की । सुग्रीव बाली से भयंकर भयभीत थे । सुग्रीव सूर्य पुत्र थे । सूर्य हनुमान जी के गुरु थे । गुरु दक्षिणा में उन्होंने सूर्य देव को विश्वास दिलवाया था कि वे सुग्रीव की रक्षा करेंगें । इस वचन को उन्होंने पूरी तरह से निभाया और सुग्रीव को श्री रामचंद्र जी से मिलवा कर राजगद्दी भी दिलवाई ।
इसी प्रकार विभीषण की भी उन्होंने रक्षा की और विभीषण को लंका नरेश बनाया ।
महावीर हनुमान जी ने मेघनाथ से श्री लक्ष्मण जी की दो बार और श्री रामचंद्र जी की एक बार रक्षा की है। पहली बार जब श्री रामचंद्र जी और लक्ष्मण जी को मेघनाद ने नागपाश में बांधा था । तब महावीर हनुमान जी ने ही मेघनाद को भगाया था । गरुण जी को बुलाकर भगवान राम जी को तथा श्री लक्ष्मण जी को नागपाश से मुक्त करवाया था।
संकटमोचन हनुमान अष्टक में इस घटना का वर्णन किया गया है :-
रावन जुद्ध अजान कियो तब नाग कि फाँस सबै सिर डारो |
श्रीरघुनाथ समेत सबै दल मोह भयो यह संकट भारो ||
आनि खगेस तबै हनुमान जु बंधन काटि सुत्रास निवारो |
को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो ||को० – 6 ||
इसी प्रकार जब मेघनाद ने शक्ति का प्रहार श्री लक्ष्मण जी के उपर किया और लक्ष्मण जी मूर्छित हो गए थे । उस समय भी युद्ध भूमि से लक्ष्मण जी को श्री हनुमान ही बचा कर लाए थे।
व्यापक ब्रह्म अजित भुवनेस्वर। लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर॥
तब लगि लै आयउ हनुमाना। अनुज देखि प्रभु अति दुख माना॥(रामचरितमानस/ लंका कांड)
भावार्थ:- व्यापक, ब्रह्म, अजेय, संपूर्ण ब्रह्मांड के ईश्वर और करुणा की खान श्री रामचंद्रजी ने पूछा- लक्ष्मण कहाँ है? तब तक हनुमान् उन्हें ले आए। छोटे भाई को (इस दशा में) देखकर प्रभु ने बहुत ही दुःख माना॥3॥
इसके उपरांत वैद्य की आवश्यकता पड़ी तब सुषेण वैद्य को लंका जाकर श्री हनुमान जी ही ले कर आए थे।
जामवंत कह बैद सुषेना। लंकाँ रहइ को पठई लेना॥
धरि लघु रूप गयउ हनुमंता। आनेउ भवन समेत तुरंता॥4॥
भावार्थ:- जाम्बवान् ने कहा- लंका में सुषेण वैद्य रहता है, उसे लाने के लिए किसको भेजा जाए? हनुमान्जी छोटा रूप धरकर गए और सुषेण को उसके घर समेत तुरंत ही उठा लाए॥4॥
सुषेण वैद्य द्वारा यह बताने पर की द्रोणागिरी पर स्थित संजीवनी बूटी से ही श्री लक्ष्मण जी के प्राण बचेंगे हनुमान जी तत्काल उस बूटी को लाने के लिए चल पड़े :-
राम चरन सरसिज उर राखी। चला प्रभंजनसुत बल भाषी॥
भावार्थ:-श्री रामजी के चरणकमलों को हृदय में रखकर पवनपुत्र हनुमान्जी अपना बल बखानकर (अर्थात् मैं अभी लिए आता हूँ, ऐसा कहकर) चले।
इसी प्रकार जब सभी बानरों की जान खतरे में पड़ी थी और सीता जी का पता नहीं चल रहा था तब हनुमानजी ही समुद्र को पार कर सीता जी का पता लगा कर लौटे थे ।
इस प्रकार की अनेक घटनाएं हैं जब श्री हनुमान जी ने अपने लोगों की जो उनके साथ थे उनके प्राण की रक्षा की।
शरणागत की सुरक्षा का सबसे बड़ा उदाहरण है हनुमान जी द्वारा काशी नरेश की रक्षा के लिए श्री राम जी से युद्ध के लिए तैयार हो जाना । इसमें सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि उन्होंने श्री रामचंद्र जी से लड़ने के लिए श्री रामचंद्र जी की ही सौगंध ली थी।
यह कथा हनुमत पुराण के पृष्ठ क्रमांक 302 में "सुमिरि पवनसुत पावन नामू" शीर्षक से दिया हुआ है । एक बार काशी नरेश भगवान रामचंद्र जी से मिलने के लिए राजसभा में जा रहे थे । रास्ते में हूं उनको नारद जी मिल गए । नारद जी ने काशी नरेश से अनुरोध किया की आप जब दरबार में जाएं तो भगवान के बगल में बैठे वयोवृद्ध तपस्वी विश्वामित्र जी की उपेक्षा कर देना । उन्हें प्रणाम मत करना । काशी नरेश ने पूछा ऐसा क्यों ? नारद जी ने कहा इसका जवाब तुम्हें बाद में मिल जाएगा । काशी नरेश राज सभा में पहुंचे । हनुमान जी राज सभा में नहीं थे । अपनी माता जी से मिलने गए थे । काशी नरेश ने नारद जी के कहे के अनुसार ही विश्वामित्र जी की उपेक्षा की । अपनी उपेक्षा के कारण विश्वामित्र जी अशांत हो गए । उन्होंने इस बात की शिकायत श्री रामचंद्र जी से की । शिकायत को सुनकर श्री रामचंद्र जी काशी नरेश से काफी नाराज हो गए । उन्होंने तीन वाण अलग से निकाल दिए और कहा कि इन्हीं बाणों से काशीराज को आज मार दिया जाएगा । यह बात जब काशी नरेश की जानकारी में आई तो काशी नरेश घबराकर नारद जी के पास पहुंचे । नारद जी ने अपना पल्ला झाड़ दिया और कहा कि तुम हनुमान जी की माता अंजना के समीप जाकर उनके चरण पकड़ लो । जब तक मां अंजना रक्षा का वचन न दें तब तक तुम छोड़ना नहीं । काशी नरेश ने ऐसा ही किया । अंजना एक सीधी-सादी जननी । उन्होंने प्राण रक्षा का वचन दे दिया । माता अंजना ने काशी नरेश के प्राण रक्षा का संकल्प श्री हनुमान जी से ले लिया । हनुमान जी के भोजन ग्रहण करने के बाद माता अंजना ने काशी नरेश से पूछा कि तुम्हें मारने की प्रतिज्ञा किसने की है । काशी नरेश ने बताया कि यह प्रतिज्ञा भगवान श्रीराम ने की है । श्री राम जी से लड़ने की बात हनुमान जी भी नहीं सोच सकते थे । उन्होंने काशी नरेश को सलाह दी कि तुम परम पावनी सरयू नदी में कमर तक जल में खड़े होकर अविराम राम नाम का जप करते रहो । अगर तुम जाप करते रहोगे तो तुम बच जाओगे । इसके बाद हनुमान जी प्रभु श्री राम के पास पहुंचे । दरबार में पहुंचने के उपरांत हनुमान जी ने श्री रामचंद्र जी के चरण पकड़ कर कहा कि उन्हें वरदान चाहिए । श्री राम ने कहा मांग लो । तुमने तो आज तक हमसे कुछ भी नहीं मांगा है । श्री हनुमान जी ने कहा कि प्रभु मैं चाहता हूं आपके नाम का जाप करने वाले कि सदा मैं रक्षा किया करूं । मेरी उपस्थिति में आपके नाम जापक पर कभी कहीं से कोई प्रहार न करें । अगर गलती से कोई प्रहार करे तो उसका प्रहार व्यर्थ हो जाए । श्री रामचंद्र जी ने यह वरदान महावीर हनुमान जी को दे दिया ।
श्री रामचंद्र जी ने दिन समाप्त होने के उपरांत काशी नरेश के ऊपर वाण छोड़ा । वाण अत्यंत तेजी के साथ काशी नरेश के पास पहुंचा । काशी नरेश उस समय रामनाम का जाप कर रहे थे । अतः वह उनके चुप होने की प्रतीक्षा करने लगा। राजा ने जब जाप बंद नहीं किया तो वाण वापस श्री रामचंद्र जी के पास आ गया । श्री रामचंद्र जी ने इसके बाद दूसरा और तीसरा बाण छोड़ा । परंतु वे वाण भी वापस आ गए । अब श्री रामचंद्र जी स्वयं सरयू नदी के तट पर काशी नरेश को दंड देने के लिए पहुंच गए । वशिष्ट जी ने देखा की इस प्रक्रिया में श्री रामचंद्र जी का कोई एक वचन झूठा जा सकता है । उन्होंने नरेश को सलाह दी कि तुम महर्षि विश्वामित्र के चरण पकड़ लो । वह सहज दयालु हैं । इसके उपरांत नरेश ने नाम जाप करते हुए महर्षि विश्वामित्र के पैर पकड़ लिए । महर्षि ने उन्हें क्षमा कर दिया । क्षमा करने के उपरांत महर्षि ने श्री राम को भी क्षमा करने हेतु कहा । क्योंकि महर्षि विश्वामित्र का क्रोध समाप्त हो गया था अतः श्री रामचंद्र जी भी शांत हो गए ।माता अंजना की प्रतिज्ञा पूर्ण हो गई । शरणागत की रक्षा का एक बहुत बड़ा उदाहरण है।
उपरोक्त से स्पष्ट है की श्री हनुमान जी की शरण में जो भी रहेगा उसको सभी तरह के सुख प्राप्त होंगे तथा उसको किसी भी तरह का डर व्याप्त नहीं रहेगा । वह हर तरह से सुरक्षित रहेगा ।
रामचंद्र जी ने भी हनुमान जी के कार्यों की प्रशंसा ने कहा है कि यह हनुमान जी आप जैसा उपकारी इस विश्व में और कोई नहीं है :-
सुनु कपि तोहि समान उपकारी।
नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी॥
प्रति उपकार करौं का तोरा।
सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥
(रामचरितमानस /सुंदरकांड/ दोहा क्रमांक 31 /चौपाई क्रमांक 5 ,6)
भावार्थ —रामचन्द्रजी ने कहा कि हे हनुमान! सुन, तेरे बराबर मेरा उपकार करनेवाला देवता, मनुष्य और मुनि कोई भी देहधारी नहीं है॥
हे हनुमान! मैं तेरा क्या प्रत्युपकार (बदले में उपकार) करूं; क्योंकि मेरा मन बदला देने के वास्ते सन्मुख ही (मेरा मन भी तेरे सामने) नहीं हो सकता।
अगली चौपाई है "आपन तेज सम्हारो आपै | तीनों लोक हाँक तें काँपै " ।
इस चौपाई में चार महत्वपूर्ण वाक्यांश है । पहला है आपन तेज अर्थात श्री हनुमान जी का तेज दूसरा है सम्हारो आपे अर्थात श्री हनुमान जी ही अपना तेज संभाल सकते हैं । तीसरा महत्वपूर्ण वाक्यांश तीनो लोक अर्थात स्वर्ग लोक ,भूलोक और पाताल लोक और चौथा वाक्यांश है हांकते कांपे अर्थात आपके हुंकार से पूरा ब्रह्मांड कांप जाता है या डर जाता है ।
अब हम पहले और दूसरे वाक्यांश की बात करते हैं ।
तेज का अर्थ होता है दीप्ति, कांति, चमक, दमक, आभा, ओज ,पराक्रम, , बल, शक्ति , वीर्य , गर्मी , नवनीत, मक्खन ,सोना, स्वर्ण घोड़ों आदि के चलने की तेजी या वेग ।
यहां पर तेज के कई अर्थ दिए गए हैं। इनमें से कई का अर्थ एक जैसा है जैसे दीप्ति, कांति, चमक, दमक,और आभा । यहां पर तेज का अर्थ चेहरे की चमक दमक से है । दूसरा है ओज पराक्रम बल शक्ति इनका आशय शारीरिक बल से है । तेज का तात्पर्य वीर्य गर्मी नवनीत मक्खन भी होता है । सोने की तेज को अलग से माना जाता है। तेज का अर्थ वेग भी होता है । वैसे अगर हम कहें कि कि यह अश्व अत्यंत तेज है तो इसका अर्थ होगा अश्व का वेग अत्यधिक है । हनुमान जी के अगर हम बात करें तो उनका मुख्य मंडल अत्यंत दीप्तिमान चमक दमक वाला है बल और शक्ति के वे अपरममित भंडार हैं। उनके वीर्य में इतना तेज है उनके शरीर की गंध से ही मकरध्वज पैदा हुए और उनका आभामंडल सोने का है । महावीर हनुमान जी का वेग किसी स्थान पर अतिशीघ्र पहुंचने की शक्ति अकल्पनीय है ।
हनुमान जी के तेज का बहुत अच्छा वर्णन वाल्मीकि रामायण के सुंदरकांड के 46वें सर्ग के श्लोक क्रमांक 18 और 19 में किया गया है:-
रश्मिमन्तमिवोद्यन्तं स्वतेजोरश्मिमालिनम्।
तोरणस्थं महोत्साहं महासत्त्वं महाबलम्।।(18)
महामतिं महावेगं महाकायं महाबलम्।
तं समीक्ष्यैव ते सर्वे दिक्षु सर्वास्ववस्थिताः।। (19)
इन दोनों श्लोंकों में कहा गया है महावीर हनुमान जी अशोक वाटिका के फाटक के ऊपर बैठे हुए हैं।उस समय उदित सूर्य की तरह दीप्तिमान महा बलवान महाविद्वान महावेगवान , महाविक्रमवान, महाबुद्धिमान , महा उत्साही महाकपि और महाभुज हनुमान जी को देखकर और उनसे डर सब राक्षस दूर-दूर ही खड़े हुए।
हनुमान जी के चेहरे के तेज का वर्णन वाल्मीकि रामायण में कई स्थानों पर मिलता है । सुंदरकांड के प्रथम सर्ग के श्लोक क्रमांक 60, 61 और 62 में इसका बहुत सुंदर वर्णन किया गया है :-
नयने विप्रकाशेते पर्वतस्थाविवानलौ।
पिङ्गे पिङ्गाक्षमुख्यस्य बृहती परिमण्डले।।5.1.59।।
चक्षुषी सम्प्राकाशेते चन्द्रसूर्याविवोदितौ।
मुखं नासिकया तस्य ताम्रया ताम्रमाबभौ।5.1.60।।
सन्ध्यया समभिस्पृष्टं यथा तत्सूर्यमण्डलम्
लाङ्गूलं च समाविद्धं प्लवमानस्य शोभते।।5.1.61।।
अम्बरे वायुपुत्रस्य शक्रध्वज इवोच्छ्रितम्।
लाङ्गूलचक्रेण महान् शुक्लदंष्ट्रोऽनिलात्मजः।।
5.1.62।।
महावीर हनुमान जी के दोनों नेत्र तो ऐसे दिख पड़ते हैं जैसे पर्वत पर दो ओर से दो दावानल लगा हो । उनकी बड़ी-बड़ी रोशनी वाली आंखें चंद्रमा और सूर्य की तरह चमक रही थी । लाल नाक और हनुमान जी का लाल-लाल मुख मंडल संध्याकालीन सूर्य की तरह शोभायमान हो रहा था । आकाश मार्ग से जाते समय हनुमान जी की हिलती हुई पूछ ऐसे शोभायमान हो रही थी जैसे आकाश में इंद्र ध्वज ।
महावीर हनुमान जी के आवाज को सुनकर ही बहुत सारे राक्षसों की मृत्यु हो जाती थी । यह वाल्मीकि रामायण के सुंदरकांड के 45 वें सर्ग के श्लोक क्रमांक 13 में लिखा है :-
प्रममाथोरसा कांश्चिदूरुभ्यामपरान्कपिः।
केचित्तस्य निनादेन तत्रैव पतिता भुवि।।5.45.13।।
इस श्लोक के अनुसार हनुमान जी ने किसी को छाती की ढेर से और किसी को जन्घों के बीच रगड़ के मार डाला । कितने ही राक्षस तो हनुमान जी के सिंहनाद को सुनकर ही पृथ्वी पर गिर कर मर गए।
हनुमान जी की शक्ति और वेग का एक अच्छा उदाहरण रामचरितमानस में भी दिया हुआ है । हनुमान जी जब लंका जाने के लिए पहाड़ पर चढ़ते हैं तो उनके पैर रखते ही पहाड़ जमीन के अंदर पाताल पहुंच जाता है और उनके उड़ने की गति श्री रामचंद्र जी के वाण के समान है। :-
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता।
चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।
एही भाँति चलेउ हनुमाना॥
भावार्थ — कहते हैं जिस पहाड़ पर हनुमानजी ने पाँव रखकर ऊपर छलांग लगाई थी, वह पहाड़ तुरंत पाताल के अन्दर चला गया जैसे श्रीरामचंद्रजी का अमोघ बाण जाता है, इस प्रकार हनुमानजी वहां से चले दिये ।
हनुमान जी के चेहरे का ओज , उनकी तीव्रतम वेग , उनका अतुलित शक्ति उनकी अपनी है । यह सब उनको रुद्रावतार होने से पवन पुत्र होने के कारण तथा सूर्य देव को आजाद करते समय देवताओं द्वारा दिए गए आशीर्वाद के कारण है । परंतु वे किसी भी कार्य का श्रेय नहीं लेते हैं । हर बात का श्रेय भगवान श्रीराम को देते हैं। जो लोग छोटी-छोटी बातों पर घमंड से भर जाते हैं उनको हनुमान जी का ध्यान करना चाहिए। एक पौराणिक कहानी है :-
एक बार भगवान विष्णु शिवजी को मिलने गये। विष्णु का वाहन गरूड है। विष्णु भगवान को मिलने के लिए शिवजी बाहर आये। शिवजी के गले में नाग बैठा था । वह गरूड को ललकारने लगा, । यह देखकर गरूड ने उससे कहा:
स्थानं प्रधानं खलु योग्यताया:, स्थाने स्थित: कापुरूषोपिशुर:।
जनामि नागेन्द्र तव प्रभावं कण्ठे स्थितो गर्जसि शंकरस्य ।।
‘तेरा प्रभाव कितना है मैं जानता हँ । तू शिवजी के गले में बैठा है इसीलिए गर्जना कर रहा है। स्थान पाने पर कायर पुरूष भी शूर बन जाता है। ’ सुभाषितकार कहते हैं:
स्थानभ्रष्टा न शोभन्ते दन्ता: केशा नखा: नरा: ।
इति विज्ञाय मतिमान्स्वस्थानं न परित्यजेत् ।।
( दान्त, बाल, नख और मनुष्य स्थानभ्रष्ट हाने के बाद शोभा नहीं देते। ऐसा समझकर समझदार व्यक्ति को स्थान नहीं छोडना चाहिए। )
स्थानभ्रष्ट की शोभा नष्ट हो जाती है। दांत स्थानपर हों तो वे शोभा देते हैं। बाल सिरपर हों तब तक शोभा देते हैं। रोज बाल हम कंघी से संवारते हैं। मगर हजामत करने के बाद हम काटे हुए बालों को छूते भी नहीं । इसका कारण बाल स्थानभ्रष्ट हुए। महावीर हनुमान जी के अंदर नाम मात्र का भी घमंड नहीं है। जबकि तीनों लोकों में उनके बराबर ओजवान , तेजवान , वीर्यवान , शक्तिवान , वेगवान कोई दूसरा नहीं है । हनुमान जी जैसा दूसरा कोई और नहीं है जिसने एक छलांग में समुद्र को पार किया हो और एक छलांग में ही सूर्यलोक जा पहुंचा हो।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भगवान महावीर हनुमान के प्रसन्न होने से आपको सभी कुछ मिल जाता है और अगर वे आपके रक्षक हैं कोई आपका भक्षक नहीं हो सकता है।
जय हनुमान।
भूत पिसाच निकट नहिं आवै |
महाबीर जब नाम सुनावै ||
नासै रोग हरे सब पीरा |
जपत निरन्तर हनुमत बीरा ||
अर्थ – आपका नाम मात्र लेने से भूत पिशाच भाग जाते हैं और नजदीक नहीं आते।
हनुमान जी के नाम का निरंतर जप करने से सभी प्रकार के रोग और पीड़ा नष्ट हो जाते हैं।
भावार्थ:--
महावीर हनुमान जी का नाम लेने से ही बुरी शक्तियां भाग जाती है क्योंकि हनुमान जी अच्छी शक्तियों के स्वामी हैं । अगर हम आधुनिक भाषा में बात करें तो नेगेटिव एनर्जी वाले भूत पिचास हनुमान जी के नाम के पॉजिटिव एनर्जी के कारण समाप्त हो जाते हैं ।
हनुमान जी के नाम का एकाग्र होकर पाठ करने से समस्त प्रकार की पीड़ाएं समाप्त हो जाती हैं । समस्त प्रकार की पीड़ा से यहां पर तात्पर्य दैहिक दैविक और भौतिक समस्त प्रकार की तकलीफ एवं दुख से है ।
संदेश- श्री हनुमान जी का नाम जपने से आप भय मुक्त बनते हैं। आपको डर नहीं लगता है और विरोधियों का नाश होता है।
इन चौपाइयों का बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ :-
1-भूत पिसाच निकट नहिं आवै | महाबीर जब नाम सुनावै ||
लाभ:-
इस चौपाई के बार बार पाठ करने से बुरी आत्मा, भूतप्रेत आदि अगर आपके पास आ गए हैं तो दूर भाग जाएंगे अन्यथा आपके पास नहीं आएंगे ।
2-नासै रोग हरे सब पीरा | जपत निरन्तर हनुमत बीरा ||
लाभ:-
इस चौपाई के बार बार पाठ करने से समस्त प्रकार के रोग और पीड़ाओं का अंत हो जाएगा ।
विवेचना:-
इन पंक्तियों की विवेचना करने से पहले यह जानना पड़ेगा कि भूत और पिशाच आदि क्या है ।यह होता हैं या नहीं होता है ।
सनातन हिंदू धर्म ग्रंथ गरुड़ पुराण के अनुसार आत्मा पृथ्वी पर हमारे भौतिक शरीर में निवास करती है तब वह जीव या जीवात्मा कहलाती है । मृत्यु के उपरांत आत्मा सूक्ष्मतम शरीर में प्रवेश कर जाती है और इस सूक्ष्मात्मा कहते हैं । अगर व्यक्ति की कामनाएं मृत्यु के बाद भी जिंदा रहती हैं और तो वह कामनामय सूक्ष्म शरीर में निवास करती है । इस आत्मा को भूत प्रेत पिशाच शाकिनी डाकिनी आदि कहा जाता है । धर्म शास्त्रों में 84 लाख योनियों का जिक्र है । वर्तमान विज्ञान के अनुसार हमारे पास अब तक करीब 30 लाख प्रकार के जीव जंतु और पेड़ पौधों के बारे में जानकारी है ।
गरुड़ पुराण के अनुसार जीव एक निश्चित अवधि तक भूत योनि में रहता है । जिन लोगों के मृत्यु के उपरांत नियमानुसार कर्मकांड नहीं होते हैं वे प्रेत योनि में चले जाते हैं अन्यथा 13 दिनों के उपरांत वे आत्माएं फिर से जन्म लेती हैं।
विभिन्न धर्मों में अलग अलग नाम से इनको पुकारा जाता है जैसे हिंदू धर्म में प्रेत पिशाच ब्रह्मराक्षस और चुड़ैल । ईसाई धर्म में मूल रूप से पिशाच चुड़ैल होते हैं । मुस्लिम धर्म में जिंन्न कहे जाते हैं।
हिंदू धर्म में प्रेत और इसी तरह की अन्य आत्माएं क्यों होती हैं उसके बारे में हम ऊपर बता चुके हैं बाकी धर्मों के मान्यता के बारे में अब हम बता रहे हैं।
परंतु इस बात को वर्तमान विज्ञान एवं वामपंथी विद्वान नहीं मानते हैं । एक बार की बात है मैं एक वीडियो कॉन्फ्रेंस में बैठा हुआ था । उस वीडियो कॉन्फ्रेंस को वरिष्ठ पत्रकार श्री एन के सिंह संबोधित कर रहे थे । संबोधन के दौरान उन्होंने एक आईआईटी के वाइस चांसलर की खिल्ली भी उड़ाई । उनका कहना था कि आईआईटी के वाइस चांसलर भूत प्रेत को मानते हैं और उनको भगाने का दावा भी करते हैं । भूत प्रेत को मानने वाले बहुत सारी बातें बताते हैं परंतु वह भूत और प्रेत को सामने लाकर दिखा नहीं पाते हैं । महाराष्ट्र में तो भूत प्रेत के प्रचार पर कानूनी बंदिश है और जादू टोना भूत प्रेत का प्रचार करने वाले पर ₹ 5 हजार से 50 हजार का जुर्माना और 7 साल तक की कैद हो सकती है। बागेश्वर धाम छतरपुर के महंत श्री धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री पर FIR करने के लिए श्री श्याम मानव नागपुर के प्रशासन पर दबाव डाल रहे हैं । श्याम मानव का इंटरव्यू लल्लनटॉप के साथ-साथ कुछ न्यूज़ चैनल पर भी दिनांक 17 जनवरी 2023 को आया है । श्री श्याम मानव का कहना है कि भूत और प्रेत नहीं होते हैं और इसका प्रचार करना महाराष्ट्र में कानूनन जुर्म है । अतः इसका दंड श्री धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री को दिया जाए । उनका यह भी कहना है की अंतिम 2 दिन में आदरणीय शास्त्री जी द्वारा भूत प्रेत भगाने का जो कार्यक्रम किया जाना था वह श्री मानव के चैलेंज करने के कारण नहीं किया गया । श्री मानव ने यह भी कहना है कि श्री शास्त्री डर के मारे भाग गए ।
श्रीमानव ने शास्त्री जी का कोई प्रतियोगिता नहीं की वरन केवल कानून का सहारा लेकर एक सिद्ध पुरुष को बदनाम करने का प्रयास कर रहे हैं। महाराष्ट्र के जादू टोना और अंधविश्वास कानून में ₹50 हजार तक का जुर्माना और साथ में 7 साल तक के जेल का प्रावधान है । अतः महाराष्ट्र में भूत प्रेत होते हैं कहना काफी बड़ा अपराध है ।
छोटे बच्चे जब बीमार पड़ जाते हैं और दवा से ठीक नहीं होते हैं तो हमारी माता बहने कहती हैं इस को नजर लग गई है । मिर्ची घुमाकर या अन्य तरह से नजर उतारी जाती है और बच्चा ठीक हो जाता है । मैं इन बुद्धिमान लोगों से यह पूछना चाहूंगा क्या ये इसका कोई कारण बता सकते हैं ।
हम जिस चीज को नहीं जानते हैं उसको पता करना विज्ञान है परंतु हम जिस को नहीं जानते हैं उसको साफ साफ झूठा कह देना विज्ञान का अजीर्ण है ।
अगर हम भूत और पिशाच को केवल डर मान ले तो यह सत्य है कि इस प्रकार के डर हनुमान जी का नाम लेने भर से नष्ट हो जाते हैं । बचपन में या आज भी अगर हमें कहीं डर सताता है तो हम हनुमान जी का नाम लेते हैं । डर दूर भाग जाता है ।
ईशान महेश जी जो कि एक उपन्यासकार और धार्मिक पुस्तकों के भी लेखक हैं उन्होंने एक कहानी बताई है। उनका कहना है एक बार वे गोमुख यात्रा पर गए थे । इनके कैंप में दो लोगों में बहस हो गई । एक कह रहा था कि भूत प्रेत होते हैं दूसरा कह रहा था कि भूत प्रेत नहीं होते हैं । दूसरे ने ईशान जी से कहा कि आप इनको समझाओ कि भूत प्रेत नहीं होते हैं । ईशान जी ने कहा कि मैं उनको और आपको दोनों को समझाने का प्रयास करूंगा । दूसरे व्यक्ति ने कहा कि अभी समझाइए उन्होंने कहा नहीं रात में जब घूमने चलेंगे तब बात करेंगे । रात में वे उस व्यक्ति को लेकर बाहर चल दिए । थोड़ी ही देर में उस व्यक्ति ने कहा कि अब हम वापस लौटें ,डर लग रहा है । ईशान जी ने कहा कि हनुमान जी हनुमान जी कहो । देखो डर जाता है या नहीं । दूसरा व्यक्ति हनुमान जी हनुमान जी कहने लगा । 2 मिनट बाद ईशान जी ने पूछा कि अभी तुम्हें डर लग रहा है या नहीं । उसने कहा नहीं । अब डर नहीं लग रहा है । ईशान जी ने कहा अब वापस चलते हैं तुम्हारा डर ही भूत है ,प्रेत है ।हनुमान जी का नाम का जाप करने से तुम्हारा डर भाग गया।
आज आदमी भय से डरपोक बना है । हमारा सारा जीवन भय से भरा हुआ है । हम जीवन में सीधे रास्ते से चल रहे हैं इसका कारण डर है । संस्कृत का श्लोक है:-
भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयवित्ते नृपालाद्भयं
माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रुपे जराया: भयम्।
शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयम्
सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां विष्णों: पदं निर्भयम् ।।
जो निर्भय हैं उनके पास भगवान का गुण है । जो भयभीत हैं वे मानव हैं। विपुल मात्रा में भोग की सामग्री होते हुए भी व्यक्ति को रोग का भय रहता है । जिस व्यापारी के पास में शक्कर के बोरे होते हैं वह डायबिटीज का मरीज होता है । वह शक्कर नहीं खा सकता है । अगर आप का जन्म ऊंचे खानदान में हुआ है तो उसे अपने कुल की इज्जत के जाने का डर रहता है । जिसके पास विपुल मात्रा में धन होता है उसे धन के जाने का डर बना रहता है । उसको रात में नींद नहीं आती है । अगर समाज में आपकी बहुत इज्जत है तो आपको हमेशा मानहानि का डर बना रहेगा । सत्ताधीशों को तो हमेशा अपनी कुर्सी जाने का डर रहता है। इनको अपने मित्रों और शत्रु दोनों से डर लगता है ।
देवताओं में सबसे ज्यादा डरपोक सत्ताधारी इंद्रदेव हैं । जब भी कोई मुनि ज्यादा बड़ा तप करने लगता है इंद्रदेव का राज सिंहासन डोलने लगता है । बलवान को अपने शत्रुओं से डर लगता है । बलवान व्यक्ति के शत्रुओं की संख्या बहुत अधिक होती है । कौन शत्रु कब आघात कर देगा इसका भय बलवान के पास हमेशा रहता है। रूपवान को कुरूप होने का भय रहता है । समय के साथ साथ रूप क्षीण होता जाता है । युवक के पास वृद्ध होने का भय रहता है। शास्त्रों के जानकार के पास वाद विवाद का डर होता है । उनको इस बात का हमेशा डर रहता है कि वाद-विवाद में उनको कोई हरा न दे । अच्छे लोगों को बुरे मनुष्यों का डर रहता है । पुण्यात्मा को परलोक का डर होता है ।
अर्थात जिसके पास कुछ है उसके पास डर निश्चित रूप से रहता है । अगर आपको इस डर को भगाना है तो आप शिव के अवतार और पवन तनय की पूजा करें । ऐसे में उनका सुमिरन करने से नकारात्मक शक्तियों का नाश होता है।
दुनिया में मशहूर भूत भागने का मंदिर जिसे हमें मेंहदीपुर बालाजी के नाम से जानते हैं वह हनुमान जी के बालाजी अवतार का हैं। ऐसा कहा जाता है कि हनुमान जी रक्षक की तरह आज भी मौजूद हैं। जब भी कोई व्यक्ति प्रेत बाधा में हो, हनुमान जी की पूजा करने के वह दूर हो जाती है।
आगे लिखा है "महावीर जब नाम सुनावे।" हनुमान चालीसा का प्रारंभ जय हनुमान ज्ञान गुण सागर से किया गया है । हनुमान चालीसा में हनुमान शब्द 6 बार आया है परंतु जब मारपीट की नौबत आई तब नाम लिया गया महावीर का । इसका क्या कारण है । आराम से कहा जा सकता था हनुमान जब नाम सुनावे । तुलसीदास जी को यहां महावीर कहना उचित लगा ।
हम सभी जानते हैं कि हनुमान जी ने बचपन में भगवान सूर्य को अपने मुख में दबा लिया था । इसके का उनका मुंह अभी भी फूला हुआ है । इंद्रदेव ने देखा कि यह बालक मेरे सत्ता को चैलेंज दे रहा है । उन्होंने हनुमान जी पर वज्र का प्रहार किया और उनकी हनु टूट गई । इसलिए हनुमान जी का नाम हनुमान पड़ा । इंद्रदेव की वज्र से हनुमान जी के मूर्छित होने के कारण यह उनकी कमजोरी का लक्षण है। भूत को भगाने के लिए अत्यंत वीर व्यक्ति चाहिए । हम सभी जानते हैं कि हनुमान जी का दूसरा नाम महावीर भी है । महावीर शब्द से हनुमान जी के बल और पोरूष का आभास होता है । भूत और प्रेत को भगाने के लिए या आपके डर को भगाने के लिए आपको एक सशक्त सहायता चाहिए । सशक्त सहायता महावीर नाम ही दे सकता है । महावीर का नाम लेने से ही आपके अंदर अलग से एक ताकत आ जाएगी । इसीलिए यहां पर तुलसीदास जी ने हनुमान शब्द के स्थान पर महावीर शब्द का प्रयोग किया है।
रामचरितमानस के उत्तरकांड में दो चौपाइयां हैं जो राम राज्य के बारे में बताती हैं।
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥(रामचरितमानस /उत्तरकांड)
भावार्थ :-'रामराज्य' में दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते। सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बताई हुई नीति (मर्यादा) में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं॥
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज सरीरा॥
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना॥(रामचरितमानस /उत्तरकांड)
भावार्थ:-छोटी अवस्था में मृत्यु नहीं होती, न किसी को कोई पीड़ा होती है। सभी के शरीर सुंदर और निरोग हैं। न कोई दरिद्र है, न दुःखी है और न दीन ही है। न कोई मूर्ख है और न शुभ लक्षणों से हीन ही है॥
राम राज्य में यह स्थिति महाराजाधिराज श्री रामचंद्र जी के प्रताप के कारण थी । अगर हमारे यहां या हमें किसी तरह का रोग हो जाए कोई पीड़ा हो जाए तो हमको क्या करना चाहिए । इस संबंध में हनुमान चालीसा कि हनुमान चालीसा की अगली चौपाई में बताया गया है कि:-
"नासे रोग हरे सब पीरा जपत निरंतर हनुमत बीरा " ।।
अर्थात आपको या साधारण जनमानस को हनुमान जी का नाम का जाप करना चाहिए।
नासे शब्द का एक ही अर्थ होता है समाप्त करना । इस चौपाई में तुलसीदास जी कहना चाहते हैं कि अगर हम निरंतर हनुमान जी का नाम लेते रहें तो हमारे सभी रोग और सभी पीड़ायें समाप्त हो जाएंगी । जैसे पहले की चौपाई में था । भूत को भगाने के लिए महावीर का नाम लीजिए ,उसी प्रकार इस चौपाई में है कि दुख दर्द को मिटाने के लिए हनुमान जी का नाम लीजिए । क्योंकि हनुमानजी और महावीर जी एक ही हैं अतः हम कह सकते हैं कि इन सभी कार्यों के लिए हनुमान जी का नाम लेना है ।
आइए अब रोग शब्द पर चर्चा करते हैं ।
आधुनिक विज्ञान के अनुसार रोग अर्थात अस्वस्थ होना का क्या अर्थ है । यह चिकित्साविज्ञान की मूलभूत संकल्पना है। प्रायः शरीर के पूर्णरूपेण कार्य करने में किसी प्रकार की कमी होना 'रोग' कहलाता है। जिस व्यक्ति को रोग होता है उसे 'रोगी' कहते हैं।
आधुनिक विज्ञान के अनुसार केवल दो प्रकार के कारणों से रोग हो सकता है ।
1- जैविक (biotic / जीवाणुओं से होने वाले रोग)
2- अजैविक (abiotic / निर्जीव वस्तुओं से होने वाले रोग)
रोग की और भी परिभाषाएं हैं जिन में कुछ को नीचे दिया जा रहा है :-
रोग वह अवस्था है जिसमें शरीर का स्वास्थ्य बिगड़ जाय और जिसके बढ़ने पर शरीर के समाप्त हो जाने की आशंका हो। इसे बीमारी, मर्ज, व्याधि, भी कहते हैं
रोग की दूसरी परिभाषा के अनुसार रोग शरीर में उत्पन्न होनेवाला कोई ऐसा घातक या नाशक विकार है जो कुछ विशिष्ट कारणों से उत्पन्न होता है, और जिसके कुछ विशिष्ट लक्षण होते हैं।
शरीर में उत्पन्न घातक विकार जैसे कष्टकारक आदत या लत, उदाहरण के रूप में- तंबाकू पीने का रोग।
सभी धर्मों में रोगों के बारे में कुछ न कुछ कहा गया है । पहले हम सनातन धर्म के अलावा बाकी धर्मों में रोग के संबंध में कही गई बातों की चर्चा करेंगे।
यहूदी और इस्लामी कानून अस्वस्थ लोगों को व्रत करवाते हैं। उदाहरण के लिए, योम किप्पुर पर या रमजान के दौरान उपवास रखना । (और इसमें भाग लेने की वजह से) यह कभी कभी जीवन के लिए खतरनाक हो सकता है।
यीशु के न्युटैस्टमैंट में इसे रोगमुक्त होकर चमत्कार करने के रूप में वर्णित किया गया है।
बीमारी उन चार दृश्यों में से एक था, जिसे गौतम बुद्ध द्वारा सामना किए गए चार दृष्टियों से संदर्भित किया जाता है।
कोरियाई शमानिज़्म में "आत्मीय रोग" शामिल है।
पारंपरिक चिकित्सा सामूहिक रूप से बीमारी और चोट के इलाज़, प्रसव प्रक्रिया में सहायता और स्वस्थता का अनुरक्षण करने की परम्परागत क्रियाविधि है। यह "वैज्ञानिक चिकित्सा" से अलग भिन्न ज्ञान है ।
सामान्य और बीमारी के बीच की सीमा व्यक्तिपरक हो सकती है। उदाहरण के लिए, कुछ धर्मों में, समलैंगिकता को एक बीमारी माना जाता है।
आयुर्वेद के ग्रन्थ तीन शारीरिक दोषों (त्रिदोष = वात, पित्त, कफ) के असंतुलन को रोग का कारण मानते हैं और समदोष की स्थिति को आरोग्य।
रामचरितमानस में 3 तरह के रोग बताए गए हैं। दैहिक दैविक भौतिक । रामराज्य की प्रशंसा में तुलसीदास जी की चौपाई लिखी है उसमें उन्होंने लिखा है :-
"दैहिक दैविक भौतिक तापा।
राम राज नहिं काहुहि ब्यापा"॥
(रामचरितमानस /उत्तरकांड)
इस शरीर को स्वतः अपने ही कारणों से जो कष्ट होता है उसे दैहिक ताप कहा जाता है। इसमें व्यक्ति या व्यक्ति की आत्मा को अविद्या, राग, द्वेष, मू्र्खता, बीमारी आदि से मन और शरीर को कष्ट होता है।
कुछ ऐसे कष्ट भी होते हैं जिन पर मानव का नियंत्रण नहीं होता है अतः उनको दैविक ताप कहा जाता है । जैसे अत्यधिक गर्मी, सूखा, भूकम्प, अतिवृष्टि आदि अनेक कारणों से होने वाले कष्ट को इस श्रेणी में रखा जाता है।
तीसरे प्रकार का कष्ट इस जगत के बाह्य कारणों से होता है । इस प्रकार के कष्ट को भौतिक ताप कहा जाता है। शत्रु आदि स्वयं से परे वस्तुओं या जीवों के कारण ऐसा कष्ट उपस्थित होता है।
पीरा या पीड़ा शब्द का अर्थ है शारीरिक या मानसिक कष्ट; वेदना; व्यथा; दर्द । अर्थात रोग के कारण से जो आप वेदना या कष्ट या दर्द महसूस करते हैं उसको पीड़ा कहते हैं । अर्थात जीवन रूपी वृक्ष के मूल में रोग है और पीड़ा उस वृक्ष का फल है। अगर हम किसी प्रकार से रोग को समाप्त कर दें तो पीड़ा अपने आप समाप्त हो जाएगी। हम सभी जानते हैं कि बुखार की वजह से हमारे शरीर का तापमान बढ़ जाता है और हमारे शरीर में दर्द भी होता है । अगर यह बुखार अर्थात रोग समाप्त हो जाए तो शरीर का तापमान सामान्य हो जाएगा और शरीर का दर्द स्वयमेव समाप्त हो जाएगा। इस प्रकार हम को रोग को समाप्त करना है पीड़ा अपने आप समाप्त हो जाएगी ।
अगर तुलसीदास जी अगर केवल दैहिक रोग विशेषकर मानसिक रोग की बात कर रहे होते तो हम कह सकते थे हनुमान जी का नाम लेने से यह रोग समाप्त हो जाएगा। जैसे कि जब छोटे बच्चों को नजर लग जाती है तो हमारे घर की माता बहने उनका नजर उतारतीं हैं । नजर लगने की स्थिति में कई बार आधुनिक चिकित्सा पद्धति काम नहीं कर पाती है । नजर लगी है या नहीं लगी है इसको देखने की पद्धति का विश्लेषण भी आधुनिक विज्ञान नहीं कर पाता है ।
यहां पर हम सभी तरह के रोग के समाप्त करने की बात कर रहे हैं । तो क्या हनुमान जी चिकित्सक हैं ,जो दवा देंगे और समस्त रोग समाप्त हो जाएंगे । रोग समाप्त करने का काम चिकित्सक का है ।चिकित्सक दवा देता है इससे रोग समाप्त होता है । देवताओं के यहां भी धनवंतरी जी है । अतः हम इस भ्रम को नहीं चलाएंगे कि अगर आप बीमार पड़े हैं तो केवल हनुमान जी का नाम ले और आप ठीक हो जाएंगे ।
हनुमानजी का जप करने से मानसिक आरोग्य तथा शारीरिक आरोग्य प्राप्त होता है । तुलसीदास का आग्रह जप करने के लिए है वह केवल शारीरिक रोग दूर करने के लिए नहीं साथ ही साथ मानसिक विकारों को दूर करने के लिए भी है । मनुष्य के अन्त:करण में भगवत्प्रेम बढना चाहिए । जब भगवत प्रेम बढ़ेगा तो आपकी मानसिक स्थिति मजबूत होगी । मानसिक स्थिति मजबूत होने के कारण आपकी इच्छा शक्ति भी मजबूत हो जाएगी । जब आपके अंदर आपकी इच्छा शक्ति मजबूत होगी तो आप मानसिक रोगों से पूर्णतया मुक्त हो जाएंगे और शारीरिक रोगों से भी मुक्त होने की तरफ चल देंगे ।
हनुमान जी भी आपकी परीक्षा लेते हैं । तभी वह मानते हैं कि आपने उनका नाम जप किया है । हम ऐसी परीक्षाओं में साधारणतया असफल रहते हैं । जैसे कि एक व्यक्ति ने बारह महिने ठण्डे पानी से नहाने का नियम किया । एक वर्ष के बाद उससे पूछा, तुमने उस नियम का पालन किया? उसने कहा हाँ! परन्तु जाडे के दो महिने छोडकर । अब आप बताइए उसको कितने प्रतिशत अंक मिलना चाहिए । मेरे विचार से 0% अंक उसको मिलना चाहिए । क्योंकि परीक्षा के दिन तो जाड़े के दिन ही थे । बाकी दिन तो हर कोई ठंडे पानी से ही नहता है । जाड़े में वह ठंडे पानी से नहीं नहाया ।अतः वह परीक्षा में पूरी तरह से फेल हो गया और उसको 0% अंक मिले । विपत्ति मे ही परीक्षा होती है । अत: प्रतिकूल परिस्थिति मे ही मानसिक आरोग्य संभालना है । प्रतिकूल परिस्थिति में खडा रहने के लिए मन को शक्तिशाली बनाने के लिए , आपकी इच्छा शक्ति का निरोगी होना आवश्यक है । प्रतिकूल परिस्थिति तो आयेगी ही, परन्तु 'बाहर' के प्रवाह से मेरा ‘स्व’ मलिन नहीं बनेगा’ ऐसा ‘स्व‘ का प्रवाह होना चाहिए ।
हमारे समाज में धन का अत्यधिक महत्व है अगर आप निर्धन है तो आपकी मित्रों की संख्या अत्यंत कम हो जाएगी। विद्वान कहते है-----
विरला जानन्ति गुणान् विरला: कुर्वन्ति निर्धने स्नेहम् ।
विरला: परकार्यता: परदु:खेनापि दु:खिता विरला: ।।
दूसरे के गुणों को जाननेवाले विरले हैं । निर्धनपर प्रेम विरले ही करते हैं, दूसरे के दु:ख में दु:खी होनेवाले विरले ही होते हैं ।
परंतु अगर आप धनी है तो क्या आप के हजारों मित्र हो जाएंगे - नहीं होंगे । ये मित्र केवल अपने स्वार्थ के लिए आपके साथ रहेंगे । जैसे ही उनको लगेगा उनका स्वार्थ अब नहीं बन रहा है वे आपका साथ छोड़ देंगे।
मेरा क्या है ? यह दूसरा प्रश्न है । इस जगत मे मेरे साथ क्या जानेवाला है ? मेरा बंगला बहुत सुन्दर है, परन्तु क्या उसे मै अपने साथ ले जा सकूंगा? मेरा बैंक बैलन्स बहुत बडा है, परन्तु मुझे उसे यहीं छोडकर जाना पडेगा। फिर मेरे साथ क्या आयेगा? वेदान्त समझाता है -----
धनानि भूमौ पशवच गोष्ठे, भार्या गृहद्वारि जन: स्मशाने ।
देहचितायांं परलोक मार्गे कर्मानुगो गच्छति जीव एक: ।।
धन भूमि में, पशु गोष्ठ में, पत्नी घर के दरवाजे तक, सगे सम्बन्धी शमशान तक साथ जाते है । देह को चिता पर रखने के बाद साथ कौन जाता है? कर्मानुगो गच्छति जीव एक ! अर्थात केवल आपका कर्म आपके साथ जाता है । अतः आपको सदैव अच्छे कर्म करना चाहिए । जिससे विश्व का , आपके राष्ट्र का , आपके समाज का , आपके धर्म का और आपके आसपास के लोगों का कल्याण हो।
अब हम बताते हैं नाम जप का क्या महत्व है । नांव मे बैठकर, पैर गीले हुए बिना, नदी को पार किया जा सकता है वैसे ही नाम-जप से बिना तकलीफ के भवसागर पार कर सकते हैं ।
सोच समझकर नाम-जप करना चाहिए । लोग पूछते है, ‘नाम लेने मे क्या है? नाम में शक्ति है । ‘इमली’ कहने पर मुँहमें पानी भर आता है । शब्द में शक्ति है, परन्तु उसके लिए शब्द का अर्थ मालूम होना चाहिए । आपको श्रीराम इस जगत में क्यों लाए ? क्या मालूम है ? बहुत सारे लोगों को तो यह भी नहीं मालूम होगा कि श्रीराम कौन थे । लोगों को ऐसा लगता है कि, इसकी अपेक्षा हम घर में बैठकर हुक्का पीते हुए राम नाम का जप करेंगे तो हमें इच्छित फल मिल जायेगा। मनुष्य को नाम-जप समझकर करना चाहिए।
जप का इतना महत्व क्यों है? जप से विकार कम कर सकते हैं । मानव देह में ‘जीव’ और ‘शिव’ दोनों है । उनके बीच विकार का पर्दा है । यह विकार का पर्दा हटाना चाहिए । विषय विकारों को किस प्रकार हटायेंगे? विकारों को हटाने के लिए जप का उपयोग करना चाहिए । उसके स्थान पर आज विकार बढाने के लिए जप का उपयोग किया जाता है । विकार बढाने के लिए नही, अपितु विकार कम करने के लिए जप करना चाहिए।
आप अपने शरीर के विकारों को हनुमान जी का नाम लेकर दिल से नाम लेकर पूरी तन्मयता और एकाग्रता से नाम लेकर अपने शरीर से हटा सकतें है ।शर्त एक ही है की एकाग्रता भंग नहीं होनी चाहिए।
जय श्री राम
जय हनुमान
संकट तें हनुमान छुड़ावै |
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै ||
सब पर राम तपस्वी राजा |
तिन के काज सकल तुम साजा ||
अर्थ – जो भी मन क्रम और वचन से हनुमान जी का ध्यान करता है वो संकटों से बच जाता है।
जो राम स्वयं भगवान हैं उनके भी समस्त कार्यों का संपादन आपके ही द्वारा किया गया।
भावार्थ:-श्री हनुमान जी से संकट के समय में मदद लेने के लिए आवश्यक है कि आपका मन निर्मल हो । आप जो मन में सोचते हों , वही वाणी से बोलते हैं और वही कर्म करते हैं तब आप निश्चल कहे जाओगे और संकट के समय हनुमान जी आपकी मदद करेंगे ।
श्री रामचंद्र वन में हैं परंतु अयोध्या के राजा भी हैं । वन के सभी लोग उनको राजा ही मानते हैं इसलिए वे तपस्वी राजा हैं । वे एक ऐसे राजा है जो सभी के ऊपर हैं । तपस्वी राजा के समस्त कार्य जैसे सीता मां का पता करना लक्ष्मण जी के मूर्छित होने पर संजीवनी बूटी को लाना अहिरावण द्वारा अपहरण किए जाने पर सबको मुक्त कराकर लाना आदि को आपने संपन्न किया है ।
संदेश- स्थिति कैसी भी हो मन के भाव, कर्म का साथ और वचन को टूटने न दें। यदि आप ऐसा करते हैं तो हर काम में आपको सफलता जरूर मिलेगी और श्री हनुमान जी का आशीर्वाद भी मिलेगा।
इन चौपाइयों का बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ:-
1-संकट तें हनुमान छुड़ावै | मन क्रम बचन ध्यान जो लावै ||
इस चौपाई का बार बार पाठ करने से जातक सभी प्रकार के संकटों से मुक्त रहता है ।
2-सब पर राम तपस्वी राजा | तिन के काज सकल तुम साजा ||
राजकीय कार्यों मे सफलता के लिए इस चौपाई का बार-बार पाठ करना चाहिए।
विवेचना:-
सबसे पहले हम संकट शब्द पर विचार करते हैं शब्दकोश के अनुसार संकट शब्द का अर्थ होता है विपत्ति या खतरा । विपत्ति आपके दुर्भाग्य के कारण हो सकती है । सामूहिक विपत्ति प्रकृति द्वारा दी जा सकती है । खतरा एक मानसिक दशा है क्योंकि आपके मस्तिष्क द्वारा महसूस किया जाता है । जैसे कि आप रात में सुनसान रास्ते पर जाने पर चोरों या डकैतों का खतरा महसूस कर सकते हैं ।
संकट का एक अर्थ होता है मुश्किल या कठिन समय । संकट शब्द का तात्पर्य है मुसीबत। संकट एक कष्टकारी स्थिती है जिसकी आशा नही की जाती और जिसका निदान पीड़ा (शारिरिक, मानसिक, आर्थिक, अथवा सामाजिक) से मुक्ती के लिये अनिवार्य है। संकट का एक उदाहरण है यूक्रेन के लोग इस समय भारी संकट में है। दूसरा महत्वपूर्ण वाक्यांश मन क्रम वचन है।
रामचरितमानस के उत्तरकांड में लिखा हुआ है :-
मन क्रम बचन जनित अघ जाई। सुनहिं जे कथा श्रवन मन लाई॥
तीर्थाटन साधन समुदाई। जोग बिराग ग्यान निपुनाई॥
अर्थ :- जो कान और मन लगाकर इस कथा को सुनते हैं, उनके मन, वचन और कर्म (शरीर) से उत्पन्न सब पाप नष्ट हो जाते हैं। तीर्थ यात्रा आदि बहुत से साधन, उपलब्ध हो जाते हैं । ऐसे लोगों को योग, वैराग्य और ज्ञान में निपुणता अपने आप प्राप्त हो जाती है ।
मन क्रम वचन का दूसरा उदाहरण भी रामचरितमानस से ही है :-
मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव।
मोहि समेत बिरंचि सिव बस ताकें सब देव॥33॥
भावार्थ :- मन, वचन और कर्म से और कपट छोड़कर जो भूदेव ब्राह्मणों की सेवा करता है, मुझ समेत ब्रह्मा, शिव आदि सब देवता उसके वश में हो जाते हैं॥
इस प्रकार स्पष्ट है कि मन क्रम वचन का अर्थ पूरी तन्मयता और एकाग्रता से कोई कार्य करना है । किसी कार्य को करते समय बाकी पूरे संसार को भूल जाना ही मन क्रम वचन से कार्य करना कहलाता है। इस प्रकार इस चौपाई में तुलसीदास जी कहना चाहते हैं कि आप सभी विपत्तियों से और सभी खतरों से बच सकते हो अगर आप हनुमान जी में अपना दिल पूरी एकाग्रता के साथ लगाएं । उनका जाप करते समय आपको बाकी सब कुछ भूल जाना चाहिए । आपका ध्यान सिर्फ और सिर्फ हनुमान जी पर ही हो । ईश्वर की भक्ति 2 तरह से की जाती है । एक अंतर्भक्ति और दूसरा बहिर्भक्ति । चित्त एकाग्र कर हनुमान जी की मूर्ति के सामने बैठकर , या बगैर मूर्ति के बैठ कर जब हम हनुमान जी को याद करते हैं तो अंतर्भक्ति कहलाती है। इस समय आप जो जाप करते हैं उसमें आवाज आपके अंतर्मन की होती है । बहिर्भक्ति का अर्थ यह है कि आप मूर्ति के सामने बैठे हुए हैं । शांत दिख रहे हैं और यह भी बाहर से समझ में आ रहा है कि आपका ध्यान इस समय जप में ही है ।
इस चौपाई में अगला महत्वपूर्ण शब्द है "ध्यान" । ध्यान शब्द का अर्थ होता है एक ऐसी क्रिया जिसमें मन कर्म और वाणी तीनों ही एकाग्र होकर किसी बिंदु विशेष पर केंद्रित हो जाए । ध्यान दो प्रकार का होता है पहला योगिक ध्यान और दूसरा धार्मिक ध्यान । योगिक ध्यान का उदाहरण है योगियों द्वारा या योग क्रियाओं के समय किया जाने वाला ध्यान। इस प्रकार के ध्यान को महर्षि पतंजलि के योग सूत्र में विशेष रूप से बताया गया है । इसमें चित्त को एकाग्र करके किसी वस्तु विशेष पर केंद्रित किया जाता है । पुराने समय में विशेष रुप से ऋषि गण भगवान का ध्यान करते थे । ध्यान की अवस्था में ध्यान मग्न व्यक्ति अपने आसपास के वातावरण को और स्वयं को भी भूल जाता है । ध्यान करने से आत्मिक और मानसिक शक्तियों का विकास होता है । अगर कोई व्यक्ति ध्यान मग्न अवस्था में है तो उसे आसपास के वातावरण में होने वाले किसी भी प्रकार के परिवर्तन का असर महसूस नहीं होता है।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अगर आप पूर्णतया ध्यान मग्न होकर हनुमान जी को बुलाते हैं तो आपके हर संकट को महावीर हनुमान जी दूर करेंगे । यह बात केवल हनुमान जी के लिए नहीं है । यह बात समस्त महान उर्जा स्रोतो के लिए है जैसे कि अगर आप देवी जी की भक्त हैं और देवी जी को ध्यान मग्न होकर बुलाएंगे तो वह अवश्य आकर आपके संकटों को दूर करेंगी ।
धार्मिक ध्यान का संदर्भ विशेष रुप से बौद्ध धर्म से है । बौद्ध धर्म गुरुओं द्वारा इसे एक विशेष तकनीक द्वारा विकसित किया गया था । बौद्ध मठ के नियम यह कहते हैं इंद्रियों को वश में किया जाए और मस्तिष्क के अंदर घुस कर आंतरिक ध्यान लगाया जाए । हम ऐसा भगवान चाहते हैं जो कि देखता और सुनता हो । जो हमारी परवाह करें । बौद्ध धर्म में भी बोधिसत्व का सिद्धांत कार्य करता है । बौद्ध धर्म में भगवान बुद्ध स्वयं को और दूसरों को आंखें बंद करके मस्तिष्क को सत्य पर केंद्रित करके ध्यान करना सिखाते हैं । जबकि बोधिसत्व स्वयं की आंख और कान खुले रखते हैं और लोगों को मदद देने के लिए अपने हाथों को आगे बढ़ाते हैं । इस कारण जनमानस शिक्षक बुद्ध के बजाय रक्षक बोधिसत्व पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करता है ।
हिंदू धर्म में हनुमान एक ऐसा स्वरूप बन गए हैं जिनके द्वारा एक परेशान भक्त उम्मीद और ताकत को वापस पा सकता है । हनुमान जी की आराधना करना उनका ध्यान लगाना भक्तों के अंदर शक्ति प्रदान करता है । विपत्ति और संकटों से लड़ने की शक्ति यहीं पर प्रारंभ होती है । ध्यान लगाकर हनुमान जी को बुलाने से हनुमान जी द्वारा सभी संकटों का हरण कर लिया जाता है।
अगली पंक्ति है:-
"सब पर राम तपस्वी राजा, तिन के काज सकल तुम साजा" ।
इसमें महत्वपूर्ण शब्द है श्रीराम , तपस्वी , राजा , तिनके काज और साजा ।
सबसे पहले हम तपस्वी शब्द पर ध्यान देते हैं ।
तपस्या करने वाले को तपस्वी कहते हैं । अब प्रश्न उठता है कि तपस्या क्या है । तपस् या तप का मूल अर्थ है प्रकाश अथवा प्रज्वलन जो सूर्य या अग्नि में स्पष्ट होता है। किंतु धीरे-धीरे उसका एक रूढ़ार्थ विकसित हो गया । किसी उद्देश्य विशेष की प्राप्ति अथवा आत्मिक और शारीरिक अनुशासन के लिए उठाए जानेवाले दैहिक कष्ट को तप कहा जाने लगा। वर्तमान में हम तपस्या के इसी स्वरूप को मानते हैं । वर्तमान में तपस्या का यही स्वरूप है । साधारण तपस्वी जमीन पर सोता है ,पीले रंग के कपड़े पहनता हैं ,कम खाना खाता है ,सर पर जटा जूट धारण करता है ,नाखून नहीं काटता है ,। साधारण तपस्वी को वेद पाठी और दयालु भी होना चाहिए ।
उग्र तपस्वी को ग्रीष्म ऋतु में पंचाग्नि, बरसात की रात में आसमान के नीचे रहना, जाड़े में जल निवास , तीन समय स्नान , कंदमूल खाना भिक्षाटन , बस्ती से दूर निवास तथा समस्त प्रकार के सुखों को त्याग करना पड़ता है ।
तीसरे हठयोगी होते हैं । जो कि उग्र तपस्वी की सभी क्रियाओं को करते हैं । उसके अलावा कोई एक विशेष मुद्रा में जैसे हाथ को उठाए रखना या एक पैर पर खड़े रहना आदि क्रिया भी करते हैं ।
मनुस्मृति कहता है की आपका कर्म ही आपकी तपस्या है । जैसे कि अगर आपका कार्य पढ़ना है तो पढ़ना ही आपके लिए तपस्या है । अगर आप सैनिक हैं तो शत्रुओं से देश की रक्षा करना आपके लिए तपस्या है ।
भगवत गीता के अनुसार :-श्रीमद् भागवत गीता में तपस्या के बारे में बहुत अच्छी विवेचना उसके 17 अध्याय में श्लोक क्रमांक 14 से 22 तक किया गया है । इसमें उन्होंने तप के कई प्रकार बताए हैं । श्रीमद् भगवत गीता के अनुसार निष्काम कर्म ही सबसे बड़ा तप है ।
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते৷৷17.14৷৷
भावार्थ : देवता, ब्राह्मण, गुरु (यहाँ 'गुरु' शब्द से माता, पिता, आचार्य और वृद्ध एवं अपने से जो किसी प्रकार भी बड़े हों, उन सबको समझना चाहिए।) और ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा- यह शरीर- सम्बन्धी तप कहा जाता है ৷৷17.14॥
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते৷৷17.17৷৷
भावार्थ : फल को न चाहने वाले योगी पुरुषों द्वारा परम श्रद्धा से किए हुए उस पूर्वोक्त तीन प्रकार के तप को सात्त्विक कहते हैं ৷৷17.17॥
श्री रामचंद्र जी वन में हैं । एक स्थान पर दूसरे स्थान पर भ्रमण कर रहे हैं । सन्यासी का वस्त्र पहने हुए हैं तथा अपने पिताजी द्वारा दिए गए आदेश का पालन कर रहे हैं । संतो की रक्षा कर रहे हैं तथा उन्हें आवश्यक सुविधाएं भी प्रदान कर रहे हैं । इस प्रकार श्री रामचंद्र जी वन में तपस्वी का सभी कार्य कर रहे हैं । श्री रामचंद्र राजतिलक के तत्काल पहले राज्य छोड़ कर के वन को चल दिए । परंतु उनके बाद भरत जी ने अपना राजतिलक नहीं करवाया । श्री भरत जी ने भी पूर्ण तपस्वी का आचरण किया । वल्कल वस्त्र पहने ,जटा जूट बढ़ाया आदि आदि । श्री भरत जी ने रामचंद्र जी के खड़ाऊ को रख कर के अयोध्या के शासन को संचालित किया । इस प्रकार अगर तकनीकी रूप से कहा जाए तो अयोध्या के राजा उस समय भी श्री रामचंद्र जी ही थे । अतः तुलसीदास जी ने उनको तपस्वी राजा कहा है ।
रामचंद्र जी भगवान विष्णु के अवतार थे । भगवान विष्णु का स्थान देव त्रयी मैं सबसे ऊपर है ।इसलिए श्री रामचंद्र जी सब के ऊपर हैं । अतः यह कहना कि सब पर राम तपस्वी राजा पूर्णतया उचित है ।
जो सबसे ऊपर है, सबसे शक्तिमान है और सबसे ऊर्जावान है उन श्री राम जी का कार्य हनुमान जी ने किया है । अगर हम रामायण को पढ़ें तो पाते हैं कि श्री हनुमान जी ने श्री रामचंद्र जी के अधिकांश कार्यों को संपन्न किया है । जैसे सीता माता का पता लगाना , सुषेण वैद्य को लाना ,जब श्री लक्ष्मण जी को शक्ति लग गई तो श्री लक्ष्मण जी को मेघनाथ से बचाकर शिविर में लाना , संजीवनी बूटी लाना , गरुड़ जी को लाना , अहिरावण का वध करना और अहिरावण के यहां से श्री रामचंद्र जी और श्री लक्ष्मण जी को बचाकर लाना आदि आदि । इस प्रकार आसानी से कहा जा सकता है कि श्री हनुमान जी ने श्री रामचंद्र जी के सभी कार्यों को संपन्न किया है । श्री रामचंद्र जी ने जो भी आदेश दिए हैं उनको श्री हनुमान जी ने पूर्ण किया है ।
इस प्रकार हनुमान जी ने तपस्वी राजा श्री रामचंद्र जी के समस्त कार्यों को संपन्न करके श्री रामचंद्र जी को प्रसन्न किया ।
जय श्री राम
जय हनुमान।
और मनोरथ जो कोई लावै |
सोई अमित जीवन फल पावै ||
चारों जुग परताप तुम्हारा |
है परसिद्ध जगत उजियारा ||
अर्थ :–
हे हनुमान जी आप भक्तों के सभी प्रकार के मनोरथ को पूर्ण करते हैं । जिस पर आपकी कृपा हो, वह कोई भी अभिलाषा करें तो उसे ऐसा फल मिलता है जिसकी जीवन में कोई सीमा नहीं होती।
हे हनुमान जी, आपके नाम का प्रताप चारो युगों फैला हुआ है । जगत में आपकी कीर्ति सर्वत्र प्रकाशमान है।
भावार्थ:-
मनोरथ का अर्थ होता है "मन की इच्छा" । यह अच्छी और बुरी दोनों प्रकार की हो सकती है । अगर हम हनुमान जी के पास , मन के अच्छे इच्छाओं को लेकर जाएंगे तो कहा जाएगा कि हम अच्छे मनोरथ से हनुमान जी से कुछ मांग रहे हैं । हनुमान जी हमारी इन इच्छाओं की पूर्ति कर देते हैं ।
चारों युग अर्थात सतयुग त्रेता युग द्वापर युग और कलयुग में परम वीर हनुमान जी का प्रताप फैला हुआ है । हनुमान जी का प्रताप से हर तरफ उजाला हो रहा है । उनकी कीर्ति पूरे विश्व में फैली हुई है।
संदेश-
हनुमान जी से अगर हम सच्चे मन से प्रार्थना करते हैं वह प्रार्थना अवश्य पूरी होती है ।
इन चौपाइयों के बार-बार पाठ करने से होने वाला लाभ:-
1-और मनोरथ जो कोई लावै | सोई अमित जीवन फल पावै ||
2- चारों जुग परताप तुम्हारा | है परसिद्ध जगत उजियारा ||
इन चौपाईयों के बार-बार पाठ करने से जातक के सभी मनोरथ सिद्ध होंगे और उसकी कीर्ति हर तरफ फैलेगी ।
विवेचना:-
ऊपर हमने पहली और दूसरी लाइन का सीधा-साधा अर्थ बताया है । मनोरथ का अर्थ होता है इच्छा । परंतु किस की इच्छा । मनोरथ का अर्थ केवल मन की इच्छा नहीं है । अगर हम मनोरथ को परिभाषित करना चाहें तो हम कह सकते हैं की "मन के संकल्प" को मनोरथ कहते हैं । हमारा संकल्प क्योंकि मन के अंदर से निकलता है अतः इसमें किसी प्रकार का रंज और द्वेष नहीं होता है । हमारी इच्छा हो सकती है कि हम अपने दुश्मन का विध्वंस कर दें । भले ही वह सही रास्ते पर हो और हम गलत रास्ते पर हों । परंतु जब हम संकल्प लेंगे और वह संकल्प हमारे दिल के अंदर से निकलेगा तो हम इस तरह की गलत इच्छा हनुमान जी के समक्ष नहीं रख पाएंगे । हनुमान जी के समक्ष इस तरह की इच्छा रखते ही हमारी जबान लड़खड़ा जाएगी । दुश्मन अगर सही रास्ते पर है तो फिर हम यही कह पाएंगे कि हे बजरंगबली इस दुश्मन से हमारी संधि करा दो । हमें सही मार्ग पर लाओ । हमें कुमार्ग से हटाओ । इस संत-इच्छा पूरी हो इसके लिए हमें हनुमान जी से मन क्रम वचन से ध्यान लगाकर मांग करनी होगी । ऐसा नहीं है कि आप चले जा रहे हैं और आपने हनुमान जी से कहा कि मेरी इच्छा पूरी कर दो और हनुमान जी तत्काल दौड कर आपकी इच्छा को पूरी कर देंगे । इसीलिए इसके पहले की चौपाई में तुलसीदास जी कह चुके हैं "मन क्रम वचन ध्यान जो लावे" । हनुमान जी से कोई मांग करने के पहले आपको उस मांग के बारे में मन में संकल्प करना होगा। संकल्प करने के कारण आपकी मांग आपके मस्तिष्क से ना निकालकर हृदय से निकलेगी । आपके मन से निकलेगी। आदमी के अंदर का मस्तिष्क ही उसके सभी बुराइयों का जड़ है । मानवगत बुराइयां मस्तिष्क के अंदर से बाहर आती हैं। आप जो चाहते हो कि पूरी दुनिया का धन आपको मिल जाए यह आपका मस्तिष्क सोचता है ,दिल नहीं । दिल तो खाली यह चाहता है कि आप स्वस्थ रहें । आपको समय समय पर भोजन मिले । भले ही इस भोजन के लिए आपको कितना ही कठोर परिश्रम करना पड़े ।
मनुष्य के मन का मनुष्य के जीवन चक्र में बहुत बड़ा स्थान है । मैं एक बहुत छोटा उदाहरण आपको बता रहा हूं । मैं अपने पौत्र को जमीन से उठा रहा था । इतने में मेरे घुटने में कट की आवाज हुई और मेरी स्थिति खड़े होने लायक नहीं रह गई । मैंने सोचा कि मेरे घुटने की कटोरी में कुछ टूट गया है और मैं काफी परेशान हो गया । हनुमान जी का नाम बार-बार दिमाग में आ रहा था । मेरा लड़का मुझे लेकर डॉक्टर के पास गया । डॉक्टर ने मुझे देखने के बाद एक्सरे कराने के लिए कहा एक्सरे कराने के उपरांत रिजल्ट देखकर डॉक्टर ने कहा कि नहीं कोई भी हड्डी टूटी नहीं है । लिगामेंट टूटे होंगे । यह सुनने के बाद मन के ऊपर जो एक कर डर बैठ गया था वह समाप्त हो गया । और मैं लड़के का सहारा लेकर चलकर अपनी गाड़ी तक गया । यह मन के अंदर के डर के समाप्त होने का असर था जिसके कारण डॉक्टर को दिखाने के बाद मैं पैदल चल कर गाड़ी तक पहुंचा । एक दूसरा उदाहरण भी लेते हैं । एक दिन में अपने मित्र के नर्सिंग होम में बैठा हुआ था । कुछ लोग एक वृद्ध को स्ट्रेचर पर रखकर के मेरे मित्र के पास तक आए । उन्होंने बताया कि इनको हार्ट में पेन हो रहा है । मेरे मित्र द्वारा जांच की गई तथा फिर ईसीजी लिया गया । इसीजी देखने के उपरांत मेरे मित्र ने पुनः पूछा कि क्या आपको दर्द हो रहा है ? बुजुर्ग महोदय ने कहा हां अभी भी उतना ही दर्द है । मेरे मित्र को यह पुष्टि हो गई कि यह दर्द हृदय रोग का ना हो करके गैस का दर्द है ।जब हमारे मित्र ने यह बात बुजुर्ग वार को बताई तो उसके उपरांत वे बगैर स्ट्रेचर के चलकर अपनी गाड़ी तक गए। यह मन का आत्म बल ही था जिसके कारण वह बुजुर्ग व्यक्ति अपने पैरों पर चलकर गाड़ी तक पहुंचे । एक बार मन भयभीत हो गया कि हमारी सम्पूर्ण शारीरिक शक्ति व्यर्थ हो जाती है । इसलिए मन का शरीर में असाधारण स्थान है । ऐसा होनेपर भी, भौतिक जीवन जीनेवाले लोग मन की ओर उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं । अपने मस्तिष्क को श्रेष्ठ मानते हैं । शरीर के अंदर यह मन क्या है ? यह आपकी आत्मा है और आत्मा शरीर में कहां निवास करती है यह किसी को नहीं मालूम । आत्मा कभी गलत निर्णय नहीं करती । मन कभी गलत निर्णय नहीं करता । मन के द्वारा किया गया निर्णय हमेशा सही और उपयुक्त होता है । गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है कि :-
काम, क्रोध, मद, लोभ, सब, नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि, भजहुँ भजहिं जेहि संत।
विभीषणजी रावण को पाप के रास्ते पर आगे बढने से रोकने के लिए समझाते हैं कि काम, क्रोध, अहंकार, लोभ आदि नरक के रास्ते पर ले जाने वाले हैं। काम के वश होकर आपने जो देवी सीता का हरण किया है और आपको जो बल का अहंकार हो रहा है, वह आपके विनाश का रास्ता है। जिस प्रकार साधु लोग सब कुछ त्यागकर भगवान का नाम जपते हैं आप भी राम के हो जाएं। मनुष्य को भी इस लोक में और परलोक में सुख, शांति और उन्नति के लिए इन पाप की ओर ले जाने वाले तत्वों से बचना चाहिए।
इस प्रकार तुलसीदास जी विभीषण के मुख से रावण को रावण की आत्मा या रावण के मन की बात को स्वीकार करने के लिए कहते हैं ।
रामचरितमानस में तुलसीदास जी यह भी बताते हैं कि संत के अंदर क्या-क्या चीजें नहीं होना चाहिए । इसका अर्थ यह भी है क्या-क्या चीजें आपके मस्तिष्क के अंदर अगर नहीं है तो यह निश्चित हो जाता है कि आप मन की बात सुनते हो ।
विभीषणजी रावण को पाप के रास्ते पर आगे बढ़ने से रोकने के लिए समझाते हैं कि काम, क्रोध, अहंकार, लोभ आदि नरक के रास्ते पर ले जाने वाले हैं। काम के वश होकर आपने (रावण) जो देवी सीता का हरण किया है और आपको जो बल का अहंकार हो रहा है, वह आपके विनाश का रास्ता है। जिस प्रकार साधु लोग सब कुछ त्यागकर भगवान का नाम जपते हैं उसी प्रकार आप भी दुर्गुणों को छोड़कर राम के हो जाएं। मनुष्य को इस लोक और परलोक में सुख, शांति और उन्नति के लिए इन पाप की ओर ले जाने वाले तत्वों से बचना चाहिए।
ऊपर की सभी बातों से स्पष्ट है कि अगर आप काम क्रोध मद लोभ आदि मस्तिष्क के विकारों से दूर होकर के मन से संकल्प लेंगे और हनुमान जी को एकाग्र ( मन क्रम वचन से ) होकर याद कर उनसे मांगेंगे तो आपको निश्चित रूप से जीवन फल प्राप्त होगा । परंतु यह जीवन फल क्या है । इसको गोस्वामी तुलसीदास जी ने कवितावली में स्पष्ट किया है।:-
सियराम सरूप अगाध अनूप, विलोचन मीनन को जलु है।
श्रुति रामकथा, मुख राम को नामु, हिये पुनि रामहिं को थलु है।।
मति रामहिं सो, गति रामहिं सो, रति राम सों रामहिं को बलु है।
सबकी न कहै, तुलसी के मते,इतनो जग जीवन को फलु है।।
अर्थात राम में पूरी तरह से रम जाना अमित जीवन फल है । परंतु यह गोस्वामी जी जैसे संतों के लिए है । जनसाधारण का संकल्प कुछ और भी हो सकता है । आप की मांग भी निश्चित रूप से पूर्ण होगी । आपको किसी और दरवाजे पर जाने की कोई आवश्यकता नहीं है । एक और बात में पुनः स्पष्ट कर दूं कि यहां पर हनुमान जी शब्द से आशय केवल हनुमान जी से नहीं है वरन सभी ऊर्जा स्रोतों जैसे मां दुर्गा और उनके नौ रूप या कोई भी अन्य देवी देवता या रामचंद्र जी कृष्ण जी आदि से है ।
एक तर्क यह भी है कि अपने मन की बातों को हनुमान जी से कहने की कोई आवश्यकता नहीं है । वे तो सर्वज्ञ हैं । उनको हमारे बारे में सब कुछ मालूम है । वे जानते हैं कि हमारे लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा है। अकबर बीरबल की एक प्रसिद्ध कहानी है जिसमें एक बार अकबर को की उंगली कट गई सभी दरबारियों ने इस पर अफसोस जताया परंतु बीरबल ने कहा चलिए बहुत अच्छा हुआ ज्यादा उंगली नहीं कटी । अकबर इस पर काफी नाराज हुआ और बीरबल को 2 महीने की जेल का हुक्म दे दिया । कुछ दिन बाद अकबर जंगल में शिकार खेलने गए ।शिकार खेलते खेलते वे अकेले पड़ गए । आदिवासियों के झुंड ने उनको पकड़ लिया । ये आदिवासी बलि चढ़ाने के लिए किसी मनुष्य को ढूंढ रहे थे । अकबर को बलि के स्थान पर लाया गया । बलि देने की तैयारी पूर्ण कर ली गई । अंत में आदिवासियों का ओझा आया और उसने अकबर का पूरा निरीक्षण किया । निरीक्षण के उपरांत उसने पाया कि अकबर की उंगली कटी हुई है । इस पर ओझा ने कहा कि इस मानव की बलि पहले ही कोई ले चुका है । अतः अब इसकी बलि दोबारा नहीं दी जा सकती है । फिर अकबर को छोड़ दिया गया । राजमहल में आते ही अकबर बीरबल के पास गए और बीरबल से कहा कि तुमने सही कहा था ।अगर यह उंगली कटी नहीं होती जो आज मैं मार डाला जाता ।
भगवान को यह भी मालूम है कि हमारे साथ आगे क्या क्या होने वाला है । अगर हम एकाग्र होकर हनुमान जी का केवल ध्यान करते हैं तो वे हमारे लिए वह सब कुछ करेंगे जो हमारे आगे की भविष्य के लिए हितवर्धक हो । उदाहरण के रूप में एक लड़का पढ़ने में अच्छा था । डॉक्टर बनना चाहता था । पीएमटी का टेस्ट दिया जिसमें वह सफल नहीं हो सका । वह लड़का हनुमान जी का भक्त भी था और उसने हनुमान जी के लिए उल्टा सीधा बोलना प्रारंभ कर दिया । गुस्से में दोबारा मैथमेटिक्स लेकर के पढ़ना प्रारंभ किया । आगे के वर्षों में उसने इंजीनियरिंग का एग्जाम दिया ।एन आई टी में सिलेक्शन हो गया । शिक्षा संपन्न करने के बाद उसने अखिल भारतीय सर्विस का एग्जाम दिया और उसमें सफल हो गया । आईएएस बनने के बाद कलेक्टर के रूप में उसकी पोस्टिंग हुई । तब उसने देखा कि उस समय जिन लड़कों का पीएमटी में सिलेक्शन हो गया था ,वे आज उसको नमस्ते करते घूम रहे हैं । तब वह लड़का यह समझ पाया बजरंगबली ने पीएमटी के सिलेक्शन में उसकी क्यों मदद नहीं की थी ।
निष्कर्ष यह है कि आप एकाग्र होकर , मन क्रम वचन से शुद्ध होकर, हनुमान जी का सिर्फ ध्यान करें ,उनसे कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है ,आपको अपने आप जीवन का फल और ऐसा जीवन का फल जो कि अमित होगा, कभी समाप्त नहीं हो सकता होगा हनुमान जी आपको प्रदान करेंगे।
हनुमान चालीसा की अगली चौपाई "चारों युग परताप तुम्हारा है प्रसिद्ध जगत उजियारा" अपने आप में पूर्णतया स्पष्ट है । यह चौपाई कहती है कि आपके गुणों के प्रकाश से आपके प्रताप से और आपके प्रभाव से चारों युग में उजाला रहता है । यह चार युग हैं सतयुग त्रेता द्वापर और कलयुग । यहां पर आकर हम में से जिसको भी बुद्धि का और ज्ञान का अजीर्ण है उनको बहुत अच्छा मौका मिल गया है । हमारे ज्ञानवीर भाइयों का कहना है हनुमान जी का जन्म त्रेता युग में हुआ है । फिर सतयुग में वे कैसे हो सकते हैं । इसलिए हनुमान चालीसा से चारों युग परताप तुम्हारा की लाइन को हटा देना चाहिए । इसके स्थान पर तीनों युग परताप तुम्हारा होना चाहिए ।
हनुमान जी चिरंजीव है । उनकी कभी मृत्यु नहीं हुई है और न उनकी मृत्यु कभी होगी । यह वरदान सीता माता जी ने उनको अशोक वाटिका में दी है ऐसा हमें रामचरितमानस के सुंदरकांड में लिखा हुआ मिलता है :-
अजर अमर गुननिधि सुत होहू।
करहुँ बहुत रघुनायक छोहु।।
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना।
निर्भर प्रेम मगन हनुमान।।"
हर त्रेता युग में एक बार श्री रामचंद्र जन्म लेते हैं और रामायण का अख्यान पूरा होता है । परंतु हनुमान जी पहले कल्प के पहले मन्वंतर के पहले त्रेता युग में जन्म ले चुके हैं और उसके उपरांत उनकी कभी मृत्यु नहीं हुई है इसलिए वे मौजूद मिलते हैं। इस प्रकार से चारों युग परताप तुम्हारा कहना उचित लग रहा है । आइए इस संबंध में विशेष रुप से चर्चा करते हैं ।
ब्रह्मा जी की उम्र 100ब्रह्मा वर्ष के बराबर है । अतः मेरे विचार से ब्रह्मा जी के पहले वर्ष के पहले कल्प के पहले मन्वंतर जिसका नाम स्वायम्भुव है के पहले चतुर्युग के पहले सतयुग में हनुमान जी नहीं रहे होंगे । एक मन्वंतर 1000/14 चतुर्युगों के बराबर अर्थात 71.42 चतुर्युगों के बराबर होती है । इस प्रकार एक मन्वंतर में 71 बार सतयुग आएगा । अतः पहले त्रेता युग मैं हनुमान जी अवतरित हुए होंगे । उसके बाद से सभी त्रेतायुग में हनुमान जी चिरंजीव होने के कारण मौजूद मिले होंगे ।
चैत्र नवरात्रि प्रतिपदा रविवार को सतयुग की उत्पत्ति हुई थी। इसका परिमाण 17,28,000 वर्ष है। इस युग में मत्स्य, हयग्रीव, कूर्म, वाराह, नृसिंह अवतार हुए जो कि सभी सभी अमानवीय थे। इस युग में शंखासुर का वध एवं वेदों का उद्धार, पृथ्वी का भार हरण, हरिण्याक्ष दैत्य का वध, हिरण्यकश्यपु का वध एवं प्रह्लाद को सुख देने के लिए यह अवतार हुए थे। इस काल में स्वर्णमय व्यवहारपात्रों की प्रचुरता थी। मनुष्य अत्यंत दीर्घाकृति एवं अतिदीर्घ आयुवाले होते थे।
उपरोक्त से स्पष्ट है की पहले कल्प के पहले मन्वंतर के पहले सतयुग में हनुमानजी नहीं थे ।उसके बाद के सभी सतयुग में हनुमान जी रहे हैं ।परंतु प्रकृति के नियमों में बंधे होने के कारण उन्होंने कोई कार्य नहीं किया है जो कि ग्रंथों में लिखा जा सके।
आइए अब हम हिंदू समय काल के बारे में चर्चा करते हैं ।
जब हम कोई पूजा पाठ करते हैं तो सबसे पहले हमारे पंडित जी हमसे संकल्प करवाते हैं और निम्न मंत्रों को बोलते हैं ।
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: । श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्यैतस्य ब्रह्मणोह्नि द्वितीये परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे युगे कलियुगे कलिप्रथमचरणे भूर्लोके भारतवर्षे जम्बूद्विपे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गतब्रह्मावर्तस्य ............ क्षेत्रे ............ मण्डलान्तरगते ............ नाम्निनगरे (ग्रामे वा) श्रीगड़्गायाः ............ (उत्तरे/दक्षिणे) दिग्भागे देवब्राह्मणानां सन्निधौ श्रीमन्नृपतिवीरविक्रमादित्यसमयतः ......... संख्या -परिमिते प्रवर्त्तमानसंवत्सरे प्रभवादिषष्ठि -संवत्सराणां मध्ये ............ नामसंवत्सरे, ............ अयने, ............ ऋतौ, ............ मासे, ............ पक्षे, ............ तिथौ, ............ वासरे, ............ नक्षत्रे, ............ योगे, ............ करणे, ............ राशिस्थिते चन्द्रे, ............ राशिस्थितेश्रीसूर्ये, ............ देवगुरौ शेषेशु ग्रहेषु यथायथा राशिस्थानस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणविशेषणविशिष्टायां शुभपुण्यतिथौ ............ गोत्रोत्पन्नस्य ............ शर्मण: (वर्मण:, गुप्तस्य वा) सपरिवारस्य ममात्मन: श्रुति-स्मृति-पुराणोक्त-पुण्य-फलावाप्त्यर्थं ममऐश्वर्याभिः वृद्धयर्थं।
संकल्प में पहला शब्द द्वितीये परार्धे आया है । श्रीमद भगवत पुराण के अनुसार ब्रह्मा जी की आयु 100 वर्ष की है जिसमें से की पूर्व परार्ध अर्थात 50 वर्ष बीत चुके हैं तथा दूसरा परार्ध प्रारंभ हो चुका है। त्रैलोक्य की सृष्टि ब्रह्मा जी के दिन से प्रारंभ होने से होती है और दिन समाप्त होने पर उतनी ही लंबी रात्रि होती है । एक दिन एक कल्प कहलाता है।
यह एक दिन 1. स्वायम्भुव, 2. स्वारोचिष, 3. उत्तम, 4. तामस, 5. रैवत, 6. चाक्षुष, 7. वैवस्वत, 8. सावर्णिक, 9. दक्ष सावर्णिक, 10. ब्रह्म सावर्णिक, 11. धर्म सावर्णिक, 12. रुद्र सावर्णिक, 13. देव सावर्णिक और 14. इन्द्र सावर्णिक- इन 14 मन्वंतरों में विभाजित किया गया है। इनमें से 7वां वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है। 1 मन्वंतर 1000/14 चतुर्युगों के बराबर अर्थात 71.42 चतुर्युगों के बराबर होती है।
यह भिन्न संख्या पृथ्वी के 27.25 डिग्री झुके होने और 365.25 दिन में पृथ्वी की परिक्रमा करने के कारण होती है। दशमलव के बाद के अंक को सिद्धांत के अनुसार नहीं लिया गया है । दो मन्वन्तर के बीच के काल का परिमाण 4,800 दिव्य वर्ष (सतयुग काल) माना गया है । इस प्रकार मन्वंतरों के बीच का काल=14*71=994 चतुर्युग हुआ।
हम जानते हैं कि कलयुग 432000 वर्ष का होता है इसका दोगुना द्वापर युग , 3 गुना त्रेतायुग एवं चार गुना सतयुग होता है । इस प्रकार एक महायुग 43 लाख 20 हजार वर्ष का होता है ।
71 महायुग मिलकर एक मन्वंतर बनाते हैं जो कि 30 करोड़ 67 लाख 20 हजार वर्ष का हुआ । प्रलयकाल या संधिकाल जो कि हर मन्वंतर के पहले एवं बाद में रहता है 17 लाख 28 हजार वर्ष का होता है। 14 मन्वन्तर मैं 15 प्रलयकाल होंगे अतः प्रलय काल की कुल अवधि 1728000*15=25920000 होगा। 14 मन्वंतर की अवधि 306720000*14=4294080000 होगी और एक कल्प की अवधि इन दोनों का योग 4320000000 होगी। जोकि ब्रह्मा का 1 दिन रात है। ब्रह्मा की कुल आयु (100 वर्ष) =4320000000*360*100=155520000000000=155520अरब वर्ष होगी। यह ब्रह्मांड और उसके पार के ब्रह्मांड का कुल समय होगा । वर्तमान विज्ञान को यह ज्ञात है कि ब्रह्मांड के उस पार भी कुछ है परंतु क्या है यह वर्तमान विज्ञान को अभी ज्ञात नहीं है।
अब हम पुनः एक बार संकल्प को पढ़ते हैं जिसके अनुसार वैवस्वत मन्वन्तर चल रहा है अर्थात 6 मन्वंतर बीत चुके हैं सातवा मन्वंतर चल रहा है । पिछले गणना से हम जानते हैं की एक मन्वंतर 306720000 वर्ष का होता है। छे मन्वंतर बीत चुके हैं अर्थात 306720000*6=1840320000 वर्ष बीत चुके हैं। इसमें सात प्रलय काल और जोड़े जाने चाहिए अर्थात (1728000*7) 12096000 वर्ष और जुड़ेंगे इस प्रकार कुल योग (1840320000+12096000) 1852416000 वर्ष होता है।
हम जानते हैं एक मन्वंतर 71 महायुग का होता है जिसमें से 27 महायुग बीत चुके हैं । एक महायुग 4320000 वर्ष का होता है इस प्रकार 27 महायुग (27*4320000) 116640000 वर्ष के होंगे । इस अवधि को भी हम बीते हुए मन्वंतर काल में जोड़ते हैं ( 1852416000+116640000) तो ज्ञात होता है कि 1969056000 वर्ष बीत चुके हैं।
28 वें महायुग के कलयुग का समय जो बीत चुका है वह (सतयुग के 1728000+ त्रेता युग 1296000+ द्वापर युग 864000 ) = 3888000 वर्ष होता है। इस अवधि को भी हम पिछले बीते हुए समय के साथ जोड़ते हैं (1969056000+ 3888000 ) और संवत 2079 कलयुग के 5223 वर्ष बीत चुके हैं।
अतः हम बीते गए समय में कलयुग का समय भी जोड़ दें तो कुल योग 1972949223 वर्ष आता है । इस समय को हम 1.973 Ga वर्ष भी कह सकते हैं।
ऊपर हम बता चुके हैं कि आधुनिक विज्ञान के अनुसार पृथ्वी का प्रोटेरोज़ोइक काल 2.5 Ga से 54.2 Ma वर्ष तथा और इसी अवधि में पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति हुई है। इन दोनों के मध्य में भारतीय गणना अनुसार आया हुआ समय 1.973 Ga वर्ष भी आता है । जिससे स्पष्ट है कि भारत के पुरातन वैज्ञानिकों ने पृथ्वी पर जीवन के प्रादुर्भाव की जो गणना की थी वह बिल्कुल सत्य है।
आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार सूर्य 4.603 अरब वर्ष पहले अपने आकार भी आया था । इसी प्रकार पृथ्वी 4.543 अरब वर्ष पहले अपने आकार में आई थी।
हमारी आकाशगंगा 13.51 अरब वर्ष पहले बनी थी । अभी तक ज्ञात सबसे उम्रदराज वर्लपूल गैलेक्सी 40.03 अरब वर्ष पुरानी है । विज्ञान यह भी मानता है कि इसके अलावा और भी गैलेक्सी हैं जिनके बारे में अभी हमें ज्ञात नहीं है। हिंदू ज्योतिष के अनुसार ब्रह्मा जी का की आयु 155520 अरब वर्ष की है जिसमें से आधी बीत चुकी है। यह स्पष्ट होता है कि यह ज्योतिषीय संरचनाएं 77760 अरब वर्ष पहले आकार ली थी और कम से कम इतना ही समय अभी बाकी है।
ऊपर की विवरण से स्पष्ट है की हनुमान जी चारों युग में थे और उनकी प्रतिष्ठा भी हर समय रही है । एक सुंदर प्रश्न और भी है कि आदमी को यश या प्रतिष्ठा कैसे मिलती है । इस विश्व में बड़े-बड़े योद्धा राजा राष्ट्रपति हुए हैं परंतु लोग उनको एक समय बीतने के बाद भूलते जाते हैं परंतु तुलसीदास जी को नरसी मेहता जी को और भी ऋषि-मुनियों को कोई आज तक नहीं भूल पाया है । यश का सीधा संबंध आदमी के हृदय से है । जिसके हृदय में श्री राम बैठे हुए हैं उसकी प्रतिष्ठा हमेशा रहेगी । उसका यश हमेशा रहेगा । एक राजा की प्रतिष्ठा तभी तक रहती है जब तक वह सत्ता में है । सत्ता से हटते ही उसकी प्रतिष्ठा शुन्य हो जाती है । एक धनवान की प्रतिष्ठा तभी तक रहती है जब तक उसके पास धन है । कभी इस देश में टाटा और बिड़ला की सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा थी , आज अंबानी और अदानी की है । परंतु संतों की प्रतिष्ठा सदैव एक जैसी रहती है । वह कभी समाप्त नहीं होती है । इसी तरह से कुछ और भी हैं जैसे कवि या लेखक, साइंटिस्ट आदि । इन की प्रतिष्ठा हमेशा ही एक जैसी रहती है, क्योंकि इनका किया हुआ कभी समाप्त नहीं होता है ।
हनुमान जी के हृदय में श्री राम जी सदैव बैठे हुए हैं उनकी प्रतिष्ठा कैसे समाप्त हो सकती है । एक भजन है :-
जिनके हृदय श्री राम बसे,
उन और को नाम लियो ना लियो ।
एक दूसरा भजन भी है :-
जिसके ह्रदय में राम नाम बंद है
उसको हर घडी आनंद ही आनंद है
लेकर सिर्फ राम नाम का सहारा
इस दुनिया को करके किनारा
राम जी की रजा में जो रजामंद है
उसको हर घडी आनंद ही आनंद है
अतः जिसके हृदय में श्री राम निवास करते हैं उसको कोई और नाम लेने की आवश्यकता नहीं है। हनुमान जी की प्रभा को करोड़ों सूर्य के बराबर बताया गया है:-
ओम नमों हनुमते रुद्रावताराय
विश्वरूपाय अमित विक्रमाय
प्रकटपराक्रमाय महाबलाय
सूर्य कोटिसमप्रभाय रामदूताय स्वाहा।
इस प्रकार यह सिद्ध हो गया कि इन करोड़ों सूर्य के प्रकाश के बराबर हनुमान जी का प्रकाश चारों युग में फैल रहा है ।
हनुमान जी की प्रतिष्ठा के बारे में बाल्मीकि रामायण के युद्ध कांड के प्रथम सर्ग के द्वितीय श्लोक में श्री रामचंद्र जी ने कहा है कि हनुमान जी ने ऐसा बड़ा काम किया है जिसे पृथ्वी तल पर कोई नहीं कर सकता है । करने की बात तो दूर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है ।
कृतं हनुमता कार्यं सुमहद्भुवि दुर्लभम्।
मनसापि यदन्येन न शक्यं धरणीतले॥
(वा रा /युद्ध कांड/1./2)
और भी तारीफ करने के बाद श्री रामचंद्र जी ने कहा इस समय उनके पास अपना सर्वस्व दान देने के रूप में आलिंगन ही महात्मा हनुमान जी के कार्य के योग्य पुरस्कार है । यह कहने के उपरांत उन्होंने अपने आलिंगन में हनुमान जी को ले लिया ।
एष सर्वस्वभूते परिष्वङ्गो हनूमतः।
मया कालमिमं प्राप्य दत्तस्तस्य महात्मनः॥ (वाल्मीकि रामायण/युद्ध कांड/1 /13)
इत्युक्त्वा प्रीतिहृष्टाङ्गो रामस्तं परिषस्वजे।
हनूमन्तं कृतात्मानं कृतकार्यमुपागतम् ॥
(वा रा/युद्ध कांड/ 1/14)
इस प्रकार भगवान श्रीराम ने हनुमान जी को उनकी कृति और यश को हमेशा हमेशा के लिए फैलने का वरदान दिया।
रुद्रावतार पवन पुत्र केसरी नंदन अंजनी कुमार भगवान हनुमान जी की कीर्ति जब से यह संसार बना है और जब तक यह संसार रहेगा सदैव फैलती रहेगी । उनके प्रकाश से यह जग प्रकाशित होता रहेगा ।
जय श्री राम
जय हनुमान।
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एडिटर: विनोद आर्य
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+91 94244 37885
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