श्री हनुमान चालीसा के दोहे में छिपा है जीवन रहस्य, जाने भावार्थ▪️पंडित अनिल पाण्डेय



श्री हनुमान चालीसा के दोहे में छिपा है जीवन रहस्य, जाने भावार्थ
▪️पंडित अनिल पाण्डेय




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हरेक मंगलवार / शनिवार को पढ़ेंगे श्री हनुमान चालीसा के दोहों का भावार्थ
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        💥 हमारे हनुमान जी 💥



लाय सजीवन लखन जियाए, श्री रघुबीर हरषि उर लाए।
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई, तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई॥

अर्थ -
श्री लक्ष्मण जी मेघनाथ की द्वारा किए गए शक्ति प्रहार के कारण मूर्छित हो गए थे और मृत्यु शैया पर थे । उस समय हनुमान जी ने सजीवन बूटी लाकर श्री लक्ष्मण जी को जिंदा कर दिया ।जिससे श्री रामचंद्र जी ने खुश होकर के उनको अपने गले लगाया और उनकी बहुत तारीफ की और कहा कि तुम मेरे भाई हो ।

भावार्थ:-
इस चौपाई में तुलसीदास जी ने श्री हनुमान जी की स्तुति श्री लक्ष्मण जी के प्राणदाता के रूप में की है । श्री सुषेण वैद्य के परामर्श के अनुसार वे द्रोणा गिरी पर्वत पर गए । अनेक परेशानियों के बावजूद वे समय पर द्रोणागिरी पर्वत को ही लेकर के श्री लक्ष्मण जी के पास पहुंच गए । ब्यूटी का सेवन करने के उपरांत  लक्ष्मण जी स्वस्थ हो गए। । यह देख कर के श्री रामचंद्र जी ने उन्हें अपने हृदय से लगा लिया। 
उसके बाद श्री रामचंद्र जी ने श्री हनुमान जी की बहुत तारीफ की । उन्होंने कहा कि तुम मेरे लिए भरत के समान प्रिय हो । यह सभी जानते हैं की श्री रामचंद्र जी  भरत जी अत्यंत प्रेम करते थे ।

संदेश- 
केवल सगे संबंध ही नहीं कभी-कभी कोई रिश्ता ऐसा भी बन जाता है, जो इन से भी ऊपर होता है और ईश्वर-भक्त का रिश्ता ऐसा ही होता है।

इन चौपाइयों को बार बार पढ़ने से होने वाला लाभ :-
1-लाय सजीवन लखन जियाए, श्री रघुबीर हरषि उर लाए।
2-रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई, तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई॥
हनुमान चालीसा की इस चौपाई से शारीरिक व्याधियों का  निवारण होता है तथा अपने से बड़ों की कृपा प्राप्त होती है । अगर आपका बॉस आप से नाराज है या आप रोगों से ग्रस्त हो गए हैं तो आपको इन चौपाइयों का पाठ करना चाहिए।    

 विवेचना:-  
इन चौपाइयों में हनुमान जी द्वारा बहुत से कार्य किए गए बहुत से कार्यों में से एक कार्य का वर्णन है । इसमें उन्होंने संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मण जी के प्राणों की रक्षा की है । संकटमोचन हनुमानाष्टक में इस बात को निम्नलिखित रुप में कहा गया है
बाण लग्यो उर लछिमन के तब,
प्रान तज्यो सुत रावन मारो ।
लै गृह वैध्य सुषेण समेत,
तबै गिरि द्रोण सुबीर उपारो ॥
आनि सजीवन हाथ दई तब,
लछिमन के तुम प्राण उबारो ।
को नहिं जानत है जग में कपि,
संकट मोचन नाम तिहारो ॥५॥
अर्थात- लक्ष्मण की छाती मे बाण मारकर जब मेघनाथ ने उन्हे मूर्छित कर दिया। उनके प्राण संकट में पर गये । तब आप वैध्य सुषेण को घर सहित उठा लाये और द्रोण पर्वत सहित संजीवनी बूटी लेकर आए जिससे लक्ष्मण जी के प्राणों की रक्षा हुई। हे महावीर हनुमान जी, इस संसार मे ऐसा कौन है जो यह नहीं जानता है की आपको हीं सभी संकटों का नाश करने वाला कहा जाता है।
इस प्रकार हनुमान जी ने श्री रामचंद्र जी के छोटे भाई लक्ष्मण जी को मृत्यु के मुंह में जाने से बचाया इसे पूरा योगदान हनुमान जी का ही है सुषेण वैद्य को वहीं श्रीलंका से लेकर लाए थे उसके कहने पर वही द्रोणागिरी पर्वत पर संजीवनी बूटी लेने गए थे और जब संजीवनी बूटी समझ में नहीं आई तो पूरा पर्वत उठाकर वही लक्ष्मण जी के पास लाए ।  सुषेण वैद्य ने  संजीवनी बूटी को निकालकर इसकी औषधि बनाकर लक्ष्मण जी को दिया और लक्ष्मण जी स्वस्थ हो गए।
ऐसा ही गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित हनुमान बाहुक में भी छठे नंबर के  घनाक्षरी छंद मैं दिया गया है :-
द्रोन-सो पहार लियो ख्याल ही उखारि कर, कंदुक-ज्यों कपि खेल बेल कैसो फल भो ।।
संकट समाज असमंजस भो रामराज, काज जुग पूगनि को करतल पल भो ।
साहसी समत्थ तुलसी को नाह जाकी बाँह, लोकपाल पालन को फिर थिर थल भो ।।६



अर्थ:-द्रोण-जैसा भारी पर्वत खेल में ही उखाड़ गेंद की तरह उठा लिया, वह कपिराज के लिये बेल-फल के समान क्रीडा की सामग्री बन गया । राम-राज्य में अपार संकट (लक्ष्मण-शक्ति) -से असमंजस उत्पन्न हुआ (उस समय जिसके पराक्रम से) युग समूह में होने वाला काम पलभर में मुट्ठी में आ गया । तुलसी के स्वामी बड़े साहसी और सामर्थ्यवान् हैं, जिनकी भुजाएँ लोकपालों को पालन करने तथा उन्हें फिर से स्थिरता-पूर्वक बसाने का स्थान हुईं ।।६।।

श्री लक्ष्मण जी ने मेघनाथ से युद्ध किया मेघनाथ ने उनके ऊपर शक्ति का प्रहार किया जिससे कि लक्ष्मण जी की मूर्छित हो गये । अब आप कल्पना करें एक भाई के मृत्यु शैया पर होने पर  दूसरे भाई की क्या हालत होगी ? भाई भी लक्ष्मण  जी जैसा   जो कि अपने भाई की बनवास जाने पर उसके साथ राजमहल की खुशियों को छोड़ कर के जंगल की तरफ चल देता है ?  रामचंद जी को यह बात मालूम चलती है उनकी हालत के बारे में रामचरितमानस में  वर्णन किया है । 
व्यापक ब्रह्म अजित भुवनेस्वर। लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर॥
तब लगि लै आयउ हनुमाना। अनुज देखि प्रभु अति दुख माना॥3॥
हनुमान जी सुषेण वैद्य को लेकर के आए । इसके उपरांत  सुषेण वैद्य के  सुझाव के अनुसार संजीवनी बूटी लेने द्रोणागिरी पर्वत पर चल दिए ।  वहां से लौटने में हनुमान जी को विभिन्न बाधाओं की वजह से थोड़ी देर हो गई । इस समय आप तुलसीदास जी के शब्दों में श्री रामचंद्र जी का विलाप सुनिए:-
सकहु न दुखित देखि मोहि काऊ। बंधु सदा तव मृदुल सुभाऊ।।
मम हित लागि तजेहु पितु माता। सहेहु बिपिन हिम आतप बाता।।
सो अनुराग कहाँ अब भाई। उठहु न सुनि मम बच बिकलाई।।
जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू। पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू।।
सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा।।
अस बिचारि जियँ जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता ।
इसमें 2 लाइनें अद्भुत है । पहला अगर मैं जानता कि वन जाने में मैं अपने भाई को खो दूंगा तो मैं अपने पिताजी के वचन को नहीं मानता । दूसरा इस दुनिया में सब कुछ मिल सकता है लेकिन सहोदर भ्राता नहीं मिलता है। यह भ्रात प्रेम की पराकाष्ठा है । 
वाल्मीकि रामायण में  श्री राम जी लक्ष्मण जी के शक्ति लगने पर  अपने आपको काफी शक्तिहीन महसूस करते हैं :-
शोणितार्द्रमिमन् वीरं प्राणैरिष्टतरं मम |
पश्यतो मम का शक्तिर्योद्धुं पर्याकुलात्मनः || 
(वा रा/6/101/4)
अर्थात : श्री राम कहते हैं – लक्ष्मण को रक्त से यूं सने देख कर मेरी युद्ध करने की उर्जा खत्म हो रही है। लक्ष्मण मुझे अपने प्राणों से भी ज्यादा प्रिय हैं ।
यथैव मां वनं यान्तमनुयाति महाद्युतिः |
अहमप्युपयास्यामि तथैवैनं यमक्षयम् ||
 (वा रा/6/101/13)
अर्थात : अगर लक्ष्मण को कुछ हो जाता है तो मैं भी उसी प्रकार मृत्यु के पथ पर अपने भाई लक्ष्मण के साथ चला जाउंगा जैसे वो वन में मेरे पीछे – पीछे चले आए थे
जब लक्ष्मण जी संजीवनी बूटी से वापस मूर्छा से वापस लौट आते हैं तब श्री राम उनसे कहते हैं :-
न हि मे जीवितेनार्थः सीतया च जयेन वा || 
को हि मे जीवितेनार्थस्त्वयि पञ्चत्वमागते |
(वाल्मीकि रामायण/ युद्ध कांड/101/50)
अर्थात : तुम्हें अगर कुछ हो जाता तो मेरे लिए फिर इस संसार में कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं रह जाता , न तो मेरे जीवन का कोई उद्देश्य रह जाता , न सीता और न ही विजय मेरे लिए महत्वपूर्ण रह जाती
 मेघनाथ की मृत्यु श्री लक्ष्मण जी के हाथों हुई परंतु अपनी मृत्यु के पहले मेघनाद ने ,लक्ष्मण जी  को दो बार हराया था । पहली बार उसने श्रीलक्ष्मण जी और श्रीरामचंद्र जी को नागपाश में बांध दिया था ।  दूसरी बार जब उसने  लक्ष्मण जी को  शक्ति के प्रहार से मूर्छित कर दिया था।  दोनों ही मौकों पर हनुमान   ने अपने बल बुद्धि और श्री राम भक्ति के बल पर उन्हें निश्चित मृत्यु से बचाया था। इसके अलावा  अहिरावण   से भी श्री राम और श्री लक्ष्मण को हनुमान जी ने ही बचाया था।

 अब यहां पर एक नया प्रश्न उठता है ।  श्री रामचंद्र जी चार भाई थे श्री राम जी श्री भरत जी श्री लक्ष्मण जी और श्री शत्रुघ्न जी । श्री रामचंद्र जी का  तीनों भाइयों से बहुत अधिक प्रेम था । तीनों भाइयों से बराबर प्रेम था । श्री राम जी किसी भी भाई से दूसरे भाई की तुलना में कम प्रेम नहीं करते  थे । फिर यहां श्री रामचंद्र ने यह क्यों कहा है कि तुम मेरे भरत के समान प्रिय भाई हो। ऐसा कहना तभी उचित है जब श्री राम जी श्री भरत जी से दूसरों भाई की भाइयों की तुलना में कम या ज्यादा प्रेम करते हों ।
 मन्येऽहमागतोऽयेध्यां भरतो भ्रातृवत्सलः |
मम प्राणात्र्पियतरः कुलधर्ममनुस्मरन् || (वा रा/2/97/9)
अर्थात: हे लक्ष्मण, लगता है कि भरत अपने नानी घर से अपने भाइयों के प्रति प्रेम के वश में आकर अयोध्या लौट गए हैं । भरत तो मुझे अपने प्राणों से भी प्रिय हैं ।
श्री राम यहां अपने भाइयों के प्रति प्रेम का इज़हार करते हुए वाल्मीकि रामायण में यहां तक कहते हैं कि बिना भाइयों के उन्हें संसार की कोई भी खुशी नहीं चाहिए । 
यद्विना भरतं त्वां च शत्रुघ्नं चापि मानद |
भवेन्मम सुखं किंचिद्भस्म तत्कुरुतां शिखी || 
(वा रा/२/९७/८)
अर्थात : हे लक्ष्मण यदि मुझे भरत, शत्रुघ्न और तुम्हारे बिना संसार की सारी खुशियां भी मिल जाएं तो वो अग्नि में राख हो जाएं , मुझे वो खुशियां नहीं चाहिएं । 
अगर हम इस  श्लोक पर गौर करें तो हम मानेंगे कि  श्री रामचंद्र जी सभी भाइयों से बराबर प्रेम करते थे । और यह सत्य भी है । अगर यह सत्य है तो फिर उन्होंने हनुमान जी को भरत जी के बराबर  प्रिय क्यों कहा ।
 निस्वार्थ प्रेम सबसे उच्च कोटि का प्रेम माना जाता है । प्रेम चाहे किसी से भी करें, हमेशा निस्वार्थ भाव से करें। अगर आप उसमें स्वार्थ छोड़कर संपूर्ण प्रेम लगाएंगे तो आपका प्रेमी आपको अपने पास ही प्रतीत होगा। श्री रामचंद्र जी से उनके तीनों भाई अत्यधिक प्रेम करते थे । श्री लक्ष्मण जी ने तो सब कुछ छोड़ कर के  ,श्री राम चंद्र जी के मना करने के बावजूद , वन में उनके साथ 14 साल  रहे ।  श्री रामचरितमानस में लक्ष्मण जी ने स्वयं कहा है कि आप मेरे सब कुछ है आपके बगैर मैं रह नहीं सकता । अर्थात श्री लक्ष्मण जी के पास रामचंद्र जी के साथ रहने का उद्देश्य था । जिसकी वजह से उन्होंने रामचंद्र जी की बात न मान करके वनवास में उनके साथ रहे ।  यह उद्देश्य था श्री लक्ष्मण जी का श्री रामचंद्र जी के प्रति अत्यधिक प्रेम।
 श्री भरत जी भी श्रीरामचंद्र जी से अत्यधिक प्रेम करते थे । वे भी श्री रामचंद्र जी के बगैर रह नहीं सकते थे । परंतु रामचंद्र जी के आदेश मात्र से वे उनके साथ नहीं गए । परंतु अयोध्या में भी निवास नहीं किया  ।अयोध्या के बाहर रहे ।  उसी प्रकार का जीवन जिया जैसा श्री राम चंद्र जी वन में व्यतीत कर रहे थे ।  निश्चित रूप से भरत जी अगर श्री राम चन्द्र जी के साथ वन में रहते तो ज्यादा संतुष्ट रहते । उनके मन में तसल्ली रहती कि वे श्री रामचंद्र जी के साथ हैं । यहां पर आकर उनका प्रेम निस्वार्थ प्रेम हो जाता है । इस प्रकार भरत जी का प्रेम अन्य भाइयों के  प्रेम से ऊपर हो गया। 
 कुछ लोग इसका अलग  तर्क देते हैं। इस संबंध में एक आख्यान प्रचलित है ।  यज्ञ के उपरांत महाराजा दशरथ को रानियों को देने के लिए  जो खीर मिली थी उसके तीन हिस्से किया गए ।  एक हिस्सा महारानी कौशल्या को दिया गया और दूसरा हिस्सा महारानी कैकेई को प्राप्त हुआ। तीसरा हिस्सा जो महारानी सुमित्रा को मिलना था उसको एक चील लेकर उड़ गई । और उड़ करके वह महारानी अंजना के पास पहुंची  ।   चील को इस यात्रा में 6 दिन लगे   ।  इस खीर को फिर महारानी अंजना ने खाया।  खीर के मूल भागों को कौशल्या, कैकेयी और अंजनी ने खाया था । इसलिए राम, भरत और हनुमान समान भाई थे । महारानी सुमित्रा को अपनी खीर में से थोड़ा हिस्सा महारानी कौशल्या ने दिया और थोड़ा हिस्सा महारानी कैकेई ने । इस प्रकार महारानी सुमित्रा के पास दो हिस्सों में खीर पहुंची और महारानी सुमित्रा के दो पुत्र हुए । उनमें से श्री लक्ष्मण जी का स्नेह श्री रामचंद्र जी से ज्यादा रहा और श्री शत्रुघ्न जी का स्नेह श्री भरत जी से ज्यादा रहा। महारानी सुमित्रा ने मूल भाग के विभाजित भाग को खाया था -इसलिए लक्ष्मण और शत्रुघ्न उनके अर्थात  श्री रामचंद्र जी श्री भरत जी और श्री हनुमान जी के  बराबर के नहीं थे । इस विचार से यह प्रगट होता है रामचंद्र जी हनुमान जी से कहना चाहते हैं कि मैं आप और श्री भरत खीर के मूल  भाग से उत्पन्न हुए हैं।
 ग्रुप वालों से यह स्पष्ट है उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट है कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने कितना ज्ञान हनुमान चालीसा की हर एक चौपाई में डाला है ।
 जय श्री राम
 जय हनुमान



सहस बदन तुम्हरो जस गावैं |
अस कहि श्रीपति कण्ठ लगावैं ||
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा |
नारद सारद सहित अहीसा ||




अर्थ – हजार मुख वाले शेषनाग तुम्हारे यश का गान करें - ऐसा कहकर लक्ष्मीपति विष्णुस्वरूप भगवान श्रीरामने आपको अपने हृदयसे लगा लिया I 
हे हनुमान जी आपके यशों का गान तो सनकादिक ऋषि, ब्रह्मा और अन्य मुनि गण, नारद, और सरस्वती सभी करते हैं। 

भावार्थ:-
श्री रामचंद्र जी ने कहा कि हे हनुमान जी आप का यश  पूरे ब्रह्मांड में फैल जाएगा । हर समय आप के यश का गान होगा  ।   हजार मुख वाले शेषनाग जी भी  आपके  यश का गान करेंगे । ऐसा कहते हुए लक्ष्मण जी के मूर्छा से वापस आने पर प्रसन्न होकर लक्ष्मीपति विष्णु जी के अवतार श्री रामचंद्र जी ने श्री हनुमान जी को गले से लगाया ।
गले से लगाते हुए श्री रामचंद्र जी ने पुनः कहा कि सनक आदि ऋषि गण ब्रह्मा आदि देवता गण और सभी मुनि तथा स्वयं सरस्वती देवी और नारद जी आप की पूर्ण प्रशंसा करने में असमर्थ हैं । कोई भी आपकी पूर्ण प्रशंसा नहीं कर सकता हैं ।

संदेश- 
अच्छे कर्म करने पर ईश्वर भी अपने भक्त के भक्त बन जाते हैं। इसलिए ऐसे कर्म करें, जिससे सबका भला हो।

इन चौपाइयों का बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ :- 
1-सहस बदन तुम्हरो जस गावैं | अस कहि श्रीपति कण्ठ लगावैं ||
2-सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा | नारद सारद सहित अहीसा ||
हनुमान चालीसा की इन चौपाईयों के बार बार पाठ करने से  यश ,  सम्मान , प्रसिद्धि और कीर्ति बढ़ती है । अगर आपको मान और प्रतिष्ठा प्राप्त करना हो तो इन चौपाइयों का बार-बार पाठ करना चाहिए ।

 विवेचना:-
हम सभी जानते हैं कि हनुमान जी के द्वारा किए गए कार्यों  से प्रसन्न होकर श्री रामचंद्र जी ने हनुमान जी की कई बार प्रशंसा की तथा गले से भी लगाया था । 
हनुमान चालीसा में इस चौपाई से पहले की चौपाई में कहा गया है:-
 "लाय सजीवन लखन जियाये"
 इसी के बाद यह चौपाई आई है कि "सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा" । अतः हम कह सकते हैं की यह  प्रशंसा  संजीवनी बूटी लाने  के लिए है ।  घटना इस प्रकार है:-
लक्ष्मण जी मेघनाथ द्वारा किए गए शक्ति प्रहार से मूर्छित हो गए थे । श्री लक्ष्मण जी को शीघ्र स्वास्थ्य करने के लिए हनुमान जी विभीषण की सलाह पर श्रीलंका से सुषेण वैद्य को लेकर आए । सुषेण वैद्य ने संजीवनी बूटी की आवश्यकता बताई । यह भी बताया कि संजीवनी बूटी द्रोणागिरी पर्वत पर मिलती है । हनुमान जी संजीवनी बूटी को लाने के लिए  द्रोणागिरी पर्वत पर गए  ।  वे द्रोणागिरी से संजीवनी बूटी लेकर वापस शिविर में पहुंचे  उस समय का  दृश्य विकट था । रामचरितमानस में इस प्रसंग को निम्नानुसार कहा गया है :-
प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर।
आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस॥61॥
हरषि राम भेंटेउ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना॥
तुरत बैद तब कीन्ह उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई॥1॥ 
( रामचरितमानस/लं कां /61 /1)
यहां पर भी यही कहा गया है रामचंद्र जी ने प्रसन्न होकर हनुमान जी को भेंटा अर्थात गले लगाया । गले लगाने के उपरांत श्री रामचंद्र जी  ने क्या कहा यह इस चौपाई या दोहा में नहीं आया  है । हनुमान चालीसा इस बात को स्पष्ट करता है । हनुमान चालीसा में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि गले लगाने के बाद श्री रामचंद्र जी ने हनुमान जी के लिए क्या कहा ।
श्री रामचरितमानस में हनुमान जी जब सीता जी का पता लगा कर के श्री रामचंद्र जी के पास पहुंचे तब वहां पर पूरे आख्यान को  जामवंत जी ने श्री रामचंद्र जी को बताया। :-
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी।
सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥

पवनतनय के चरित सुहाए।
जामवंत रघुपतिहि सुनाए॥

जामवंत जी ने कहा कि हे नाथ! पवनपुत्र हनुमानजी ने जो काम किया है उसका हजार मुखों से भी वर्णन नहीं किया जा सकता हनुमानजी की प्रशंसा के वचन और कार्य जाम्बवन्त ने श्री रामचन्द्रजी को सुनाये। 
सुनत कृपानिधि मन अति भाए।
पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए॥

कहहु तात केहि भाँति जानकी।
रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥
 उन वचनों को सुनकर दयालु श्रीरामचन्द्न जी  उठकर हनुमानजीको अपनी छातीसे लगाया॥ और श्रीराम ने हनुमानजी से पूछा कि हे तात! कहो, सीता किस तरह रहती है? और अपने प्राणोंकी रक्षा वह किस तरह करती है? 
 यहां पर जामवंत जी ने कहा है कि हनुमान जी ने जो कुछ किया है उसकी प्रशंसा सहस्त्रों  मुख से भी नहीं की जा सकती है । जबकि हनुमान चालीसा में यही बात श्री रामचंद्र जी ने स्वयं कहा है । श्री रामचंद्र ने कहा है कि सहस्त्र मुख वाले शेषनाग जी तुम्हारे यश का वर्णन करेंगे । यहां पर सहस बदन का अर्थ है सहस्त्र बदन । बदन शब्द का अर्थ संस्कृत में मुख से होता है । अतः सहसवदन का अर्थ हुआ सहस्त्र मुख वाले अर्थात शेषनाग जी । 
 यहां पर यह बताया गया है हनुमान जी की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है । अगर शेषनाग जी अपने सभी सहस्त्र मुखों से भी हनुमान जी की प्रशंसा करना चाहे तो भी वह भी नहीं कर पाएंगे । ।
 कबीर दास जी की तरह से तुलसीदास जी भी लिख सकते थे कि :-
 सब धरती कागद करूँ , लेखनी सब बनराय । सात समुद्र की मसि करूँ , गुरु गुण लिखा न जाय ।
 यह कबीर दास जी का दोहा है जो कि भक्ति काल के कवि थे । महात्मा तुलसीदास जी भी भक्ति काल के ही कवि थे । कबीर दास जी का समय तुलसीदास जी से थोड़ा पहले का है । 
 अब यहां प्रश्न यह उठता है की श्रीरामचंद्र जी ने हनुमान जी  के यश के वर्णन के लिए शेषनाग जी को ही क्यों उपयुक्त माना । 

तुलसीदास जी ने संभवत शेषनाग जी का नाम श्री विष्णु के अवतार  श्री रामचंद्र जी के संदर्भ में लिया गया है । धरती ,जंगल ,समुद्र यह सब पार्थिव  हैं ।जबकि शेषनाग जी देवताओं की श्रेणी में आते हैं । श्री लक्ष्मण जी श्री  शेषनाग जी के ही अवतार थे। एक देवता जिसके सहस्त्र मुख है वह भी जिसकी पूर्ण प्रशंसा न कर सके  फिर तो उसकी  पूर्ण प्रशंसा करना संभव ही नहीं है । संभवत यही श्री रामचंद्र जी का हनुमान जी के प्रशंसा के लिए श्री शेषनाग का संदर्भ देने का कारण है । 
इसी चौपाई में आगे श्री रामचंद्र जी को श्रीपति कहा गया है । हनुमान चालीसा में लिखा है "अस कहि श्रीपति कंठ लगावें "। आखिर यहां पर श्री रामचंद्र जी को श्री  अर्थात लक्ष्मी जी से क्यों जोड़ा गया है । उनको श्रीपति अर्थात विष्णु जी क्यों कहा गया है । इस स्थान के अलावा हनुमान चालीसा के किसी अन्य स्थान पर भगवान श्रीराम को श्रीपति कहकर संबोधित नहीं किया गया है। 
यहां पर भगवान श्रीराम को श्री रामचंद्र जी ने कह कर के श्रीपति कहने का विशेष आशय है। हम सभी जानते हैं कि श्री  शब्द का अर्थ है  देवी लक्ष्मी, शुभ, आलोक, समृद्धि, प्रथम, श्रेष्ठ, सौंदर्य, अनुग्रह,  प्रतिभा, गरिमा शक्ति, सरस्वती, आदि ।
श्री शब्द का सबसे पहले ऋग्वेद में उल्लेख मिलता है। अनेक धर्म पुस्तकों में लिखा गया है कि 'श्री' शक्ति है। जिस व्यक्ति में विकास करने की और खोज की शक्ति होती है, वो श्री युक्त माना जाता है।
राम को जब श्रीराम कहा जाता है, तब राम शब्द में ईश्वरत्व का बोध होता है। इसी तरह श्रीकृष्ण, श्रीलक्ष्मी और श्रीविष्णु तथा श्री हरी के नाम में 'श्री' शब्द उनके व्यक्तित्व, कार्य, महानता और अलौकिकता को प्रकट करता है। श्रीपति कहने से स्पष्ट होता है की रामचंद्र जी  कोई साधारण पुरुष नहीं  बल्कि अवतारी पुरुष हैं। अवतारी पुरुष द्वारा हनुमान जी को अपने गले से लगाना प्रतिष्ठा देने की उच्चतम पराकाष्ठा है । रामचंद्र जी वनवास में है परंतु अयोध्या के होने वाले राजा भी हैं। किष्किंधा के राजा सुग्रीव के मित्र भी हैं । इसके अलावा श्रीलंका के निर्वासित सरकार के मुखिया  विभीषण जी को राज्य प्राप्त करने में सहायक भी हैं ।   
सनकादिक का अर्थ है सनक सनंदन सनातन और सनत्कुमार ।  सृष्टि के आरंभ में लोक पितामह ब्रह्मा ने अनेक लोकों की रचना करने की इच्छा से घोर तपस्या की। उनके तप से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने तप अर्थ वाले सन नाम से युक्त होकर सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार नाम के चार मुनियों के रूप में अवतार लिया। ये चारों प्राकट्य काल से ही मोक्ष मार्ग परायण, ध्यान में तल्लीन रहने वाले, नित्यसिद्ध एवं नित्य विरक्त थे। ये भगवान विष्णु के सर्वप्रथम अवतार माने जाते हैं।
 यह सभी सर्वदा पांच वर्ष आयु के ही रहे। न कभी जवान हुए ना बुढ़े। चार भाई एक साथ ही रहते हैं ब्रह्मांड में विचरण करते रहते हैं। यह चारों भाई  जहां भी जाते हैं निरंतर भजन और कीर्तन में मग्न रहते हैं । एक प्रकार से हम कह सकते हैं कि यह निरंतर बोलते रहते हैं । या तो ये भजन को भजन के रूप में बोलते हैं या कीर्तन के रूप में बोलते हैं । इस चौपाई में   इनके नाम लेने का आशय यह है कि अगर यह चारों मुनि जो कि विष्णु भगवान के अवतार हैं अगर बगैर रुके हनुमानजी की प्रशंसा करते रहे तो भी चारों मिलकर भी हनुमान जी की प्रशंसा पूर्णरूपेण नहीं कर पाएंगे।
 दूसरा शब्द है ब्रह्मादि । इस शब्द का आशय बिल्कुल स्पष्ट है । ब्रह्मादि का  अर्थ है  देव त्रयी अर्थात ब्रह्मा जी विष्णु जी और शिव जी । हिंदू धर्म यह माना जाता है इनका स्थान सभी देवताओं से ऊपर है । परंतु उनके भक्तों में इस बात का युद्ध रहता है कि इनमें  बड़ा कौन है । विष्णु पुराण के अनुसार विष्णु जी  सबसे पहले ब्रह्मांड में आए फिर उसके बाद शिव जी और ब्रह्मा जी आए । शिव पुराण के अनुसार शिवजी सबसे बड़े हैं । अगर हम इनके चित्र देखें तो ब्रह्मा जी सबसे वृद्ध दिखाई देते हैं । ब्रह्मा जी के बाद शिवजी और उसके उपरांत विष्णु जी  कम आयु के दिखाई पड़ते हैं । परंतु वास्तव में यह तीनों एक ही है । केवल अलग-अलग कार्यों के लिए ये अलग अलग हो गए हैं । सृष्टि की रचना ब्रह्मा जी करते हैं । उनकी पत्नी सरस्वती जी  ज्ञान की देवी हैं । वे इस कार्य में उनकी मदद करती है । इस पूरे जगत का पालनकर्ता भगवान विष्णु है ।  वह लक्ष्मी जी के साथ शेष शैया पर  क्षीर सागर में निवास करते हैं ।भगवान शिव विलीन कर्ता है । यह अपनी पत्नी और परिवार के साथ कैलाश पर्वत पर निवास करते हैं । यह सभी अजन्मे है । सभी शक्ति युक्त है । अलग-अलग कार्यों के लिए विभिन्न नाम से पुकारे जाते हैं । इस चौपाई के अनुसार  ये सभी शक्तिशाली देवता भी अगर मिलकर हनुमानजी की प्रशंसा करना चाहे तो नहीं कर सकते । 
अगला शब्द मुनीसा है जिसका आशय है सभी मुनि गण । ये ऋषि और मुनि धरती पर निवास करने वाला बौद्धिक वर्ग हैं जोकि निरंतर यज्ञ -हवन कीर्तन-भजन आदि  कर्मों में लगा रहता है। इनकी संख्या करोड़ों में है। ‌ इस चौपाई के अनुसार  ये सभी भी मिलकर अगर हनुमान जी के कार्यों की प्रशंसा करना चाहे तो नहीं कर पाएंगे।
चौपाई के अगले खंड में "नारद सारद सहित अहीसा" कहा गया है । 
नारद मुनि ब्रह्मा जी के छह पुत्रों में से छठे नंबर के हैं । उन्होंने कठिन तपस्या करने के उपरांत ब्रह्मर्षि पद को प्राप्त कर लिया है ।  नारद जी सदैव धर्म का प्रचार करते रहते हैं । वे पूरे  ब्रह्मांड का भ्रमण करते रहते हैं। विष्णु जी के साथ इन का विशेष संपर्क है । ये सदा    विष्णु जी की आराधना करते हैं । इनकी प्रशंसा में श्रीमद्भगवद्गीता के दशम अध्याय के २६वें श्लोक में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है - "देवर्षीणाम् च नारद:। "
देवर्षियों में मैं नारद हूं   इनका कार्य सदैव बोलने का ही है ।
मां शारदा या सरस्वती विद्या की देवी है पूरा ज्ञान इनसे ही है । 
अहीसा का अर्थ है सांपों का  देवता अर्थात शेषनाग जी । शेषनाग जी के एक सहस्त्र मुख हैं । यह भी माना जाता है इनसे ज्यादा मुख किसी और प्राणी के पास नहीं । इस प्रकार मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र कहते हैं कि यह सभी मिलकर के भी हनुमान जी द्वारा किए गए कार्यों की पूर्ण प्रशंसा करने में असमर्थ हैं ।  इसका अर्थ यह भी लगाया जा सकता है कि हनुमान जी के कार्यों की पूर्ण प्रशंसा करना असंभव है। अगली दो चौपाइयां भी इन्हीं चौपाइयों उसके साथ जुड़ी हुई है । उन चौपाइयों का अर्थ अगले भाग में बताया जाएगा।

जम कुबेर दिगपाल जहां ते, 
कबि कोबिद कहि सके कहां ते ।।
अर्थ:-यमराज, कुबेर आदि सब दिशाओं के रक्षक, कवि विद्वान, पंडित या कोई भी आपके यश का पूर्णतः वर्णन नहीं कर सकते।

भावार्थ:- यह चौपाई श्री रामचंद्र जी द्वारा हनुमान जी की प्रशंसा में कही गई है । उन्होंने कहा है कि यम अर्थात यमराज , जो हर व्यक्ति का लेखा जोखा रखते हैं , कुबेर अर्थात विश्व के सभी ऐश्वर्य के स्वामी दसों दिगपाल  अर्थात दसों दिशाओं के रक्षक  देवता गण    विश्व के सभी कवि सभी विद्वान सभी पंडित मिलकर के भी  आपके यश का पूर्णत वर्णन नहीं कर सकते हैं ।

संदेश- 
अगर आप अच्छी इच्छा शक्ति और अच्छे इरादे  के साथ  कर्म करें तो  आपकी प्रशंसा करने के लिए सभी बाध्य हो जाते हैं । 

इस चौपाई का बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ:-
जम कुबेर दिगपाल जहां ते, कबि कोबिद कहि सके कहां ते ।।
हनुमान चालीसा की इस चौपाई के बार बार पाठ करने से यश कीर्ति की वृद्धि होती है, मान सम्मान बढ़ता है ।

विवेचना:-
यह चौपाई  "जम कुबेर दिगपाल जहां ते, कबि कोबिद कहि सके कहां ते " इसके पहले की चौपाई "सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा नारद सारद सहित अहीसा " के साथ पढ़ी जानी चाहिए । इस चौपाई में भी श्री रामचंद्र जी ने हनुमान जी की प्रशंसा की है। यम से यहां पर आशय यमराज से है जो कि मृत्यु के देवता है । इनकी पिताजी भगवान सूर्य कहे जाते हैं और यमुना जी इनकी बहन है । इनके अन्य भाई बहनों के नाम शनिदेव , अश्वनीकुमार ,  भद्रा , वैवस्वत मनु , रेवंत , सुग्रीव , श्राद्धदेव मनु और कर्ण  है । इनके एक पुत्र का नाम युधिष्ठिर है जो पांच पांडवों में से एक  हैं । यमराज जी जीवों के शुभाशुभ कर्मों के निर्णायक हैं।  वे परम भागवत, बारह भागवताचार्यों में हैं। यमराज दक्षिण दिशा के दिक्पाल कहे जाते हैं । ये समस्त जीवो के अच्छे और बुरे कर्मों को बताते हैं । परंतु ये भी हनुमान जी द्वारा किए गए अच्छे कार्यों को  पूर्णरूपेण बताने में असफल हैं ।
कुबेर जी धन के देवता माने जाते हैं पूरे ब्रह्मांड का धन इनके पास है । यक्षों के राजा कुबेर उत्तर दिशा के दिक्पाल हैं। संसार के रक्षक लोकपाल भी हैं। इनके पिता महर्षि विश्रवा थे और माता देववर्णिणी थीं। ।  वह रावण, कुंभकर्ण और विभीषण के सौतेले भाई हैं  ।   धन के देवता कुबेर को भगवान शिव का द्वारपाल भी बताया जाता है। श्री कुबेर जी के पास ब्रह्मांड का पूरा धन होने के उपरांत भी वे हनुमान जी की कीर्ति की व्याख्या पूर्ण करने में असमर्थ हैं। 
सनातन धर्म के ग्रंथों में दिक्पालों का बड़ा महत्व है । सनातन धर्म के अनुसार 10 दिशाएं होती हैं और हर दिशा का की रक्षा करने के लिए एक दिग्पाल हैं ।  यथा-पूर्व के इन्द्र, अग्निकोण के वह्रि, दक्षिण के यम, नैऋत्यकोण के नैऋत, पश्चिम के वरूण, वायु कोण के मरूत्, उत्तर के कुबेर, ईशान कोण के ईश, ऊर्ध्व दिशा के ब्रह्मा और अधो दिशा के अनंत। दसों दिशाओं में होने वाली हर कार्यवाही की पर इनकी नजर होती है । परंतु श्री रामचंद्र जी के अनुसार ये भी हनुमान जी की पूर्ण प्रशंसा  करने में असमर्थ हैं।
कहां जाता है कि जहां न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि ।  परंतु ये कवि गण भी हनुमान जी की पूर्ण प्रशंसा करने में असमर्थ हैं ।

अगर हम हनुमान जी के हर एक गुण का अलग-अलग वर्णन करें तो भी हम  हनुमान जी के समस्त गुणों  को लेखनीबद्ध नहीं कर सकते हैं । जैसे कि उनके दूतकर्म के  लिए  वाल्मीकि रामायण में श्री रामचंद्र जी के मुंह से कहा गया है:-
एवम् गुण गणैर् युक्ता यस्य स्युः कार्य साधकाः ।
स्य सिद्ध्यन्ति सर्वेSर्था दूत वाक्य प्रचोदिताः ।।
(वाल्मीकि रामायण, किष्किंधाकांड)

अर्थात हे लक्ष्मण एक राजा के पास हनुमान जैसा दूत होना चाहिए जो अपने गुणों से सारे कार्य कर सके। ऐसे दूत के शब्दों से किसी भी राजा के सारे कार्य सफलता पूर्वक पूरे हो सकते हैं ।
सीता जी का पता लगाने के लिए जामवंत जी की कसौटी पर केवल हनुमान जी ही खरे उतरते हैं ।देखिए जामवंत जी ने क्या कहा :-
हनुमन् हरि राजस्य सुग्रीवस्य समो हि असि |
राम लक्ष्मणयोः च अपि तेजसा च बलेन च || (वाल्मीकि रामायण/सुंदरकांड-६६-३)

अर्थात हे हनुमान आप वीरता में वानरों के राजा सुग्रीव के समान हैं । आपकी वीरता स्वयं श्री राम और लक्ष्मण के बराबर है ।

रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने अवतरण का उद्देश्य भी स्पष्ट किया है –
राम काज लगि तब अवतारा।
सुनतहिं भयउ परबतकारा ।।
अर्थात – महावीर हनुमान जी का जन्म ही राम काज करने के लिए हुआ था ।  यह सुनते ही हनुमान जी पर्वत के आकार के बराबर  हो गए ।
जब हनुमान जी मां जानकी का पता लगाने के अलावा लंका को जला कर वापस लौटे ।  उसके उपरांत सभी बंदर भालू श्री रामचंद्र जी के पास आए तब जामवंत जी ने हनुमान जी की प्रशंसा में श्री राम चंद्र जी से कहा:-
नाथ पवसुत कीन्हीं जो करनी ।
सहसहुं मुख न जाई सो बरनी ।।
पवनतनय के चरित सुहाए ।
सुनत कृपानिधि मन अति भाए ।।
श्रीरामचंद्र जी ने जब यह सुना कि हनुमान जी लंका जलाकर आए हैं तब उन्होंने परम वीर हनुमान जी से घटना का पूरा विवरण जानना चाहा :-
कहु कपि रावन पालित लंका ।
केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका ।।
महावीर स्वामी महावीर हनुमान जी ने इसका बड़ा छोटा सा जवाब दिया प्रभु यह सब आपकी कृपा की वजह से हुआ है । यह विनयशीलता की पराकाष्ठा है:-
 प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना । 
 बोला बचन बिगत हनुमाना ।।
साखा मृग के बड़ी मनुसाई । 
साखा ते साखा पर जाई ।।
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा । 
निसिचर गन बधि बिपिन उजारा ।।
सो सब तव प्रताप रघुराई। 
नाथ न मोरी कछु प्रभुताई ।
ता कहूं प्रभु कछु अगम नहीं जा पर तुम्ह अनुकूल ।
तव प्रभावं बड़वानलहि जारि सकल खलु तूल ।।
(रामचरितमानस/सुंदरकांड)
अर्थात महावीर हनुमान जी अपने श्री राम को प्रसन्न देख कर अपने अभिमान और अहंकार का त्याग कर अपने कार्यों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि एक बंदर की क्या विशेषता हो सकती है । वो तो एक पेड़ की शाखा से दूसरी शाखा पर कूदता रहता है । इसी तरह से मैंने समुद्र पार किया और सोने की लंका जलाई। राक्षसों का वध किया और अशोक वाटिका उजाड दी ।
हे प्रभु  ये सब आपकी प्रभुता का कमाल है । मेरी इसमें कोई शक्ति नहीं है । आप जिस पर भी अनुकूल हो जाते हैं उसके लिए कोई भी कार्य असंभव नहीं होता । आपके प्रभाव से तुरंत जल जाने वाली रुई भी एक बड़े जंगल को जला सकती है ।
सूरदास जी ने सूरसागर के नवम स्कंद के 147 वें पद में लिखा है :-
कहाँ गयौ मारुत-पुत्र कुमार।
ह्वै अनाथ रघुनाथ पुकारे, संकट-मित्र हमार ।।
इतनी बिपति भरत सुनि पावैं आवैं साजि बरूथ।
कर गहि धनुष जगत कौं जीतैं, कितिक निसाचर जूथ।
नाहिं न और बियौ कोउ समरथ, जाहि पठावौं दूत।
को अब है पौरुष दिखरावै, बिना पौन के पूत?
इतनौ वचन स्त्र वन सुनि हरष्यौ, फूल्यौ अंग न मात।
लै-लै चरन-रेनु निज प्रभु की, रिपु कैं स्त्रोनित न्हात।
अहो पुनीत मीत केसरि-सुत,तुम हित बंधु हमारे।
जिह्वा रोम-रोम-प्रति नाहीं, पौरुष गनौं तुम्हारे!
जहाँ-जहाँ जिहिं काल सँभारे,तहँ-तहँ त्रास निवारे।
सूर सहाइ कियौ बन बसि कै, बन-बिपदा दुख टारै॥147॥
यह पद लक्ष्मण जी को शक्ति लगने के उपरांत की प्रकृति का वर्णन करता है। उस समय श्री हनुमान जी संजीवनी बूटी ढूंढ़ने के बजाय पूरा पर्वत ही उठा कर ले आते हैं और श्री लक्ष्मण जी के प्राण बचाते हैं । हनुमान जी की सेवा के अधीन होकर प्रभु श्रीराम ने उन्हें अपने पास बुला कर कहा—

कपि-सेवा बस भये कनौड़े, कह्यौ पवनसुत आउ ।
देबेको न कछू रिनियाँ हौं, धनिक तूँ पत्र लिखाउ ।। (विनय-पत्रिका पद १००।७)

‘भैया हनुमान ! तुम्हें मेरे पास देने को तो कुछ है नहीं; मैं तेरा ऋणी हूँ तथा तू मेरा धनी (साहूकार) है । बस इसी बात की तू मुझसे सनद लिखा ले ।’
इसी प्रकार समय-समय पर हनुमान जी की प्रशंसा मां जानकी , भरत जी, लक्ष्मण जी, रावण एवं अन्य देवताओं ने की है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि हनुमान जी की प्रशंसा में हर किसी ने कुछ न कुछ कहा है परंतु तब भी उनकी प्रशंसा पूर्ण नहीं हो पाई है । ऐसे हनुमान जी से प्रार्थना है कि वे हमारी रक्षा करें ।
जय हनुमान

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