Editor: Vinod Arya | 94244 37885

श्री हनुमान चालीसा के दोहे में छिपा है जीवन रहस्य, जाने भावार्थ▪️पंडित अनिल पाण्डेय

श्री हनुमान चालीसा के दोहे में छिपा है जीवन रहस्य, जाने भावार्थ
▪️पंडित अनिल पाण्डेय


______________________________
हरेक मंगलवार !/ शनिवार को पढ़ेंगे श्री हनुमान चालीसा के दोहों का भावार्थ
_________________________________
हमारे हनुमान जी- 

जय हनुमान ज्ञान गुण सागर,
जय कपीस तिहुं लोक उजागर।
राम दूत अतुलित बल धामा,
अंजनि पुत्र पवनसुत नामा।। 

अर्थ-
हे हनुमान जी आप ज्ञान और गुण के सागर हैं। आप की जय जय कार होवे। हे वानर राज आपकी कीर्ति आकाश पाताल एवं भूलोक तीनों फैली हुई है। आप रामचंद्र जी के दूत है ,अतुलित बल के स्वामी हैं, अंजनी के पुत्र हैं और आप का एक नाम पवनसुत भी है। 

भावार्थ-
यहां पर हनुमान जी की तुलना समुद्र से की गई है। समुद्र से तुलना का यहां पर आशय है कि वह स्थान जहां पर अथाह जल हो । जहां पर सभी स्थानों का जल आकर मिल जाता हो। इसी प्रकार हनुमान जी भी ज्ञान  और गुण के सागर हैं। जिस प्रकार सागर से अधिक पानी कहीं नहीं है, उसी प्रकार हनुमान जी से अधिक ज्ञान और गुण कहीं नहीं है। इसके अलावा सब जगह का ज्ञान और गुण हनुमान जी में आकर मिल जाता है। 

हनुमान जी रूद्र अवतार हैं, इसलिए कपीश भी हैं। वे जहां पर रहते हैं, वहां पर सदैव प्रकाश रहता है। अंधेरा वहां से बहुत दूर भाग जाता है। हनुमान जी की प्रशंसा करते हुए तुलसीदास जी पुनः कहते हैं कि आप रामचंद्र जी के दूत हैं। आप अतुलनीय बल के स्वामी हैं। अंजनी और पवन देव के पुत्र हैं।

संदेश- 
श्री हनुमान जी से बलशाली कोई नहीं है। हनुमान जी प्रभु श्री राम के सेवक हैं और उनके पास बहुत से शक्तियां है, जो उन्होंने अपने परिश्रम और अच्छे कर्मों से अर्जित की हैं। इसलिए उनके पराक्रम की चर्चा हर ओर होती है। इससे संदेश मिलता है कि बल अपने पराक्रम से अर्जित किया जा सकता है। फिर चाहे राजा हो या सेवक। 

चौपाई  को बार-बार पढ़ने से होने वाला लाभ- 

जय हनुमान ज्ञान गुण सागर,
जय कपीस तिहुं लोक उजागर।
राम दूत अतुलित बल धामा,
अंजनि पुत्र पवनसुत नामा।। 

हनुमान चालीसा की इन दोनों चौपाइयों का बार-बार पाठ करने से हनुमत कृपा से आत्मिक और शारीरिक बल की प्राप्ति होती है। 

विवेचना-
हम सभी जानते हैं की बाहु बल, धन बल और बुद्धि बल तीन प्रकार के बल होते हैं। यह क्रमशः एक दूसरे से ज्यादा सशक्त होते हैं। जन बल को बाहुबल का ही एक अंग माना गया है। बुद्धि बल से आज का इन्सान नई-नई खोज करके मानव सभ्यता को श्रेष्ठतम ऊंचाइयों पर पहुंचाने की कोशिश में लगा है। उसका बुद्धि बल ही उसे साधारण मानव से महान बना रहा है। इसी बुद्धिबल से हम सब निकलकर समाज में व्याप्त बुराइयों को सरलता से दूर कर सकते हैं। 


हनुमान जी बुद्धि बल में अत्यंत सशक्त हैं, यह बात माता सीता ने भी अशोक वाटिका में उनको फल फूल खाने की अनुमति देने के पहले देखी थी-
देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु॥ 

हनुमान जी को बुद्धि और बल में निपुण देखकर जानकी जी ने कहा- जाओ। हे तात! श्री रघुनाथ जी के चरणों को हृदय में धारण करके मीठे फल खाओ॥ 

हनुमान जी ने ज्ञान प्राप्त करने के लिए सूर्य भगवान को अपना गुरु बनाया था। भगवान सूर्य की शर्त थी कि वह कभी रुकते नहीं है। हनुमान जी को भी उनके साथ साथ ही चलना होगा। हनुमान जी ने भगवान सूर्य के रथ के साथ चलकर के सूर्य भगवान से सभी प्रकार का ज्ञान प्राप्त किया था। पृथ्वी पर निवासरत सभी प्राणियों को सबसे ज्यादा ऊर्जा सूर्य देव से प्राप्त होती है। भगवान सूर्य से ज्ञान प्राप्त करने के उपरांत हनुमान जी की ऊर्जा भी सूर्य के बराबर हो गयी। इस प्रकार हनुमान जी इस पृथ्वी पर सबसे ज्यादा ऊर्जावान और ज्ञानवान हुए। जिस प्रकार सूर्य अपनी ऊर्जा से सभी को ऊर्जावान करता है, उसी प्रकार हनुमान जी के भी तू यूतेज से सभी प्रकाशमान होते हैं। 

इस चौपाई में हनुमान जी के बारे में कई बातें बताई गई हैं। जिसमें पहला संदेश है की हनुमान जी रामचंद्र जी के दूत हैं। केवल हनुमान जी को ही रामचंद्र जी का दूत माना गया है। अन्य किसी को यह अधिकार प्राप्त नहीं है। रामचंद्र जी से जैसे अवतारी पुरुष के दूत के पास बहुत सारे गुण होने चाहिए। ये सभी गुण पृथ्वी पर हनुमान जी को छोड़कर और किसी के पास न थे और ना है। श्रीलंका में दूत बनकर जाते समय सबसे पहले उन्होंने महासागर को पार किया। यह सभी जानते हैं कि शत योजन समुद्र को पार करने के लिए हनुमान जी के पास ताकत थी। राम जी के प्रति उनकी अनुपम भक्ति ने उनके अतुलित बल को अक्षय ऊर्जा दी थी। हनुमान जी ने समुद्र को पार करने के पहले ही अपने आत्मविश्वास के कारण कार्य सिद्ध होने की भविष्यवाणी कर दी थी। 

रामचरितमानस में उन्होंने कहा है- 

"होइहहीं काजु मोहि हरष विसेषी।" 

समुद्र को पार करते समय उनके अनुपम बल का परिणाम था कि जिस पर्वत पर उन्होंने पांव रखा वह पताल चला गया। 

रामचरितमानस में बताया गया है- 

"जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता,
चलेऊ सो गा पाताल तुरंता" 

हनुमान जी के जाने के बारे में रामचरित मानस में लिखा है- 

"जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।
एही भांति चलेउ हनुमाना।" 

इसके उपरांत उन्होंने श्रीलंका पहुंचकर अपने रूप को छोटा या छुपने योग्य बनाया। वहां पर उन्होंने लंकिनी को हराकर अपनी तरफ मिलाया। उन्होंने लंकिनी से अपने शर्तों पर संधि की। यह उनके शत्रु क्षेत्र में जाकर शत्रुओं के बीच में से एक प्रमुख योद्धा को अपनी तरफ मिलाने की कला को भी दर्शाता है। 

श्रीलंका में घुसने के उपरांत उन्होंने विभीषण जी से संपर्क किया, जिसके कारण वे सीता जी तक पहुंचने में सफल हुए। यह उनके विदेश में जाकर शासन से नाराज लोगों को अपनी तरफ मिलाने की कला को प्रदर्शित करता है। 


श्रीलंका में सीता जी के पास पहुंच कर वहां पर उन्होंने सीता जी के अंदर रामचंद्र जी की सेना के प्रति विश्वास पैदा किया। यह उनकी तार्किक शक्ति को बताता है। अंत में अपने वाक् चातुर्य के कारण, रावण के दरबार को भ्रमित कर, उनसे संसाधन प्राप्त कर लंका को जलाया। यह उनके अतुल बुद्धि और अकल्पनीय शक्ति को दिखाता है। 

लंका दहन के उपरांत हनुमान जी पहले मां जानकी से मिलने जाते हैं। उनको प्रणाम करने के उपरांत वे माता जानकी से  श्री रामचंद्र जी के लिए संदेश मांगते हैं। साथ ही कोई ऐसी वस्तु मानते हैं, जिसको वह प्रमाण सहित रामचंद जी को सौंप सकें- 

माते संदेश मुझे दें जिसको रघुवर ले जाऊंगा।
कोई ऐसी वस्तु दें मुझको, जिससे प्रमाण कर पाऊंगा।। 

रामचरितमानस में इसी प्रसंग के लिए लिखा गया है- 

मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा। जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा॥
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ॥1।।

हनुमान जी ने कहा- हे माता! मुझे कोई चिह्न (पहचान) दीजिए, जैसे श्री रघुनाथ जी ने मुझे दिया था। तब सीता जी ने चूड़ामणि उतार कर दी। हनुमान जी ने उसको हर्षपूर्वक ले लिया॥1॥ 

इसके उपरांत सीता जी को प्रणाम कर, हनुमान जी श्री रामचंद्र जी के पास चलने को उद्धत हुए और  पर्वत पर चढ़ गए- 

जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह।
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह॥ 

हनुमान जी ने जानकी जी को समझाकर, बहुत प्रकार से धीरज दिया और उनके चरणकमलों में सिर नवाकर श्री राम जी के पास चल दिए। 

हनुमान जी के बल की तुलना किसी से भी नहीं की जा सकती है। बार-बार श्री रामचंद्र जी ने स्वयं हनुमान जी को सर्व शक्तिशाली बताया है। इसके अलावा अगस्त ऋषि सीता जी और भी अन्य आति बलशाली माना है। 

वाल्मीकि रामायण में एक उदाहरण आता है, जिसमें भगवान राम ने अपने श्री मुख से हनुमान जी के गुणों का वर्णन अगस्त मुनि से किया है। जिसमें वे बताते हैं कि हनुमान जी के अंदर शौर्य, दक्षता, बल, धैर्य, बुद्धि, नीति, पराक्रम और प्रभाव यह सभी गुण हैं। रामचंद्र जी ने यह भी कहा कि "मैंने तो हनुमान की पराक्रम से ही विभीषण के लिए लंका पर विजय प्राप्त की और सीता, लक्ष्मण और अपने बंधुओं को भी हनुमान जी के पराक्रम की वजह से प्राप्त कर पाया।" 

एतस्य बाहुवीर्यण लंका सीता च लक्ष्मण।
प्राप्त मया जयश्रेच्व  राज्यम मित्राणि बांधेवाः।। (वाल्मीकि रामायण/उत्तराकांड/35/9) 


वाल्मीकि रामायण के उत्तराखंड के 35 अध्याय के 15 श्लोक में अगस्त मुनि ने हनुमान जी के लिए कहा है- 

सत्यमेतद् रघुश्रेष्ठ यद् ब्रवीषि हनूमति ।
न बले विद्यते तुल्यो न गतौ न मतौ परः॥ (वाल्मीकि रामायण/उत्तराकांड/35/15) 

हम सभी जानते हैं कि वे माता अंजनी के पुत्र हैं। हनुमान जी के जीवन में माता अंजनी के पुत्र के होने के क्या मायने हैं। माता अंजनी कौन है? सभी जानते हैं कि  माता अंजनी का विवाह वानर राज केसरी से हुआ था। फिर हनुमानजी पवनसुत कैसे कहलाते हैं? आखिर क्या रहस्य है? यह पूरा रहस्य पौराणिक आख्यानों में छुपा हुआ है। 

माता अंजनी पहले पुंजिकास्थली नामक इंद्रदेव की दरबार की एक अप्सरा थीं। उनको अपने रूप का बड़ा घमंड था। पहली कहानी के अनुसार उन्होंने खेल खेल में तप कर रहे ऋषि का तप भंग कर दिया था। जिसके कारण ऋषिवर ने उनको वानरी अर्थात रूप विहीन होने का श्राप दे दिया था। दूसरी कहानी के अनुसार दुर्वासा ऋषि इंद्रदेव की सभा में आए थे। वहां पर पुंजिकास्थली नामक अप्सरा ने दुर्वासा ऋषि जी का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए कुछ प्रयोग किए। जिस पर ऋषिवर क्रोधित हो गए और उसको वानरी अर्थात रूप विहीन होने का श्राप दिया। इसके उपरांत माता अंजनी का विराज नामक वानर के घर जन्म हुआ। माता अंजनी को केसरी जी से प्रेम हुआ और दोनों का विवाह हुआ। हनुमान जी को आञ्जनेय, अंजनी पुत्र और केसरी नंदन भी कहां जाने लगा। 

परंतु यहां तुलसीदास जी ने "अंजनी पुत्र पवनसुत नामा" कहा है। उन्होंने केसरी नंदन नहीं कहा। वाल्मीकि रामायण के सुंदरकांड में हनुमान जी ने रावण को अपना परिचय देते हुए कहा "मेरा नाम हनुमान है और मैं पवन देव का औरस पुत्र हूं।" 

अहम् तु हनुमान्नाम मारुतस्यौरसः सुतः।
(वाल्मीकि रामायण/सुंदरकांड/51/15-16) 

अगर हम रामचरितमानस पर ध्यान दें तो उसमें एक प्रसंग आता है। जो इस तरह है- रावण की मृत्यु के बाद रामचंद जी वापस अयोध्या लौटना प्रारंभ करते हैं, तो उनको ख्याल आता है कि यह संदेश भरत जी के पास तत्काल पहुंच जाना चाहिए। तब उन्होंने यह कार्य हनुमान जी को सौंपा। पवन पुत्र ने पवन वेग से इस कार्य को तत्काल संपन्न किया। 

इन दोनों चौपाइयों के समदृश्य राम रक्षा स्त्रोत का यह मंत्र है- 

मनोजं मारुततुल्यवेगं
जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरीष्ठम्।
वातात्मजं वनरूथमुख्यं
श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये। 

इस श्लोक में कहा गया है की मैं श्री हनुमान की शरण लेता हूं। जो मन से भी तेज हैं और जिनका वेग पवन देव के समान है। जिन्होंने अपनी इंद्रियों को जीत लिया है, अर्थात उनकी सभी इंद्रियां उनके वश में हैं, वे इंद्रियों के स्वामी हैं। वे परम बुद्धिमान, और इन्द्रियनिग्रही और वानरों में मुख्य हैं। जो पवन देवता के पुत्र हैं, (जो उनके अवतार के दौरान श्री राम की सेवा करने के लिए अवतरित भगवान शिव के अंश थे) की मैं उनके सामने दंडवत करके उनकी शरण लेता हूं। 



महाबीर बिक्रम बजरंगी, कुमति निवार सुमति के संगी।
कंचन बरन बिराज सुबेसा, कानन कुंडल कुंचित केसा॥

अर्थ- 
श्री हनुमान आप एक महान वीर और सबसे अधिक बलवान हैं, आपके अंग  वज्र के समान मजबूत हैं। आपकी आराधना करके   नकारात्मक बुद्धि और सोच का नाश होता है ।  सद्बुद्धि आती है। आपका रंग कंचन अर्थात सोने जैसा चमकदार है। आपके कानों में पड़े कुंडल और घुंघराले केश आपकी शोभा को बढ़ाते हैं।

भावार्थ:-
अगर आपको किसी को प्रसन्न करना है तो सबसे पहले उसके गुणों का वर्णन करना पड़ेगा । श्री हनुमान जी को प्रसन्न करने के लिए तुलसीदास जी उनके गुणों का बखान कर रहे हैं । महावीर हनुमान जी दया त्याग विद्या  की खान हैं ।   हनुमान जी का वीरता में कोई मुकाबला नहीं है इसीलिए उनको महावीर कहा जाता है । अत्यंत पराक्रमी और अजेय होने के कारण हनुमान जी विक्रम और बजरंगी भी हैं ।  प्राणी मात्र के परम हितेषी होने के कारण उन्हें बचाने के लिए प्राणियों के मस्तिष्क से खराब विचार हटाकर अच्छे विचारों को डालते हैं ।
इस चौपाई में हनुमान जी के सुंदर स्वरूप का वर्णन हुआ है । उनके एक हाथ में वज्र के समान गदा है और दूसरे हाथ में सनातन धर्म का विजय  ध्वज है । उनके कंधे पर मूंज का जनेऊ विराजमान है । यह उनके ब्रह्मचारी एवं ज्ञानी होने का  प्रतीक है। सभी प्रकार के अच्छे गुणों से श्री हनुमान जी सुसज्जित हैं ।

संदेश- 
अगर आप श्री हनुमान जी के स्वरूप का स्मरण करते हैं तो आपकी बुद्धि पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है और वह शुद्ध हो जाती है।

इस चौपाई के बार-बार पाठ करने से होने वाला लाभ:-
1-महाबीर बिक्रम बजरंगी, कुमति निवार सुमति के संगी।
हनुमान चालीसा की इस चौपाई से बुरी संगत से छुटकारा और अच्छे लोगो का साथ मिलता है ।

2-कंचन बरन बिराज सुबेसा, कानन कुंडल कुंचित केसा॥
हनुमान चालीसा की इस चौपाई से आर्थिक समृद्धि अच्छा खानपान, संस्कार और पहनावा प्राप्त होता है


विवेचना:-
इस चौपाई में मुख्य रूप से हनुमान जी के भौतिक शरीर का वर्णन है । हनुमान जी को महावीर विक्रम बजरंगी , कंचन वर्ण वाले अच्छे कपड़े पहनने वाले कानों में कुंडल वाले पिता घुंघराले केश वाले बताया गया है परंतु सबसे पहले उनको महावीर कहा गया है । सच्चे वीर पुरुष में धैर्य, गम्भीरता, स्वाभिमान, साहस आदि गुण होते हैं। उनमें उच्च मनोबल, पवित्रता और सबके प्रति प्रेम की भावना होती है। महावीर के अंदर इन गुणों की मात्रा अनंत होती है ।  अनंत का अर्थ होता है जिसकी कोई सीमा न हो ,जिसको नापा ना जा सके , जिसकी कोई तुलना ना हो सके आदि । हनुमान जी का एक नाम महावीर भी प्रचलित है ।   महावीर वह होता है जो सभी की सभी तरफ से सभी दुखों सभी कष्टों से रक्षा कर सकें और रक्षा करता हो   । क्योंकि हनुमान जी यह सब करने में सक्षम है तथा सब की रक्षा करते हैं अतः उनको महावीर कहा गया है । कवि उनके विक्रम  बलशाली महावीर रूप की आराधना सबसे पहले करना चाहता है जिससे सभी की रक्षा हो सके।
हनुमान जी को सर्वश्रेष्ठ  सिद्ध करने के लिए और इस चौपाई में दिए गए वर्णन को सिद्ध करने के लिए रामचरितमानस के सुंदरकांड की तीसरा श्लोक पर्याप्त है :-
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं  दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्‌ ।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ।
श्री हनुमान जी अतुलितबल के स्वामी हैं। वे स्वर्ण पर्वत, सुमेरु के समान प्रकाशित हैं। श्री हनुमान दानवों के जंगल को समाप्त करने के लिए अग्नि रूप में हैं। वे ज्ञानियों में अग्रणी रहते हैं। श्री हनुमान समस्त गुणों के स्वामी हैं और वानरों के प्रमुख हैं। श्री हनुमान रघुपति श्री राम के प्रिय और वायु पुत्र हैं।
हनुमान जी महावीर है इस बात को श्री रामचंद्र जी ने अगस्त मुनि ने सीता जी ने और अंत में रावण ने भी कहा है । हनुमान जी के ताकत का अनुमान देवताओं के राजा इंद्र और सूर्य देव को भी है ।जिन्होंने हनुमान जी के ताकत का स्वाद चखा था । हनुमान जी के बल का अनुमान भगवान कृष्ण को भी है जिन्होंने भीम के घमंड को तोड़ने के लिए हनुमान जी को चुना था। 
अब चौपाई के अगले चरण पर आते हैं जिसमें कहा गया है "कुमति निवार सुमति के संगी " । 
हमको यह समझना पड़ेगा सुमति और कुमति  में क्या अंतर है। अगर हम साधारण अर्थ में समझना चाहें तो कुमति  का अर्थ है नकारात्मक विचार और सुमति का अर्थ है सकारात्मक विचार । रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने कहा है लिखा है:-
सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥3॥
हे नाथ! पुराण और वेद ऐसा कहते हैं कि सुबुद्धि (अच्छी बुद्धि) और कुबुद्धि (खोटी बुद्धि) सबके हृदय में रहती है, जहाँ सुबुद्धि है, वहाँ नाना प्रकार की संपदाएँ (सुख की स्थिति) रहती हैं और जहाँ कुबुद्धि है वहाँ परिणाम में विपत्ति (दुःख) रहती है॥
व्यक्ति को सुख-समृद्धि पाने के लिए, प्रगति एवं विकास के लिए हमेशा सुबुद्धि से काम लेकर सुविचारित ढंग से अपना प्रत्येक कार्य निष्पादित करना चाहिए। सुमति का मार्ग ही मानव के कल्याण का मार्ग है। हनुमान जी आपके बुद्धि से कुमति को हटा करके सुमति को लाते हैं । इसके कारण आप  कल्याण के मार्ग पर चलने लगते हैं और बुद्धि  अच्छे कार्य करने के योग्य बन जाती है। 
कुमति के मार्ग से हटाकर सुमित के मार्ग पर लाने का सबसे अच्छा उदाहरण सुग्रीव के मानसिक स्थिति के परिवर्तन का है । सुग्रीम जी जब बाली के वध के बाद किष्किंधा के राजा हो गए  थे । इसके उपरांत वे  अपनी पत्नी रमा और बाली की पत्नी तारा के साथ मिलकर  आमोद प्रमोद में मग्न हो गये थे । कुमति  पूरी तरह से उनके दिमाग पर छा गई थी । अपने मित्र श्री रामचंद्र जी के कार्य को को पूरी तरह से भूल गए थे  ।  हनुमान जी ने सुग्रीव की स्थिति को समझा तथा संभाषण के  उपरोक्त गुणों से संपन्न हनुमान जी  ने उचित अवसर जानकर  उपयुक्त परामर्श देते हुए  वानर राज सुग्रीव से कहा हे राजा यश और लक्ष्मी की प्राप्ति के बाद उन्हें मित्र (अर्थात श्री रामचंद्र जी )का बाकी कार्य पूर्ण करना चाहिए ।

इहाँ पवनसुत हृदयँ बिचारा। राम काजु सुग्रीवँ बिसारा॥
निकट जाइ चरनन्हि सिरु नावा। चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा॥1॥
 सुनि सुग्रीवँ परम भय माना। बिषयँ मोर हरि लीन्हेउ ग्याना॥
अब मारुतसुत दूत समूहा। पठवहु जहँ तहँ बानर जूहा॥2॥

यहाँ (किष्किन्धा नगरी में) पवनकुमार श्री हनुमान्‌जी ने विचार किया कि सुग्रीव ने श्री रामजी के कार्य को भुला दिया। उन्होंने सुग्रीव के पास जाकर चरणों में सिर नवाया। (साम, दान, दंड, भेद) चारों प्रकार की नीति कहकर उन्हें समझाया ।
 हनुमान्‌जी के वचन सुनकर सुग्रीव ने बहुत ही भय माना। (और कहा-) विषयों ने मेरे ज्ञान को हर लिया। अब हे पवनसुत! जहाँ-तहाँ वानरों के यूथ रहते हैं, वहाँ दूतों के समूहों को भेजो । 
 इस प्रकार हनुमान जी ने सुग्रीव को कुमति से सुमति के रास्ते पर लाए और रामचंद्र जी के कोप से उनको बचाया।
 कंचन बरन बिराज सुबेसा, कानन कुंडल कुंचित केसा॥
 इस लाइन में तुलसीदास जी ने हनुमान जी के काया का शरीर का वर्णन किया है ।  तुलसीदास जी कहते हैं कि हनुमान जी के शरीर का  रंग कंचन वरन अर्थात सोने के समान है या सोने के रंग जैसा हनुमान जी का रंग है । इन दोनों बातों में बहुत बड़ा अंतर है । सोने के समान रंग होना या सोने के रंग जैसा  होना दोनों बातें बिल्कुल अलग अलग है । हमारे समाज में हम हर अच्छी चीज को सोने जैसा बोल देते हैं ।जैसे कि आपकी लेखनी सोने जैसी सुंदर है। यहां पर आपकी लेखनी सोने की नहीं है वरन जिस प्रकार सोने महत्वपूर्ण है उसी प्रकार आपकी लेखनी भी महत्वपूर्ण है । सोना चमकता और एक बलशाली पुरुष का शरीर भी  चमकता है । शरीर की मांसपेशियां उसकी ताकत को बताती है । सोने का रंग पीला होता है और भारतवर्ष में गोरे लोग दो तरह के होते हैं । कुछ गोरे लोगों में लाल रंग की छाया होती है ।  और कुछ गोरे लोगों में पीले रंग  की । अगर हम सोने के शाब्दिक अर्थ को लें तो हनुमान जी का रंग गोरा कहा जाएगा जिस पर पीले रंग की छाया होनी चाहिए । यह संभव भी है क्योंकि हनुमान जी पवन देव के पुत्र थे और देवताओं का रंग गोरा माना जाता है। यह गोरा रंग तो और ज्यादा दिखाई देता है जब आदमी व्यायाम करके उठा हो या उत्तेजित अवस्था में हो । 
 श्री देवदत्त पटनायक जी ने अपनी किताब " मेरी हनुमान चालीसा"  जिसका अनुवाद श्री भरत तिवारी जी ने किया है उसके पृष्ठ क्रमांक 35 पर बताते हैं कि "सुनहरे रंग का होना हमें याद दिलाता है कि हनुमान सुनहरे बालों वाले वानर हैं  । लेकिन कान का बुंदा और घुंघराले बाल उनकी मानव जाति को दर्शाते हैं  । क्योंकि गहना मानव ही पहनता है और मानव के सर पर बाल होते हैं ।"  हनुमान जी के वानर या मानव होने के विबाद में पटनायक जी नहीं उलझे हैं । उन्होंने शायद इसको विचार योग्य विषय नहीं पाया है। महाकाव्य रामायण के अनुसार, हनुमान जी को वानर के मुख वाले अत्यंत बलिष्ठ पुरुष के रूप में दिखाया जाता है।  उनके कंधे पर जनेऊ लटका रहता है। हनुमान जी को मात्र एक लंगोट पहने अनावृत शरीर के साथ दिखाया जाता है। वह मस्तक पर स्वर्ण मुकुट एवं शरीर पर स्वर्ण आभुषण पहने दिखाए जाते है। उनकी वानर के समान लंबी पूँछ है। उनका मुख्य अस्त्र गदा माना जाता है।
 परंतु आइए हम इस पर विचार करते हैं। सामान्य जन मानते हैं कि हनुमान जी वन्दर समूह के थे । परंतु कोई भी वन्दर स्वर्ण के रंग का नहीं हो सकता है । कानों में कुंडल ,सज धज के बैठना घुंघराले बाल और कानों में बंदा किसी भी वन्दर के लक्षण नहीं हो सकते हैं। हनुमान चालीसा की  यह चौपाई बता रही है कि हनुमान जी बंदर नहीं बल्कि  मानव थे । फिर यह वानर किस प्रकार का है जिसके पूछ भी थी और क्या अब तक की मान्यता गलत थी । आइए इस पर विचार करते हैं । 
 अगर हम हनुमान जी को बंदर नहीं बल्कि वानर कुल  का मानते हैं तो इसका प्रमाण क्या है ।
 बहुत प्राचीनकाल में आर्य लोग हिमालय के आसपास ही रहते थे। वेद और महाभारत पढ़ने पर हमें पता चलता है कि आदिकाल में प्रमुख रूप से ये जातियां थीं- देव, मानव, दानव, राक्षस, वानर, यक्ष, गंधर्व, भल्ल, वसु, अप्सराएं, पिशाच, सिद्ध, मरुदगण, किन्नर, चारण, भाट, किरात, रीछ, नाग, विद्‍याधर, ,  आदि। देवताओं को सुर तो दैत्यों को असुर कहा जाता था। 
 देवता गण  कश्यप ऋषि और अदिति की संताने हैं और ये सभी हिमालय के नंदनकानन वन में रहते थे।  गंधर्व, यक्ष और अप्सरा आदि देव या देव समर्थक जातियां देवताओं के साथ ही हिमालय के भूभाग पर रहा करती थी ।
 असुरों को दैत्य कहा जाता है। दैत्यों की कश्‍यप और इनकी दूसरी  पत्नी दिति से उत्पत्ति हुई थी । इसी प्रकार  ऋषि कश्यप के अन्य पत्नियों से दानव एवं राक्षस तथा अन्य जातियों की उत्पत्ति हुई।
 इसी प्रकार वानरों की कई प्रजातियं प्राचीनकाल में भारत में रहती थी। हनुमानजी का जन्म कपि नामक वानर जाति में हुआ था। शोधकर्ता कहते हैं कि आज से 9 लाख वर्ष पूर्व एक ऐसी विलक्षण वानर जाति भारतवर्ष में विद्यमान थी, जो आज से 15 से 12 हजार वर्ष पूर्व लुप्त होने लगी थी और अंतत: लुप्त हो गई। इस जाति का नाम 'कपि' था। भारत के दंडकारण्य क्षेत्र में वानरों और असुरों का राज था। हालांकि दक्षिण में मलय पर्वत और ऋष्यमूक पर्वत के आसपास भी वानरों का राज था। इसके अलावा जावा, सुमात्रा, इंडोनेशिया, मलेशिया, माली, थाईलैंड जैसे द्वीपों के कुछ हिस्सों पर भी वानर जाति का राज था।
ऋष्यमूक पर्वत वाल्मीकि रामायण में वर्णित वानरों की राजधानी किष्किंधा के निकट स्थित था। उल्लेखनीय है कि उरांव आदिवासी से संबद्ध लोगों द्वारा बोली जाने वाली कुरुख भाषा में 'टिग्गा' एक गोत्र है जिसका अर्थ वानर होता है। कंवार आदिवासियों में एक गोत्र है जिसे हनुमान कहा जाता है। इसी प्रकार, गिद्ध कई अनुसूचित जनजातियों में एक गोत्र है। ओराँव या उराँव वर्तमान में  छोटा नागपुर क्षेत्र का एक आदिवासी समूह है। ओराँव अथवा उराँव नाम इस समूह को दूसरे लोगों ने दिया है। अपनी लोकभाषा में यह समूह अपने आपको 'कुरुख' नाम से वर्णित करता है। 
उराँव भाषा द्रविड़ परिवार की है जो समीपवर्ती आदिवासी समूहों की मुंडा भाषाओं से सर्वथा भिन्न है। उराँव भाषा और कन्नड में अनेक समताएँ हैं। संभवत: इन्हें ही ध्यान में रखते हुए, गेट ने १९०१ की अपनी जनगणना की रिपोर्ट में यह संभावना व्यक्त की थी कि उराँव मूलत: कर्नाटक क्षेत्र के निवासी थे। शरच्चंद्र राय जी ने अपनी पुस्तक दि ओराँव; और धीरेंद्रनाथ मजूमदार ने अपनी पुस्तक रेसेज़ ऐंड कल्चर्स ऑव इडिया  मैं इसका विस्तृत रूप से उल्लेख किया है।
 अगर हम ध्यान दें तो कपि कुल के पुरुषों के पास लांगूलम् होता था परंतु स्त्रियों के पास नहीं ।  
 वर्तमान बंदरों में पूछ नर और मादा दोनों प्रकार के बंदरों में होती है । अतः  यह कहना क्योंकि हनुमान जी के पास  पूछं थी अतः वे बंदर थे सही प्रतीत नहीं होता है । 
वाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमान जी समस्त  उपनिषदों और व्याकरण इत्यादि के ज्ञाता थे । अलौकिक ब्रह्मचारी महावीर चतुर और बुद्धिमान रामचंद्र जी के परम सेवक हनुमान जी बंदर नहीं हो सकते हैं । हमारे कई विद्वानों ने हनुमान जी को बंदर मानकर उनके साथ एक बहुत बड़ा अन्याय किया है हम नादान स्वयं ही अपनी छवि खराब करते हैं ।
 जब राम व लक्ष्मण भगवती सीता की खोज में इधर-उधर भटक रहे थे। सुग्रीव के डर को देखकर हनुमान जी तत्काल श्री राम और लक्ष्मण जी से मिलने के लिए चल पड़े । उन्होंने अपना  रूप बदलकर ब्राह्मण का रूप धारण कर लिया   ।  श्री राम व लक्ष्मण के पास जाकर अपना परिचय दिया तथा उनका परिचय लिया। तत्पश्चात् श्री राम ने अनुज लक्ष्मण से कहा- 
 नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः। नासामवेदविदुषः शक्यमेवं विभाषितुम्।। 
 ( वा. रा., किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग, श्लोक २८ )  
 जिसे ऋग्वेद की शिक्षा नहीं मिली, जिसने यजुर्वेद का    अनुश्रवण                    नहीं किया तथा जो सामवेद का विद्वान् नहीं है, वह इस प्रकार सुन्दर भाषा में वार्तालाप नहीं कर सकता । 
 नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्। 
 बहु व्याहरतानेन न किंचिदपश    िदतम्।।  
 (-वा. रा., किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग श्लोक २९ ) 
 अर्थः- निश्चय ही इन्होंने  व्याकरण  का अनेक बार अध्ययन किया है। यही कारण है कि इनके इतने समय बोलने में इन्होंने कोई भी त्रुटि नहीं की है।
  न मुखे नेत्रयोश्चापि ललाटे च भ्रुवोस्तथा। अन्येष्वपि च सर्वेषु दोषः संविदितः क्वचित्।। - (वा. रामायण, किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग, श्लोक ३० ) -                               
  अर्थ:- बोलने के समय इनके मुख, नेत्र, ललाट, भौंह तथा अन्य सब अंगों से भी कोई दोष प्रकट हुआ हो, ऐसा कहीं ज्ञात नहीं हुआ।
 इससे स्पष्ट है कि हनुमान वेदों के विद्वान् तो थे ही, व्याकरण के उत्कृष्ट ज्ञाता भी थे तथा उनके शरीर के सभी अंग अपने-अपने करणीय कार्य उचित रूप में ही करते थे। शरीर के अंग जड़ पदार्थ हैं व मनुष्य का आत्मा ही अपने उच्च संस्कारों से उच्च कार्यों के लिए शरीर के अंगों का प्रयोग करता है।         
 क्या किसी बन्दर में यह योग्यता हो सकती है कि वह वेदों का विद्वान् बने? व्याकरण का विशेष ज्ञाता हो? अपने शरीर की उचित देखभाल भी करे? रामायण का दूसरा प्रमाण इस विषय में प्रस्तुत करते हैं। यह प्रमाण तब का है, जब अंगद,                                   व हनुमान आदि समुद्रतट पर बैठकर समुद्र पार जाकर  सीता जी की खोज करने के लिए विचार कर रहे थे। तब     जामवंत जी ने हनुमान जी को उनकी  कथा सुनाकर समुद्र लङ्घन के लिए उत्साहित किया। केवल एक ही श्लोक वहाँ से उद्धृत है- 
 सत्वं केसरिणः पुत्रःक्षेत्रजो भीमविक्रमः। मारुतस्यौरसः पुत्रस्तेजसा चापि तत्समः।। 
(वा. रामायण, किष्किन्धा काण्ड, सप्तषष्टितम सर्ग, श्लोक २९ ) 
अर्थ- हे वीरवर! तुम केसरी  के क्षेत्रज पुत्र हो। तुम्हारा पराक्रम शत्रुओं के लिए भयंकर है। तुम वायुदेव के औरस पुत्र हो, इसलिए तेज की दृष्टि से उन्हीं के समान हो। 
इससे सिद्ध है कि हनुमान जी के पिता केसरी थे परन्तु उनकी माता अंजनी ने पवन नामक पुरुष से नियोग द्वारा प्राप्त किया था। 
 । हनुमान को मनुष्य न मानकर उन्हें बन्दर मानने वालों से हमारा निवेदन है कि इन दो प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध है कि हनुमान जी बन्दर न थे, अपितु वे एक नियोगज पुत्र थे। नियोग प्रथा मनुष्य समाज में अतीत में प्रचलित थी। यह प्रथा बन्दरों में प्रचलित होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। रामायण के इस प्रबल प्रमाण के होते हुए हनुमान जी को मनुष्य मानना ही पड़ेगा।
 रामायण में ही तीसरा प्रमाण भी है । जब हनुमान जी  लंका के अंदर प्रवेश करने के उपरांत सीता माता का पता नहीं लगा पाए ,तब वह सोचने लगे :- 
  सोऽहं नैव गमिष्यामि किष्कि न्धां नगरीमितः। वानप्रस्थो भविष्यामि ह्यदृष्ट्वा जनकात्मजाम्।। (वा. रा., सुन्दरकाण्ड, सप्तम सर्ग ) 
   मैं यहाँ से लौटकर किष्किन्धा नहीं जाऊँगा। यदि मुझे सीता जी के दर्शन नहीं हुए तो मैं वानप्रस्थ धारण कर लूँगा। 
   वानप्रस्थ जाने के बारे में कोई मनुष्य की सोच सकता है बंदर नहीं। मेरा अपने पौराणिक भाई बहनों से निवेदन है कि वह अपना हक त्याग कर हनुमान जी को भगवान शिव के अवतार के रूप में मानव शरीर धारण किए हुए देवता माने ।
   हनुमान चालीसा में भी कहा गया है :-
   हाथ वज्र औ ध्वजा विराजे 
   कांधे मूंज जनेऊ साजे
   किंचित हम चौपाई से यह अर्थ से निकाल लेते की  जनेऊ धारण करने वाला बंदर नहीं हो सकता मनुष्य ही होगा ।
 वाल्मीकि जी ने बाली की पत्नी तारा को आर्य पुत्री कहा है ।  इससे यह स्पष्ट है की बाली और  बाकी वानर भी आर्य पुत्र ही थे अर्थात मनुष्य थे ।तारा को आर्य पुत्री घोषित करते हुए बाल्मीकि रामायण का यह श्लोक दृष्टव्य है  ।
 - तस्येन्द्रकल्पस्य दुरासदस्य महानुभावस्य समीपमार्या। 
 - आर्तातितूर्णां व्यसनं प्रपन्ना जगाम तारा परिविह्वलन्ती।। 
 - ( वा. रा. किष्किंधा काण्ड, चतुर्विंश सर्ग श्लोक २९ )
 -  ‘‘उस समय घोर संकट में पड़ी हुई शोक पीड़ित आर्या तारा अत्यन्त विह्वल हो गिरती-पड़ती तीव्र गति से महेन्द्र तुल्य दुर्जय वीर श्री राम के पास गई ।
 आज भी हमारे भारतवर्ष में नाग ,सिंह ,गिरी ,हाथी ,मोर सरनेम के लोग मिलते हैं । इस प्रकार हम कह सकते हैं उस समय हनुमान जी और उनके कुल के लोगों का  सरनेम वानर रहा होगा। 
 आगे तुलसीदास जी कहते हैं "विराज सुवेशा।" इसका अर्थ है कि हनुमानजी सज धज कर बैठे हुए हैं । हनुमान जी के सर पर मुकुट है कंधे पर जनेऊ है और गदा है । लंगोट बांधे हुए हैं । एक वीर और बहुत ही ताकतवर पुरुष की आकृति दिखाई देती है। उनकी सुंदरता का वर्णन करते हुए कवि कहता है उनके कानों में कुंडल है और उनके जो बाल हैं वे घुंघराले हैं । किसी भी वानर का बाल घुंघराले नहीं होता है । यह भी इस बात को सिद्ध करता है कि हनुमान जी एक मानव थे।
 वर्तमान में जितनी भी प्रमाण उपलब्ध हैं उन सभी प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि हनुमानजी बंदर नहीं थे । वे मानव थे और उनका कुल वानर था । पूंछ संभवत अलग से जुड़ा जाने वाला कोई कोड़े टाइप का  अस्त्र था जिससे वानर कुल के लोग अपने पास रखते थे और वह उनके कुल का परिचायक था।


,

हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजे
काँधे मूँज जनेउ साजे
शंकर सुवन केसरी नंदन, 
तेज प्रताप महा जग बंदन॥

अर्थ:-आपके एक हाथ में बज्र है और दूसरे हाथ में ध्वजा है । आपके कंधे पर मूंज का यज्ञोपवीत शोभायमान हो रहा है । आप भगवान शंकर के अवतार हैं और और वानर राज केसरी के पुत्र हैं ।  पूरा विश्व आपके प्रताप के तेज की वंदना करता है।

भावार्थ:-
हमारे प्राचीन हस्तरेखा विज्ञान के अनुसार हाथ में वज्र और ध्वजा का चिन्ह होना बहुत ही शुभ माना जाता है । इसी प्रकार से हनुमानजी के एक हाथ में वज्र समान कठोर गदा है और दूसरे हाथ में सनातन धर्म की ध्वजा है । परम वीर हनुमान जी इस प्रकार सनातन धर्म की ध्वजा फहराते हुए गदा से पापों का नाश करते हुए लगातार आगे बढ़ रहे हैं । वह इस जगत में सर्वश्रेष्ठ हैं क्योंकि वे भगवान शंकर के ग्यारहवें  रूद्र के अवतार हैं । जगत में वानर राज केसरी के पुत्र के नाम से विख्यात हैं।  आपका प्रताप पूरे विश्व में अत्यंत तेज होकर फैल रहा है और पूरा विश्व आपकी बंदना करता है । 

संदेश-
 मनुष्य के अंदर जो बल और ज्ञान होता है, वही उसे तेज और प्रताप प्रदान करता है। ऐसे व्यक्ति की साधारण सी वेशभूषा भी उसे सुंदर दर्शाती है।

इन चौपाइयों को बार बार पढ़ने से होने वाला लाभ:-
हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजे काँधे मूँज जनेउ साजे ।।
शंकर सुवन केसरी नंदन, तेज प्रताप महा जग बंदन॥
हनुमान चालीसा की ये चौपाइयां विजय दिलाती है और इनकी बार बार पढ़ने से व्यक्ति के ओज और कांति में वृद्धि होती है ।

विवेचना:-
इस चौपाई में हनुमान जी के हाथों में  वज्र  और ध्वजा बताई गई है । जबकि सामान्य तौर पर कहा गया है कि हनुमान जी के हाथों में गदा होती है । वज्र इंद्रदेव अस्त्र कहलाता है। और यह सबसे भयानक अस्त्र माना जाता है । बज्र का निर्माण मुनि दधीच की हड्डी से हुआ था ।  इंद्रलोक पर एक बार वृत्रासुर नामक राक्षस ने अधिकार कर लिया था । ब्रह्मा जी का उसके पास वरदान था कि वह किसी भी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र से उसकी मृत्यु नहीं हो सकती ।  देवता गण अपनी व्यथा लेकर ब्रह्मा विष्णु और महेश के पास गए । ब्रह्मा जी ने बताया कि  पृथ्वी लोक में ऋषि दधीचि की हड्डी को दान में प्राप्त  कर उन हड्डियों का उपयोग कर  हथियार बनाएं तो वृत्रासुर की मृत्यु हो सकती है । इसके उपरांत  देवगण ऋषि दाधीच के पास गए और उनसे दान में उनकी हड्डियों को प्राप्त किया । इन हड्डियों से  भगवान इन्द्र के वज्र का निर्माण ‘त्वष्टा’ नामक देवता- द्वारा किया गया  । 
इस चौपाई में वज्र शब्द का उपयोग संज्ञा की तरह से ना होकर विशेषण के रूप में किया गया है। हनुमान जी की गदा की ताकत वज्र के समान बताया गया है ।  गदा को ही वज्र कहा गया है । आज भी मजबूती बताने के लिए उसको वज्र के समान कहा जाता है जैसे कि सीमेंट,  पुलिस के अस्त्र , गाड़ियां आदि
पौराणिक काल में और आज भी सेना  में ध्वज का बड़ा महत्व होता है । सेना की हर कंपनी का अपना एक अलग निशान या ध्वज होता है । हनुमान जी के पास किस तरह का ध्वज था इसका कहीं कोई विवरण नहीं मिलता है । हनुमान जी संभवत राम जी के निशान वाले ध्वज को  प्रयोग करते होंगे। 
हनुमान जी के कंधे पर यज्ञोपवीत है । सनातन धर्म में यज्ञोपवीत का बड़ा महत्व है । यज्ञोपवीत शब्द  यज्ञ+उपवीत दो  शब्दों से मिलकर बना है ।  यज्ञोपवीत को जनेऊ भी कहते हैं । इसे
उपनयन संस्कार के उपरांत पहना जाता है । इसके उपरांत विद्यारंभ होता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं। इस पवित्र धागा को  यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनते हैं । हर शुभ एवं अशुभ कार्यों में कर्मकांड के दौरान  यज्ञोपवित को शव्य एवं अपशव्य किया जाता है । जनेऊ को धारण करना इस बात का प्रमाण है कि हनुमान जी मानव थे बंदर नहीं। 
बहुत साफ है कि हनुमान जी शिव जी के अध्यात्मिक  पुत्र हैं, पवन देव के औरस पुत्र और वानर राज केसरी के सामाजिक पुत्र हैं। आम धारणा है कि हनुमान जी भगवान शिव के 11 में रुद्र के अवतार हैं । इसके अलावा पवन देव के औरस पुत्र थे तथा महाराज केसरी के जायज पुत्र हैं ।
वेदों में शिव का नाम ‘रुद्र’ रूप में आया है। रुद्र का अर्थ होता है भयानक। रुद्र संहार के देवता और कल्याणकारी हैं। विद्वानों के मत से सभी रुद्र  व्यक्ति को सुख, समृद्धि, भोग, मोक्ष प्रदान करने वाले एवं व्यक्ति की रक्षा करने वाले हैं।
शिवपुराण  के  शिव शतरूद्र संहिता के अध्याय 19 और 20 में शिव जी के दुर्वासा अवतार और हनुमत अवतार का वर्णन है । इसमें बताया गया है कि कामदेव के वाण से जब भगवान शिव क्षुब्ध हो गए थे उस समय उनका वीर्य पात हो गया था । इस वीर्य को  सप्तर्षियों द्वारा पुत्रपुटक में स्थापित कर लिया गया । सप्तर्षियों के मन में यह प्रेरणा भगवान शिव ने ही राम कार्य के लिए दी थी ।  इसके उपरांत महर्षि ने शंभू के इस वीर्य को राम कार्य की सिद्धि के लिए  गौतम ऋषि की कन्या अंजनी के कान के रास्ते स्थापित कर दिया । वीर्य को स्थापित करने के लिए पवन देव को माध्यम बनाया गया था । समय आने पर उस गर्भ से महान बली पराक्रम संपन्न बालक उत्पन्न हुए जिनका नाम बजरंगी रखा गया । इस प्रकार हनुमान जी के जन्म में भगवान शिव के वीर्य को माता अंजनी के कान के रास्ते का उपयोग कर पवन देव के माध्यम से स्थापित किया गया था अतः  भगवान हनुमान पवन देव के औरस पुत्र और भगवान शिव के 11वें रूद्र के अवतार हुए । 
गौतम ऋषि अंजनी का विवाह वानर राज केसरी से हुआ था । अतः वानर राज केसरी, हनुमान जी के प्रत्यक्ष पिता हुए। जैसा कि पूर्व में बताया जा चुका है माता अंजनी के पिता के बारे में कई कहानियां प्रचलित हैं परंतु सभी कहानियों के अनुसार उनका विवाह वानर राज केसरी हुआ था । 
अब यह स्पष्ट है हनुमान जी शंकर जी के वीर्य से उत्पन्न पवन देव के औरस पुत्र हैं । इसलिए उनके अंदर भगवान शिव और पवन देव दोनों का तेज आ गया था। 
इनके तेज के संबंध में वाल्मीकि रामायण के किष्किंधा कांड में कहा गया है :-
सत्वं केसरिणः पुत्रःक्षेत्रजो भीमविक्रमः। मारुतस्यौरसः पुत्रस्तेजसा चापि तत्समः।। 
(वा. रामायण, किष्किन्धा काण्ड, सप्तषष्टितम सर्ग, श्लोक २९ ) 
हे वीरवर! तुम केसरी  के क्षेत्रज पुत्र हो। तुम्हारा पराक्रम शत्रुओं के लिए भयंकर है। तुम वायुदेव के औरस पुत्र हो, इसलिए तेज की दृष्टि से उन्हीं के समान हो। 
इससे सिद्ध है कि हनुमान जी के पिता केसरी थे परन्तु उनकी माता अंजनी ने हनुमान जी को पवन  देव से नियोग द्वारा प्राप्त किया था। 
हनुमत पुराण के खंड 4 में हनुमान जी के बाल काल के बारे में बताया गया है । हनुमान जी के बाल काल में ही एक बार कपिराज केशरी कहीं बाहर गए हुए थे । माता अंजना ने बालक को पालने में रख कर बाहर चली गई थी । बालक हनुमान जी को भूख लगी और वह रोने लगे । इसी समय उनकी दृष्टि पूरब दिशा की तरफ गई । जहां सुबह हो रही थी ।  उन्होंने सूर्य के लाल बिंब को लाल फल समझ लिया । भगवान शिव के अवतार और पवन के पुत्र होने के कारण हनुमान जी के पास जन्म से ही उड़ने की शक्ति थी ।  वे  वायु मार्ग से सूर्य की तरफ जाने लगे । वायु देव को अपने पुत्र की चिंता हुई । वे शीतल वायु के साथ  बालक हनुमान के पीछे पीछे चल दिए ।  इस समय सूर्य देव ने अपनी तेज को कम कर दिया ।  हनुमान जी ने  भूख के कारण सूर्य देव को निगल लिया । राहु उस समय  सूर्य देव को ग्रहण करने के लिए आ रहा था । राहु का और हनुमान जी का वहां पर युद्ध हो गया ।  राहु परास्त होकर इस बात की शिकायत इंद्रदेव से की । इंद्र देव ने बालक हनुमान पर वज्र से प्रहार किया । यह प्रहार  उनकी बाईं ढोड़ी में लगा ।  उनकी हनु टूट गई ।  वे  पर्वत शिखर पर गिरकर मूर्छित हो गए । अपने पुत्र को मूर्छित देखकर वायुदेव अत्यंत क्रोधित हो गए ।   उन्होंने अपनी गति रोक  दी ।
वायु की गति के रुकने के कारण समस्त प्राणियों में स्वास्थ्य का संचार रुक गया ।  वे सभी मरणासन्न हालत में हो गए ।  सभी देवता गंधर्व किन्नर आदि भागते हुए ब्रह्मा जी के पास पहुंचे । ब्रह्मा जी उन सभी के साथ पवन देव के पास गये  । सभी देवताओं ने देखा की पवन देव पुत्र को गोद में लिए हैं  ।  ब्रह्मा जी को देखकर पवन देव खड़े हो गए ।  पवन देवता ब्रह्मा जी के चरणों पर गिर पड़े ।  ब्रह्मा जी ने हनुमान जी को स्पर्श किया । हनुमान जी की मूर्छा दूर हो गई । वे उठ कर बैठ गये । अपने पुत्र को जीवित देखते ही जगत के प्राण  पवन देव तत्काल बहने लगे ।  पूरे लोकों को जीवनदान मिला । ब्रह्मा जी ने संतुष्ट होकर हनुमान जी को वरदान दिया कि इस बालक को ब्रह्म शाप नहीं लगेगा और इसका कोई भी अंग कभी भी शास्त्रों से नहीं टूटेगा । ब्रह्मा जी ने सभी देवताओं से कहा कि वे इस बालक को वरदान दें । इंद्रदेव ने कहा कि हनुमान जी का शरीर वज्र से भी कठोर हो जाएगा । वज्र का उन पर कोई असर नहीं होगा  । सूर्यदेव ने अपने तेज का शतांश प्रदान किया और यह भी कहा कि मैं इस बालक को सभी शास्त्रों का ज्ञाता बनाऊंगा । वरुण देव ने कहा कि मेरे पाश से यह बालक सदा सुरक्षित रहेगा और इस बालक को जल से कोई भय नहीं होगा । यमदेव ने कहा की यह  मेरे दंड से सदा अवध्य  रहेगा। देवताओं ने अपने-अपने अस्त्रों से हनुमान जी को सुरक्षित किया तथा अपने अपने गुण हनुमान जी को प्रदान किए।
संकट मोचन हनुमान अष्टम में लिखा है :-
बाल समय रवि भक्षी लियो तब
तीनहुं लोक भयो अंधियारों ।
ताहि सों त्रास भयो जग को
यह संकट काहु सों जात न टारो ।
देवन आनि करी बिनती तब
छाड़ी दियो रवि कष्ट निवारो ।
को नहीं जानत है जग में कपि
संकटमोचन नाम तिहारो ।।
इस प्रकार हनुमान जी सभी देवताओं से अधिक तेज युक्त हो गए और पूरे जग के बंदनीय कहलाये । उनके इसी तेज के कारण हनुमान जी को कलयुग का देवता भी कहा गया है ।  यह भी कहा गया है कि कलयुग में हनुमान जी का असर सभी देवताओं से ज्यादा पड़ता है ।
लंका विजय कर अयोध्या लौटने पर जब श्रीराम ने युद्घ में सहायता देने वाले विभीषण, सुग्रीव, अंगद आदि को  उपहार  देने के उपरांत  हनुमान जी से पूछा कि उनको क्या चाहिए । इस पर हनुमान जी ने कहा :- 
यावद् रामकथा वीर चरिष्यति महीतले। 
तावच्छरीरे वत्स्युन्तु प्राणामम न संशय:।। 
अर्थात : 'हे वीर श्रीराम! इस पृथ्वी पर जब तक रामकथा प्रचलित रहे, तब तक निस्संदेह मेरे प्राण इस शरीर में बसे रहें।'
रामचंद्र जी ने इस पर तथास्तु कहकर  आशीर्वाद दिया :-
 'एवमेतत् कपिश्रेष्ठ भविता नात्र संशय:। 
 चरिष्यति कथा यावदेषा लोके च मामिका तावत् ते भविता कीर्ति: शरीरे प्यवस्तथा।
 लोकाहि यावत्स्थास्यन्ति तावत् स्थास्यन्ति में कथा।।' 
 अर्थात् : 'हे कपिश्रेष्ठ, ऐसा ही होगा, इसमें संदेह नहीं है। संसार में मेरी कथा जब तक प्रचलित रहेगी, तब तक तुम्हारी कीर्ति अमिट रहेगी और तुम्हारे शरीर में प्राण भी रहेंगे ही। जब तक ये लोक बने रहेंगे, तब तक मेरी कथाएं भी स्थिर रहेंगी।
 इसके अलावा लीला समाप्ति पर समाप्ति के बाद भगवान राम ने हनुमान जी से कहा यह हनुमान तुम चिरंजीवी रहो और मेरी पूर्व आज्ञा का मृषा न करो :-
 मारुते त्वं चिरंजीव ममाज्ञां मा मृषा कृथा।
यशो जयं च मे देहि शत्रून नाशय नाशय।
(अ रा/उ का/9/35)
इस प्रकार भगवान राम की आज्ञा से हनुमान जी आज भी इस लोक में वर्तमान हैं। इस प्रकार पूरा विश्व उनकी वंदना करता है।

बिद्यावान गुनी अति चातुर |
राम काज करिबे को आतुर ||
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया |
राम लखन सीता मन बसिया ||

अर्थ – आप विद्यावान, गुनी और अत्यंत चतुर हैं और प्रभु श्रीराम की सेवा में सदैव तत्पर रहते हैं ।
आप प्रभु श्रीराम की कथा सुनने के लिए सदा लालायित रहते हैं। राम लक्ष्मण और सीता सदा आपके ह्रदय में विराजते हैं।

भावार्थ:-
सकल गुण निधान हनुमान जी समस्त विद्याओं में पारंगत हैं ।  समस्त गुणों को धारण करने वाले और अत्यंत बुद्धिमान हैं । भगवान सूर्य से सभी ज्ञान प्राप्त करने के कारण उनको  वेद पुराण आदि का समस्त ज्ञान प्राप्त है । 
ब्रह्म की दो शक्तियां हैं पहले स्थिर और दूसरी गतिज । हनुमान जी दोनों शक्तियों के स्वामी हैं ।भगवान सूर्य से पूरी शिक्षा इन्होंने सूर्य के साथ चलते हुए प्राप्त की है । इसी प्रकार से भगवान राम के हित कार्यों का संपादन वे सदैव आतुरता से करते  हैं।

संदेश:-
 व्‍यक्ति अपने ज्ञान और गुणों के आधार पर किसी के भी मन में अपने लिए स्‍थान बना सकता है। जैसे श्री हनुमान जी ने अपने प्रभु श्री राम के मन में बनाया है।

चौपाइयों का बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ:-
1-बिद्यावान गुनी अति चातुर | राम काज करिबे को आतुर ||
2-प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया | राम लखन सीता मन बसिया ||
हनुमान चालीसा की इन चौपाईयों के बार बार पाठ करने  से ज्ञान, बुद्धि , रामकृपा और यश प्राप्त होता है ।

विवेचना:-
सनातन धर्म मानने वालों के हृदय में , उनके खून में ,हनुमान चालीसा बसी हुई है । जहां तक मेरा ज्ञान है अगर कोई कविता सबसे ज्यादा बार बोली जाती है तो वह हनुमान चालीसा ही है । यह भी सत्य है कि हनुमान चालीसा को केवल कविता कहना एक अपराध है । अतः में हनुमान चालीसा को व्यक्ति के नस नस में भगवान के प्रेम को भरने वाला मंत्र या स्त्रोत कहना पसंद करूंगा ।  हर चौपाई का अपने आप में एक रहस्यमयी अर्थ है । जो व्यक्ति इस रहस्यमय अर्थ को जान जाएगा उसकी उस चौपाई से जुड़ी हुई समस्या भी हल हो जाएगी । 
हनुमान चालीसा की हर एक चौपाई अपने आप में एक सिद्ध मंत्र है । इसे हर कोई इस कलयुग में जाप कर अभीष्ट को पा सकता है । जैसे कि इस चौपाई का बार बार जाप करके आप बुद्धि और चतुराई  तथा अपने स्वामी के कार्य को करने की योग्यता प्राप्त कर सकते हैं । अगर आप यह समझते हैं कि आपके अंदर बुद्धि या चतुराई की कमी है अथवा आपका मालिक , अधिकारी या बॉस हमेशा आपसे नाराज रहता है तो आपको इस चौपाई का  प्रतिदिन 108 बार जाप करना चाहिए ।
इस चौपाई के प्रथम भाग में हनुमान जी के अंदर तीन विशेषताओं के बारे में बताया गया है । उनकी पहली विशेषता है कि वे   विद्यावान हैं । दूसरी विशेषता है कि वे गुणवान है तथा तीसरा कि वे अत्यंत चतुर हैं । सुनने में यह तीनों चीजें एक दूसरे के पर्यायवाची समझ में आती है । परंतु ऐसा नहीं है ।
 विद्यावान का अर्थ होता है जिसके पास विद्या रूपी धन हो । कोई व्यक्ति रसायन शास्त्र में निपुण हो सकता है । कोई व्यक्ति के पास हिंदी का ज्ञान बहुत अच्छा हो सकता है । परंतु हनुमान जी  तो सूर्य देव द्वारा दी गई शिक्षा के कारण , सभी तरह की विद्याओं से परिपूर्ण हैं । जैसा कि हम जानते हैं विद्या का सामान्य अर्थ है-ज्ञान,  शिक्षा और अवगम। महर्षि दयानंद सरस्वती के अनुसार जिससे पदार्थो के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान हो उसे विद्या कहते हैं। 
 विद्यावान का अर्थ होता है व्यक्ति के पास सभी  तरह के विद्याओं के यथार्थ स्वरूप के बारे में संपूर्ण ज्ञान ।  हनुमान जी के पास सभी तरह के विषयों का पूर्ण ज्ञान है अतः वे विद्यावान हुए ।
 तुलसीदासजीने हनुमानजी को विद्यावान कहा है उसका संकेत यह है कि जो विचार आदमी को बड़ा  बनाता है वह विद्या है । आज विद्या की तृष्णा बढी नही है । आज लोग बुद्धिनिष्ठ नहीं है , बुद्धिजीवी है । बुद्धिनिष्ठ होना चाहिये । 
 हनुमान जी गुणी भी हैं । अर्थात सभी प्रकार के गुण उनके अंदर विद्यमान है । गुणी शब्द का अर्थ होता है जिसमें अनेकों गुण हो अर्थात गुणसंपन्न ।  कोई विशेष कला या विद्या जानने वाला योग्य व्यक्ति को भी गुणवान कहते हैं । हनुमान जी के अंदर सभी तरह के गुण जैसे उड़ने की कला तैरने की कला युद्ध कला शास्त्रों का ज्ञान सभी तरह के गुण उनके पास थे ।
 वाल्मीकि रामायण में भगवान रामने हनुमानजी के गुणाें के लिये कहा है -
तेजो धृतिर्यशो दाक्ष्यं सामथ्‍र्यं विनयो नय: । 
पौरुषं विक्रमो बुद्धिर्यस्मिन्नेतानि नित्यदा ।।
(तेज, धैर्य, यश, दक्षता, शक्ति, विनय, नीति, पुरुषार्थ, पराक्रम और बुद्धि ये गुण हनुमानजी में नित्य स्थित हैं।) धीरता, गम्भीरता, सुशीलता, वीरता, श्रद्धा, नम्रता,  निराभिमानिता आदि अनेक गुणोंसे सम्पन्न हनुमानजी को तुलसीदासजीने महर्षि वाल्मीकि के समान सुन्दरकाण्ड मे इनकी ‘ सकलगुणनिधानं ’ के उद्घोष से सादर वन्दना की है ।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं, 
रघुपतिप्रिय भक्तं वातजातं नमामि ।।
 हनुमान जी चतुर भी हैं । चतुर शब्द का अर्थ है किसी भी व्यक्ति की वह विशेषता जिससे वह व्यक्ति अपनी बुद्धि का  प्रयोग करके अपने कार्यों को आसानी से कर सकें या विकट परिस्थितियों का सामना आराम से कर सकें ।
 पूरे रामायण में हनुमानजी की चतुराई के कई उदाहरण है । हनुमान जी जब रामचंद्र जी से सबसे पहले  ब्राह्मण वेश में मिलते  हैं । वे पूरी बातें बहुत अच्छी संस्कृत में करते हैं । वाल्मीकि रामायण के अनुसार  श्री राम जी ने जैसे ही महावीर हनुमान जी को पहली बार देखा तो वे जान गए थे कि वही उनके ख सारे कार्यों को करने में सक्षम हैं। श्री राम के पास जब पहली बार  हनुमान जी सुग्रीव का संदेश लेकर जाते हैं तभी उनकी विद्वता और वाक चातुर्य से प्रसन्न होकर श्री राम उन्हें अपना लेते हैं । श्री राम महावीर हनुमान जी के ज्ञान और विनम्रता को देख कर लक्ष्मण जी से कहते हैं –
 "लक्ष्मण तुम इन  बटुक को देखो इसने शब्द शास्त्र  (व्याकरण ) कई बार पढ़ा है । इसने कई बातें कहीं पर उनके बोलने में कहीं अशुद्धि नहीं आई।
 श्री रामो लक्ष्मणं प्राह पश्यैन वटुरूपिणम् ।
 शब्दशास्त्रमशेषणं श्रुतं नूनमनेकधा ।।
 (अ रा/किं का/1/17-18)

एवम् विधो यस्य दूतों न भवेत् पार्थिवस्य तु ।
सिद्ध्यन्ति हि कथम तस्य कार्याणाम् गतयोSनघ ।।
(वाल्मीकि रामायण, किष्किंधाकांड)
अर्थात – हे लक्ष्मण अगर किसी राजा के पास हनुमान जैसा दूत न हो तो वो कैसे आपने कार्यों और साधनों को पूरा कर पाएगा ?
एवम् गुण गणैर् युक्ता यस्य स्युः कार्य साधकाः ।
स्य सिद्ध्यन्ति सर्वेSर्था दूत वाक्य प्रचोदिताः ।।
(वाल्मीकि रामायण, किष्किंधाकांड)
अर्थात – हे लक्ष्मण एक राजा के पास हनुमान जैसा दूत होना चाहिए जो अपने गुणों से सारे कार्य कर सके। ऐसे दूत के शब्दों से किसी भी राजा के सारे कार्य सफलता पूर्वक पूरे हो सकते हैं ।
हम सभी जानते हैं कि दूत का कार्य सबसे चतुराई भरा कार्य होता है । 
दूसरी बार हनुमान जी की चतुराई का परिचय तब प्राप्त होता है जब सुग्रीव पंपापुर का राज सिंहासन पाने के उपरांत रासलीला में डूब गए थे । माता जानकी का पता लगाने का  कोई प्रयास नहीं कर रहे थे । उस समय हनुमान जी ने बड़ी चतुराई के साथ सुग्रीव को समझाया ।  जिसके उपरांत सुग्रीव ने वानर सेना भेज करके सीता जी को   पता करने का प्रयास प्रारंभ कर दिया ।
समुद्र के किनारे जब यह ज्ञात हुआ की रावण मां सीता को समुद्र पार लेकर गया है तब सबकी समझ में यह आया केवल हनुमान जी ही लंका जाकर सीता मां का पता लगाकर वापस आ सकते हैं ।  जामवंत के प्रस्ताव पर हनुमान जी आकाश मार्ग से समुद्र को पार कर लंका के लिए चल दिए ।रास्ते में नागों की माता  सुरसा मिली और उन्होंने भगवान हनुमान को अपने मुंह में बंद करना चाहा ।  हनुमान जी पहले अपना आकार बढ़ाते रहे फिर एकाएक आकार कम करके सुरसा के मुंह से होकर बाहर निकल आए । सुरसा की प्रतिज्ञा भी पूरी हो गई और हनुमान जी को आगे जाने में आ रही बाधा भी समाप्त हो गई। रामचरितमानस में इसका गोस्वामी तुलसीदास द्वारा सुंदर वर्णन किया गया है ।

जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा।
तासु दून कपि रूपदेखावा॥
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा।
अतिलघुरूप पवनसुत लीन्हा॥

सुरसा ने जैसा जैसा मुंह फैलाया, हनुमानजीने वैसेही अपना स्वरुप उससे दुगना दिखाया॥
जब सुरसा ने अपना मुंह सौ योजन (चार सौ कोस का) में फैलाया, तब हनुमानजी तुरंत बहुत छोटा स्वरुप धारण कर लिया॥

बदन पइठि पुनि बाहेर आवा।
मागा बिदा ताहिसिरुनावा॥
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा।
बुधिबलमरमु तोर मैं पावा॥

उसके मुंहमें पैठ कर (घुसकर) झट बाहर चले आए। फिर सुरसा से विदा मांग कर हनुमानजी ने प्रणाम किया॥ उस वक़्त सुरसा ने हनुमानजी से कहा की हे हनुमान! देवताओंने मुझको जिसके लिए भेजा था, वह तेरा बल और बुद्धि का भेद मैंने अच्छी तरह पा लिया है॥
इसी तरह से बाल्मीकि रामायण में  हनुमान जी द्वारा सिंहिका के मुख में प्रवेश कर अपने-पैने नखों से उसके मर्म स्थल को चीर-फाड़कर मन के समान  वेग से से वहां से निकलकर फिर  ऊपर आकाश मार्ग में जाने के का वर्णन किया गया है। 
ततस्तस्या नखैस्तीक्ष्णैर्मर्माण्युत्कृत्य वानरः।
उत्पपाताथ वेगेन मनः सम्पातविक्रमः।।
( 5.1.194/सु का / वा रा)

हनुमान जी द्वारा लंका के अंदर किए गए चतुराई पूर्व कार्यों के कई उदाहरण हैं जैसे कि माता सीता से मिलने के पहले वाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमान जी ने पेड़ पर बैठे बैठे सोचा की पहले धीरे-धीरे रामचंद्र जी के संदेशों का वाचन किया जाए जिससे मां सीता को उन पर विश्वास हो सके और उसके उपरांत मां सीता से मिला जाए और उनको सब कुछ बताया जाए ।
युक्तं तस्याप्रमेयस्य सर्वसत्त्वदयावतः।
समाश्वासयितुं भार्यां पतिदर्शनकाङ्क्षिणीम्।।
(वा रा / सु का /5.30.6 )
मुझे इस समय अप्रमेय और सब प्राणियों पर दया करने वाले श्री रामचंद्र की पत्नी को जो पति के दर्शन की अभिलाषणि  हैं धीरज बधाना उचित होगा । 
इस प्रकार सोचते विचारते  बड़े बुद्धिमान हनुमान जी ने अपने मन में निश्चय किया कि अब मैं श्री रामचंद्र की कथा कहना प्रारंभ करें ।
इति स बहुविधं महानुभावो
जगतिपतेः प्रमदामवेक्षमाणः।
मधुरमवितथं जगाद वाक्यं
द्रुमविटपान्तरमास्थितो हनूमान्।।
(वा रा / सु का /5.30.44 )
इस प्रकार अनेक प्रकार से सोच विचार कर श्री रामचंद्र जी की भार्या जानकी जी को हनुमान जी ने  डाली पर बैठे ही बैठे मधुर शब्दों में श्री राम जी का संदेश कहना प्रारंभ किया ।
इसके उपरांत बहुत सारी बातें कर करके उन्हें ने सीता जी को संतुष्ट किया।
रामचरितमानस में इसी बात को थोड़ा दूसरे ढंग से कहा गया है । हनुमान जी अशोक वाटिका में पेड़ के ऊपर बैठे हैं । उसी पेड़ के नीचे मां जानकी सीता जी  विलाप कर रही हैं । अशोक वृक्ष से आग की मांग की । हे अशोक वृक्ष तुम मुझे अग्नि प्रदान करो । 
पावकमय ससि स्रवत न आगी। मानहुँ मोहि जानि हतभागी॥
सुनहि बिनय मम बिटप असोका। सत्य नाम करु हरु मम सोका॥ 
नूतन किसलय अनल समाना। देहि अगिनि जनि करहि निदाना॥
देखि परम बिरहाकुल सीता। सो छन कपिहि कलप सम बीता॥ (रामचरितमानस / सुंदरकांड )
चंद्रमा अग्निमय है, किंतु वह भी मानो मुझे हतभागिनी जानकर आग नहीं बरसाता। हे अशोक वृक्ष! मेरी विनती सुन। मेरा शोक हर ले और अपना (अशोक) नाम सत्य कर॥
तेरे नए-नए कोमल पत्ते अग्नि के समान हैं। अग्नि दे, विरह रोग का अंत मत कर (अर्थात् विरह रोग को बढ़ाकर सीमा तक न पहुँचा) सीता जी को विरह से परम व्याकुल देखकर वह क्षण हनुमान जी को कल्प के समान बीता॥
इसी समय हनुमान जी रामचंद्र जी द्वारा दी गई मुद्रिका को जमीन पर डाला जो आग जैसी चमक रही थी यह हनुमानजी की चतुराई थी और हनुमान जी के इस कार्य से सीता जी को विश्वास हो गया कि रामचंद जी के यहां से कोई आया है।
कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब।
जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ॥
(रामचरितमानस / सुंदरकांड )
इसके उपरांत हनुमान जी अपना परिचय अत्यंत सुंदर ढंग से चतुराई पूर्वक  देकर  सीता जी के  दुख को समाप्त किया।
इसी प्रकार उन्होंने रावण के दरबार में चतुराई पूर्वक वार्तालाप किया और पूरे लंका को जला डाला।
 चलते समय उन्होंने मां जानकी से कहा कि आप मुझे कुछ निशान दिजिए । उसे मैं श्री रघुनाथ जी को दिखा सकूं । यह उसी प्रकार होगा जिस प्रकार चलते समय श्रीरामचंद्र जी ने निशानी के रूप में अपनी अंगूठी दी थी ।
 मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा। जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा॥
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ॥
(रामचरितमानस / सुंदरकांड )
(हनुमान जी ने कहा-) हे माता! मुझे कोई चिह्न (पहचान) दीजिए, जैसे श्री रघुनाथ जी ने मुझे दिया था। 
हनुमान जी की यह मांग  रामचंद्र जी को विश्वास दिलाने के लिए अत्यंत उपयुक्त थी । तब सीता जी ने चूड़ामणि उतारकर दी। हनुमान जी ने उसको हर्षपूर्वक ले लिया ।।
इसके उपरांत हनुमान जी ने सीता जी को समझा कर धीरज दिया और चल दिए।
जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह।
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह॥
(रामचरितमानस / सुंदरकांड )
हनुमान जी ने जानकी जी को समझाकर बहुत प्रकार से धीरज दिया और उनके चरणकमलों में सिर नवाकर श्री राम जी के पास पहुंचने के लिए  चल दिए । 
ऐसे ही हनुमानजी की चतुराई के बहुत सारे उदाहरण हैं अगर हम सभी उदाहरण  बताने लगेंगे तो पूरी किताब सिर्फ इसी से भर जाएगी।
हनुमान जी राम जी के कार्यों को करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। "राम काज करबे को आतुर "।
इसप्रकार हनुमानजी में अनेक गुण है, इसलिए तुलसीदासजी ने उन्हे ‘विद्यावान गुनी अति चातुर’ कहा है, तथा आगे कहा है कि ‘राम काज करिबे को आतुर’ । हनुमानजी का संम्पूर्ण जीवन भगवान राम के कार्य के लिये समर्पित था। उनका दास्य भाव भी उत्कृष्ट है ।

तुलसीदासजी लिखते है कि हनुमानजी ज्ञानी  थे  तथा प्रभुकार्य के लिये हमेशा तत्पर रहते थे । हमको मानव जीवन मिला है, यह बहुत महत्वपूर्ण बात है । भगवानने हमें अनमोल  मनुष्य जन्म दिया है । सचमुच हम धन्य है, जो हमें मनुष्य जन्म मिला । मनुष्य जन्म मिलना यह तो बडे भाग्य की बात है ही लेकिन मनुष्य को कैसा जीवन जीना चाहिये यह समझना बहुत बडे ज्ञान की बात है ।

यदि हमे कोई वस्तु प्राप्त हो जाए लेकिन जब तक उस वस्तु की उपयोगिता का हमे ज्ञान न होगा तब तक वह वस्तु हमारे लिए उपयोगी न होगी । हमे अनमोल ऐसा मानव जन्म मिला लेकिन उसकी किमत हमे समझी क्या? उसका योग्य उपयोग हम कर रहे हैं क्या?

मानव जीवन ईश्वर की दी हुई अमूल्य भेंट है । मानव जीवन, प्रभु कृपा से और पूर्व जन्म के हमारे द्वारा किये हुए अनेक सत्कर्मों का परिणाम है । हमारे ऋषि मुनियों ने और साधु संतोने भी मानव जीवन को अमूल्य रत्न कहा है । ‘‘जन्तुना नर जन्म दुर्लभम्’’ इस श्लोक मे श्रीमद्आद्यशंकराचार्य ने भी मानव जीवन का महत्व समझाया है ।
मानवी जीवन व्यर्थ बिताने के लिये नही है । बुद्धि मिली है तो मै किसका हूँ? किसके लिये हुँ? मुझे कौनसा काम करना है ? इस सम्बंध मे पूर्ण विचार करके मनुष्य को काम करना चाहिये । मनुष्य से इस प्रकार की अपेक्षा है ।

हमको भगवानने बुद्धि दी है, शास्त्र दिये है, वेद, उपनिषद, गीता तथा रामायण जैसे ग्रंथ दिये है । उससे हमे मार्गदर्शन होता है । मानव जीवनका पूर्ण उपयोग करके उसकी दीपावली करनी चाहिये उसकी होली नही होने देनी है । मानव देह दुलर्भ है । यह मानव देह बार बार नहीं मिलती। इस जन्म में नहीं तो अगले जन्ममें करुँगा ऐसा विचार बिल्कुल नहींं चलेगा । अगले जन्ममें मनुष्य ही बनेंगे ऐसा कौन कह सकता है? मैने जो विकास (Development) किया होगा,। मानसिक विकास साध्य किया होगा । उसके अनुसार मुझे अगला जन्म मिलता है । यदि विकास ही साध्य नहीं किया होगा तो मानव जीवन कहाँ से मिलेगा? हमारे ऋषियोंने, संतोने जीवन जी कर दिखाया है ।
हनुमानजी के चरित्र पर जब हम चिन्तन करते हैं तो हमें यह दृष्टिगोचर होता है कि हनुमानजी तो प्रभु कार्य के लिए हमेशा तत्पर रहते थे । उसी प्रकार यदि हम हनुमानजी के भक्त हैं तथा हनुमानजी की तरह प्रभु के लाडले भक्त बनना है तो उनकी तरह हमें भी हमेशा प्रभु कार्य के लिये तत्पर रहना चाहिये ।

यहां पर आप आतुर शब्द पर विशेष ध्यान दें । आतुर का अर्थ होता है "व्यग्र " । जिसको बहुत जल्दी हो । जो दिनों का काम सेकंडो में करना चाहता हूं ।
वास्तविकता यह है कि काम करने वाले 4 तरह के होते हैं । पहले वे होते हैं जिनको अगर काम दिया जाए तो वे कोई न कोई बहाना बनाकर  काम को टाल देना चाहते हैं । मैं जब अपनी  नौकरी में था तो मेरे पास कुछ इस तरह के लोग थे ।  उनकी संख्या बहुत कम थी । इनको कोई काम बताने पर वे तत्काल कोई न कोई समस्या बता कर काम को टालने का प्रयास करते थे । ऐसे लोगों का मैं नाम बताना पसंद नहीं करूंगा। 
दूसरे तरह के लोग वे होते हैं जिनको अगर काम दे दिया जाए तो वे काम को कर देंगे । परंतु अगर उनको काम बताया न जाए तो कार्य लंबित होने की जानकारी होते हुए भी  वे काम को नहीं करते हैं । ऐसे लोग किसी भी संस्थान मे करीब-करीब 80% होते हैं। प्रबंधक को अपना संस्थान को ठीक से चलाने के लिए ऐसे लोगों पर हमेशा निगाह रखनी पड़ती है । जिससे कि इस तरह के लोग  सदैव उपयोगी हो सकें । अगर प्रबंधक ऐसे लोगों पर अपना निरंतर ध्यान नहीं रखेगा तो संस्थान की 80% कार्य शक्ति से वह कार्य नहीं ले पाएगा ।
तीसरे तरह के लोग ऐसे होते हैं जिनको अगर काम बता दिया जाए तो वह काम को तत्काल   प्रारंभ कर देते हैं । अगर उनको काम ना भी बताया जाए और उनको ज्ञात हो जाए कि उनके हिस्से का कार्य लंबित है तो मैं उसे तत्काल पूर्ण करने का प्रयास करते हैं । इसके लिए उनको किसी आदेश की आवश्यकता नहीं होती है।
चौथे तरह के लोगों को किसी प्रकार की आदेश की आवश्यकता नहीं होती है ।  वे सदैव इस बात का ध्यान रखते हैं कि उनके संगठन को किस कार्य से लाभ हो सकता है । अगर उनको किसी कार्य के बारे में पता चले जिससे संगठन को लाभ हो सकता है तो वह तुरंत उस कार्य को करने में जुट जाते हैं ।  वे चाहते हैं कि जल्दी से जल्दी कार्य समाप्त हो जाए । इनको किसी प्रकार के आदेश की आवश्यकता नहीं होती है । ऐसे लोग किसी भी संगठन में एक या दो ही होते हैं । ऐसे लोग संगठन की जान होते हैं । इनके अंदर संगठन के कार्य को जल्दी से जल्दी समाप्त करने की जागरूकता होती है ।   यह 24 घंटे 365 दिन संगठन के कार्यों के लिए लगे रहते हैं। हनुमान जी इस चौथे तरह के व्यक्ति थे । इनको इस बात की आतुरता रहती थी श्री रामचंद्र जी का कार्य कितनी जल्दी  समाप्त हो जाए । इसका एक उदाहरण सुंदरकांड के प्रारंभ में ही मिलता है ।  हनुमान जी आकाश मार्ग से समुद्र के ऊपर जा रहे थे ।  उस समय समुद्र ने उन्हें श्री रघुनाथ जी का दूत समझकर मैनाक पर्वत से कहा की है मैंनाक तुम अपने ऊपर हनुमान जी को विश्राम दो । परंतु हनुमान जी ने रामचंद्र जी के कार्यों को जल्दी करने के लिए इस आवेदन को अस्वीकार कर दिया । वे बोले कि रामचंद्र जी के काम किए बिना उन्हें विश्राम कैसे हो सकता है।
दोहा : हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम। राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम॥1॥ (रामचरितमानस/सुंदरकांड)
बाल्मीकि रामायण में भी यह घटना आई है सुंदरकांड के प्रथम सर्ग में  श्लोक क्रमांक 88 से 131 तक लगातार  पहले समुंद्र द्वारा  मैनाक पर्वत से और फिर मैनाक पर्वत द्वारा हनुमान जी से रुक कर विश्राम करने हेतु प्रार्थना की गई । समुद्र और मैनाक पर्वत ने  उनके विश्राम करने के लिए बहुत सारे तर्क दिए ।  हनुमान जी ने इन सभी तर्कों को  यह कह कर  समाप्त कर दिया कि जब तक रामचंद्र जी का काम नहीं होता है तब तक वह विश्राम नहीं कर सकते हैं।
त्वरते कार्यकालो मे अहश्चाप्यतिवर्तते।
प्रतिज्ञा च मया दत्ता न स्थातव्यमिहान्तरे।। (वाल्मीकि रामायण/सुंदरकांड/5.1.132।।)
मुझे काम करने की अत्यंत जल्दी है और मैंने यह प्रतिज्ञा की है कि इस कार्य को समाप्त किए बगैर मैं कहीं विश्राम नहीं करूंगा।
इतना कह कर के मैनाक पर्वत को प्रणाम करके हनुमान जी आगे बढ़ते हैं । 
इसी प्रकार जब हनुमान जी हिमालय पर्वत पर संजीवनी बूटी लाने के लिए पहुंचे तब वहां पर उन्हें ऐसा लगा की पूरा  द्रोणाचल पर्वत  ही संजीवनी बूटी जैसा प्रकाशमान है । तब वे पूरे द्रोणाचल पर्वत को उठाकर तत्काल चल दिए । उन्होंने संजीवनी बूटी को खोजने के लिए वहां पर एक क्षण भी बर्बाद नहीं किया ।

देखा सैल न औषध चीन्हा। सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा॥
गहि गिरि निसि नभ धावक भयऊ। अवधपुरी ऊपर कपि गयऊ॥
भावार्थ:- उन्होंने पर्वत को देखा, पर औषध न पहचान सके। तब हनुमान्‌जी ने एकदम से पर्वत को ही उखाड़ लिया। पर्वत लेकर हनुमान्‌जी रात ही में आकाश मार्ग से दौड़ चले और अयोध्यापुरी के ऊपर पहुँच गए॥

हनुमान जी ने संजीवनी बूटी को लाने में   अपने बल और बुद्धि का पूर्ण परिचय दिया । उनके  मार्ग में कालनेमि का कपट, औषधि का पहचान ना होना, भरत जी द्वारा बाण लगने पर घायल होना आदि बहुत सारे परेशानियां आंयीं । परंतु इन सभी के बावजूद उन्होंने समय से संजीवनी बूटी को श्री रामचंद्र जी के सेना में सुषेण वैद्य के पास पहुंचाया ।

शेष शनिवार/ मंगलवार को




जय मां शारदा।
 निवेदक:-
पण्डित अनिल कुमार पाण्डेय
सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता
प्रश्न कुंडली  और वास्तु शास्त्र विशेषज्ञ
साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया
 सागर। 470004
 मो  8959594400
Share:

0 comments:

एक टिप्पणी भेजें

Archive