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जनयोद्धा नाट्य समारोह के दौरान दूसरे दिन "महाबली छत्रसाल" नाटक का हुआ मंचन

जनयोद्धा नाट्य समारोह के दौरान दूसरे दिन "महाबली छत्रसाल" नाटक का हुआ मंचन


सागर। स्वराज संस्थान संचालनालय, संस्कृति विभाग, मप्र शासन द्वारा ‘रंग प्रयोग’ थिएटर ग्रुप एवं जिला प्रशासन के सहयोग से आयोजित तीन दिवसीय जनयोद्धा नाट्य समारोह के दूसरे दिन शंखनाद नाट्य मंच छतरपुर के कलाकारों द्वारा "महाबली छत्रसाल" नाटक की प्रस्तुति हुई।  जिसका निर्देशन शिवेंद्र शुक्ला ने किया है। महाबली छत्रसाल बुंदेलखंड के उस वीर सपूत की गाथा है जिसने कठिन परिस्थितियों से जूझते हुए अपना साम्राज्य स्थापित किया।छतरपुर (छत्रपुर)नगर उन्ही के नाम पर बसा है।उनके जीवन की खास बात यह है कि उन्होंने अपने जीवन मे 52 छोटे बड़े युद्ध लड़े और किसी मे पराजित नहीं हुए।प्राणनाथ और शिवाजी से मुलाकात ने उनका जीवन बदल दिया और यमुना से लेकर नर्मदा और चंबल से लेकर टोंस नदी तक अपना साम्राज्य स्थापित किया और मुगलों को बुंदेलखंड में पैर जमाने का मौका नहीं दिया। 

नाटक की शुरुआत छत्रसाल और मुगलों के बीच चल रहे संघर्ष से होती है, जिसमें छत्रसाल और मुगलों के बीच संघर्ष दिखाया गया है। इस संघर्ष में छत्रसाल की जीत होती है। उसके पश्चात बुंदेलखंड बुंदेली फोक मार्शल आर्ट शैली में छत्रसाल और डकैतों के बीच होने वाली लड़ाई को मंच पर जिस तरह से प्रस्तुत किया गया उसे देखकर ऐसा लगा जैसे इस संघर्ष में हम खुद शामिल हो। इसी दौरान शिवाजी और छत्रसाल की भेंट होती है और छत्रसाल की वीरता और साहस को देखकर शिवाजी अपनी भवानी तलवार छत्रसाल को देते हैं। जिसके बाद छत्रसाल अपनी सेना तैयार करते हैं। उनकी सेना की शुरुआत में मात्र 25 सैनिक एवं पांच घुड़सवार थे। फिराई खान से युद्ध करते हैं।  छत्रसाल के राज में हर गांव में एक छात्रसाली चबूतरा होता था। जिस पर न्याय होता था और न्याय करने वाले 7 लोग अलग-अलग जातियों से होते थे। इस नाट्य प्रस्तुति के माध्यम से उनके जीवनकाल में विभिन्न प्रसंगों को रोचक तरीके से प्रस्तुत करने का प्रयास बुंदेलखंड के कलाकारों द्वारा किया गया है। महाराजा छत्रसाल की वीरता और कूटनीति ने उन्हें प्रणामी संप्रदाय में भी स्थान दिया और प्रणामी संप्रदाय के 5 शीर्ष पुरुषों में उनका स्थान है।  इस नाटक की अवधि लगभग 1 घंटा की रही। उनकी अंतिम अवस्था में बंगस खां ने जब बुंदेलखंड पर आक्रमण किया तब उन्होंने पेशवा बाजीराव को पत्र लिखकर मदद मांगी और अपनी जिंदगी का अंतिम युद्ध भी जीता। 

इस प्रकार उन्होंने 52 युद्धों में विजय हासिल की। इस नाटक का लेखन शिवेंद्र शुक्ला एवं नीरज खरे ने किया है। इस नाटक में मंच पर अंकुर यादव, जितेंद्र विद्यार्थी , विकास चौबे, सीताराम अहिरवार, सर्वेश खरे, अंकित अग्रवाल, अनिल कुशवाहा, राजेश कुशवाहा, साक्षी द्विवेदी, अंजली शुक्ला, माधुरी कुशवाहा, राशि सिंह, शिल्पा रैकवार, रोशनी यादव, आदर्श सोनी, अभिदीप सुहाने, राजेश कुशवाहा, मानस गुप्ता, आकाश मिश्रा, प्रमोद साराश्वत थे। नाटक में संगीत संयोजन महेंद्र तिवारी,मिंटू ने किया। ढोलक पर अश्विनी दुबे एवं गायन में  खनिज देव सिंह चौहान के साथ कोरस प्रमोद सारस्वत, शिवेंद्र शुक्ला एवं रोशनी। प्रकाश व्यस्था अभिदीप सुहाने, रूप सज्जा रवि अहिरवार
ने की।

"अबुआ दिशुम...!" जननायक बिरसा मुंडा की हुंकार से गूंजा रवीन्द्र भवन

▪️ समीक्षा :डाॅ. शरद सिंह, नाट्य समीक्षक एवं वरिष्ठ साहित्यकार


नाटक का अंतिम दृश्य समाप्त होते ही हॉल में कुछ देर का सन्नाटा छा जाए और फिर अचानक समूचा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से भर जाए तो यह है नाटक की अपार सफलता का प्रत्यक्ष प्रमाण। इस बात का भी प्रमाण कि दर्शक अपनी दीर्घा में होते हुए भी मानसिक रूप से मंच पर पात्रों के साथ नाटक की घटनाओं और तत्कालीन समय के साथ एक-एक पल को जी रहे थे। यही है एक सफल नाट्य-मंचन। दर्शक जिसके साक्षी बने 21 दिसम्बर की शाम को, रवींद्र भवन में।

             जनयोद्धा नाट्य समारोह के त्रिदिवसीय नाट्य मंचन का आरम्भ हुआ जननायक बिरसा मुण्डा के जीवन पर आधारित नाटक ‘‘अबुआ दिशुम अबुआ राज बिरसा मुंडा’’ से। स्वराज संस्थान संचालनालय, संस्कृति विभाग, मप्र शासन द्वारा स्थानीय नाट्य संस्था ‘रंग प्रयोग’ एवं जिला प्रशासन के सहयोग से आयोजित इस नाट्य समारोह के प्रथम दिवस रंग प्रयोग संस्था ने सतीश दवे लिखित नाटक ‘‘अबुआ दिशुम अबुआ राज बिरसा मुंडा’’ राजकुमार रायकवार के निर्देशन में प्रस्तुत किया गया।

‘‘अबुआ दिशुम अबुआ राज’’ का अर्थ है हमारा देश हमारा राज्य। यह  नारा देने वाले लोकनायक बिरसा मुंडा ने आदिवासिओं के सम्मान, स्वाभिमान, स्वतंत्रता और जनजातीय संस्कृति को बचाने के लिए जो बलिदान दिया उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता है। आदिवासी जगत उन्हें अपना ‘‘भगवान’’ मानता है। बिरसा मुंडा ने मात्र 25 वर्ष का छोटा-सा जीवन जिया लेकिन अपने इस संक्षिप्त जीवन में वे साहस और शौर्य का परिचय दे कर देशभक्ति एवं वीरता का प्रतीक बन गए। उनका दाखिला अंग्रेजी स्कूल में हो चुका था वे चाहते तो इसाई धर्म में रहते हुए अंग्रेजी स्कूल में पढ़ कर एक सफल दिखने वाली जिंदगी पा सकते थे। लेकिन उन्होंने रास्ता चुना स्वराज का, जिसमें अनंत कठिनाइयां थीं। ईसाई धर्म के प्रचारक अपने प्रवचनों में मुंडा जनजाति के पुराने रीति-रिवाजों की आलोचना करते थे। यही बात बिरसा के कोमल मन को अखर गई और उन्होंने  उसी समय से अंग्रेजों को जवाब देने की ठान ली। उन्होंने आगे चलकर न सिर्फ अंग्रेजों से लोहा लिया, बल्कि महज 25 साल की जिंदगी में आदिवासियों के भगवान भी बन गए। उनके मन में जज़्बा था अपने लोगों का साथ देने का और अपनी संस्कृति को उपनिवेशी ताकतों से बचाने का । 


 मुंडा ने आदिवासियों को ब्रिटिश सरकार द्वारा ज़बरदस्त भूमि हड़पने के खिलाफ लड़ने के लिए ललकारा, जो आदिवासियों को बंधुआ मजदूरों में बदल देगा और उन पर गरीबी को खत्म करने के लिए दबाव डालेगा। 'धरती आबा' या पृथ्वी पिता के रूप में लोकप्रिय  बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को अपने धर्म का अध्ययन करने और अपनी सांस्कृतिक जड़ों को न भूलने की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने अपने लोगों को अपनी भूमि के मालिक होने और उन पर अपना अधिकार जताने के महत्व को महसूस करने के लिए प्रभावित किया। बिरसा आदिवासी समाज में सुधार करना चाहते थे और इसलिए, उन्होंने उनसे जादू-टोना में विश्वास करने का आग्रह किया और इसके बजाय, प्रार्थना के महत्व पर जोर दिया, शराब से दूर रहना, भगवान में विश्वास करना और एक आचार संहिता का पालन करना। बिरसा मुंडा एक युगांतकारी व्यक्तित्व थे, जिन्होंने आदिवासी जनजीवन के मसीहा के रूप में केवल 25 सालों में बिहार, झारखंड और ओडिशा में जननायक की पहचान बनाई। बंदूकों का मुक़ाबला तीरकमान से। यह अदम्य साहस ही तो था। अन्याय और उत्पीड़न से लड़ने के वीरतापूर्ण प्रयासों से भरी बिरसा मुण्डा की जीवनकथा उपनिवेशवाद के खिलाफ प्रतिरोध की एक मजबूत आवाज़ का प्रतिनिधित्व करती है। नाटक में दिखाया गया कि दिखाया गया कि कैसे ग्रामीण, किसान और आदिवासी जमींदारों के चंगुल में फंस जाते हैं। अंग्रेज भी जमींदारों का साथ देते हैं। बिरसा शोषित आदिवासियों के पक्ष में तो हुंकार भरते ही हैं साथ ही वे हैजा और चेचक की महामारी से जूझ रहे ग्रामीणों के इलाज में जुट जाते हैं। इसी दौरान सन् 1878 में जब जंगल कानून लागू होता है़ तो 'धरती आबा' अर्थात धरतीपालक बन कर बिरसा समाज की पीड़ा को देख आंदोलन छेड़ देते हैं। जिसमें उन्हें अपने प्राण की आहुति तक देनी पड़ती है।

       नाटक में बिरसा मुण्डा बने प्रयाग साहू ने जिस प्रकार जननायक के चरित्र को आत्मसात कर के अपने अभिनय द्वारा मंच पर प्रस्तुत किया, उसे देख कर समूची दर्शकदीर्घा रोमांचित हो गई। हर दर्शक का मन बिरसा की ललकार के साथ स्वर मिला कर अन्याय के विरुद्ध किसी नादस्वर की भांति प्रतिध्वनित होता प्रतीत हुआ। यह बेजोड़ अभिनय और कुशल निर्देशन का कमाल था। जहां तक नाटक के निर्देशक राजकुमार रायकवार के निर्देशन का प्रश्न है तो वे रूस, थाईलैंड, कोलंबिया, बांग्लादेश, सुरीनाम, वेनेजुएला, भूटान, सिंगापुर, पाकिस्तान आदि अनेक देशों में अपना हुनर दिखा चुके हैं। उन्हें एक लंबा नाट्य अनुभव है जिसका प्रभाव इस नाटक के मंचन के दौरान स्पष्ट दिखाई दिया।
सभी कलाकारों ने अपने-अपने हिस्से का अभिनय अपनी पूरी क्षमता के साथ प्रस्तुत किया। पूर्वी रायकवार ने तस्कीर और मास्टर साहब, विशाल चतुर्वेदी ने सूत्रधार और अंग्रेज अजय श्रीवास्तव अज्जू ने सूत्रधार और मामा का रोल निभाया। इनके अतिरिक्त अंबर अली, अरुण भट्ट, रेणुका वरमैया, गुंजन मालवीय, गायत्री निगम, प्रिंस बॉबी श्रीवास्तव, रविकांत वासनिक, महेंद्र शुक्रवारी, राज शर्मा, गिरीश भूतिया, उमंग चैधरी, अमन खान, प्रदीप मंदरे, अखिलेश पाटीदार, रितिक यादव, शिरीन, साहिबा, महक तथा सपना दुबे ने शानदार अभिनय करके आदिवासी संघर्ष की जो तस्वीर प्रस्तुत की दर्शकों पर गहरी छाप छोड़ने में सक्षम रही।

       विशाल चतुर्वेदी, मोहम्मद शहंशाह तथा अमन द्वारा खूबसूरत मंच व्यवस्था एवं मंच सज्जा की गई थी। कथानक के अनुरूप पात्रों की रूप-सज्जा सीमा मोरे ने की तथा वस्त्र विन्यास विशाल चतुर्वेदी और रेणुका का रहा।  पृष्ठभूमि और वेशभूषा ने प्रदर्शन में तत्कालीन संघर्षकाल के जीवन दशाओं को मंच पर जीवंत कर दिया, जिससे मुण्डा जनजाति के जीवन की झलक देखने को मिली।
     संगीत संयोजन अभिषेक दुबे का तथा गायन शिरीन, साहिबा, महक एवं साथियों का था। संगीत ध्वनियों के सटीक प्रयोग ने कलाकारों की भावप्रवणता को सलीके से रेखांकित किया। संगीत की भांति ही किसी भी नाटक में प्रभाव डालने का दायित्व प्रकाश संयोजक का होता है। तनवीर अहमद ने घटनाक्रम के अनुरूप लाईट, शैड, फेड इन, फेड आउट का प्रकाश संयोजन करके नाटक को अत्यंत प्रभावी बना दिया। कुलमिला कर कहा जाए तो नाटक ‘‘अबुआ दिशुम अबुआ राज बिरसा मुंडा’’ स्वराज की भावना एवं बिरसा मुण्डा के जीवन को प्रस्तुत करने में पूरी तरह सफल रहा। इस नाटक को दर्शक कभी भुला नहीं सकेंगे बल्कि इसे बार-बार देखना चाहेंगे।
     
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▪️ डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
नाट्य समीक्षक व वरिष्ठ साहित्यकार
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एडिटर: विनोद आर्य
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+91 94244 37885

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