हमारे नरेंद्र भाई की “ सदी पत्थरों की “ .....
▪️ मेरे अपने /ब्रजेश राजपूत
मेरे घर के कमरे में सोफे पर बैठ कर जब वो अपनी गजलों की किताब “ सदी पत्थरों की” को निहार रहे थे तो सारे जहां की अच्छाई उनके चेहरे पर आ गयी थी। अपनी कविताओं की किताब हो ये उनका लंबे समय से सपना था जो पैंसठ साल की उमर में अब उनके हाथों में साकार हो रहा था। वो उसे बार बार पलट कर देख रहे थे कभी आगे से तो कभी पीछे से। अंदर की गजलों की पंक्तियों में कहीं नुक्ते या फिर मात्राओं की गलतियों को भी उनकी नजरें जल्दी जल्दी तलाश रहीं थीं। किताब में जब वो प्रूफ की गलतियों पर नाराजगी दिखाते तो उनके बगल में बैठे उनके बचपन के दोस्त बालेंद परसाई कहते “अरे यार पहली किताब है ऐसा ही होता है। सोचो कितने लोगों की किताबें छपती हैं मेरी तो नहीं छपी ना खुशनसीब लोगो की किताबें ही छपती हैं अभी तो इसकी खुशी मनाओ और लो ये मिठाई खाओ” हां ये तो है यार मैं तो सपने ही देखता था कभी मेरी भी किताब छपेगी गजलों की क्योंकि गजलें तो मैं सोलह सत्रह साल की उमर से ही कह रहा हूं। किताबों की शक्ल में आज आ पायीं। यार साथी आज बहुत खुश हूं मैं अपनी इस किताब को पाकर।
ये हमारे नरेंद्र भाई यानिकी नरेंद्र मौर्य थे। जिनसे मेरा करीब बीस पच्चीस साल पुराना संबंध हैं। इतने सालों में मैंने उनको कभी इंच भर भी बदलते नहीं देखा वैसे ही निश्छल वैसे ही भले और वैसे ही जबरदस्त गजल कहने वाले। हम दिल्ली में अचानक मिले। वो पिपरिया से आये थे और मैं भोपाल की नईदुनिया में काम कर पहुंचा था। उनको और मुझे दोनों को एक घर की तलाश थी। मैं दैनिक जागरण में तो वो राष्ट्रीय सहारा के संपादकीय विभाग में नये नये आये थे। हम दोनों के दफतर नोएडा में थे। और हमें पटपड़गंज के आशीर्वाद अपार्टमेंट में एक डुप्लेक्स फ्लैट के उपर का एक कमरा और बालकनी किस्मत से मिली थी।
इसी अपार्टमेंट में तब पत्रकार अजीत अंजुम, गीताश्री, कुमार भवेश चंद्र, कुमार रंजन, संजय सलिल, अंबरीश कुमार भी रहते थे। हमारा फलेट नवभारत टाइम्स में काम करने वाले निर्मलेंंदु साहा के बडे फलेट का हिस्सा था। निर्मल दादा और नरेंद्र भाई इस दुनिया में भलाई की जीती जागती मूरत थे। दोनों की भलाई के तले मैं हमेशा दबा रहता था। मेरी और नरेंद्र भाई दोनों की नाइट डयूटी होती थी। लौटने के लिये नरेंद्र भाई ने अपने मित्र सुरोजीत सरकार की स्पोर्टस साइकिल ले रखी थी। हम अपना काम निपटाने के बाद आधी रात को इसी साइकिल से नोएडा यानिकी यूपी से दिल्ली की सीमा पार कर आते थे। नरेंद्र भाई की बतकही नोएडा से दिल्ली तक चलती रहती थी। बीच बीच में उनके ताजे बनाये शेर गजलें कविताएं सब मुझे सुनने पडते। वो देर तक जागते और फिर देर तक सोते थे।
नरेंद्र भाई के मित्रों की लिस्ट पिपरिया से लेकर दिल्ली तक बडी लंबी थी जिनमें दिल्ली के कवि लेखक और जनवादी आंदोलन से जुडे लोग थे। दरअसल नरेंद्र भाई को दिल्ली में जामिया से पीएचडी करनी थी अखबार की नौकरी तो एक बहाना थी। मगर वो अखबार में ऐसे रमे कि पीएचडी एक तरफ धरी रह गयी। रात की नौकरी से जब भी वक्त मिलता वो अपनी डायरियों में गजलें लिखते जिनके विषय चाहत मोहब्बत से अलग मजदूर संघर्ष और गरीबी होती थी। बीच बीच में जब उनको पिपरिया में रह रहे घर परिवार की याद आती तो अकेलेपन और इश्क पर ऐसा लिखते कि मैं हैरान कि इस आदमी की कितनी विशाल रेंज है।
बाद में नरेंद्र भाई का परिवार दिल्ली आ गया और मुझे दूसरा ठिकाना तलाशना पडा। फिर भी नरेंद्र भाई से मेरा संपर्क बना रहा। उनके मेरे बीच उम्र के लंबे फासले के बाद भी मैं उनके लिये फिल्म थोडा सा रूमानी हो जायें का केरेक्टर “बारिशकर” था जिसे वो अपने शेर कविताएं और जिंदगी के दुख दर्द सुनाकर हल्का महसूस करते थे।
जैसा कि गुलजार ने लिखा है वक्त रहता नहीं टिक कर इसकी आदत भी आदमी सी है। वक्त गुजरा मैं दिल्ली से भोपाल आ गया और नरेंद्र भाई की जिंदगी में दुख दर्द वक्त बेवक्त आते रहे। दूसरों के दुख में दुखी हो जाने वाले नरेंद्र भाई अपने दुख की बातें कम बताते हैं मगर लिखते लगातार हैं। उनकी गजलों की इस पहली किताब से उनको कम उनके हम चाहने वालों को ज्यादा प्रसन्नता महसूस हो रही है कि एक शायर की शायरी को आखिर किताब मिली।
पत्थरों की सदी नाम की ये किताब शिवना प्रकाशन से आयी है और अमेजन पर उपलब्ध है। ये किताब आपको निराश नहीं करेगी ये मेरा वायदा है। इसी किताब से चंद लाइन,,
“छुपाये ना छुपती खुशी पत्थरों की,
सुनाई पडे है हंसी पत्थरों की
हमें नाव देकर के अहले सियासत
दिखाते फिरे इक नदी पत्थरों की
दुखों से है निस्बत न कुछ आंसुओं से,
मिली है हमें इक सदी पत्थरों की॥ “
▪️ब्रजेश राजपूत,एबीपी न्यूज,भोपाल
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