गौर विवि : राष्ट्रीय कार्यशाला एवं शोध संगोष्ठी में दूसरे दिन हुए महत्त्वपूर्ण व्याख्यान
सागर. डॉ हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर एवं शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास, नई दिल्ली के संयुक्त तत्त्वावधान में चरित्र निर्माण एवं व्यक्तित्व के समग्र विकास पर पांच दिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला एवं शोध संगोष्ठी के द्वितीय दिवस का प्रथम सत्र चरित्र निर्माण गीत निर्माणों के पावन युग में हम चरित्र निर्माण न भूलें....... के साथ आरम्भ हुआ। इस सत्र के मुख्य वक्ता प्रो. बिहारी लाल शर्मा थे एवं कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ श्री अतुल भाई कोठारी जी ने की।
चरित्र निर्माण में सात्विक आहार एवं सत्य आचरण की महत्त्वपूर्ण भूमिका : प्रो बिहारी लाल शर्मा
प्रथम सत्र के मुख्य वक्ता लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय दिल्ली के प्रो. बिहारी लाल शर्मा रहे इस तकनीकी सत्र की अध्यक्षता श्री अतुल भाई कोठारी ने की ।इसके समन्वयक डॉ नौनिहाल गौतम रहे और प्रतिवेदक श्री गोविंद सिंह रहे ।
मुख्य वक्ता ने अपने वक्तव्य में पंचकोश की आध्यात्मिक दृष्टि पर बात की उन्होंने मानव के चरित्र निर्माण हेतु धर्म पर बल देने की बात की और साथ ही भारतीय शिक्षा में पाश्चात्य प्रभाव के कारण उत्पन्न दोषों को रेखांकित करते हुए भारतीय सनातन परंपरा के मुख्य बिंदुओं को भूल जाने की प्रवृत्ति की आलोचना की साथ ही 1835 ई. के पश्चात की आधुनिक शिक्षा नीति के नाम पर अपने आत्मगौरव को भुलाकर पश्चात्य चिंतन की ओर आकृष्ट होने के दुष्परिणामों को भी उन्होंने अपने चर्चा में शामिल किया। जो भारतीय जीवन दर्शन हेतु हानिकर साबित हुई ।
उन्होंने कहा की किसी भी उत्तम राष्ट्र का निर्माण वहाँ के उत्तम चरित्र वाले व्यक्तियों से होता है...परंतु आज हम साक्षर तो हो रहें हैं परंतु शिक्षित नहीं हो रहें हैं... यह अपने आत्मगौरव को भूलने का परिणाम है... उन्होंने मनुष्य के चरित्र निर्माण हेतु धर्म को आवश्यक बताया और मनु के द्वारा की गई धर्म की व्याख्या की चर्चा की जिसका अनुसरण करके व्यक्ति एक श्रेष्ठ इंसान बन सकता है... और इसका पालन संपूर्ण संसार हेतु उपयोगी साबित होगा । इसके अतिरिक्त पंचकोश का विकास होने से वाले व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के संबंध में बताया उन्होंने अत्यधिक व्यापक ढंग से पंचकोश विभिन्न पक्षों पर बात करते हुए वर्तमान में युवाओं व देश के नागरिकों में उनके चरित्र निर्माण हेतु इसकी आवश्यकता पर बात की। अध्यक्षीय वक्तव्य श्री भाई अतुल कोठारी ने दिया।
मन पर नियंत्रण जीवन में उचित मार्ग प्रशस्त करता है- प्रो. सलूजा
मुख्य वक्ता के रूप में द्वितीय तकनीकी सत्र में संस्कृत संवर्धन प्रतिष्ठान नई दिल्ली के प्रो. चाँद किरण सलूजा ने अपना वक्तव्य मनोमयकोश पर दिया. सत्र की अध्यक्षता प्रो. गणेश शंकर गिरी ने की. प्रो. सलूजा ने मनोमयकोश के संबंध में नई शिक्षा नीति के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की. उन्होंने मनोमयकोश के सैद्धांतिक और व्यवहारिक पक्षों पर चर्चा करते हुए कहा कि मन पर नियंत्रण के द्वारा हम अपने जीवन को उचित मार्ग की ओर अग्रसर कर सकते हैं। साथ ही इसके द्वारा व्यक्तित्व का समग्र विकास हो सकता है. व्यक्ति मन के उचित प्रयोग द्वारा अपने जीवन को नियंत्रित कर के सकारात्मक कार्यों को पूरा कर सकता है. उन्होंने गीता के विभिन्न श्लोकों और अर्जुन का उदाहरण भी दिया। सत्र संचालक डॉ. संजय यादव थे और प्रतिवेदक आकांक्षा नामदेव थीं.
तामसिक प्रवृत्ति चारित्रिक अवमूल्यन का बड़ा कारण- डॉ. मनोहर भंडारी
तृतीय सत्र में मुख्य वक्ता के रूप में इस तकनीकी सत्र में डॉ. मनोहर भंडारी, इंदौर ने अपना वक्तव्य दिया. डॉ. भंडारी ने कहा कि चिकित्सा शिक्षा में अवलोकन और मनोविज्ञान की शिक्षा आवश्यक है लेकिन हमारे देश का दुर्भाग्य है कि चिकित्सा शिक्षा में आज भी मनोविज्ञान की शिक्षा नही दी जाती है। यही कारण है कि मानव जीवन में पंचकोश अत्यंत महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि हम जब भी किसी जीव की हत्या करते हैं तो उससे कुछ तामसिक प्रवृत्ति के रस विसर्जित होते हैं। तामसिक प्रवृत्ति के ये रस उस मांस का सेवन करते हुए हमारे शरीर में आते हैं और यही कारण है कि मनुष्य में हम चारित्रिक अवमूल्यन देख रहे हैं। इसलिए हमें शाकाहार करना चाहिए। अन्नमय कोश से आनंदमय कोश तक की यात्रा को उन्होंने विस्तार से समझाते हुए उन्होंने कहा कि अन्नमय कोश हमें निरोग रखता है, प्राणमय कोश हमें साहस प्रदान करता है, मनोमय कोश बुद्धिमत्ता का कारक है, विज्ञानमय कोश उदारता देता है तथा आनंदमय कोश हमें संकट से ही मुक्त कर देता है। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे डॉ. अजय तिवारी ने कहा कि पंचकोश को हम सभी प्राध्यापको को अपने कक्षाओं में बच्चों तक लेकर जाना चाहिए।
लोकतांत्रिकता शिक्षा की सबसे बड़ी विशेषता: अतुलभाई कोठारी
चतुर्थ सत्र में मुख्य वक्ता डॉ अतुलभाई कोठारी ने आनंदमय कोश की अवधारणा को व्याख्यायित किया। अध्यक्षता विवि की कुलपति प्रो नीलिमा गुप्ता ने की। उन्होंने कहा कि आनंदमय कोश हमें समग्रता की ओर ले जाता है. पूरी पंचकोश की प्रक्रिया स्वयं को पहचानने की प्रक्रिया है. आम तौर पर इस पर चर्चा नहीं होती लेकिन यह अपने आप में एक विज्ञान है. उन्होंने कहा कि मनुष्य के भीतर इतनी क्षमता है कि वह हर समस्या का समाधान ढूंढ सकता है लेकिन कई बार वह अपनी इस क्षमता को नहीं पहचान पाता। इसलिये व्यक्ति को सबसे पहले स्वयं को पहचानने की आवश्यकता है। इसके लिए मन को एकाग्र करना पहला चरण है। यह प्रवृत्ति मनुष्य को स्वयं अपने भीतर लानी चाहिए। दबाव से मन में एकाग्र भाव नहीं आता। शिक्षा में लोकतांत्रिकता इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। उन्होंने कहा कि शिक्षा में अनुभव एवं प्रयोग की पद्धति को सम्मिलित करना चाहिए।
स्वयं की पहचान कर हम ज्यादा सफल व्यक्ति बनेंगे- कुलपति
अध्यक्षता करते हुए विवि की कुलपति प्रो नीलिमा गुप्ता ने कहा कि मन को व्यवस्थित रखने में और दैनिक चुनौतियां का सामना करने में ओमकार की ध्वनि सहायक होती है। श्वसन क्रिया को ठीक रखने में भी यह सहायक होता है। उन्होंने कहा कि जहां समस्या है, वहां समाधान भी होता है। हमे समाधान पर बात करनी चाहिए। जितने समय में हम दूसरों को पहचाने की कोशिश करते है, उतने समय में स्वयं को पहचाने उसमे ज्यादा सफल व्यक्ति बनेंगे। हम भारतीय संस्कृति से जुड़ें. शिक्षा के द्वारा भारतीयता और भारतीय संस्कृति को वापस लाने का प्रयास शिक्षा नीति द्वारा हो रही है। उन्होंने उदहारण देते हुए कहा कि आज कल हर अवसर पर केक काटना प्रचलन में है जो पाश्चात्य पद्धति है.
हमारी संस्कृति हमें जोड़ना सिखाती हैं, काटना नही। स्वयं चरित्रवान बनें तभी आप दूसरो को भी चरित्र के बारे में सिखा पाएंगे। कार्यक्रम का संचालन डॉ. शशि कुमार सिंह ने किया. कार्यक्रम में देश भर के कई राज्यों से आये प्रतिभागी, शोधार्थी, विद्यार्थी एवं शिक्षक उपस्थित रहे.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें