Navratri 2022: शारदीय नवरात्रि पर बन रहे हैं खास योग, जानें तिथि और मुहूर्त
धर्म:
नवरात्रि के हर दिन एक देवी की पूजा,आराधना और मंत्र जाप का विधान होता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार देवी दुर्गा में नवग्रहों का वास माना गया है। इसलिए नवरात्रि में मां दुर्गा की पूजा-आराधना करने के साथ ही नवग्रहों की शांति पूजा भी जरूरी होती है। ज्योतिष के अनुसार कुंडली में ग्रहों की स्थिति जातकों को शुभ अशुभ परिणाम प्रदान करती है। शारदीय नवरात्रि का आरंभ 26 सितंबर से हो रहा है और इसका समापन 5 अक्तूबर को होगा। नवरात्रि के इन नौ दिनों को धार्मिक दृष्टि से बेहद ही शुभ माना गया है। 9 दिनों तक मां दुर्गा के भक्त उपवास रखते हुए मां कीआराधना , पूजा-पाठ और मंत्रों का जाप करते हैं। ऐसी मान्यता है कि नवरात्रि के नौ दिनों तक शक्ति की विशेष पूजा करने से हर तरह की मनोकामना पूरी होती है और दुख-दर्द दूर हो जाते हैं। इस बार नवरात्रि पर कुछ विशेष योग बन रहे हैं। आइए जानते हैं शारदीय नवरात्रि की तिथि, शुभ योग और मुहूर्त।
नवरात्रि पर बनेंगे शुभ संयोग
शारदीय नवरात्रि 2022 की तिथि
प्रतिपदा तिथि की शुरूआत- 26 सितंबर 2022 को सुबह 03 बजकर 22 मिनट पर
प्रतिपदा तिथि का समापन- 27 सितंबर 2022 को सुबह 03 बजकर 09 मिनट पर
कलश स्थापना का शुभ मुहूर्त
26 सितंबर को देवी आराधना की पूजा और कलश स्थापना का शुभ मुहूर्त: प्रातः 06 :11 मिनट से प्रातः 07: 51 मिनट तक
अभिजीत मुहूर्त: 26 सितंबर, प्रातः 11: 49 मिनट से 12: 37 मिनट तक।
शारदीय नवरात्रि पर बनेगा शुभ योग
25 सितंबर को सर्वपितृ अमावस्या के बाद 26 सितंबर को शारदीय नवरात्रि आरंभ हो जाएगी। 26 सितंबर 2022 को कलश स्थापना के दिन बहुत ही शुभ मुहूर्त का संयोग बन रहा है। इस दिन दो शुभ योग बन रहे हैं पहला शुक्ल योग और दूसरा ब्रह्म योग। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार पूजा-पाठ और धार्मिक अनुष्ठान के लिए इन योग को बहुत शुभ माना जाता है।
Navratri 2022: आश्विन मास में शारदीय नवरात्रि का पर्व हर साल मनाया जाता है। नवरात्रि में मां दुर्गा के नौ स्वरूपों की अलग-अलग दिन पूजा का विधान है। इस बार शारदीय नवरात्र 26 सितंबर को शुरू होकर 5 अक्टूबर को समाप्त होगी। इस दौरान विधि-विधान से माता की पूजा से जीवन में सुख-समृद्धि और शक्ति का संचार होता है। नवरात्रि मुख्य रूप से साल में दो बार चैत्र और आश्विन मास में मनाई जाती है। शारदीय नवरात्रि हर वर्ष आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से शुरू होकर दशमी तिथि को माता दुर्गा की प्रतिमा विसर्जन के साथ समाप्त होती है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार देवी दुर्गा ने महिषासुर नामक राक्षस का वध करके आसुरी शक्तियों का सर्वनाश किया था। मां भवानी ने 9 दिनों तक युद्ध किया और दसवें दिन दैत्य का वध किया। वह समय आश्विन मास का था। अतः ये नौ दिन मां दुर्गा की पूजा-अर्चना के लिए समर्पित हैं। आइए जानते हैं मां दुर्गा के सभी स्वरूप, मंत्र, आरती और पूजन विधि सहित जरूरी बातें।
देवी दुर्गा के नौ रूप होते हैं। दुर्गाजी पहले स्वरूप में शैलपुत्री के नाम से जानी जाती हैं। ये नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं। पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम शैलपुत्री पड़ा। नवरात्रि में प्रथम दिन इन्हीं की उपासना की जाती है।
वृषभ स्थिता माता शैलपुत्री खड्ग, चक्र, गदा, धनुष, बाण, परिघ, शूल, भुशुण्डी, कपाल और शंख को धारण करने वाली, सम्पूर्ण आभूषणों से विभूषित, नीलमणि के समान कान्ति युक्त, दस मुख और दस चरणवाली हैं। इनके दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल पुष्प सुशोभित है। देवी शैलपुत्री शक्ति, दृढ़ता, आधार व स्थिरता का प्रतीक है। माता की उपासना जीवन में स्थिरता देती है।
मंत्र- ऊँ शं शैलपुत्री देव्यैः नमः।
ध्यान मंत्र- वन्दे वांच्छितलाभाय चंद्रार्धकृतशेखराम। वृषारूढ़ां शूलधरां शैलपुत्री यशस्विनीम्।।
आरती देवी शैलपुत्री
शैलपुत्री मां बैल असवार। करें देवता जय जयकार।
शिव शंकर की प्रिय भवानी। तेरी महिला किसी ने ना जानी।
पार्वती तू उमा कहलावे। जो मुझे सिमरे सो सुख पावे।
ऋद्धि-सिद्धि परवान करे तू। दया करो धनवान करे तू।
सोमवार को शिव संग प्यारी। आरती तेरी जिसने उतारी।
उसकी सगरी आस पूजा दो। सगरे दुख तकलीफ मिला दो।
घी का सुंदर दीप जला के। गोला गरी का भोग लगा के।
श्रद्धा भाव से मंत्र गाएं। प्रेम सहित फिर शीश झुकाएं।
जय गिरिराज किशोरी अंबे। शिव मुख चंद्र चकोरी अंबे।
मनोकामना पूर्ण कर दो। भक्त सदा सुख संपत्ति भर दो।
देवी ब्रह्मचारिणी
नवरात्रि के दूसरे दिन मां ब्रह्मचारिणी की आराधना की जाती है। भगवान शिव से विवाह हेतु प्रतिज्ञाबद्ध होने के कारण ये ब्रह्मचारिणी कहलाई। ब्रह्म का अर्थ है तपस्या और चारिणी यानी आचरण करने वाली। इस प्रकार ब्रह्मचारिणी का अर्थ- तप का आचरण करने वाली है।
स्वरूप
देवी ब्रह्मचारिणी के दाहिने हाथ में जप की माला है। बायें हाथ में कमंडल है। देवी ब्रह्म का स्वरूप हैं आर्थात तपस्या का मूर्तिमान रूप है। माता भगवती दुर्गा, शिवस्वरूपा, गणेशजननी, नारायणी, विष्णु माया और पूर्ण ब्रह्मस्वरूपिणी के नाम से प्रसिद्ध हैं। देवी ब्रह्मचारिणी की उपासना से मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार और संयम की वृद्धि होती है। माता की कृपा से सर्वत्रि सिद्धि और विजय की प्राप्ति होती है।
मंत्र- या देवी सर्वभूतेषु मां ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।
ध्यान मंत्र- दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलु। देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।
आरती देवी ब्रह्मचारिणी
जय अंबे ब्रह्मचारिणी माता। जय चतुराना प्रिय सुख दाता।।
ब्रह्मा जी के मन भाती हो। ज्ञान सभी को सिखलाती हो।।
ब्रह्म मंत्र है जाप तुम्हारा। जिसको जपे सरल संसारा।।
जय गायत्री वेद की माता। जो जन जिस दिन तुम्हें ध्याता।।
कमी कोई रहने ना पाए। उसकी विरति रहे ठिकाने।।
जो तेरी महिमा को जाने। रद्रक्ष की माला ले कर।।
जपे जो मंत्र श्रद्धा दे कर। आलस छोड़ करे गुणगाना।।
मां तुम उसको सुख पहुंचाना। ब्रह्मचारिणी तेरो नाम।।
पूर्ण करो सब मेरे काम। भक्त तेरे चरणों का पुजारी।।रखना लाज मेरी महतारी।
देवी चंद्रघंटा
मां दुर्गा की तीसरी शक्ति चंद्रघंटा है। इस देवी के मस्तक में घंटा के आकार का अर्द्धचंद्र है। इसलिए इनका नाम चंद्रघंटा है। इनके चण्ड भयंकर घंटे की ध्वनि से सभी दुष्ट दैत्य-दानव और राक्षसों के शरीर का नाश होता है।
स्वरूप
मां के शरीर का रंग स्वर्ण के समान चमकीला है। देवी के तीन नेत्र और दस हाथ हैं। इनके कर-कमल गदा, धनुष-बाण, खड्ग, त्रिशूल और अस्त्र-शस्त्र लिए, अग्नि जैसे वर्ण वाली ज्ञान से जगमगाने वाली और दीप्तिमती हैं। ये सिंह पर आरूढ़ हैं तथा युद्ध में लड़ने के लिए उन्मुख हैं। मां की कृपा से साधक के समस्त पाप और बाधाएं विनष्ट हो जाती है। देवी की कृपा से जातक पराक्रमी और निर्भयी हो जाता है।
मंत्र- या देवी सर्वभूतेषु मां चंद्रघंटा रूपेण संस्थिता।नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
ध्यान मंत्र- पिण्डजप्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकैर्युता। प्रसादं तनुते मद्मं चंद्रघण्टेति विश्रुता।।
आरती देवी चंद्रघंटा
जय मां चंद्रघंटा सुख धाम। पूर्ण कीजो मेरे काम।।
चंद्र समाज तू शीतल दाती। चंद्र तेज किरणों में समाती।।
क्रोध को शांत बनाने वाली। मीठे बोल सिखाने वाली।।
मन की मालक मन भाती हो। चंद्रघंटा तुम वर दाती हो।
सुंदर भाव को लाने वाली। हर संकट में बचाने वाली।।
हर बुधवार को तुझे ध्याये। श्रद्धा सहित तो विनय सुनाए।।
मूर्ति चंद्र आकार बनाए। शीश झुका कहे मन की बात
पूर्ण आस करो जगग दाता। कांचीपुर स्थान तुम्हारा।।
कर्नाटिका में मान तुम्हारा। नाम तेरा रटू महारानी।।
भक्त की रक्षा करो भवानी।
देवी कूष्मांडा
नवरात्रि-पूजन के चौथे दिन कूष्मांडा देवी के स्वरूप की ही उपासना की जाती है। त्रिविधि ताप युक्त संसार इनके उदर में स्थित हैं। इसलिए ये भवगती कूष्मांडा कहलाती है। ईषत् हंसने से अंड को अर्थात् ब्रह्माण्ड को जो पैदा करती है। वहीं शक्ति कूष्मांडा है। जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था, तब देवी ने ब्रह्मांड की रचना की थी।
स्वरूप
मां की आठ भुजाएं हैं। अतः ये अष्टभुजा देनवी के नाम से विख्यात हैं। इनके सात हाथों में क्रमशः कमंडल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा है। 8वें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जपमाला है। इनका वाहन सिंह है। मां कूष्मांडा की आराधना से जातक के समस्त रोग-शोक मिट जाते हैं। देवी आयु, यश, बल और अरोग्य देती हैं।
मंत्र- ऊँ कूष्माण्डायै नम:।।
ध्यान मंत्र- सुरासंपूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च। दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्मांडा शुभदास्तु मे।।
आरती देवी कूष्मांडा
कूष्मांडा जय जग सुखदानी। मुझ पर दया करो महानारी।।
पिंगला ज्वालामुखी निराली। शाकंबरी मां भोली भाली।।
लाखों नाम निराले तेरे। भक्त कई मतवाले तेरे।।
भीमा पर्वत पर है डेरा। स्वीकारो प्रणाम ये मेरा।।
सबकी सुनती हो जगदंबे। सुख पहुंचती हो मां अंबे।।
तेरे दर्शन का मैं प्यासा। पूर्ण कर दो मेरी आशा।।
मां के मन में ममता भारी। क्यों न सुनेगी अरज हमारी।।
तेरे दया पर किया है डेरा। दूर करो मां संकट मेरा।।
मेरे कारज पूरे कर दो। मेरे तुम भंडारे भर दो।।
तेरा दास तुझे ही ध्याए। भक्त तेरे दर शीश झुकाए।।
देवी स्कंदमाता
माता दुर्गा का स्वरूप स्कंद माता के रूप में नवरात्रि के पांचवें दिन पूजा की जाती है। शैलपुत्री ने ब्रह्मचारिणी बनकर तपस्या करने के बाद भगवान शिव से विवाह किया। तदनन्तर स्कन्द उनके पुत्र रूप में उत्पन्न हुए। ये भगवान स्कन्द कुमार कार्तिकेय के नाम से जाने जाते हैं। छान्दोग्य श्रुति के अनुसार मां होने से वे स्कन्द माता कहलाती हैं।
स्वरूप
स्कंदमाता की दाहिनी भुजा में कमल, बाई भुजा वरमुद्रा में है। इनकी तीन आंखें और चार भुजाएं हैं। वर्ण पूर्णतः शुभ्र कमलासन पर विराजित और सिंह इनका वाहन है। इसी कारण इन्हें पद्मासन देवी भी कहा जाता है। पुत्र स्कंद इनकी गोद में बैठे हैं। मां की उपासना से भक्त की समस्त इच्छाएं पूर्ण होती है। उसे परम शांति और सुख का अनुभव होता है। भक्त को अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति होती है। उसे ऐश्वर्य मिलता है।
मंत्र- ऊँ देवी स्कन्दमातायै नमः।।
ध्यान मंत्र- सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया। शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी।।
आरती देवी स्कंदमाता
जय तेरी हो स्कंद माता। पांचवां नाम तुम्हारा आता।।
सबसे मन की जानन हारी। जग जननी सबकी महतारी।।
तेरी जोत जलाता रहूं मैं। हरदम तुझे ध्याता रहूं मैं।।
कई नामों से तुझे पुकारा। मुझे एक है तेरा सहारा।।
कहीं पहाड़ों पर है डेरा। कई शहरों में तेरा बसेरा।।
हर मंदिर में तेरे नजारे। गुण गाएं तेरे भक्त प्यारे।।
भक्ति अपनी मुझे दिला दो। शक्ति मेरी बिगड़ी बना दो।।
इंद्र आदि देवता मिल सारे। करें पुकार तुम्हारे द्वारे।।
दुष्ट दैत्य जब चढ़ कर आए। तू ही खंडा हाथ उठाए।।
दासों को सदा बचाने आयी। भक्त की आस पुजाने आयी।।
देवी कात्यायनी
मां दुर्गा के छठे रूप को मां कात्यायनी के नाम से पूजा जाता है। महर्षि कात्यायन की कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर उनकी इच्छानुसार उनके यहां पुत्री के रूप में पैदा हुई थीं। महर्षि कात्यायन ने इनका पालन-पोषण किया। इसलिए इनको कात्यायनी कहा गया।
स्वरूप
मां कात्यायनी का स्वरूप अत्यन्त दिव्य और स्वर्ण के समान चमकीला है। ये अपनी प्रिय सवारी सिंह पर विराजमान रहती हैं। इनकी चार भुजायें भक्तों को वरदान देती हैं। इनका एक हाथ अभय मुद्रा में है, तो दूसरा हाथ वरदमुद्रा में है। अन्य हाथों में तलवार तथा कमल का फूल है। माता की भक्ति जातक को अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों फल प्रदान करती है। साधक अलौकिक, तेज और और प्रभाव से युक्त हो जाता है।
मंत्र- ऊँ देवी कात्यायन्यै नम:।।
ध्यान मंत्र- चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना। कात्यायनी शुभं दद्याद् देवी दानवघातिनी।।
आरती देवी कात्यायनी
जय जय अंबे जय कात्यायनी। जय जगमाता जग की महारानी।।
बैजनाथ स्थान तुम्हारी। वहां वरदानी नाम पुकारा।।
कई नाम है कई धाम हैं। यह स्थान भी तो सुखधाम है।।
हर मंदिर में जोत तुम्हारी। कही योगेश्वरी महिमा न्यारी।।
हर जगह उत्सव होते रहते। हर मंदिर में भक्त हैं कहते।।
कात्यायनी रक्षक काया की। ग्रंथि काटे मोह माया की।।
झूठे मोह से छुड़ानेवाली। अपना नाम जपनेवाली।।
बृहस्पतिवार को पूजा करियो। ध्यान कात्यायनी का धरियो।।
हर संकट को दूर करेगी। भंडारे भरपूर करेगी।।
जो भी मां को भक्त पुकारे। कात्यायनी सब कष्ट निवारे।।
देवी कालरात्रि
दूर्गापूजा के सातवें दिन मां कालरात्रि की उपासना का विधान है। सम्पूर्ण प्राणियों की पीड़ा हरने वाली, अग्नि भय, जल भय, जन्तु भय, रात्रि भय दूर करने वाली, काम, क्रोध और शत्रुओं का नाश करने वाली, काल की भी रात्रि विनाशिका होने से देवी का नाम कालरात्रि पड़ा।
स्वरूप
माता के शरीर का रंग काला, बाल बिखरे हुए, गले में मुंड माला, तीन नेत्र और गदहा है। दाहिना हाथ वरमुद्रा में, दूसरा हाथ अभयमुद्रा में है। बाईं हाथ में लोहे का कांटा और नीचे वाले हाथ में कटार है। इनकी पूजा करने से सभी पापों से मुक्ति, दुश्मनों का नाश और तेज बढ़ता है। मां अपने भक्तों को सभी प्रकार के कष्टों और भय के मुक्त करती है।
आरती देवी कालरात्रि
कालरात्रि जय जय महाकाली। काल के मुह से बचाने वाली।।
दुष्ट संघारक नाम तुम्हारा। महाचंडी तेरा अवतारा।।
पृथ्वी और आकाश पे सारा। महाकाली है तेरा पसारा।।
खडग खप्पर रखने वाली। दुष्टों का लहू चखने वाली।।
कलकत्ता स्थान तुम्हारा। सब जगह देखूं तेरा नजारा।।
सभी देवता सब नर-नारी। गावें स्तुति सभी तुम्हारी।।
रक्तदंता और अन्नपूर्णा। कृपा करे तो कोई भी दुख ना।।
ना कोई चिंता रहे बीमारी। ना कोई गम ना संकट भारी।।
उस पर कभी कष्ट ना आवें। महाकाली मां जिसे बचावे।।
तू भी भक्त प्रेम से कहा। कालरात्रि मां तेरी जय।।
देवी महागौरी
मां दुर्गाजी की आठवीं शक्ति का नाम महागौरी है। हिमालय में तपस्या करते समय गौरी का शरीर धूल-मिट्ठी से ढंककर मलिन हो गया था। जिसे शिवजी ने गंगा जल से मलकर धोया। तब गौरवर्ण प्राप्त हुआ था।
स्वरूप
देवी महागौरी के वस्त्र एवं आभूषण श्वेत हैं। इनकी चार भुजाएं और वाहन वृषभ है। दाहिना हाथ अभय मुद्रा और दूसरे हाथ में त्रिशूल है। बाएं हाथ में डमरू और नीचे का बायां हाथ वर-मुद्रा में है। ये सुवासिनी, शांतमूर्ति और शांत मुद्रा हैं। मां की कृपा से अलौकिक सिद्धियों की प्राप्ति होती है। देवी महागौरी भक्तों का कष्ट दूर करती हैं।
मंत्र- सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि। सेव्यामाना सदा भूयात सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।।
ध्यान मंत्र- श्वेते वृषे समारूढ़ा श्वेताम्बरधरा शुचिः। महागौरी शुभं दद्मान्महादेवप्रमोददा।।
आरती देवी महागौरी
जय महागौरी जगत की माया। जया उमा भवानी जय महामाया।।
हरिद्वार कनखल के पासा। महागौरी तेरी वहां निवासा।।
चंद्रकली ओर ममता अंबे। जय शक्ति जय जय मां जगंदबे।।
भीमा देवी विमला माता। कौशिकी देवी जग विख्यता।।
हिमाचल के घर गौरी रूप तेरा। महाकाली दुर्गा है स्वरूप तेरा।।
सती हवन कुंड में था जलाया। उसी धुएं ने रूप काली बनाया।।
बना धर्म सिंह जो सवारी में आया। तो शंकर ने त्रिशूल अपना दिखाया।।
तभी मां ने महागौरी नाम पाया। शरण आनेवाले का संकट मिटाया।।
शनिवार को तेरी पूजा जो करता। मां बिगड़ा हुआ काम उसका सुधरता।।
भक्त बोलो तो सोच तुम क्या रहे हो। महागौरी मां तेरी हरदम की जय हो।।
देवी सिद्धिदात्री
मां दुर्गाजी की नौवीं शक्ति का नाम सिद्धिदात्री है। ये सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली हैं। ममता मोह से विरक्त होकर महर्षि मेधा के उपदेश से समाधि ने देवी की आराधना कर, ज्ञान प्राप्त कर मुक्ति प्राप्त की थी। सिद्धि अर्थात् मोक्ष को देने वाली होने से देवी का नाम सिद्धिदात्री पड़ा।
स्वरूप
मां सिद्धिदात्री की चार भुजाएं, वर्ण रक्त, वाहन सिंह है। कमलपुष्प पर आसीन, एक हाथ में कमल, दूसरे हाथ में चक्र, तीसरे हाथ में गदा और चौथे में शंख है। देवी प्रसन्न मुद्रा में है। इनकी आराधना से साधक को अणिमा, लधिमा, प्राकाम्य, महिमा, सर्वकामावसायिता, दूर श्रवण, सिद्धि आदि समस्त सिद्धियों नव निधियों की प्राप्ति होती है। इनकी पूजा से असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं।
मंत्र- ऊँ सिद्धिदात्र्यै नमः।।
ध्यान मंत्र- सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि। सेव्यमाना सदा भूयात् सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।।
आरती देवी सिद्धिदात्री
जय सिद्धिदात्री मां तू सिद्धि की दाता। तू भक्तों की रक्षक तू दासों की माता।।
तेरा नाम लेते ही मिलती है सिद्धि। तेरे नाम से मन की होती है शुद्धि।।
कठिन काम सिद्धि करती हो तुम। जभी हाथ सेवक के सिर धरती हो तुम।।
तेरी पूजा में तो ना कोई विधि है। तू जगदंबे दाती तू सर्व सिद्धि है।
रविवार को तेरा सुमिरन करे जो। तेरी मूर्ति को ही मन में धरे जो।।
तू सब काज उसके करती है पूरे। कभी काम उसके रहे ना अधूरे।।
तुम्हारी दया और तुम्हारी यह माया। रखे जिसके सिर पर मैया अपनी छाया।।
सर्व सिद्धि दाती वह है भाग्यशाली। जो है तेरा दर का ही अंबे सवाली।।
हिमाचल है पर्वत जहां वास तेरा। महा नंदा मंदिर में है वास तेरा।।
मुझे आसरा है तुम्हारा ही माता। भक्ति है सवाली तू जिसकी दाता।।
नवरात्रि पूजन सामग्री
रोली, मौली, केसर, सुपारी, चावल, जौ, पुष्प, इलायची, लौंग, पान, श्रृंगार-सामग्री, दूध, दही, शहद, गंगाजल, शक्कर, घी, जल, वस्त्र, आभूषण, बिल्वपत्र, यज्ञोपवतीत, सर्वौषधि, अखंड दीपक, पंचपल्लव, सप्तमृत्तिका, कलश, दूर्वा, चंद्रन, इत्र, चौकी, लाल वस्त्र, दुर्गाजी की प्रतिमा, सिंहासन, फल, धूप, नैवेद्य, मिट्टी, थाली, कटोरी, नारियल, दीपक, ताम्रकलश, रुई, कर्पूर, माचिस, दक्षिणा आदि।
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