ज्योतिष् एवं द्वारिका शारदा पीठाधीश्वर जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी श्री स्वरूपानंद सरस्वती जी महाराज का निधन


ज्योतिष्  एवं द्वारिका शारदा पीठाधीश्वर जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी श्री स्वरूपानंद सरस्वती जी महाराज का निधन

नरसिंहपुर। ज्योतिष् पीठाधीश्वर एवं द्वारिका शारदा पीठाधीश्वर जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी श्री स्वरूपानंद सरस्वती जी महाराज का  आज महाप्रयाण हो गया। उनकी 99 साल की आयु थी। परमहंसी गंगा आश्रम, झोतेश्वर जिला नरसिंहपुर में आज दोपहर 3.30 बजे अंतिम सांस ली। जगदगुरू पिछले कुछ समय से बीमार चल रहे थे। पिछले महीने 30 अगस्त को  उनका प्रक्तोत्सव और शताब्दी वर्ष मनाया गया था । उन्होंने आजादी की लड़ाई भी लड़ी। हिंदू धर्म की आस्था के बड़े केंद्र रहे है। राममंदिर के निर्माण की कानूनी लड़ाई भी लम्बे समय तक उन्होंने लडी थी।उनका कल सोमवार को 3.30 बजे अंतिम संस्कार होगा। आश्रम में ही समाधि दिलाई जाएगी।उनके निधन पर देश विदेश के धर्मगुरुओं, राजनेतिक और विभिन्न क्षेत्रों की हस्तियों ने शोक व्यक्त किया है। 

30 अगस्त को मनाया गया था शताब्दी वर्ष जन्म प्रवेशोत्सव


श्री स्वरूपानंद जी का 30 अगस्त को हरितालिका तीज पर उनका 99 वा प्रक्तोत्सव मनाया ज्ञात। इसके साथ ही शताब्दी वर्ष प्रवेशोत्सव का आयोजन भी। इसमें अनेक संत और हस्तियां शामिल हुई थी।

सिवनी में हुआ था जन्म

स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का जन्म २ सितम्बर १९२४ को मध्य प्रदेश राज्य के सिवनी जिले में जबलपुर के पास दिघोरी गांव में ब्राह्मण परिवार में पिता श्री धनपति उपाध्याय और मां श्रीमती गिरिजा देवी के यहां हुआ। माता-पिता ने इनका नाम पोथीराम उपाध्याय रखा। नौ वर्ष की उम्र में उन्होंने घर छोड़ कर धर्म यात्रायें प्रारम्भ कर दी थीं। इस दौरान वह काशी पहुंचे और यहां उन्होंने ब्रह्मलीन श्री स्वामी करपात्री महाराज वेद-वेदांग, शास्त्रों की शिक्षा ली। यह वह समय था जब भारत को अंग्रेजों से मुक्त करवाने की लड़ाई चल रही थी। जब १९४२ में अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा लगा तो वह भी स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े और १९ साल की उम्र में वह 'क्रांतिकारी साधु' के रूप में प्रसिद्ध हुए। 

▪️स्वामी जी के पदारोहण मस्तकभिषेक का ऐतिहासिक चित्र




इसी दौरान उन्होंने वाराणसी की जेल में नौ और मध्यप्रदेश की जेल में छह महीने की सजा भी काटी। वे करपात्री महाराज की राजनीतिक दल राम राज्य परिषद के अध्यक्ष भी थे। १९५० में वे दंडी संन्यासी बनाये गए और १९८१ में शंकराचार्य की उपाधि मिली। १९५० में शारदा पीठ शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती से दण्ड-सन्यास की दीक्षा ली और स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती नाम से जाने जाने लगे।

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