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कोरोना रिटर्न....पहले से ज्यादा दमदारी से.. ★ ब्रजेश राजपूत / ग्राउंड रिपोर्ट

कोरोना रिटर्न....पहले से ज्यादा दमदारी से..
 
★ ब्रजेश राजपूत / ग्राउंड रिपोर्ट 

कहते हैं इतिहास और परिस्थितियां अपने को दोहरातीं हैं और वो दोहराव हम देख रहे हैं बेहद करीब से। ऐसा लग रहा है कोई फिल्म फिर से देख रहे हैं इस बार स्लो मोशन में, ठीक वैसा ही नजारा सामने आ रहा है जैसा पिछले साल मार्च अप्रेल में था। वही कोरोना के बढते मरीज, वही डर, वही नाइट कफर्यू, सड़कों पर खडी वही पुलिस, वही संडे लाकडाउन, वैसा ही लंबा लाकडाउन लगने की हर वक्त बनती आशंका, सडकों से सायरन मारती पुलिस की गाडियां और तेज भागती निकलती एबुंलेंस की अकुलाहट,  बाजार में दुकानों के बाहर लगे वही गोले, मास्क लगाकर एक दूसरे से हटते बचते लोग, सामने वाले की छींक और खांसी से डरती जनता और इस सबसे अलग वही पुरानी सरकार जो इन अबूझ सी परिस्थितियों को समझने की कोशिश में अजीब फैसले लेने को विवश और बेबस। वो सरकार जो कोरोना के खात्मे की घोषणा ठीक से कर भी नहीं पायी थी कि कोरोना रिटर्न हो गया और इस बार ज्यादा तीव्रता और भयावहता से। राहत की बात बस यही है कि अभी पिछले सालों जितना मौतों का आंकडा नहीं आ रहा है जिसे देख रूह कांपे। 
दुनिया में चर्चित किताबें सैपियंस और होमो डेयस लिखने वाली इस्त्रायली लेखक और इतिहासकार प्रो युवाल नोआ हरारी ने लिखा था कि पुरानी सदियों में आबादी तीन कारणों से कम होती थी युद्ध, अकाल और महामारी और ये तीनों परिस्थितियां अब नये जमाने में बदल गयीं हैं। अब युद्व होते नहीं, अकाल की भुखमरी की जगह मोटापे से ज्यादा मरते हैं लोग अब और महामारी गुजरे जमाने की चीज हो गयी। मगर हरारी ने नहीं सोचा था कि 2016 में आयी उनकी किताब "होमो डेयस" में लिखी ये बातें चार साल बाद आकर कोरोना की महामारी गलत साबित कर देगी।  हालाँकि एक बडा फर्क ये दिखा है कि महामारी के आगे पहले मानवता जिस प्रकार बेबस हो जाती थी इस बार ऐसा नहीं रहा। पुरानी बात करें तो 1918 के स्पेनिश फलू ने सिर्फ हिदुस्तान की पांच फीसदी आबादी करीब डेढ करोड लोगों को मौत की नींद सुला दिया था। पुरी दुनिया में इस बीमारी ने पांच से दस करोड लोगों की जान ली थी मगर इन सौ सालों में हम बदले हैं, इस बार दिसंबर 2019 के अंत में महामारी की पहली आहट सुनायी दी तो एक महीने में ही 10 जनवरी 2020 को वैज्ञानिकों ने इसके जिम्मेदार वायरस की जीनोम संरचना तलाशकर आनलाइन प्लेटफार्म पर डाल दी और दुनिया के वैज्ञानिक लग गये वायरस का मुकाबला करने। साल भर के भीतर इस वाइरस की अनेक वैक्सीन बाजार में आ गयीं। 
महामारी से निपटने में वैज्ञानिकों ने तो अपना काम कर दिया है मगर फिर यहां पर हमेशा की तरह असफल रही हमारी आपकी लीडरशिप। जिसने इस बीमारी से लडने के लिये वैज्ञानिक और चिकित्सकीय उपाय नहीं बल्कि राजनीतिक हथकंडे अपनाये। अमरिका में हुयी कोविड से साढे पांच लाख मौतों के जिम्मेदार कोई और नहीं पूर्व राष्टपति डोनाल्ड ट्रम्प ही रहे। जिन्होंने पहले चाइनीज फलू कहकर इस जानलेवा बीमारी की हंसी उडायी फिर मास्क पहनने से इनकार किया उसके बाद लगातार लाकडाउन को टाला। चीन के हुक्मरानों ने भी यही किया बीमारी को तब तक छिपाया जब तक कि वो दुनिया में फैल नहीं गयी। हमारे देश में भी शुरूआती दौर में इसे बेहद हल्के से लिया गया। लाकडाउन करने और हवाई अडडों पर निगरानी करने या अंतरराष्टीय फलाइट रोकने में महीनों लगा दिये और बाद में जब बीमारी फैली तो उसे घरों में अंधेरा कर दिया जलाने और थालियां पीटकर भगाने की अजीब  इसी पीढियों पुरानी हरकतें दोहरायी गयीं। मगर बाद में सरकार जैसे नींद से जागी और वो सब किया जिसे करने को वर्ल्ड हैल्थ आर्गेनाइजेशन ने कहा। आज हमारा देश दुनिया को वैक्सीन देने वाले देशों में अग्रणी है। मगर जब तक हम वैक्सीन राष्ट्रवाद  की जय जयकार करते हमारी सरकार से फिर एक बडी चूक हो ही गयी। सरकार ने ये सोचा ही नहीं कि कोविड से निपटने में जो बडा तंत्र खडा किया था उसे सहेज कर रखें। सरकारों को ये सपने में भी गुमान नहीं था कि वैक्सीनेशन के आंकडों के साथ कोरोना के आंकडे फिर तेजी से बढेगे और इस बार दोगुनी रफतार और संक्रामक दर के साथ। महाराष्ट में सौ दिन में पैंतीस हजार नये केस सामने आये हैं वो भी लाकडाउन सरीखे इंतजाम करने के बाद भी। भोपाल और इंदौर में पिछले एक हफते में कोरोना के मरीज तेजी से दोगुने हुये हैं। तेजी से आ रहे मरीजों की संख्या बता रही है कि आने वाले दिन कितने भयावह होंगे क्योकि पिछले साल में कोरोना से निपटने में जो आपात तैयारियां की गयीं थी वो ध्वस्त हो गयीं हैं। निजी अस्पताल और बारात घरों में किये गये इलाज और क्वोरंटीन के इंतजाम करने वालों को ना तो पैसा दिया गया और ना सम्मान तो ऐसे में इस बार कौन मदद को आयेगा। आपात हालात से निपटने में जो केंद्र से पैसा मिला था वो प्रचार प्रसार और काढे में बहा दिया गया अब फिर सारे इंतजाम उसी राज्य सरकार को करना है जिसके पास जीएसटी के बाद कमाई के सीमित साधन बचे हैं। दुख ये है कि सरकारों के सख्ती बरतने का विरोध राजनीति करने वाले ही कर रहे हैं होलि नहीं मनाने देने के फैसले के खिलाफ एमपी में कांग्रेस नहीं बीजेपी के बडे नेता ही कर रहे हैं। आने वाले दिनों में हालात बिगडे तो इसके जिम्मेदार वैज्ञानिक नहीं बल्कि वो नेता रहेंगे जिन्होंने जनता को जोखिम में डालकर रैलियां और चुनाव करवाये और फिर सरकारी फैसलों का विरोध किया। 
और अंत में ...मानव जाति रोगाणुओं को रोक नहीं सकती ये सदियां की प्राकृतिक विकास प्रक्रिया है जो आने वाले सालों में जारी रहेगी। इससे लडने के लिये जरूरी है कि हम रोगाणुओं को रोकने की तैयारी रखें राजनीतिक ताकत के साथ। 

★ ब्रजेश राजपूत,  एबीपी न्यूज, भोपाल
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