महामारी तुम महाठगनी हम जानी.... ब्रजेश राजपूत/ सुबह सवेरे में ग्राउंड रिपोर्ट

महामारी तुम महाठगनी हम जानी....

 ब्रजेश राजपूत/ सुबह सवेरे में ग्राउंड रिपोर्ट 

हमें  खुद से सवाल पूछना होगा, केवल यही सवाल नहीं कि हम इस संकट से कैसे उबरेंगे, बल्कि यह सवाल भी कि इस तूफान के गुजर  जाने के बाद हम कैसी दुनिया में रहेंगे. तूफान गुजर जायेगा, जरूर गुजर जायेगा, हममें से ज्यादातर जिंदा बचेंगे लेकिन हम एक बदली हुयी दुनिया में रह रहे होंगे... ये महत्वपूर्ण बात कहने वाले शख्स हैं प्रो. युवाल नोहा हरारी,
प्रोफेसर हरारी इस्त्रायली इतिहास और दार्शनिक हैं तथा यरूसलम के हिब्रू विश्वविघालय में इतिहास पढाते हैं। सेपियन्स, होमो डेयस और टवेंटी फर्स्ट लेसन फार टवेंटी फर्स्ट सेंचुरी सरीखी तीन किताबें लिखकर दुनिया भर में चर्चित हो गये हैं। इस महामारी के दौर में  हरारी को इसलिये याद कर रहा हूं क्योंकि  हरारी ने अपनी किताब होमो डेयस की शुरूआत में ही कहते हैं कि अकाल, महामारी और युद्व सदियों से मानव सभ्यता के दुश्मन रहे हैं जिनकी चपेट मे आकर करोडों लोगों ने जान दी हैं। मगर अब हम उस दौर में आ गये हैं जब कम खाने की बजाये दुनिया में ज्यादा खाकर मरने वालों की संख्या ज्यादा है। कुपोपण से ज्यादा लोग मोटापे और उससे होने वाली बीमारी से मरते हैं। यहीं वो लिखते  हैं जिस युग में मानव जाति प्राकृतिक महामारियों के सामने असहाय हुआ करती थी वह युग शायद अब बीत गया है मगर संभव है उसकी याद आये। 

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हरारी की चर्चित किताब होमो डेयस ए ब्रीफ हिस्टी आफ टुमारो 2016 में आयी थी और उन्होंने भी कल्पना नहीं की होगी कि ठीक चार साल बाद हम फिर किसी वैश्विक महामारी से जूझ रहे होंगे। ऐसी महामारी जिसने कठोर चीन से लेकर उदार इटली और फ्रांस के बाद शक्तिशाली अमेरिका को भी बर्बादी के कगार पर खडा कर दिया। भारत की बात इसलिये नहीं करूंगा कि इन विकसित देशों के सामने हमारा देश तो अभी थाली चम्मच ही बजा रहा है। 
महामारियां हमेशा से सभ्यता की दुश्मन रहीं हैं। 1330 में पिस्सुओं से फैली यर्सीनिया पेस्टिस ने यूरेशिया के दस करोड से ज्यादा लोगों की जान ली थी तो 1918 मे स्पेनिश फलू ने एक साल से भी कम समय में पांच से दस करोड लोगों की जान ले ली। दुनिया की आबादी के एक तिहाई लोग इसके वाइरस की चपेट में आ गये। सैनिकों से फैली इस बीमारी ने भारत में डेढ करोड लोग मारे। इसके बाद 2002 में सार्स, 2005 में फलू, 2009 में स्वाइन फलू 2014 में इबोला और अब कोरोना। 

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कहने का मकसद ये कि कुछ सालों के अंतराल में ये महामारियां आती रहीं हैं और हमारी सभ्यता पर हमारे इतराने के अहंकार को चूर चूर कर चली जातीं हैंं। जब हम राप्टवाद के नशे में डूब रहे हैं तब ये छोटा सा वाइरस आकर बताता है कि कहां अपने को सीमाओं के दायर में बांट कर इतरा रहे हो। हम तो वैश्विक हैं ना चीन को छोडते हैं और ना अमेरिका को सबको नतमस्तक करके ही दम लेते हैं। भारत की कुनैन की गोली अमेरिका को चाहिये तो उनके बेहतर वैंटिलर की तकनीक भारत को चाहिये। इस सहयोग से ही जानलेवा वाइरस से लड सकते हैं। वरना ये वाइरस इतने दबे पांव आता है कि किसी को खबर ही नहीं होती। हम लाख कहें कि ये बीमारी इसने फैलायी या उसने फैलायी मगर ये वाइरस का यही खास गुण ही है कि पता ही नहीं चलता कि वाइरस लेकर घूमने वाला शख्स बीमार है। वो अंजाने में बीमारी बांटता है और संक्रमित लोगों की संख्या कई गुना बढाता जाता है। कोई धर्म और संप्रदाय किसी को बीमारी नहीं बांटते। दूसरा इस बीमारी से निपटने का तरीका भी बहुत अलग है जो लोगों को इस बीमारी को छिपाने को मजबूर करते हैं। बीमार शख्स को तो एकंतवास में भेजा ही जाता है फिर उसके परिवार और फिर उसका पडोस सभी के साथ ये क्रम दोहराया जाता है। हैरानी ये है कि कोरोना पाजिटिव आने पर भी मरीज की हालत बिगडे ये तय नहीं होता। और ऐसे में एकांतवास भुगतने वाला शख्स सिवाये वहां से भागने के विचार करने के सिवाय कुछ नहीं करता। इस बीमारी में होने वाली मौतें उन बुजुर्गों की ज्यादा हैं जो पहले से ही किसी बीमारी की चपेट में रहे और इस बीमारी ने उनकी बीमारी कई गुना बढाकर जानलेवा बना दी। 

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यहां  फिर हरारी याद आते हैं, इस महामारी को लेकर उन्होंने कुछ दिनों पहले फाइनेंसियल टाइम्स में लेख लिखा जिसमें कहा कि इस महामारी के दौर में हमें  चुनना है कि हम वैश्विक एकजुटता की तरफ जायेंगे या राप्टवादी अलगाव को चुनेंगे। यदि राप्टवादी अलगाव को चुनेेंगे तो ये संकट देर से टलेगा। लेकिन हम वैश्विक एकजुटता को चुनते हैं तो यह कोराना के खिलाफ हमारी बडी जीत तो होगी ही साथ ही हम भविप्य के संकटों से निबटने के लिये मजबूत होंगे जो 21 वीं सदी में धरती से मानव जाति का अस्तित्व ही मिटा सकते हैं। इसलिये जरूरी है कि कोरोना से तो कडाई से निपटे मगर रोगियों से उदारता से पेश आयें फिर वो चाहे किसी भी धर्म जाति या संप्रदाय के हों। इस महामारी से तो हम जीत जायेगे ही इस बात का गवाह इतिहास है मगर समाज में वैमनस्यता घर कर गयी तो देश का बंटवारा ही होता है इस बात की गवाही भी इतिहास ही देता है। 

देखिए ज्वलंत विषय 'महामारी के दौर में हरारी' पर परिचर्चा। इसमें डॉ युवाल नोआ हरारी की किताबों के हिंदी अनुवादक मदन सोनी के साथ होंगे। मंजुल पब्लिकेशन के   लेखक और वरिष्ठ पत्रकार बृजेश राजपूत।
आज 12 अप्रेल रविवार को 


ब्रजेश राजपूत, एबीपी न्यूज, भोपाल

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