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प्रेरक वृत्तांतः जिंदगी से सीखती जिंदगी -भूपेन्द्र गुप्ता 'अगम

प्रेरक वृत्तांतः जिंदगी से सीखती जिंदगी
-भूपेन्द्र गुप्ता 'अगम'
परसों सरकार से अनुमति लेकर वर्क फ्राम होम में लाकडाऊन अपनी भतीजी को लेने इंदौर गया ।सूने रास्ते जाते में जगह जगह पुलिस तो मिली लेकिन कही कोई पूछताछ नही.।
जैसे ही देवास पहुंचे सब्जी बाजार में भीड़ टूट पड़ी भीड़ ..देखकर पहले लगा क्या हो गया फिर सोचा फेक्टरियों में काम करने वाले मजदूरों की बस्ती है जब हाथ में पैसा आता है तब ही राशन भरते हैं ..हर चेहरे पर चिंता है ..जल्दी है ।आगे आधा किलोमीटर बढ़ने पर भीड़ खतम हो गई ।सन्नाटा फिर शुरू ..तभी गूगल मेप ने लोकेशन गाईड करनी शुरू कर दी आधा घंटे में उसे लेकर लौटे तो लौटने का रास्ता दुःख और तकलीफ उठाने वाली लंबी भीड़ का रास्ता बन गया।
सड़कों पर 20 से 25 साल के सैकड़ों नौजवान बच्चियां सर पर बोझा रखे ,नौजवान अपनी पीठ पर बैग लादे चले जा रहे हैं।
जिग्याशा वश मैने देवास रोड पर फ्लाई ओवर के नीचे सुस्ताते नौजवानों से चर्चा की।वे जबलपुर के आसपास रहने वाले बच्चे थे।मैंने पूछा कहां से आ रहे हो..बोले गुजरात से पैदल.. ये बच्चे अमूल दूध फेक्टरी में काम करते थे ।डेली वेजर टाईप के हैं।मैने पूछा आनंद ! गये कैसे थे बोले ट्रेन से तो पैदल क्यों लौट रहे हो..निश्वास छोड़कर बोला सब बंद है क्या करते..।
मैने पूछा खाना का क्या हुआ..कहां खाया ..बोला कहीं कहीं दयालुओं ने खिलाया कहीं भूखा भी रहना पड़ा ..कुछ दयालू ट्रक ड्राईवरों ने पच्चीस पचास किलोमीटर छोड़ दिया फिर पैदल..छः-सात सौ किलोमीटर चलते हुऐ  रास्ते भर किसी  सरकार ने मदद नहीं की ..जनता ने की है
भगवान ने की है ।चले क्यों आये वहीं रुकते अदित (एक लड़का ) बोला इतनी बड़ी मुसीबत है.पता नहीं घरवाले कैसे.हैं..उन्हें कैसे छोड़ दें उन्हीं के लिये तो गांव छोड़कर निकले थे।
मैं उनकी आंखों में देखता हूं.उन्हें अभी और पांच सौ किलोमीटर चलना है ।
मैने पूछा एक आदमी मेरे साथ चलेगा ? सबने मना कर दिया..दस-बीस के समूह में ही वे जाते हैं।यह सामूहिकता ही सामुदायिकता का संदेश है।गरीबी कितना ही हमलावर हो गरीब इस सामुदायिकता से समझौता नहीं करता।
भारत के इस आर्थिक पलायन में ही भारत की जिजीविशा छुपी है और असहायता भी कि किस तरह शासन के संसाधनों से मोटे होते थैलीशाह इन विषम परिस्थितियों में गायब हो जाते हैं और तिल तिलकर खटता हुआ मध्यम वर्ग किस तरह इन भूखे प्यासों पर अपने हिस्से से मदद के लिये उतर पड़ता है। 
जो पूंजीपति ,बाबा सरकार के समर्थन से दुनिया के बड़े सेठ बन गये हैं उनकी करुणा के हाथ कहीं दिखाई नहीं वे सिकुड़ गये हैं मगर समाज के असमर्थों के हाथ लंबे हो गये हैं। उनके दरवाजे नहीं खुलते..बस खिड़कियां खुलतीं हैं।फिर भी समाज नहीं हारता मानवता नहीं हारती वह चलती रहती है .तेज कदम अपनी आंखो में अपनों की चिंता से तरबतर।
हम दो घंटे में घर पहुंच गये फजल भाई ने नान स्टाप 500किलोमीटर गाड़ी चलाई,उनका शुक्रिया।पत्नी खुश हो गई कहीं रुके तो नहीं थे ,उतरे तो नहीं थे ..सुना है हवा में.भी आ गया है।कान भले पत्नी की चिंता साझा कर रहे हों मगर आंखों में वही अदित और उस जैसे वे बच्चे ही झूल रहे थे जो जिंदगी से जिंदगी सीखते अपनों तक पहुंचना चाहते हैं।
सरकार सुने.तो अच्छा वर्ना भगवान तो उनकी सुनेगा,,यही भरोसा तो उनकी आंखों में तैर रहा था।
-लेखक स्वतंत्र विश्लेषक हैं
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