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संस्कृति की वाहक है हमारी मातृभाषा: डाॅ.अवनीष भटनागर

संस्कृति की वाहक है हमारी मातृभाषा: डाॅ.अवनीष भटनागर
सागर।स्वामी विवेकानंद विष्वविद्यालय में ''मानव संस्कृति की अभिव्यक्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन है - मातृभाषा'' विषय पर हिन्दी विभाग द्वारा राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। दीपप्रज्ज्वलन के उपरांत स्वागत भाषण प्रबंध निर्देषक डाॅ.अनिल तिवारी द्वारा किया गया।  उन्होंने कहा की अंग्रेजी स्कूलों में मातृभाषा और संस्कृत के अध्यक्ष और अध्यापक को वरीयता नहीं मिलती। मातृभाषा की उपेक्षा से होने वाली सांस्कृतिक क्षति का अनुपात निरन्तर बढ़ता जाता है। समाज में किसी विचार या भाव को जगाने के लिए मातृभाषा सर्वाधिक प्रेरक माध्यम है। राजनेता, कथावाचक, समाजसुधारक तथा अध्यापक मातृभाषा की पे्ररक षक्ति को अच्छी तरह समझते हैं। स्वतंत्रता संग्राम में हिन्दी और भारतीय भाषाओं के माध्यम से जिस तरह राष्ट्रीय चेतना का स्फुरण हुआ, भारत का इतिहास इसे अच्छी तरह समझता है। संगोष्ठी का औचित्य डाॅ.एस.एस पाण्डेय के द्वारा दिया गया। व्याख्यान श्रृंखला में  सुनील देव ने कहा- हिन्दी वैज्ञानिक भाषा है सभी वर्णोें के उच्चारण करने में जीभ प्रत्येक उच्चारण के लिए सक्षम हो जाती है। मुझे मेरी भाषा पर गर्व होना चाहिए। भाषा छोटी नहीं होती। मनुष्य सामाजिक प्राणी है और भाषा एक सामाजिक क्रिया है। मेरी भाषा मेरे समाज को अच्छी तरह परिभाषित करती है और मेरा समाज मेरी भाषा में अपने विकास की राह पाता है। यह सामाजिक व्यवहार का आधारभूत सच है। मातृभाषा जन-भाषा है। पूरा समाज उसमें अपना हर्ष-षोक, आषा-आकांक्षाऐं, क्षमताऐं-सीमायें, रूचि-अरूचि अभिव्यक्त करता है। विद्या भारती के राष्ट्रीय सचिव श्री अवनीष भटनागर जी ने कहा- हृदय मन मस्तिष्क से जुड़ी भाषा है मातृभाषा। भूण अपने गर्भ काल में षुद्धि के उपरांत भाषा सुनने, सीखने लगता है। सीखने की प्रक्रिया जहाँ षुरू हो वही मातृभाषा है। भारत की सभी भाषा को संस्कृत का मातृत्व प्राप्त है। लोक व्यवहार की भाषा ही संस्कार है। ज्ञानार्जन बौद्धिक विकास का आवष्यक पक्ष है। यह सर्वसिद्ध तथ्य है कि मातृभाषा के माध्यम से ज्ञान का अर्जन जितनी सरलता से होता है, उतना अन्य भाषा के माध्यम से नहीं। मातृभाषा में समझाई गई बात विद्यार्थी षीघ्रता और सरलता से समझता है। जो समझता है उसे हृदयंगम कर लेता है। अन्य भाषा में सीखने की गति मंद होती है। उसमें छीजन की सम्भावना बनी रहती है। अध्यक्षीय उद्बोधन कुलाधिपति डाॅ.अजय तिवारी द्वारा दिया गया आपने कहा-परिवार में अपनी मातृभाषा बोलने का संकल्प लेना चाहिए जिससे हमारे अंदर आत्मियता बढ़ती है यह संवेदनषीन अभिव्यक्ति है हमें सभी भाषाओं का सम्मान करना चाहिए। क्योंकि यह हमारी संस्कृति की वाहक है। मातृभाषा हमें जीवन से जोड़ती है। मातृभाषा का प्रेम हमें अपनी भूमि से प्रेम करना सिखाता है मातृभाषा को अपनाकर ही हम 'भूमिपुत्र' बन सकते हैं। मातृभाषा में रचित राष्ट्रभक्ति के गीतों का अद्भुत प्रभाव होता है। हमारा भूगोल हमारी भाषा में, हमारा विज्ञान हमारी भाषा में हो तो हमें अपने देष के विकास के लिए आवष्यक प्रविधि के लिए दूसरों की ओर क्यों ताकना पड़े? आभार डाॅ.संगीता सुहाने के द्वारा दिया गया। और कहा- स्वस्थ्य सामाजिक सम्बन्धों के लिए जरूरी है सामाजिक समरसता, सामाजिक न्याय और सामाजिक समायोजन। मातृभाषा में रची-बसी कहावतें, मुहावरे, पहेलियाँ, कथाऐं, गीत, पुराण, महाकाव्य इस सम्बन्ध में हमारा मार्ग दर्षन करते हैं। समाज में रहकर क्या करें और क्या न करें, यह बोध हमारा साहित्य हमें सहज करा देता हैै। मंच संचालन डाॅ आषुतोष षर्मा ने किया। विष्वविद्यालय के डाॅ. राजेष दुबे, डाॅ. मनीष मिश्र, डाॅ के.एस. पित्रे, श्री आनंद जी, डाॅ.सचिन तिवारी, डाॅ.सुनीता दीक्षित, डाॅ.सुनीता जैन, आदि सभी प्राध्यापक एवं छात्र उपस्थित रहे। कल्याण मंत्र के साथ कार्यक्रम संम्पन्न हुआ।
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