चितिंत होने से अधिक चिंतित दिखने की कोशिश
@भूपेन्द्र गुप्ता
देश की चिंता करना और चिंतित दिखना दोनों में बहुत फर्क है ।वर्तमान में सरकार चिंतित दिखने की कोशिश कर रही है ,इसी तर्ज पर देश के नीति आयोग ने अर्थशास्त्रियों और विशेषज्ञों की एक बैठक बुलाकर निष्कर्ष विहीनता का परिचय दिया है ।आज राजकोषीय घाटे की समस्या केवल केंद्र की नहीं है राज्य भी इस भीषण संकट से गुजर रहे हैं लगभग सभी राज्य 3.4% की सीमा पर बैठे हुए हैं । तब क्या यह बेहतर नहीं होता कि इस बैठक में राज्यों के मुख्यमंत्री एवं उनकी वित्तीय व्यवस्था देखने वाली नौकरशाही को भी शामिल किया जाता इससे राज्यों की समस्याएं भी सामने आती और उनकी प्राथमिकताओं पर केंद्र का ध्यान भी आकर्षित होता किंतु इस बैठक से तो देश की वित्त मंत्री ही गायब थी तब ऐसी बैठकों से क्या निष्कर्ष निकल सकते हैं और देश को क्या दिशा मिल सकती है यह अपने आप में ही बड़ा सवाल है।
अंततः केंद्र सरकार ने नोटबंदी और हड़बड़ी में लागू किये गये जीएसटी से बिगड़ी अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए 6 साल बाद बजट पूर्व अर्थशास्त्रियों और विशेषज्ञों से सुझाव लेने का मन बनाया और एक बैठक आयोजित की । क्या यह ज्यादा समीचीन नहीं होता अगर सरकार इस बैठक में राजन,पनगड़िया या अरविंद सुब्रमन्यम को भी बुला लेती या कि निजी तौर पर ही सही पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह या अमर्त्य सेन जैसे महान अर्थशास्त्रियों से भी देशहित में राय ली जाती ।खैर जो सुझाव अर्थशास्त्रियों के सामने से आए हैं वह भी देश की चिंताजनक अर्थ व्यवस्था की तस्वीर ही पेश करते हैं ।एक दैनिक अखबार के अनुसार एक विशेषज्ञ ने यह सुझाव दिया है कि आर्थिक सुस्ती का दायरा इतना बड़ा है कि अब राजकोषीय घाटे की फिक्र किए बिना खर्च बढ़ाने चाहिए और इसकी योजनाएं बनानी चाहिए। एक अन्य अर्थशास्त्री ने यह सवाल उठाया कि राजकोषीय घाटे के बारे में वास्तविक आंकड़े सामने आने चाहिए। विश्वसनीय आंकड़े ही समाधान की ओर ले जा सकते हैं उन्होंने कहा कि संशोधित अनुमानों के मुताबिक 18-19 में राजकोषीय घाटा जीडीपी का 3.4% रहा है अगर बजट से हटकर ली गई उधारी को इसमें शामिल किया जाए तो यह 6 फ़ीसदी के आसपास आता है ।बैठक में हिस्सा लेने वाले ज्यादातर लोगों ने अर्थव्यवस्था की सुस्ती के परिमाण पर चिंता व्यक्त की है। यह भी बताया जाता है कि बैठक में 30-35 लोग शामिल थे एवं किसी भी अर्थशास्त्री या विशेषज्ञ को 2 मिनट से अधिक का समय सुझाव देने के लिए नहीं मिला। क्या भारत की अर्थव्यवस्था की कठिनाइयों को समझने के लिये 2 मिनट का समय काफी है ? यह सवाल सभी के चेहरों पर एक सन्नाटा छोड़कर चला गया है।ऐसा नहीं लगता कि सरकार अपनी कोई अर्थनीति बना पाई है ? हालांकि सरकार ने आश्वस्त किया है कि आगामी बजट से स्थितियों में बड़ा सुधार परिलक्षित होगा किंतु साथ ही एन आई पी की रिपोर्ट भी चिंता ही जाहिर करती है ।एक तरफ मोदी सरकार इस बात का ढिंढोरा पीट रही है कि निजीकरण से देश में प्रतिस्पर्धा का वातावरण सुधरेगा किंतु दूसरी तरफ आधारभूत संरचना में 2025 तक जिस 102 लाख करोड़ रुपए दिए जाने की बात की गई है उसमें 78% पैसा तो सार्वजनिक क्षेत्रों से ही खर्च किया जाएगा जबकि मात्र 22 फ़ीसदी धन ही निजी क्षेत्र लगायेगा। इसका अर्थ है कि भले ही सरकार ने योजना आयोग को भंग कर पंचवर्षीय योजनाओं या दीर्घकालीन योजनाओं से हाथ हटाने की कोशिश की और उसे निरर्थक सिद्ध किया हो किंतु उसी पंचवर्षीय योजनाओं पर लौटने के लिए चुप कदम उसने नेहरूवादी अर्थव्यवस्था को ही स्वीकार कर लिया है ।
कई क्षेत्र तो ऐसे हैं जिनमें निजी क्षेत्र का कोई निवेश ही नहीं है एटॉमिक एनर्जी ,रेलवे ,सिंचाई ,कृषि और नवकरणीय ऊर्जा योजनाएं ऐसे क्षेत्र हैं जहां पर निजी क्षेत्र का निवेश अत्यंत अल्प ही है किंतु सार्वजनिक धन से बनने वाली इन योजनाओं की आधारभूत संरचना को परिचालन के लिए निजी क्षेत्र को सौंपने का अर्थ है कि जोखिम तो सार्वजनिक निवेश के मत्थे जाएगा और लाभ निजी हाथों में सिमट जाएगा ।यह परिस्थिति और भी चिंताजनक तथा भयावह है। जब प्रधानमंत्री जी यह स्वीकारते हैं कि उनके 5 साल बर्बाद हो गए हैं ,तो इसकी भरपाई की कोशिशें भी तो दिखाई पड़नी चाहिये।अंततः ये पांच साल देश के भी तो बर्बाद हुये हैं ।
देश की पंचवर्षीय योजनाओं में सबसे महत्वपूर्ण चीज वित्त के अनुशासन की होती थी । यथा समय संसाधनों की उपलब्धता बनाई जाती थी किंतु एनआईपी (अधोसंरचना पाइपलाइन)में यह समझना बाकी है कि सार्वजनिक क्षेत्र और निजी क्षेत्र किस तरह उसकी जरूरत के संसाधनों की पूर्ति कर सकेंगे।
यह भी सामने आया है कि बैठक में सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र के निवेश, कर्ज के विस्तार ,सरकारी बैंकों के कामकाज में सुधार,एक्सपोर्ट में वृद्धि एवं कंजम्पशन बढ़ाने पर ध्यान देने का सुझाव दिया गया है। विशेषकर रोजगार सृजन की महत्ता पर सभी विशेषज्ञों ने अपनी राय जाहिर की है किंतु यह भी उतना ही सच है कि देश में चर्चा तो सार्वजनिक निवेश की हो रही है किंतु फैसले सार्वजनिक विनिवेश के लिए जा रहे हैं ।बीपीसीएल जैसी लाभदायी कंपनी के विनिवेश के बाद बीएचईएल,एम एम टी सी के विनिवेश की भी चर्चायें शुरु हो गईं हैं ,अब रास्ता कहां जाकर निकलेगा इसे तो अगला बजट ही बता पाएगा।फिलहाल दिखाने के लिये ही सही देश ने चिंतित होना तो शुरू कर ही दिया है।
(लेखक स्वतंत्र विश्लेषक एवं मध्यप्रदेश कांग्रेस विचार विभाग के अध्यक्ष हैं)
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