लो फिल्में भी अब बीजेपी कांग्रेस की हो गयीं

लो फिल्में भी अब बीजेपी कांग्रेस की हो गयीं

ब्रजेश राजपूत/सुबह सवेरे में ग्राउंड रिपोर्ट 
भोपाल की रंगमहल टाकीज पर सुबह दस बजे से ही भीड लगने लगी थी ये अलग बात है कि ये भीड सिनेमा देखने वाले दर्शकों की कम हम टीवी रिपोर्टर और उनके कहने पर आये बीजेपी कांग्रेस के नेताओं की ज्यादा थी, इस भीड को बढती देख न्यू मार्केेट में इधर उधर डयूटी बजा रहे पुलिस जवान भी टाकीज मंे आने लगे थे। दरअसल ये भीड बेवजह नहीं थी शुक्रवार का दिन था तो दो नयी फिल्में छपाक और तान्हाजी रिलीज हुयीं थी और संयोग देखिये कि ये दोनों फिल्में एक परिसर में मौजूद अगल बगल की टाकीज में लग रहीं थीं। छपाक फिल्म को लेकर माहौल तो उसी दिन बन गया था जब फिल्म की हीरोइन और प्रोडयूसर दीपिका पादुकोन जेएनयू के विरोध प्रदर्शन में जाकर शामिल हो गयीं थीं बस फिर क्या दीपिका की सारी काबिलियत प्रतिभा को परे रखकर उनको सरकार समर्थक टोल गेंग ने निशाने पर ले रखा था। उनके जेएनयू जाने को फिल्म का प्रचार समझा जा रहा था और अब दीपिका पर रोज नये नये अच्छे बुरे आरोप लग रहे थे मसलन दीपिका तब कहां थीं तब क्यों नहीं बोलीं उनको ये नहीं दिखा वो नहीं दिखा सरीखे उटपटांग सवाल खडे कर कीचड उछालने का खेल शुरू हो गया था मगर यदि दीपिका बीजेपी के कथित राप्टवादियों के निशाने पर थीं तो उनके पक्ष मंे कांग्रेस आ गयी थी। सबसे पहले तो हमारे एमपी में उनकी इस फिल्म को टैक्स फ्री किया गया उसके बाद दिग्विजय सिंह और कमलनाथ ने दीपिका का पक्ष लेकर उनकी सराहना की और फिल्म रिलीज के दिन कांग्रेस के छात्र संगठन एनएसयूआई ने फिल्म के मुफत टिकट बांटने का ऐलान कर दिया। अब कांग्रेस कार्यकर्ता छपाक के समर्थन में उतरे तो भला बीजेपी सदस्य क्यों पीछे रहते। छपाक  के साथ रिलीज हो रही छत्रपति शिवाजी के मराठा सरदार तान्हाजी की जिंदगी पर आधारित फिल्म राप्टवाद की परिभापा पर फिट बैठ रही थी। तो बीजेपी के नेताओं ने तान्हाजी के टिकट बांटने का फैसला कर लिया। इसके बाद का पूरा मजमा सेट था। रंगमहल टाकीज पर भगवा झंडा लहरा कर वंदे मातरम का जयघोप हो रहा था तो बगल की संगीत टाकीज पर तिरंगा झंडा लहरा कर भारत माता की जय के नारे लगाये जा रहे थे। बीजेपी की भीड की अगुआई पूर्व विधायक सुरेंद्र सिंह उर्फ मम्मा कर रहे थे तो कांग्रेस के लिये एनएसयूआई के विवेक त्रिपाठी अपने साथियों के साथ मोर्चा संभाले थे। इस नारेबाजी और हंगामे को कैश करने के लिये हम टीवी के पत्रकार तैयार खडे थे और हर घंटे होने वाले लाइव कवरेज के लिये कभी कांग्रेस तो कभी बीजेपी के नेताओं को पकड रहे थे। पुलिस ने बीजेपी कांग्रेस के किसी भी संभावित टकराव सेे बचने के लिये दोनों सिनेमाहाल के बीच में बैरिकेड लगा दिये थे मगर नारों का शोर तो दोनों तरफ आ रहा था।
उधर इस हंगामे से घबडाये हुये थे वो दर्शक जो सच में फिल्म देखने आये थे। यहीं पर मिली पत्रकारिता की छात्र अपूर्वा खंडेलवाल जो कहतीं थीं कि समझ नहीं आ रहा फिल्म का विरोध करने की कोई वजह नहीं है दोनों अच्छी फिल्में हैं और मैं दोनों देखना चाहती हूं ये कला संस्कृति और फिल्म पर पहरे नहीं लगाये जाने चाहिये ये देखा ये नहीं अरे हम अपनी पसंद का देखेंगे आप कौन होते हो बोलने वाले ये ना देखा ये देखो। अच्छा यदि दोनों फिल्में अच्छी हैं तो पहले कौन सी देखोगी मेरे इस सवाल पर थोडा सोचने के बाद वो बोली छपाक एक अच्छे विपय पर फिल्म बनी है महिलाओं की सुरक्षा पर ये ऐसा विपय है जिस पर कोई बात नहीं करता यदि दीपिका ने ये फिल्म बनायी है तो हिम्मत का काम है पहले वहीं देखूंगी मगर तान्हाजी भी छोडूगीं नहीं। वहीं पर तान्हाजी देखने आये दमन अहलूवालिया भी फिल्मों पर हो रहे इस बीजेपी कांग्रेस के शोरगुल से व्यथित दिखे। मुझसे फेसबुक से जुडे हैं मिलते ही खिल गये मगर चिंतित स्वर में बोले भाई देश कहां जा रहा है ये फिल्मों को भी बीजेपी कांग्रेस में बांट दिया और क्या क्या बंटते देखेगे हम अभी। क्या किसी की फिल्म इस लिये नहीं देखी जाये कि वो किसी के विरोध प्रदर्शन में शामिल हो गया। या कोई फिल्म इसलिये ही देखी जाये कि उसमें मुगलों का विरोध करने वाले योद्वा का जिक्र है। दरअसल दोनोें तस्वीरें ही ठीक नहीं हैं। फिल्म कला और संस्कृति पर यदि पहरे बिठाये जायेंगे तो फिर वही हाल होगा जो इन दिनों टीवी के डिबेट शो का होता है जिनको आवाज बंद कर देखा जाता है क्योंकि मालुम होता है वो इस पार्टी का है क्या बोलेगा और वो उस पार्टी का है वो ऐसा बोलेगा। रचनात्मकता और विचारों की आजादी खोती जा रही है। ऐसे में मुझे अपने प्रिय कवि नरेश सक्सेना की ये कविता बहुत याद आ रही है..
सुबह उठ कर देखा तो,
आकाश लाल पीला सिंदुरी और गेरूऐ रंग से रंग गया था,
मजा आ गया आकाश हिंदू हो गया है,
पडोसी ने चिल्लाकर कहा,
अभी तो और मजा आयेगा मैने कहा,
बारिश आने दीजिये सारी धरती मुसलमान हो जायेगी,
रंगों के आधार पर प्रकृति ओर विचारों के आधार पर फिल्मों को बांटने लगेंगे तो रचनात्मकता खत्म हो जायेगी ओर जिंदगी बेरंग इसलिये कहूँगा दोनौ फिल्में देखिये।

@ब्रजेश राजपूत,एबीपी न्यूज, भोपाल
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