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जामिया से जबलपुर तक ये कैसा दिसंबर ब्रजेश राजपूत /सुबह सवेरे में ग्राउंड रिपोर्ट

जामिया से जबलपुर तक ये कैसा दिसंबर

ब्रजेश राजपूत /सुबह सवेरे में ग्राउंड रिपोर्ट 

पत्रकारिता के दिनों के बीस साल सिर्फ टेलीविजन पत्रकारिता में गुजारने के बाद भी टीवी स्क्रीन पर पहले कभी ऐसा नजारा इतने दिनों तक लगातार नहीं देखा। जो भी चैनल चलाओ स्क्रीन पर अनेक विंडो में हिंसा ही दिख रही है। कही गाडियों में आग लगी है तो कहीं पुलिस लाठीचार्ज कर रही है कहीं पथराव कर भीड भाग रही है तो कहीं आंसू गैस के गोलेे छोडे जा रहे हैं। समाचार चैनलों की ऐसी जलती हुयी स्क्रीनें इतने दिनों मैंने पहले कभी देखी हो या नहीं पडता। मगर सबसे ज्यादा दिल दुखाने वाला दृश्य वो था जब बेंगलूरू में इंडिया आफटर गांधी जैसी चर्चित किताब लिखने वाले मशहूर इतिहासकार रामचंद्र गुहा को गांधी का पोस्टर हाथ में लेकर प्रदर्शन करते हुये पुलिस ने धकियाते हुये हिरासत में ले लिया। 
सच समझ नहीं आ रहा कि ये विरोध प्रदर्शन इतने हिंसक क्यों हो रहे हैं और यदि विरोध प्रदर्शन इस बडे पैमाने पर हो रहे हैं तो सरकार नागरिकता संशोधन कानून 2019 सीएए को लेकर नाराजगी और राप्टीय नागरिक रजिस्टर एनआरसी को लेकर जो आशंकाएं हैं उनको लेकर जनता को समझाने कोई क्यों नहीं आ रही। क्यों देश का एक बडा वर्ग वो भी अल्पसंख्यक इस आशंका में जी रहा है कि उसे अपने बाप दादा के देश में अपनी नागरिकता के लिये लडना पडेगा। 
भोपाल में विरोध प्रदर्शन तो हमने पहले भी देखे हैं मगर शुक्रवार को  इकबाल मैदान के सामने हुआ प्रदर्शन सबसे अलग था जहां पर नमाज पढने के बाद सैंक्रडों लोग बजाये अपने घर जाने के सडकों पर आ गये। उनमें से अधिकतर के हाथ में पंद्रह अगसत या छब्बीस जनवरी पर लहराने वाले प्लास्टिक के छोटे छोटे तिरंगे झंडे थे, वो नागरिकता कानून वापस लो के नारे तो लगा ही रहे थे हिंदू मुसलमान एकता के श्लोगन भी बुलंद कर रहे थे। मोती मसजिद चौराहे से लेकर कफर्यू माता के मंदिर तक पूरी गली खचाखच भरी थी। अधिकतर लोग काले कपडे पहने थे वो जोर जोर से तालियां बजा रहे थे और जेएनयू से चर्चित हुआ नारा लेके रहेंगे आजादी को गुंजायमान कर रहे थे। हजारों लोगों की इस भीड से थोडी दूर पर ही डरी सहमे प्रशासन के अधिकारी ख्रडे थे जो इस भीड के नेताओं से पहले भी कई दौर की बातचीत कर उनको शांतिपूर्वक प्रदर्शन करने की गुजारिश कर चुके थे। भीड के हर कोने पर पुलिस जवान लाठी बंदूकें लेकर मुस्तैद थे और मानकर ही चल रहे थे कि बस थोडी देर बाद ही उनको सडकों पर इन सबको खदेडने और भागती भीड के पत्थर खाने की नौबत कभी भी आ सकती है। इस बीच में भोपाल के कुछ इलाकों में मोबाईल का इंटरनेट बंद हो चूका था। 
उधर जबलपुर में पुलिस पर पथराव और उनमें कई पुलिस कर्मियां के घायल होने की खबरें वाटस एप पर आ ही चुकीं थीं। जिले के कलेकटर और एसएसपी सांस थाम कर मौके पर लगातार हो रही नारेबाजी ओर विरोध में होने वाले हुंकार को सुनकर सहम से रहे थे। हम मीडिया के कई साथी भी मौके पर पहुंचकर कैमरा उठाकर और माइक छिपाकर माहौल को देख रहे थे। सुबह घर से स्वेटर पहनकर निकले थे मगर यहंा पर माहौल की गर्मी में पसीने से छूट रहे थे। इस भीड में कुछ बुजुर्ग किनारे खडे हो दुआ पढ रहे थे तो हम कुछ ना होने की दुआ कर रहे थे। हमारा माइक देखकर कुछ उत्साही बोलने को उतावले थे जब हमने बात नहीं की तो ताना मारने लगे अरे आप तो खबर बनाने आये हो हमने कहा खबर ना बने ये देखने आये हैं। नो न्यूज इज गुड न्यूज होती है ये हमको पत्रकारिता की कक्षाओं में पढाया जाता है। मगर यहां किसी भी क्षण खबर बन सकती है। और जब खबर बनती है तो हम मीडिया वाले पुलिस और भीड दोनों के निशाने बनते हैं। इसलिये हवाईयां तो हमारे चेहरे पर भी उड रहीं थी कि ये विरोध शांति से निपट जाये। इस तनाव में ही कुछ युवा रैली की शक्ल में आंबेडकर और मोलाना अबूल कलाम आजाद के छोटे छोटे पोस्टर लेकर चले आ रहे थे। जिनमें से जब हमने बात की तो उनमें से अधिकतर ने यही कहा कि ये कानून संविधान की भावना के खिलाफ है हमारा कानून धर्म के आधार पर किसी को कोई रियायत नहीं देता मगर धर्म के आधार पर पहले नागरिकता और उसके बाद एनआरसी की आहट से ये सारे लोग बैचेन और नाराज थे। उधर मोबाइल पर लगातार महाराप्ट और यूपी के शहरों में हालात बिगडने की खबरेें आ रहीं थीं। एमपी को हम ाशांति का टापू कहते है मगर एक दिन पहले खंडवा और शुक्रवार को जबलपुर में हुये बवाल की खबरें बता रहीं थी कि होशियारी से काम नहीं लिया गया तो शांति का टापू मिनटों में अशांति का अडडा बन जायेगा। खैर कुछ घंटों के तनाव के बाद लोग अपने अपने घरों को लौटने लगे ओर हमने भी अपने साथियों सहित दफतर का रूख किया। मगर दफतर आकर जलती हुयी स्क्रीन को देखकर डर लगा। यूपी के अनेक शहरों में तो हिंसा की खबर थी ही दिल्ली में हमारे साथी वरूण के लाइव चैट में देखते ही देखते हिंसा हो उठी। दरियागंज में शाम के अंधेरे में कारों में लगी आग के डरावने विजुअल आने लगे। घर पहुंचते पहुंचते जबलपुर में कफर्यू लगने की खबर भी आ गयी। इन सारे विजुअल्स को देखकर यहीं लगा कि ऐसा कैसा कानून और उसका डर कि जामिया से लेकर जबलपुर तक विरोध हो रहा है। और उधर सरकार है कि अपनी जनता पर ही सख्ती पर उतारू हैं। होना ये चाहिये था कि इन विरोध करने वालों को समझाया जाता और उनके डर को दूर किया जाता। हम जानते हैं कि सदभाव बनाने में सालों लगते हैं बिगाडने का काम कुछ मिनिटों में ही हो जाता है। साल के आखिर में ये बवाल सुखद नहीं है। भोपाल की युवा कवियित्री श्रुति कुशवाहा की कविता की इन पंक्तियों में गहरा अर्थ छिपा है। 
कितना है बेजार दिसंबर, अबके कैसा यार दिसंबर। 
कोशिश हैं कि सब बंट जायें, उठने वाले सिर कट जायें, 
कहने वाले लब सिल जाएं, बढने वाले पग घट जायें, 
कितना है बदकार, दिसंबर अबके कैसा यार दिसंबर। 
ब्रजेश राजपूत, एबीपी न्यूज ,भोपाल
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