अध्यात्म एवं लोक-जीवन में अद्वैत पर हुआ विचार-विमर्श
अद्वैत वेदान्त पर आयोजित अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का द्वितीय दिवस
सागर । डाॅ. हरीसिंह गौर विष्वविद्यालय में चल रहे अंतर्राष्ट्रीय अद्वैत वेदान्त संगोष्ठी में दूसरे दिन विद्वानों, सन्तों और विचारकों ने आध्यात्मक और लोक-जीवन में अद्वैत सिद्धान्त की भूमिका और उसके महत्त्व को लेकर गहन चर्चा की। उन्होंने बताया कि भारत में वैदिक ज्ञान की जड़े बहुत गहरी हैं। वे जनमानस की चेतना में हैं और उसके रक्त में प्रवाहमान हैं। एक तरफ जहाँ विष्व की कई सभ्यताएँ नष्ट हो गईं वहीं भारत की ज्ञान परम्परा अक्षुण्ण रही।
मोक्ष केवल वेदान्त को समझने से ही सम्भव है: स्वामिनी विद्यानन्द सरस्वती जी
चतुर्थ तकनीकी सत्र: समकालीन आध्यात्मिक परम्परा में शंकर के अद्वैत वेदान्त का अंतरण विषय पर केन्द्रित था। सत्र की अध्यक्षता स्वामी अद्वेयानन्द सरस्वती ने की। मुख्य वक्ता के रूप में स्वामिनी विद्यानन्द सरस्वती, स्वामी हरीब्रह्मेन्द्रानन्द तीर्थ एवं स्वामी शुद्धिदानन्द जी रहे। स्वामिनी विद्यानन्द सरस्वती ने कहा कि षास्त्र आत्मज्ञान के प्रमाण हैं। उपनिषद् अद्वैत सिद्धान्त पर आधारित हैं। शास्त्रों से इस आत्मज्ञान को अर्जित करने के लिए गुरु आवष्यक है क्योंकि शास्त्र एक दर्पण की तरह है जिसमें हम अपना ही प्रतिबिम्ब देख पाते हैं। गुरु की दृष्टि सदा निरपेक्ष होती है। मोक्ष केवल वेदान्त को समझ पाने एवं आत्मसात कर पाने से ही सम्भव है।
स्वामी हरिब्रह्मेन्द्रानन्द तीर्थ ने अपने वक्तव्य में बताया कि आचार्य शंकर ने केरल में जन्म लेकर मध्यप्रदेष में आकर गुरु से दीक्षा ली और अपना सम्पूर्ण जीवन इस देष की संस्कृति के उद्धार में लगाया। संस्कृति की एकता को संरक्षित करने के लिए ही आचार्य शंकर ने पूरे देष का भ्रमण किया। आचार्य शंकर ने मठों के साथ-साथ मंदिरों की भी स्थापना की। बद्रीनाथ सबसे प्राचीन मंदिर है। यहाँ के मुख्य पुजारी को 'रावल' कहा जाता है। 'रावल' का चयन केरल राज्य के नम्बूदरी कुटुम्ब में से किया जाता है। पूजा व्यवस्था इस प्रकार है कि 'रावल' मंदिर के मुख्य पुजारी मात्र हैं। वे मंदिर परिसर में दक्षिणा नहीं ले सकते और न ही किसी से वार्तालाप कर सकते हैं। परिसर में पूजा एवं दक्षिणा का अधिकार स्थानीय पुजारियों को दिया गया। जिन मंदिरों में पूजा की व्यवस्था आचार्य शंकर द्वारा तय की गई वहाँ आज भी किसी प्रकार का कोई गतिरोध नहीं है।।
सभी दर्षन ब्रह्म को खोजने का मार्ग: स्वामी शुद्धिदानन्द जी
स्वामी शुद्धिदानन्द जी के वक्तव्य के मूल में अद्वैत वेदान्त का रामकृष्ण संघ से सम्बन्ध रहा। रामकृष्ण संघ रूपी शरीर की आत्मा सर्वसमन्वयात्मक अद्वैत वेदान्त है। इस अवसर पर स्वामी विवेकानन्द के षिकागो भाषण के एक सौ पच्चीस वर्ष पूर्ण होने का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि इस भाषण के माध्यम से ही अद्वैत का सिद्धान्त अखिल विष्व के समक्ष पहुँचा। 'गीता' के श्लोक 'यदा यदा हि धर्मस्य...' के सार को व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि सनातन परम्परा और समाज को अंधकार की गर्त में जाने पर ही आचार्य शंकर एवं स्वामी विवेकानन्द का अवतरण हुआ
स्वामी अद्वेयानन्द सरस्वती ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में अपने गुरु स्वामी चिन्मयानन्द जी के जीवन एवं संन्यास का वर्णन किया तथा उनके षिष्यों द्वारा चिन्मय मिषन की स्थापना का उल्लेख किया। अवतार की अवधारणा का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया कि सनातन परम्परा के निर्वाह में जो सन्त लगे हुए हैं वे नित्यावतार हैं। उन्होंने संदीपनी साधनालयों की स्थापना एवं उद्देष्यों पर प्रकाष डालते हुए कहा कि स्वामी चिन्मयानन्द जी का उद्देष्य आध्यात्म को सर्वजनों तक पहुँचाने का था न कि उसे संगृहित करने का। आधुनिक विषय एवं अनुषासनों को चिन्मया विद्यापीठ में भारतीय शास्त्रों से लिए गए ज्ञान से भी परिपूर्ण किया जा रहा है।
स्वामी हरिब्रह्मेन्द्रानन्द तीर्थ ने आचार्य शंकर के मंडन मिश्र के साथ हुए शास्त्रार्थ की घटना का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि इस षास्त्रार्थ में मंडन मिश्र की पत्नी निर्णायक थीं। इसमें शर्त यह थी कि जो भी शास्त्रार्थ में हारेगा वह जीतने वाले का षिष्य बन जायेगा। मंडन मिश्र की पत्नी को यह ज्ञात था कि उनके पति हार जाने पर घर छोड़कर चले जायेंगे। ।
पंचम तकनीकी सत्र: लोक एवं जनजातीय परम्परा में षंकर के अद्वैत वेदान्त का प्रतिबिम्ब पर केन्द्रित था। सत्र की अध्यक्षता स्वामी मुक्तानन्द पुरी ने की। वक्ता के रूप में डाॅ. कपिल तिवारी एवं श्री् मनोज श्रीवास्तव उपस्थित रहे।
लोकजीवन की चेतना के केन्द्र में है अद्वैत: डाॅ. कपिल तिवारी
भारतीय वाचिक परम्परा के अध्येता डाॅ. कपिल तिवारी ने अपने वक्तव्य में कहा कि भारत के लोकजीवन की चेतना के केन्द्र में अद्वैत है। अद्वैत ही उसका जीवन है। आम लोग अद्वैत को जानते नहीं बल्कि जीते हैं। जिस तरह से सूर्य का प्रकाष फैलता है वैसे ही वैदिक ज्ञान परम्परा के प्रकाष में भारत में जीवन दृष्टि विकसित हुई। भारत की दो ज्ञान परम्परायें श्रुति और श्रमण हैं। श्रुति ज्ञान परम्परा एक वैदिक उन्मेष है और आनंद-उत्सव से जुड़ी हुई है, जबकि श्रमण परम्परा दुख और अवसाद से संबंद्ध है। श्रमण परम्परा एषियाई देषों में तो खूब फली-फूली, परन्तु भारत में अपनी जड़ें नहीं फैला पाई। उन्होंने कहा कि श्रुति के षासन में ही ज्ञान के कई अनुषासन विकसित हुए जो वैदिक परम्परा का अनुगमन करते हैं। ऋषियों ने वैदिक ज्ञान को ही रसपूर्ण बनाकर 'रामायण' और 'महाभारत' जैसे लौकिक साहित्य की रचना की। उन्होंने लोकजीवन को परिभाषित करते हुए कहा कि लोक जीवन षटमात्रिकाओं: धरती, प्रकृति, स्त्री, नदी, गाय और भाषा का समन्वय है, लेेकिन आज ये ही सर्वाधिक प्रभावित हो रही हैं और इनके लोक-संबंधों में विकार पैदा किया जा रहा है।
आचार्य शंकर भारत का भविष्य: मनोज श्रीवास्तव
भारतीय प्रषासनिक सेवा के अधिकारी और भारतीय वाङ्मय के चिंतक मनोज श्रीवास्तव ने कहा कि आचार्य शंकर भारत का अतीत ही नहीं, भविष्य भी हैं। उन्होंने भारत के चारों कोनों को एक किया। भविष्य में उनका अद्वैत सिद्धान्त ही भारत को एकसूत्र में बांधेगा। उन्होंनेे कहा कि पष्चिम की दृष्टि में हमेषा लोक के प्रति तिरस्कार का भाव रहा है। हमारे यहाँ प्रकृति भी ईष्वरीय देन है। यहाँ लोक, द्वैत और गुरु के बीच द्वंद्व नहीं है। उनके बीच सत स्पंदन रहा है। अद्वैत के चलते ही आदिवासियों ने पेड़, पौधों को व्यक्तिषीलता दी। वस्तुनिष्ठ संसार से संबंध स्थापित किया। इस बात के प्रमाण हमारे लोकगीतों और लोक आख्यानों में मिलते हैं।
पश्चिमी विचारकों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि पष्चिम ने प्रकृति को 'कमोडिटी' माना गया। हमारे लोक जीवन में प्रकृति को पूजा गया और लोक ने उसके साथ संबंध स्थापित किया और समान का भाव पैदा किया। लोक आख्यानों मंे स्पष्ट रूप से यह बात देखने को मिलती है। हमारा लोक जीवन अद्वैत से ओतप्रोत रहा है। अद्वैत को उस लोकजीवन ने जिया है। लोक के पास अद्वैत अध्ययन से नहीं उसके अनुभव से आया है।
स्वामी मुक्तानन्द गिरी ने कहा कि भारत की संस्कृति में अद्वैत रचा बसा है और वन समाजों में भी इसके पदचिन्ह स्पष्ट नजर आते हैं। आदि शंकराचार्य ने वन समाजों में विषेष रूप से कार्य किया। जिसका उल्लेख हमें प्राप्त है। इस पर और शोध की आवष्यकता है।
इसके पूर्व रविवार षाम को आयोजित तृतीय तकनीकी सत्र षंकराचार्य के अद्वैत वेदान्त के पूर्व एवं पष्चात दार्षनिक विकास पर केन्द्रित था। इस सत्र की अध्यक्षता स्वामी अद्वेयानन्द सरस्वती ने की। मुख्य वक्ता के रूप में श्री श्याम मनोहर गोस्वामी, प्रो. वी. कुटुम्ब षास्त्री एवं डाॅ. मणि द्रविड़ शास्त्री उपस्थित रहे।
षंकराचार्य ने विभिन्न द्वैतों में खोजा अद्वैत: श्री गोस्वामी
श्री श्याम मनोहर गोस्वामी ने अपने वक्तव्य में कहा कि अद्वैतवाद एक अनूठा उत्सव है। उत्सवप्रिया वै जनः - मनुष्य उत्सव प्रिय होते हैं। भारत में उत्सवों की भरमार है। जहाँ द्वैत होता है वहाँ अद्वैत से उत्सव हो जाता है। उत्(आनन्दस्य) सवः(प्रसवः) सः उत्सवः- ऐसे ही जहाँ अद्वैत का उत्सव होता है वहाँ द्वैत के आनंद का प्रसव होता है। उन्होंने अद्वैत के महत्त्व पर चर्चा करते हुए कहा कि कस्मात विभेभि? आत्मा ने सोचा मैं किससे डरूँ, मेरे अतिरिक्त कोई है ही नहीं। किसी भी स्थिति में जब हमें अद्वैत की अनुभूति होती है, वहाँ भय समाप्त हो जाता है। षंकराचार्य ने विभिन्न द्वैतों में अद्वैत को खोजा यह भारतीय इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटना है। सर्वे वेदा यत्रैंक भवन्ति- जहाँ सारे वेद एक होते हैं, वह अद्वैत है। ज्ञानात्मक अद्वैत की स्थापना षंकराचार्य ने चारों दिषाओं में चार मठों की स्थापना कर की। जीव जो भी है उसका ब्रह्म के साथ अद्वैत है। सम्प्रदाय भले ही अलग-अलग हो और उनका एक-दूसरे के साथ संघर्ष हो परन्तु उनके देवता एक-दूसरे से प्रेम करते हैं।
लौकिक भ्रम को दूर करना ही दर्षन का कार्य: प्रो. कुटुम्ब शास्त्री
प्रो. कुटुम्ब षास्त्री ने कहा कि अद्वैत प्रतिपादन सरल है पर अद्वैत स्थापना कठिन। उपनिषदों का तात्पर्य ही अद्वैत है। षंकराचार्य ने शास्त्रीय अनेेक प्रमाणों के माध्यम से अद्वैत का प्रतिपादन किया। जैसे लोक में मृगमारिचिका भ्रम होता है वैसा ही भ्रम ब्रह्म, जीव, जगत, तत्व में भी होता है। इस भ्रम को दूर करना ही दर्षन का कार्य है तभी अद्वैत का प्रतिपादन होता है।
अद्वैत एक तत्व है: डाॅ. शास्त्री
डाॅ. मणि द्रविड़ षास्त्री ने अपने वक्तव्य में कहा कि कविः करोति काव्यानि अर्थं जानाति पण्डितः अर्थात कवि केवल काव्य करते हैं किन्तु उसका अर्थ विद्वान करते हैं। उन्होंने बताया कि शंकराचार्य के पूर्व भी अद्वैत का निरूपण था। शंकराचार्य लिखते हैं कि 'अस्य अनर्थहेतोः प्रहाणाय आत्मैकत्व विद्याप्रतिपत्तमे सर्वे वेदा आरभ्यन्ते'। इस वाक्य में आत्मैकत्व षब्द ही अद्वैत का निरूपण करता है। आत्मैकत्व अर्थात चैतन्य स्वरूप आत्मा एक है। उपनिषद इसलिए पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि उससे व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को जानने का प्रयास करता है। उन्होंने बताया कि शंकराचार्य ने स्वतन्त्र अद्वैत का उल्लेख नहीं किया अपने पदवाक्य प्रमाणज्ञ जो बताते आये हैं उनका प्रतिपादन कर रहे हैं। अद्वैत एक तत्व है। लोक की दृष्टि में जो एकता दर्षन करते हैं, जो व्यवहार के लिए उपयुक्त है वही अद्वैत है। आनन्दमय ब्रह्म का प्रतीक है। एक आत्मा है, वह ईष्वर का प्रतीक है, वह अनेकानेक जीवों में है। आनन्दमय को समझने वाला व्यक्ति ब्रह्म हो जाता है।
सांस्कृतिक संध्या: कार्यक्रम में सुप्रसिद्ध गायिका श्रीमती सुधा रघुरामन ने आचार्य शंकर के स्त्रोंतो का गायन किया। इस षास्त्रीय प्रस्तुति ने इस त्रिदिवसीय संगोष्ठी के प्रथम दिवस की गतिविधियों को एक ऊँचाई प्रदान की।
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