नानक की भक्ति विचारों की वही धारा है , उसे सागर से मिलन को कब तक रोक सकता पाकिस्तान..!
@होमेन्द्र देशमुख
"एक कहानी" से बात शुरू करता हूं -
नानक* एक यायावर संत थे उन्होंने आधे विश्व की यात्रा की होगी । तुलना की बात करें तो बुद्ध ने भी 40 साल यात्रा की लेकिन माना जाता है कि वो भारत मे बिहार के अलावा वर्तमान उप्र के कुछ हिस्सों तक ही प्रवास कर पाए ।
नानक तो मक्का-मदीना तक हो आए । प्रवास में एक रात वो किसी सूफी संत के गांव के बाहर बरगद के नीचे ठहरे ,उस संत ने नानक के स्वागत में दूध से लबालब भरा कटोरा भिजवाया । नानक ने उस कटोरे के दूध में पास में रखा एक फूल डाल दिया और वापस उसी सूफी संत को भिजवा दिया । नानक का यह जवाब ...?
क्या उस सूफी संत के प्रति तिरस्कार, अहंकार था या स्नेह और आदर पूर्वक जवाब..? यह मैं आपकोआगे बताऊंगा ...
सिख धर्म के संस्थापक बाबा गुरु नानक देव की 550वीं जयंती पर करतारपुर गलियारा खोला गया ,जो भारत के पंजाब में डेरा बाबा नानक गुरुद्वारे को पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में नारोवाल जिले के करतारपुर स्थित दरबार साहिब से जोड़ता है। यूं तो नानक सब के बन कर रहे । पर , क्यूंकि नानक के अंतिम समय का साक्षी यह भूमि आज पाकिस्तान में है और जब दोनों देशों के बीच तलवारे खिचीं हो तब वहां के सदर का यह कहना कि - ''आज हम केवल सीमा नहीं खोल रहे हैं बल्कि सिख समुदाय के लिए अपने दिलों को भी खोल रहे हैं।''
इमरान साहब ! बेशक , दरवाजा तो आपका है । पर इसे खोलना न खोलना अब आपके हाथ से भी दूर हो चुका था । कब तक अपने दम्भ के दरवाजे में नानक को कैद रख पाते । नानक का संदेश तो विश्व को विचार के सतत प्रवाह का सन्देश देता रहा है ,बिल्कुल उसी रावी के प्रवाह की तरह जो अपने उद्गम से लेकर सागर में समा जाने की यात्रा में दोनो देश की धरती पर समान अधिकार से घुसती-निकलती बहती है । क्या रोक सके तुम उस रावी के धार को सागर से मिल जाने को..! तो फिर कब तक रोक पाते उनके भक्तों को ..? बस एक नदी के दो किनारों का फासला ही तो है ,जिसके बीच नानक की धारा बह रही है । *संघर्ष* से कमजोर हो रहे दरवाजे पर लगे आपके झूठे दम्भ की कुंडी टूट रही है । तब यह आपका *आत्म-* *समर्पण* से ज्यादा कुछ नही है..!
जीवन के दो पहलू हैं संघर्ष और समर्पण । *मैं* या *अहं* का विस्तार होता है तो संघर्ष बनता है । और जब मैं खत्म होते जाता है तब समर्पण स्वतः दिखाई देने लगता है । संघर्ष मतलब मुझे तेरी इच्छा स्वीकार नही ,तेरा अस्तीत्व गौण ,मैं लेकर रहूंगा जो मैं चाहूं । मैं चाहे ये करूं मैं चाहूं वो करूं , मेरी मर्जी !
जब ऐसी सोच होगी तब आप अपनी मर्जी चलाने के लिए संघर्ष करेंगे । नानक की धरती पर रहकर भी परिश्रम के बजाय पाकिस्तान को संघर्ष में यकीन है । परिश्रम से स्वयं के उत्थान के बजाय संघर्ष में ही लगे रहे ।
घर की छत के सतह पर निश्चल भाव से एक गिलास पानी उड़ेल कर देखना , वह जलधारा सदैव ढलान की ओर मंद गति से बढ़ जाता है ।
कहा जाता है पानी अपना रास्ता आप ही बना लेता है ।
*नानक* की भक्ति विचारों की वही धारा है , उसे सागर से मिलन को कब तक रोक सकता पाकिस्तान..!
ये तो नियति अर्थात प्रकृति की व्यवस्था है ।
वह धारा आज सैलाब बन गया तब आप मुकाबले के बजाय उससे दूर रहने या समर्पण को पाकिस्तान कोई भी नाम दे ,फर्क क्या पड़ेगा ।
" ले चल जहां ले जाना हो मैं तो तेरे साथ रे..."
नानक ने गांव के सूफी मुखिया के भेजे दूध से लबालब भरे उस कटोरे में एक *फूल* डाल दिया ।
सोचिए ,जिस कटोरे में अब एक और बूंद दूध के लिए जगह नही बचा था उसमें नानक के हाथों डाला फूल कैसे ,बिना दूध गिराए ,जस का तस समा गया !
फूल का अपना कोई भार नही होता । प्रकृति ने फूल को ये सुंदर नियामत बक्शी है ,फूल उसी समर्पण का प्रतीक है । एक फूल को डालकर नानक ने उस सूफी संत को संदेश भिजवा दिया कि मैं तुम्हारे गांव में वही फूल बनकर ठहरा हूं ,मुझे आपसे क्या लेना ,आपका आभार !
मैं तो आपके गांव में इसी फूल की तरह मेहमान ,बिना भार के हूं । आपका बिना एक बूंद लिए मैं इस जग से निकल जाऊंगा ।
वह ,दूध से भरा कटोरा हमारे उसी अहंम यानि *संघर्ष का प्रतीक है और वह फूल हमारे जीवन के उसी समर्पण का ।
पाकिस्तान ने आज अपनी सीमा पर लगे लोहे का द्वार खोला है ।
*नानक* तो इस पार भी हैं उस पार भी ! पर जिस दिन तेरा दम्भ का दरवाजा खुलेगा उस *नानक* का तेरी धरती की सीमा में होना सफल हो जाएगा । उस दिन पाकिस्तान का आत्म-समर्पण नही बल्कि *समर्पण* होगा ।
नानक ने उस दिन दूध से भरे कटोरे में फूल डालकर लौटाने का कारण पूछने पर भी अपने शिष्य को नही बताया । जवाब में बस इतना कहा कि 'वह मुखिया एक सूफी संत हैं ,खुद समझ जाएंगे !
हरिद्वार में गंगा स्नान और मक्का में काबा के दर्शन कर आये नानक कहते हैं -
"तिथै लोअ लोअ आकार ।
जिव जिव हुकमु तिवै तिव कार ।"
दुनिया ही दुनिया , चेहरे ही चेहरे , उनकी अनेकानेक आकृतियां । इन अलग अलग जीवों को जब भी उस परमेश्वर से
जिस प्रकार का आदेश मिलता है , उन्हें वैसा हीं करना पड़ता है ।
कराने वाला वह है जो कहीं ऊपर बैठा है ।
आज बस इतना ही..!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें